सत्य के अनंत रूपों को सत्य जितना ही मूल्य दो || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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सत्य के अनंत रूपों को सत्य जितना ही मूल्य दो || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्नकर्ता: सर, दो छोर जैसा लगता है। जब आध्यात्मिक पुस्तक पढ़ती हूँ, तो मन शांत रहता है और अगर कोई और पुस्तक पढ़ती हूँ, तो अशांति रहती है मन में। या तो दोनों में मन शांत रहे। या फिर दोनों में ही मन में अशांति रहे।

आचार्य प्रशांत: कोई ऐसा हो सकता है जिसे कृष्ण पसंद हों और गीता न पसंद हो? यह तो बात सीधी लगती है कि कृष्ण पसंद हैं, तो गीता भी पसंद होगी। पर ऐसे कहते बहुत मिल जाएँगे, जो कहते हैं — कृष्ण पसंद हैं, पर कृष्ण की दुनिया नहीं पसंद है। जिसे कृष्ण की दुनिया न पसंद हो, उसे कृष्ण भी पसंद हो सकते हैं? हो सकता है?

प्र: नहीं।

आचार्य: कृष्ण ही तो कृष्ण की दुनिया हैं न। तो सीधे-सीधे तुम गीता को पढ़ो या फिर चाहे इस दुनिया को पढ़ो, कोई अंतर तो नहीं है। दोनों ही कृष्ण की हैं।

पर भाव क्या रहता है?

प्र: दुनिया में कृष्ण नहीं हैं।

आचार्य: इसका मतलब है कि कृष्ण से ही कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई आए और कहे — सर, आप यहाँ बैठे हैं। हमें आप में तो बड़ी उत्सुकता है। आपकी बात सुनना चाहते हैं। पर आप जो नियम-कायदे बनाओगे उनमें हमारी कोई उत्सुकता नहीं है। आप हमें जो सलाह दोगे, उसमें हमारी कोई रुचि नहीं है। आप कोई व्यवस्था बनाओगे, उसमें हमारी कोई रुचि नहीं है। इसका मतलब क्या है?

प्र: आपमें भी कोई रुचि नहीं है।

आचार्य: उसकी मुझमें भी कोई रुचि तो है नहीं। समझ में आ रही है बात? परमात्मा कोई व्यक्ति या कोई इकाई तो है नहीं। उसकी अभिव्यक्ति तो इसी सब के रूप में होती है न। और इस सबको ही सम्यक दृष्टि से देखना, यही बोध है।

कभी तुमको सीधे देख लेते हैं। कभी तुमको आईने में देख लेते हैं। जैसे भी देखा, दिखे तो तुम ही न। कभी तुमको देख लिया, कभी तुम्हारी तस्वीर देख ली। कभी तुम तक सीधे-सीधे पहुँच गए। कभी तुम तक गोल घूमकर पहुँच गए। कभी तुमको सत्य कहकर पुकार लिया, कभी तुमको संसार कहकर पुकार लिया। हो तो तुम ही न।

जो केंद्र सक्रिय होता है, बुद्ध को पढ़ने में या कृष्ण को पढ़ने में, वही केंद्र सक्रिय रह सकता है, कोई भी और किताब लगाने में। किसी भाषा की, चाहे गणित की, चाहे किसी की भी। उसी केंद्र को सक्रिय रखकर तुम कुछ भी और कर सकते हो।

मैं इस कुर्सी पर बैठकर के इनसे बात कर रहा था, मैं इसी कुर्सी पर बैठकर तुमसे भी बात कर सकता हूँ। सवाल अलग-अलग है। अगर कोई तीसरा आदमी बिलकुल ही अलग सवाल ले आए, मैं उसकी भी बात कर सकता हूँ। मेरा आसन तो वही है न। मैं डिगा तो नहीं। तो आसन ठीक रखो, उसके बाद दुनिया के हज़ार रंग हैं। उनसे भग थोड़े ही लेना है।

कभी गीता को सीधे-सीधे पढ़ लिया। कभी धम्मापद को सीधे-सीधे पढ़ लिया। और कभी पौधों में, पहाड़ों में, बाज़ारों में, संसार में, समाज में, बाहर पढ़ लिया।

दोनों तरह पढ़ने का अपना-अपना स्वाद है। पर जब भी पढ़ा, सही जगह स्थित रहकर पढ़ा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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