संसार पर अतीत का अँधेरा क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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संसार पर अतीत का अँधेरा क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: तुम्हारे अतीत की जितनी सभ्यताएँ रही हैं, संस्कृतियाँ रही हैं, वो निकली तो अँधेरे से ही हैं। आदमी था तो बंदर ही न? उसी बंदर ने धीरे-धीरे करके जानना शुरु किया। शुरु में उसके जानने का हिसाब-किताब वैसा ही था जैसा किसी भी बंदर का हो सकता है। आधा-अधूरा। जितने पुराने ग्रंथ हैं, तुम उनको उठाओ तो उनमें अगर एक बात काम की निकलेगी तो दस बेहूदी निकलेंगी। यहाँ तक की तुम अभी वेदों को भी उठाओ तो उनमें बहुत सारी बेहूदी बातें हैं। कुछ बातें हैं, वो बड़ी प्यारी हैं। पर ज़्यादातर बातें ऐसी हैं जो आज-कल के किसी भी पढ़े-लिखे आदमी को दिखाओगे तो वो कहेगा ‘ये क्या लिखा है! बारिश कैसे होती है, कहाँ से होती है, क्या होता है, ये तक ठीक से नहीं पता!’

श्रोता: वेदों में?

वक्ता: हाँ। और उसके लिए तुम उनको दोश नहीं दे सकते। वो आदमी वो है जो बस अभी-अभी सभ्यता में प्रवेश कर रहा है। तो वो इतना भी कह पा रहा है, ये बहुत बड़ी बात है। इसके लिए तो उसको बधाई दी जानी चाहिए। इसके लिए आप उसपे दोश नहीं ठहरा सकते। आज तुम्हें इतनी कुछ उपलब्ध हैं चीज़ें। विज्ञान उपलब्ध है, उपकरण उपलब्ध हैं, एनर्जी (उर्जा) उपलब्ध है, अतीत का ज्ञान उपलब्ध है, तब जा कर के तुम इतने होशियार बनते हो।

जिन ऋषिओं ने वैदिक ऋचाएं लिखी थीं उन्हें थोड़ी कुछ उपलब्ध था। उन्हें तो खुद जानना था। खुद समझना था। ना विज्ञान था, ना टेक्नोलॉजी (प्रद्योगिकी) थी, ना ही संचित ज्ञान था। तो सब शुरुवात वहां से हुई। तो उसमें निश्चित सी बात है कि काफ़ी सारी गंदिगी भी थी। ज्ञान था और ज्ञान के साथ बहुत सारा अज्ञान भी था। हमने ये कोशिश नहीं करी कि ज्ञान से अज्ञान को छांट दें। हमने क्या करा कि अतीत के जो लोग थे उनकी जो लिखी हुई किताबें थी, हमने कह दिया कि उनकी पूरी ही बात ठीक है। जो उन्होंने कहा वो उन्होंने अपनी समझ से कहा। पहली बात तो हमें ये जाननी चाहिए थी कि समझ महत्वपुर्ण है, क्यूंकि जो वो कह रहे हैं अपनी समझ से कह रहे हैं। तो आज भी हमें जो करना है वो अपनी?

श्रोता: समझ से करना है।

वक्ता: पर हमने अपनी समझ को किनारे रख दिया है। हमने कहा ये जो पूरी किताब है ये ही श्रध्देय है। तो हमने पूरा का पूरा वेद उठा लिया, पूरी की पूरी कुरान उठा ली, पूरी की पूरी गीता उठा ली और हमने कहा कि ये पूरी की पूरी पूजनीय है। उसमें हमने अपनी समझ का इस्तेमाल नहीं किया। जिसको कबीर ने कह दिया है:

“सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय”

कि सार को ले लो और थोथी बातों को उड़ा दो। तो वो सारा कुछ जो अँधेरा भी इकट्ठा था, उस अँधेरे को भी हम पाले हुए हैं। तो आदमी की बेहोशी का एक बहुत बड़ा कारण तो ये है। ये ऐतिहासिक कारण हो गया।

