आचार्य प्रशांत: अर्जुन पवार हैं यहाँ पर, पूछ रहे हैं सत्य की प्राप्ति के लिए क्या करना अनिवार्य है? तो मैं दो-चार चीज़ें बताए देता हूँ कि ये करना अनिवार्य है। उसके अलावा तुम जो करोगे वो अपनी मर्ज़ी से करोगे, है न? यही मंशा है तुम्हारी, कि मैं बता दूँ सत्य की प्राप्ति के लिए तुलसी के पौधेको पानी देना अनिवार्य है, पीपल पूजना अनिवार्य है, रोज़ सुबह नहाना अनिवार्य है। और तुम ये तीन काम कर लो और फिर कहो बाक़ी दिन तो मेरा। अनिवार्यताएँ सब पूरी करी, अब मौज़ है। सत्य की प्राप्ति के लिए अनिवार्य है कि सदा सत्य में जियो। पूछ रहे हो क्या करना अनिवार्य है। मैं कह रहा हूँ जो कुछ करो सत्य से पूछ कर करो, यही अनिवार्यता है। सत्य की प्राप्ति के लिए दो-चार सीमित काम नहीं करने होते। सत्य की प्राप्ति के लिए पूरा जीवन सत्य को सौंप देना होता है, यही प्राप्ति है।
ये थोड़े है कि फलानी क्रिया कर ली, वहाँ कोने में बैठकर आसन मार लिया, पाँच मुद्राएँ लगा ली और कहा इतना हो गया, आज का काम निपटा लिया। सत्य के लिए जो कुछ करना था कर दिया। सत्य के लिए जो कुछ करना था कर दिया तो अब जो कुछ करोगे किसके लिए करोगे? तुम देख नहीं रहे तुम क्या पूछ रहे हो? सत्य वाले काम बता दीजियेगा जरा और उनके आगे ये भी लिख दीजिये कितना-कितना समय लगता है। कहे, ठीक है। गुरूजी ने बड़ी कठिन प्रक्रिया बताई पर डेढ़ घंटे में सब निपट जाएगी। डेढ़ घंटे के बाद चल कर, तू फुटबॉल निकाल। सत्य वाला काम सब पूरा हुआ। झंझट निपटा अब मैदान अपना है।
बेटा सब सौंप देना पड़ता है। ऐसा नहीं होता कि क्या करना अनिवार्य है। साँस-साँस उसको देनी पड़ती है। हर नज़र उसी को तलाशे। जो करो उसी के लिए करो। बात-बात में पूछो अपनेआप से छोटा काम तो नहीं कर रहा कहीं, छुद्रता तो नहीं है, टुच्चापन तो नहीं हैं कहीं मेरी नीयत में। बात-बात पर पूछना पड़ता है, कड़ी निगाह रखनी पड़ती है, जगते-सोते, खाते-पीते। अनंत की साधना है, उसमें सीमाएँ कैसे बता दूँ? लगातार ध्यान में रहना होता है। चाहे जहाँ हो लगातार समर्पित रहना होता है। अपने एक-एक शब्द पर ग़ौर करना होता है, क़दम-क़दम रोशनी में रखना होता है। सतत् होश, सतत् ध्यान, अहर्निश ध्यान, टूटे ही नहीं, उसके अलावा कुछ नहीं।
मोहम्मद दानीश हैं यहाँ पर कह रहे हैं कि हिचकिचाता हूँ, तनाव में आ जाता हूँ जब नए लोगों से बात करता हूँ, ख़ासतौर पर स्त्रियों से। अभी किसी इंटरव्यू का बता रहे हैं कि वहाँ कोई देवी जी थी वो इंटरव्यू ले रही थीं, तो आत्मविश्वास बिलकुल डोल गया और समझ में ही नहीं आया कि उत्तर किस तरह से दें। दानीश देख लो न, दो ही बातें हैं। रामकृष्ण जीवन भर कहते रहे कि तुम्हें डुबोयेंगे अगर तो कंचन-कामिनी। और यहाँ दोनों ही मौजूद हैं। इंटरव्यू दे रहे हो काहे के लिए? कंचन के लिए, पैसे के लिए। और इंटरव्यू ले कौन रही है? कामिनी। अब कैसे तुम्हारी बोली फूटे? ज़बान पर लग गए ताले, तालू से चिपक गई बिलकुल। कंचन-कामिनी दोनों साक्षात हैं। कामिनी बैठी है, जो कंचन का स्रोत है।
