प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा प्रश्न मेरे निजी जीवन से है। मेरे शादी को नौ साल हो गए हैं और पाँच साल की एक बेटी है; और इन नौ सालों में मैं एक चीज़ से उलझा हुआ हूँ — और वो है सास-बहू का झगड़ा।
एक महीना भी ऐसा नहीं गया कि सास-बहू का झगड़ा नहीं हुआ हो, वो चलता ही रहा है। जब माँ को समझाने जाता हूँ, तो वो मुझे ‘जोरू का गुलाम’ कहती है, जब बीवी को समझाने जाता हूँ, तो वो मुझे ‘माँ का लाड़ला’ कहती है। और इसी द्वंद्व में मैं हमेशा उलझा रहता हूँ, जिसके कारण न मैं अपने कैरियर पर फोकस कर पता हूँ और मानसिक शांति भी भंग होती है। कई बार तो ऐसा होता है कि आत्महत्या करने का विचार आ जाता है।
मेरी बहन विवाहित थीं, फिर डिवोर्स (तलाक) हो गया और अपने आप में वो इंडिपेंडेंट (स्वतंत्र) जी रही हैं, उनका हमारे जीवन में कोई हस्तक्षेप नहीं है। आचार्य जी, सास-बहू में झगड़े होने का मूल कारण क्या है और इसका समाधान क्या है? मेरा दोष क्या है?
आचार्य प्रशांत: मेरा दोष क्या है? न मेरी बीवी, न मेरे कोई सास, पर जिसको देखो वो मेरे पास लेकर आता है यही आस! मेरा दोष क्या है कि मुझे ये सब झेलना पड़ रहा है, ये बताओ? नहीं, मैं सिर्फ शिकायत नहीं कर रहा, मुझे अपने सौभाग्य पर सचमुच नाज़ होता है! जितना आप लोग अपनी गृहस्थी का वर्णन करते हैं, उतना मैं अपने आप को बोलता हूँ, ‘येस! बच गया भाई, बच गया, एकदम बच गया!‘
आपने दो नहीं, तीन महिलाओं का ज़िक्र करा; और उसमें बस एक हैं जो आपको दुखी नहीं करतीं। वो वो हैं जो स्वतंत्र हैं।
प्रश्नकर्ता: मेरी बेटी।
आचार्य प्रशांत: नहीं, महिला नहीं है वो अभी। आपकी बहन। कुछ समझ रहे हैं? वयस्क हैं बहन आपकी, जैसे आपकी पत्नी वयस्क हैं, जैसे माताजी वयस्क हैं, तो बहन भी वयस्क हैं।
प्रश्नकर्ता: मुझसे दस साल बड़ी हैं।
आचार्य प्रशांत: हाँ, आपसे दस साल बड़ी हैं, हाँ, बिल्कुल। उनकी उम्र, आपकी माताजी की उम्र और आपकी उम्र के बीच की है लेकिन वो नहीं आतीं परेशान करने। मतलब समझिए, कौन नहीं करता परेशान? जो स्वतंत्र है वो नहीं करता परेशान। तीन महिलाओं का उल्लेख करा, जिसमें से दो परेशान करती हैं, एक नहीं करतीं। जो स्वतंत्र होगी, वो नहीं करेगी परेशान। यही बहन कमाती न होतीं और आपके ही घर में पड़ी होतीं, आप पर ही आश्रित होकर के तो फिर त्रिकोणीय घमासान होता, ट्रॉयंगुलर फाइट होती।
बहुत लोग ऐसे सिर हिला रहे हैं, कहते हैं, ‘हाँ, हम जानते हैं।ʼ कभी इधर कोलिशन (गठबंधन) बनता है दो का, कभी एक इसको छोड़ दिया जाता है। कभी माँ और बहन एक हो जाते हैं, कभी ननद-भौजाई इकट्ठे हो जाते हैं। कुछ पता नहीं चलता मामला, ऊँट किस करवट बैठेगा।
