सर्वदा-सर्वत्र' से क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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सर्वदा-सर्वत्र' से क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: हम न किसी एक देश में, न किसी एक काल में रहते हैं| परंतु हम सर्वत्र और सर्वदा विद्यमान हैं| इसका क्या अर्थ है?

वक्ता: जब तुम एक जगह होते हो, तब तुम स्थानबद्ध रहते हो| स्थानीयकरण, मन का काम है| सर्वत्र और सर्वदा का मतलब है गैर-सामयिक(नॉन-टेम्पोरल) एवं गैर-स्थानिक (नॉन-स्पशिअल)| ‘सर्वत्र’ और ‘सर्वदा’ का ये मतलब नहीं है कि मैं हर समय, हर स्थान पर हूँ| गैर-सामयिक का ये मतलब नहीं है कि मैं भूत, भविष्य एवं वर्तमान में हूँ| गैर-सामयिक(नॉन टेम्पोरल) का मतलब होता है, ‘मैं समय में हूँ ही नहीं’| बात समझ में आ रही है?

‘सर्वत्र’ और ‘सर्वदा’ बस कहने के लिए कहा गया है| इसका मतलब ये नहीं है कि तुम यहाँ भी हो और उस पेड़ के ऊपर भी हो और नदी के अन्दर भी घुसे हुए हो| इसका ये अर्थ नहीं है| नहीं समझे? ‘सर्वत्र’ का क्या मतलब हुआ? मन की भाषा में ‘सर्वत्र’ माने?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): हर जगह|

वक्ता: हर जगह| पर ये तो बेवकूफ़ी की बात है| ये यहाँ भी बैठी है, छत पर भी चढ़ी हुई है, पेड़ के ऊपर भी बैठी है और जुपिटर पर भी है| ये हो सकता है क्या? दो बातें होती हैं| जहाँ स्थान है, समय है, जहाँ अहंकार है, वहाँ तो बस यहीं हैं| और जहाँ अहंकार नहीं है, वहाँ स्थान-समय भी नहीं हैं| तो ये गैर-सामयिक(नॉन-टेम्पोरल) एवं गैर-स्थानिक (नॉन-स्पशिअल) है| ‘सर्वत्र’ और ‘सर्वदा’ का अर्थ है, हर जगह, हर समय होना, ये बहुत ज़बरदस्त ग़लत व्याख्या है| हर जगह नहीं| हर जगह कुछ है ही नहीं| ये सब कुछ कहाँ है? ये सब कहाँ है?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): मन में|

वक्ता: तो हर जगह होने का क्या अर्थ हो गया फिर?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): मन में होना|

वक्ता: तो इसलिए जो हम बात कहते हैं कि ईश्वर कण-कण में है, वो बात भी पूरी तरह ठीक नहीं है| क्योंकि जब तुम कहते हो कण-कण में है, तो तुमने उसे कहाँ बना दिया?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): मन में |

वक्ता: तुमने ईश्वर को ‘स्थान’ में ला दिया| वो गैर-स्थानिक (नॉन-स्पशिअल)है| वो स्थान में नहीं है, वो हर स्थान का पिता है, मालिक है| कृष्ण गीता में बड़ी मजेदार बात बोलते हैं| अर्जुन से कहते हैं, ‘तू तो मुझमें है, पर मैं तुझमें नहीं हूँ’| और इस पंक्ति की बड़ी सारी व्याख्याएँ हैं| इसका अर्थ सिर्फ एक है, ‘अहंकार तो है स्रोत से, स्रोत अहंकार से नहीं है’| जब कृष्ण कहते हैं, ‘सारे जीव मुझसे हैं, पर मैं इनसे नहीं हूँ’, तो यही बात है|

श्रोता १: सर, ये जो पंक्ति है, ‘ईश्वर कण-कण में है और कण-कण हमारे मन में है’, क्या ये ग़लत है?|

वक्ता: ‘कण-कण में ईश्वर है’, इस पंक्ति में तुम स्थान को मान्यता दे देते हो| यहाँ भी है, यहाँ भी है और यहाँ भी है| बात ये गलत नहीं है, पर बहुत साफ़ तरीक़े से नहीं बोला गया है| ये वही बात है कि ईश्वर सर्वत्र है, ‘कण-कण’ में माने सर्वत्र है| ये एक सांसारिक तरीका है ईश्वर को संबोधित करने का, कि पहले तो मैं मान रहा हूँ कि कण-कण है, फिर मैं कह रहा हूँ कि कण-कण में ईश्वर है|

जो योगी होगा वो कहेगा, जब कण-कण ही नहीं, तो कण-कण में ईश्वर कैसा? नहीं समझ में आई बात? संसारी पहले तो कहेगा कि बीवी है, बच्चा है, और ये है, वो है| फ़िर कहेगा कि ये सब ईश्वर हैं| तुम उन सब को ईश्वर इसलिए कह रहे हो क्योंकि पहले तुमने माना है कि ‘वो हैं’|

योगी कहेगा, ‘अरे, ये सब फ़िज़ूल की बात है’|

-‘संवाद’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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