मैंने कहा दूसरा कारण ये है कि हमें आदमी के मस्तिष्क की संग्रचना को समझना होगा। देखो, बाहर की जो बातें होती हैं वो तुम्हें कोई बता सकता है। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण को जाना और उसने तुम्हें बता दिया। अब तुम्हें बार-बार जानने की ज़रुरत नहीं है। ठीक है न? एक चीज़ जो न्यूटन ने जानी, उसने तुम्हें बता दी। तुम बस प्रयोग करके देख लो कि बात ठीक कही है? हाँ ठीक कही है, हो गया।

एक आदमी का जाना हुआ सत्य सार्वजनिक सत्य बन गया। अब कोई दिक्कत नहीं, कोई समस्या नहीं। एक साइंटिस्ट कहीं बैठ कर कोई रिसर्च करता है और उस रिसर्च को छाप देता है, वो बात सबको पता चल जाती है। सबको पता चल गयी। अब आपको अलग से रिसर्च की ज़रूरत नहीं है।

लेकिन आदमी के मन में ऐसा नहीं होता कि एक ने जाना और सब फ़ाएदा उठा लें। आतंरिक सत्य सबको खुद ही जानने पड़ते हैं और सबको बार-बार जानने पड़ते हैं। वो बाप अपने बेटे को नहीं दे सकता, भाई एक भाई को नहीं दे सकता, दोस्त-दोस्त को नहीं दे सकता। अगर मैंने कुछ समझा है तो वो तुमको दे नहीं पाउँगा। मैं कोशिश कर सकता हूँ कि तुम खुद जानो। मैं अगर यहाँ बैठ के तुमको विज्ञान पढ़ा रहा होता तो मेरे लिए बड़ा आसान था। उसमें जो कुछ लिखा है तुमको दिया जा सकता है। तो रट लो, खत्म बात।

पर अभी मैं जो तुम्हें देना चाह रहा हूँ वो बड़ा मुश्किल है दे पाना। क्यूंकि वो तुम्हें खुद ही जानना पड़ेगा और वो तुम्हारी खुद की जागृति से आएगा। बात आ रही है समझ में? परम्पराओं का बहना आसान है, समझ नहीं बहती। कंडीशनिंग पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ सकती है, जागृति पीढ़ी दर पीढ़ी आगे नहीं बढ़ती। वो मनुष्य को खुद ही पानी होती है।

तो अब समझ लो कि अँधेरा तो चलता है जियोमेट्रिक प्रोग्रेशन (ज्यामितीय अनुक्रम) में, कि वो फैलता जा रहा है, फैलता जा रहा है, पीछे से आता जा रहा है। और जागृति चलती है अरिथमैटिक प्रोग्रेशन (अंकगणितीय प्रगति) में, वो भी जिसका कॉमन डिफरेंस (अंतर) सिर्फ १ है। और वहां चल रहा है जियोमेट्रिक प्रोग्रेशन जिसका कॉमन रेश्यो (अनुपात) है १०। तो क्या ज़्यादा तेज़ी से फैलेगा?

श्रोता: अँधेरा।

वक्ता: तो बस इसीलिए दुनिया में तुमको सब अँधे दिखाई देते हैं। क्यूंकि जियोमेट्रिक प्रोग्रेशन ज़्यादा तेज़ी से फैल रहा है। जागृति अपनी अपनी होती है, कॉमन डिफरेंस ‘एक’। तुम पाओ, फिर तुम पाओ, फिर तुम पाओ, एक-एक करके सबको अपनी पानी है। और अँधेरा पीछे से चला आ रहा है, और बड़ी तेज़ी से फैलता है। एक बाप अपने चारों बेटों को दे देगा। एक घर की परमपरा है वो चारों बेटों को मिल गयी। हो गया कॉमन रेश्यो चार का। समझ रहे हो बात को? पर जागृति नहीं बांटी जा सकती। वो सबको खुद ही पानी होती है अपनी ज़िन्दगी में।

इसीलिए हमेशा तुम पाओगे कि खूब अँधेरा ही फैला हुआ है। और ये हमेशा ऐसे ही रहेगा, तुम इससे लड़ नहीं सकते। अतीत में अज्ञान है, बहुत सारा है और वो बहुत तेज़ी से फैलता भी है। जागृति, अतीत से नहीं आती और वो फैल भी नहीं सकती। अतीत तुम्हें जागृति नहीं दे सकता। अतीत तुम्हें अज्ञान बहुत सारा दे सकता है। और अज्ञान खूब तेज़ी से फैलता भी है क्यूंकि वो परमपरा बन जाता है, आदत बन जाता है, वो फैलता है।