दूसरों में क्या है खौफ़नाक? न उनके सींग उगे हुए हैं, न वो फुफकार रहे हैं, न वो दहाड़ रहे हैं, लोग हैं। जो स्त्री तुम्हारा इंटरव्यू ले रही थी, उसने बंदूक तो नहीं तान रखी थी तुम पर। तो ज़ाहिर सी बात है लोगों में, दूसरों में, स्त्रियों में तो कुछ डरावना नहीं है, डर तुम्हारे भीतर बैठा है न। और डर तुम्हारे भीतर इसलिए बैठा है क्योंकि तुम्हें कुछ पाना है। जिसे कुछ पाना है वो डर का जीवन बिताएगा ही बिताएगा।
दुनिया के सामने जब भी जाओ तो ये याद रख कर जाओ कि तुम उसकी औलाद हो, जिसका देना बस काम है। वहाँ से आये हो तुम जहाँ से सिर्फ़ दिया जाता है लिया नहीं जाता। लेने की ज़रूरत नहीं है भाई, अहंकार की बात नहीं है कि हम खुद्दारी में किसी से कुछ नहीं लेते। लेने की ज़रूरत नहीं है, भिखमंगो के ख़ानदान से नहीं हो तुम ऊपर से उतरे हो। हम सब एक परमपिता की ही तो औलाद हैं न? और वहाँ भीख का कोई काम नहीं। तो तुम संसार में भिखारी का जीवन कैसे बिताने लग गए, तुम्हे क्यों लगने लग गया इससे कुछ मिल जाएगा, उससे कुछ मिल जायेगा? जिससे ही तुम्हे लगेगा, कुछ मिल जायेगा वही तुम्हारे ज़हन पर हावी हो जायेगा तुम उसकी ग़ुलामी करोगे। फिर तो होगा ही ये कि शब्द लड़खड़ाएँगे, ज़बान में गाँठ बन जाएगी।
और ये भी प्रयोग करके देख लेना कि दूसरा तुम्हारे लिए जितना सार्थक हो जाता है – ‘सार्थक से मेरा अर्थ भगवत्तापूर्ण नहीं है। सार्थक से मेरा अर्थ है दूसरा तुम्हारे स्वार्थों के लिए जितना आवश्यक हो जाता है, तुम उतना ज़्यादा तनाव में आओगे।’ उसी इंटरव्यू में अगर हालत ये होती कि तुम इंटरव्यू पार कर लो तो तुम्हें सीधे-सीधे दस करोड़ दे दिए जायेंगे। तो ये तो छोड़ दो कि तुम तनाव ग्रस्त हो गए, तुम बेहोश ही हो जाते। क्योंकि अब स्वार्थों का महल और ऊँचा हो गया। अब पाने या न पाने की बात और गहरा गई। तुम यदि सब स्त्रियों से ही घबराते-लजाते होते तो घर पर अपनी माँ, मौसी, बहन इत्यादि के सामने भी तुम घबराते, लजाते, हकलाते।
घर पर तो ऐसा नहीं होता न? पड़ोस में रहतीं हैं रीता बुआ, रीता बुआ के सामने हकलाते हो कभी? वहाँ तुम्हारा कोई स्वार्थ नहीं। कौन है? वो पुरानी अपनी रीता बुआ हैं उनके सामने क्या घबराना, क्या हकलाना? वहाँ तो नहीं हकलाओगे। हाँ, जब कोई मोहिनी सामने आ जाती है तो फिर वासना उठती है, कुछ पाने का लालच उठता है। देह है, इच्छाओं की पूर्ति है। तो तब फिर घबराते हो, हकलाते हो। वरना साधारण स्त्री है, उसमें ऐसा क्या है कि परेशान हुए जा रहे हो?