जो हमारी व्यवस्था है न पारंपरिक परिवार की, उसके मूल में द्वंद्व है, कलह-क्लेश है; शांत, सुखी परिवार बड़ा मुश्किल है, लगभग असंभव है। उसमें 'मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट' (विनिर्माण दोष) है, उसमें जो है न, परिभाषागत ही त्रुटि है। त्रुटि ये है कि जो हमारी परिवार की परिभाषा है, उसमें अधिक-से-अधिक एक या दो लोग ही सशक्त होते हैं। वही होते हैं जो अर्जन करते हैं, घर में कमाकर लाते हैं, जिनके मत्थे घर चलता है, बाकी सब उन पर आश्रित होते हैं।
हम जब कह रहे हैं ‘परिवारʼ तो हमारा अर्थ है उससे पितृ-सत्तात्मक परिवार, ‘द पैट्रिआर्कल फैमिली।' उसके कॉन्स्टिट्यूशन (संविधान) में ही स्ट्राइफ़ (कलह) है, उसकी संरचना में ही द्वंद्व निहित है। आप ही हो वो अकेले कमाने वाले, यू आर द ओनली अर्निंग रिसोर्स, तो जिसका आपके ऊपर हक रहेगा वो मौज मारेगा और दूसरा उसका प्रतिद्वंद्वी है, कॉम्पिटिटर है। तो इसीलिए ये एक आर्केटाइप (मूलरूप आदर्श) बन गया है 'सास-बहू का झगड़ा।' आपने कभी नहीं सुना होगा ‘ससुर-बहू का झगड़ा;’ ससुरा लड़ता काहे नहीं? क्योंकि उसके पास अपनी पेंशन होती है कई बार।
सास-बहू का झगड़ा इसीलिए होता है क्योंकि दोनों एक ही ऐसेट (संपत्ति) के लिए, एक ही रिसोर्स के लिए प्रतिद्वंद्विता कर रही हैं; वो कौन है? बेटा। ये बेटा एकदम नाकाबिल होता तो सास-बहू की लड़ाई नहीं होती। ये बेटा कमाता है इसीलिए होती है, इस बेटे के हाथ में ताकत है इसीलिए होती है। और हमारी पारिवारिक व्यवस्था परिभाषा से ही ऐसी है कि न माँ के हाथ में ताकत होती है, न पत्नी के हाथ में ताकत होती है। वो भी इंसान हैं, वो भी व्यस्क हैं, ऐडल्ट ह्युमन बीइंगस हैं, पर पावरलेस (दुर्बल) हैं, एजेंसीलेस हैं।
उनके पास अपना कुछ नहीं है, तो दोनों ही चिपकना चाहते हैं उससे जिसके पास कुछ है। किसके पास है? वो जो घर का मर्द है, जो बेटा है, माँ का बेटा, दोनों उससे चिपकना चाहते हैं। पत्नी उस पर अपना वर्चस्व रखना चाहती है क्योंकि पत्नी खुद कुछ नहीं कमाती न। पत्नी खुद कमाती हो तो वो ये सब तीर-तिकड़म नहीं चलाएगी। इसी तरह से यदि माँ भी खुद कमाती हो तो वो भी ये सब तीर-तिकड़म नहीं चलाएगी।
न माँ के पास कुछ है, न पत्नी के पास कुछ है। दोनों के पास एक ही चीज़ है — इस पुरुष को कौन कंट्रोल (नियंत्रित) करके रख सकता है! जो कंट्रोल करके रखेगा उसकी चाँदी है, तो दोनों लगी रहती हैं अपने-अपने तरीके से पुरुष को पकड़ने में। और इस बात में निहित नर्क को पहचानने की जगह हमने इस बात को महिमामंडित कर दिया है। वो मैं गाना सुन रहा था, “बेटा-बेटा न कर सासू, अब तेरा बेटा मेरा है।” वो शादी में नाच रही है, शादी में वो बोल रही है उसको, “बेटा-बेटा मत करो, वो मेरा है।” ससुर को नहीं बोल रही है, सास को ही बोलेगी ये।