श्रोता: सर ,जैसे आप कह रहे हो कि अतीत से अज्ञान आता है। ये भी तो हो सकता है कि उस चीज़ को समझने की हमारी जागृति नहीं बन पाई, इसीलिए हम उसे अज्ञान कह रहे हैं? जैसे आप कह रहे थे कि वेदों में ऋषि-मुनियों ने कुछ ठीक कहा, कुछ ठीक नहीं कहा। ये भी तो हो सकता है कि जो ठीक नहीं है, वो इसीलिए ठीक नहीं है क्यूंकि उस चीज़ को हम समझ नहीं पाए या हमारे पास जागृति नहीं है?

वक्ता: बेटा जब पढ़ोगे तो समझ जाओगे कि इसमें कुछ ठीक नहीं है। जब पढ़ोगे तो समझ जाओगे कि ये जो कह रहा है आदमी, ये आज से ६००० साल पहले का आदमी है। अभी-अभी इसने दुनिया को जानना शुरू किया है। तो तब तुम उसे दोष नहीं दोगे। तुम्हें भी ये गिल्ट (दोष) नहीं महसूस होगी कि ‘मैं इसे गलत क्यों कह रहा हूँ?’ तुम कहोगे, ‘इसने इतना ही कह दिया तो बहुत कह दिया। इससे ज़्यादा यह कुछ कह भी नहीं सकता था।’

हिन्दुओं को बड़े समय तक ये विश्वास था कि दुनिया एक कछुए की पीठ पर टिकी हुई है। दुनिया एक कछुए की पीठ पर टिकी हुई है। तुम इस बात के लिए उनको दोष नहीं दे सकते। उन्होंने इतना भी कह दिया तो बहुत कह दिया। पर ये तो दिख ही रहा है न कि ये इस बात को भी नहीं जानते थे कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है। वो इस बात को भी नहीं जानते थे। और इस बात के लिए मैं फ़िर कह रहा हूँ, उनको दोष नहीं देना है। उनका ज़माना ही अलग है। उनको मतलब बस इस बात से है कि ‘हमारे खेतों में अन्न लगा दे प्रभु!’,’हमारी गाय खूब दूध दे प्रभु!’, बस इतना ही।

श्रोता: वो तो बातें अलग-अलग हो गयीं कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर काटती है, ये तो विज्ञानं की तरफ़ हो गया। वो शास्त्र की बातें कर रहे हैं।

वक्ता: वेद जो हैं, वो पूरे-पूरे इनसाइक्लोपीडिया (विश्वकोश) हैं। वो एक-एक बात करते हैं। वेद पढ़े नहीं हैं न। उनको खोलोगे तो पूरा इनसाइक्लोपीडिया हैं। उनमें आतंरिक जगत और बाहर की दुनिया को अलग-अलग नहीं देखा गया है। दोनों बातें करते हैं। दुनिया कैसी है, वो आदमी की समझ को पहली-पहली जानने की लालसा हैं वेद।

आदमी ने सोचो अभी-अभी आँख खोली है और वो जानना चाहता है कि ये सब क्या चल रहा है। तो वो सूरज के बारे में जानना चाहता है। पृथ्वी के बारे मैं जानना चाहता है और फसल के बारे में भी जानना चाहता है। बिजली कड़कती है उसके बारे में भी वो कुछ कह रहा है। बच्चे पैदा होते हैं इस बारे में भी कुछ कह रहा है। आग को देखता है तो बड़े अचरज में पड़ जाता है, ‘ये आग कहाँ से आई?’ तो आग के बारे में भी कुछ कह रहा है। मृत्यु होती है, समझना चाहता है की मृत्यु क्या है। तो मृत्यु के बारे मैं भी कुछ कह रहा है।

वेद इनसाइक्लोपीडिया हैं पूरे। सब कुछ है उनमें। संगीत के बारे में भी है कि ‘अरे! ये खुबसूरत आवाज़ कहाँ से आ गयी?’ दवाई के बारे में भी है, ‘अच्छा! ये खा लेने से आदमी ठीक हो जाता है?’ तो तुम सोचो कि नए-नए आदमी की पहली वो जागरूकता है।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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