राह चलते इतने पेड़ मिलते हैं तुम्हें तरह-तरह के, किसी पर फूल हैं, किसी पर नहीं है, किसी पर पत्तियाँ है, किसी का पतझड़ है, कोई छोटा है, कोई बड़ा है, हकलाना शुरू कर देते हो? थरथराने लगते हो? वहाँ तुम्हारे स्वार्थों की कोई बात नहीं इसीलिए तुम पर कोई असर नहीं पड़ता है। बात ये न करो कि दूसरों के सामने तुम्हारी हालत ख़राब हो जाती है। तुम्हारी हालत तुम्हारे साथ ख़राब है इसमें दूसरों का बहुत कम योगदान है। दूसरों का नाम मत लो।
तुमने कहीं से सीख लिया है कि जीवन का अर्थ है 'प्राप्ति'। तुम्हें किसी ने ये पट्टी पढ़ा दी है कि उपलब्धि नहीं हुई, कहीं पहुँचे नहीं, कुछ हासिल नहीं किया तो तुम्हारे जीने में कोई कसर रह जाएगी। तुम्हें अधूरा अनुभव करने की शिक्षा दे दी गई है। और इससे बड़ी दरित्रता दूसरी नहीं होती, इससे बड़ा कष्ट दूसरा नहीं होता कि, ‘तुम कह रहे हो कि मैं ही अधूरा हूँ।’ सोचो, ये कप है(कप तो दर्शाते हुए) इसमें मुझे चाय दी गई है अब ये आधा ख़ाली है। ये आधा ख़ाली है यही ज़रा-सी परेशानी का सबब हो सकता है, हो सकता है न? अब चाय पीनी है और मिल कितनी रही है? तुमने चाय मँगाई और दी कितनी गयी?
श्रोतागण: आधी।
आचार्य प्रशांत: अब कैसा लगेगा? अजीब लगेगा न, आधी चाय! तुम कपड़ा खरीदने गए, पजामा लेकर आए उसमें एक ही टाँग थी। कैसा लगेगा? ये तो पजामा है भाई! तो बाहर की चीज़ हैं, आधी हो जाएँ तो कितना अजीब लगता है। विवाह हुआ तुम्हारा, पता चला पुरुष आधा है। कह रहे हैं, मैं अर्ध पुरुष हूँ। बहुत बुरा लगेगा न? और याद रखना वो भी अभी आधी ही और बाहर की ही बात है। चश्मा पहन रखा है वो आधा हो जाए अचानक, इतना ही है। हट गया एक (एक साइड के चश्में को इशारा करते हुए)। ये तो बाहरी चीज़ें हैं पर इनका भी अधूरापन खलता है, खलता है न? बाहरी चीज़ों का भी अधूरापन खलता है। और अगर 'मैं' ही आधा हो जाए तो?
बोलो?
अगर मैं ही आधा हो जाए तो कितना खलेगा? ‘मैं’ समझ रहे हो? जिस भाव के साथ निरंतर जीते हो, अगर वहीं अधूरा हो जाए, उसी में अगर छेद हो जाए, उसी के कोई कोने काट ले जाए। तो कितना अख़रेगा? बोलो, कितना अख़रेगा? क्या चलेगा आधा ‘पजामा’ या आधा ‘मैं’? आधा पजामा चल जाएगा ठीक है भाई कोई बात नहीं, बता देंगे नया फैशन है। पर आधा ‘मैं’, आधा ‘मैं’ चलेगा? बोलो? आधा मैं चलेगा?
श्रोतागण: नहीं।
आचार्य प्रशांत: हमारा ‘मैं’ आधा कर दिया गया है। हमसे बोल दिया गया है आधे तुम हो, पूरे तब होओगे जब कुछ हासिल कर लोगे। तुम आधे हो और पूरे तब होओगे जब दस-करोड़ तुम्हारे बैंक में आ जाएगा, उस दिन पूरे कहलाओगे। अभी क्या हो? अभी आधे हो। आधे तुम हो जिस दिन कोई लड़की मिल जाएगी उस दिन पूरे कहलाओगे, तब तक आधे हो। आधे तुम हो जिस दिन तुम्हारी मूर्ति लगेगी चौराहे पर उस दिन पूरे कहलाओगे, वरना तब तक आधे हो। तो हम आधे घूम रहे हैं अन्दर से, और ये बड़ी पीड़ा है, इससे बड़ी पीड़ा दूसरी नहीं। सारा अध्यात्म ही इसीलिए है कि आधे ‘मैं’ को पूरा कर सके।
और जो आधेपन में घूम रहा है वो बड़ी प्यास में जी रहा है न, क्या प्यास है उसे? कि पूरा हो जाए ये ‘मैं’। तो पूरी दुनिया की ओर एक ही दृष्टि से देख रहा है। क्या है इसकी दृष्टि? कौन मुझे पूरा करेगा। ये कर देगा, ये कर देगा, ये कर देगा, ये कर देगा। यही समझाते थे रामकृष्ण। कि जब भी तुम इस आधे मैं को पूरा करने की सोचोगे, तुम्हारी निगाह दो जगह जाकर ठहरेगी। कौन-सी जगह? एक कंचन पर, एक कामिनी पर। वो भी इसीलिए क्योंकि उसी की शिक्षा दी गई है तुमको।
तुम से बताया गया है ये जो आधा ‘मैं’ हैं, ये दो चीज़ें पूरा कर सकती हैं; या तो पैसा, या देह। पुरुष हो तो स्त्री की देह, स्त्री हो तो पुरुष की देह। और इन्हीं दो चीज़ों के लिए आदमी भटकता रहता है जीवनभर– काम और धन, काम और धन। पर वो भटकना भी बाद की बात है। पहली बात है ‘मैं’ का अधूरा हो जाना। मैं अधूरा न होता, तुम भटकते नहीं। और मैं अधूरा है नहीं। तुम्हें बोल-बोलकर, बोल-बोलकर, शिक्षा दे-देकर, शिक्षा दे-देकर ये रटा दिया गया है, ये झूठा एहसास करा दिया गया है कि 'मैं' अधूरा है, वो है नहीं।
अब यह कितनी अजीब बात है तुम एक ऐसी चीज़ के अधूरेपन को पूरा करने के लिए भटक रहे हो, जो वास्तव में अधूरी है नहीं। और उसको पूरा करने के लिए तुम कहाँ-कहाँ ठोकरें नहीं खाते? क्या-क्या ज़िल्लतें नहीं बर्दाश्त करते? तुमने कैसे-कैसे अपमान नहीं सहे हैं? तुमने कैसे-कैसे बंधन नहीं स्वीकारे हैं? तुमने अपना सब बेच दिया एक ऐसी बीमारी को हटाने के लिए जो है ही नहीं। और ये जो आधे मैं की परंपरा है ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती ही जाती है, बढ़ती ही जाती है, बढ़ती ही जाती है। माँ-बाप अपना परम कर्तव्य समझते हैं लड़के को, लड़की को ये दीक्षा देना कि, ‘बेटा तू आधा है, बिटिया तू आधी है।’ और पूरा होने के लिए कंचन-कामिनी।
यही शिक्षा दानिश तुमने भी पकड़ रखी है। इसलिए घबराते हो, इसलिए हकलाते हो, शेर की तरह जियो। क्या दे देगा तुमको कोई इंटरव्यूर? साक्षात्कार ही तो है, बात ही तो है, आओ बात करते हैं। आओ बात करते हैं, बात करने में क्या हिचक। अरे बात ही तो कर रहे हैं, क्या नाम दे दिया तुमने बहुत बड़ा! सा... क्षा....त्का....र...। ऐसा लग रहा है जैसे पचास पहियों वाली कार हो – साक्षात्कार। चार वाली ही बड़ी मुसीबत होती है ये तो पचास वाली है। हाँ, बात करने आए हैं, बैठ जाओ सामने। जी बताइए, जी बताइए। और क्या कहोगे? अब सामने स्त्री है, कि पुरुष है, जवान है, कि बूढ़ा है, क्या करना है! बातचीत है भाई। कर लो बातचीत हो गयी बात ख़तम। और मुझे देखो, मैं जानता भी नही हूँ, मोहम्मद दानिश कौन है। और है भी कि नहीं हैं और बोले जा रहा हूँ। क्या फ़र्क पड़ता है कौन है? स्त्री है कि पुरुष है, जवान है कि बूढ़ा है, है ही नहीं, क्या पता। है भाई यहाँ पर? ये रहा। तो ऐसे होता है बस, होगा कोई बात करो, तुम्हे क्या करना है।
यहाँ पर (सीने की ओर इशारा करते हुए) शेर की गरज होनी चाहिए। हमें फ़र्क नहीं पड़ता तुम कौन हो, जंगल हमारा है। शेर गिनने आता है, आज गिलहरियों ने क्या षडयंत्र रचा है। सोचो गिलहरियों की सभा चल रही है और शेर कान लगा के सुन रहा है – खतरा! गिलहरियाँ विद्रोह में उठने ही वाली हैं। जेल में रिवाल्वर आ चूका है। हमें नहीं फ़र्क पड़ता तुम कौन हो? तुम पूछोगे हम बोलेंगे और झूठी बात हमें कोई बोलनी नहीं है। तुम पूछो तुम क्या पूछ रहे हो, तुम्हारे सामने बैठे हैं जो पूछोगे जवाब दे देंगे, बात ख़तम।
उस पर (परमात्मा की ओर इशारा करते हुए) भरोसा रखो, रोटी का इंतजाम वो कर देगा यूँ ही नही पैदा किया है तुमको। और ज़्यादातर नौकरियाँ जिसमें तुम जाते हो इंटरव्यू देने वो होती ही ऐसी हैं कि भला हो तुम्हारा उसमें चयन न हो। आ जाए वहाँ से कि 'वी आर डिसअपॉइंटेड, वी आर रिग्रेटफुली कम्यूनिकेटिंग' तुम कहो अरे एहसान है आपका, 'भला हुआ मोरी मटकी फूटी'। मैं तो फँस ही जाता, प्रारब्ध ने बचा लिया।
तुम तो लड़के हो, जवान आदमी हो, तुम कितने तुम्हारे ख़र्चें हैं कि तुम्हें जल्दी से जाकर करके कहीं पर बेड़ियाँ पहन लेनी हैं। ये बात भी तुम्हारी शिक्षा का अंग है कि बाईस के हो गए, चौबीस के हो गए, अठ्ठाइस के हो गए, अभी तक कमाते नहीं? हाय रब्बा! ये तो अर्धपुरुष हो गया, ये तो कमाता ही नहीं। 'नथिंग सेक्सियर दैन मनी' (पैसे से बढ़कर कुछ भी नहीं।)
कम कमाते हो तो क्या होता है, सूरज नहीं चमकता तुम्हारे लिए? हवा, ऑक्सीजन थोड़ा कम कर देती है तुम्हारे लिए? कि बाकियों को बीस प्रतिशत ऑक्सीजन रहेगा हवा में। ये ससुरा बेरोज़गार है तुझे पाँच प्रतिशत। जब देने वाला अपनी ओर से कोई भेद नहीं करता कि तुम्हें नौकरी है कि नहीं है, तो तुम क्यों भेद कर रहे हो भाई?
अभी आएगा मेरा खरगोश वो सबके ऊपर सुसु करेगा, मैं बता रहा हूँ तुम्हारे ऊपर भी करेगा। वो बिलकुल भेद नहीं करेगा। वो ये थोड़ी कहेगा कि बेरोज़गार है इस पर..। 'हम बेरोज़गारों पर नहीं मूतते।' ऐसा नहीं बोलता वो। तुम्हीं ने अपनेआप को शर्मशार कर रखा है, व्यर्थ।
और जहाँ तक स्त्रियों की बात है जीवन ऐसा जियो कि भीख न माँगनी पड़े। साहचर्य भिक्षा की बात नहीं होती है। दोस्त बनाये हैं न जीवन में, उनसे भीख माँगने गए थे, प्लीज़-प्लीज़ मुझसे दोस्ती कर लो। ऐसा बोला था?
श्रोतागण: नहीं।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो जीवन में लड़की भी जब आनी होगी तो अपने आप आएगी। भीख माँगकर नहीं आएगी। और भीख माँगकर जो लड़की जीवन में आए उसका न आना बेहतर। बात बराबर की होनी चाहिए– मुझे तेरा साथ भाता है, तुझे भी मेरा साथ भाता है। मैं तेरे लिए सुसंगति हूँ, तू मेरे लिए सुसंगति है, बात बराबर की है। मैं तुझे ऊपर उठाता हूँ, तू भी मुझे ऊपर उठाती है। यहाँ कोई किसी पर एहसान नहीं कर रहा है। वही रिश्ता सुदीर्घ होता है, उसी रिश्ते में जान होती है।
फिर आगे कहा है कि मुझे गुस्सा बहुत आता है। वो तो आएगा ही। गुस्सा आता है तो इतना पता चलता है कि जिंदा हो। गुस्सा भी आना बंद हो गया तो फिर बड़ी गड़बड़ है। अच्छा है कि गुस्सा आता है पर दूसरों पर मत करो, अपने पर करो गुस्सा पहले। वो ज़्यादा ईमानदार गुस्सा होगा। ठीक है? मैंने व्यर्थ अपनी क्या हालत बना ली, अपने पर गुस्सा करो।