ये जो पूरा मामला है न, ये आर्थिक है। इसके पीछे अर्थ की और सत्ता की लड़ाई है। और वो लड़ाई इसीलिए है क्योंकि तुमने दो ऐसे इंसान खड़े कर दिए हैं जो दोनों ही सत्ताहीन, दुर्बल हैं। जो दुर्बल होगा वो और क्या करेगा! आ रही है बात समझ में? ये सब दुर्बलता जनित बीमारियाँ हैं; और जिनको ये नहीं चाहिए, वो अपने घरों में दुर्बलता को न पलने दें।
मैंने सौ बार बोला है, ‘तुम जिसको गुलाम बनाओगे, वो तुम्हें अपना गुलाम बनाएगा।ʼ तुम अपनी पत्नी को कमज़ोर रखोगे, पत्नी तुम्हारा जीवन नर्क कर देगी, क्योंकि अब वो कमज़ोर है तो वो तुमसे चिपकेगी। जो कमज़ोर हो जाता है वो और क्या करेगा? उसके पास अब चारा क्या है? वो तरीके-तरीके से तुमसे चिपकेगा, तुमको अपने काबू में रखना चाहेगा।
कहा न, उसको तुमने गुलाम बनाया, वो अब अपने तरीके से तुमको गुलाम बनाएगी। और गुलाम बनाना उसकी मजबूरी है क्योंकि वो खुद कुछ नहीं कर सकती। तुमने उसको इस लायक नहीं छोड़ा है कि वो बाहर निकलकर दस रूपए भी कमा सके, तो अपने जीविकोपार्जन के लिए फिर उसके लिए ज़रूरी हो जाता है कि पति को वो अपने अंगूठे के नीचे रखे।
और यही हालत माँ की होती है, माँ भी एकदम कुछ नहीं जानती, तो माँ की भी दुनियादारी तभी तक चल रही है जब तक उसने बेटे को अपनी मुठ्ठी में रखा हुआ है। अब माँ भी रखना चाहती है, पत्नी भी रखना चाहती है, दोनों मजबूर हैं रखने के लिए क्योंकि दोनों ही दुर्बल हैं, माँ भी और पत्नी भी। तो इन दोनों की फिर क्लासिकल लड़ाई होती है, जिस पर इतने चुटकुले बने हुए हैं और जिसको हम कहते हैं, ‘हा! हा! हा! अरे! यही तो गृहस्थी का मसाला है न, इसी में तो रस है, सास-बहू की नोंक-झोंक।ʼ
वो नोंक-झोंक नहीं है, हमारे बंधू आत्महत्या करने को तैयार बैठे हुए हैं और न जाने कितने पुरुषों की ज़िंदगी नर्क हो जाती है सास-बहू के पचड़ों में। एक तरफ़ से माँ खींच रही है, एक तरफ़ से बीवी खींच रही है, पिस बेचारा पुरुष जाता है; और आप पूछ रहे हैं दोष क्या है? दोष ये है कि आपने पहचाना नहीं कि आप किस व्यवस्था में भागीदार हो रहे हो।
वो व्यवस्था ठीक है आपने नहीं शुरू करी, पर आप भागीदार तो हो रहे हो न। आप क्यों ऐसी व्यवस्था में भागीदार हो रहे हो जहाँ औरतें घर में बस दुर्बल पशुओं की तरह होती हैं? अधिक-से-अधिक खाना बना देंगी, सफ़ाई कर देंगी, इतना ही उनका काम होता है। और अगर पत्नी है तो बच्चे पैदा कर देगी, यही उसका काम है। आप इस व्यवस्था में क्यों सहभागी हुए? आप सहभागी हुए, इसी का आपको दंड मिल रहा है। जो भी कोई जाने-अनजाने इस व्यवस्था में साझीदार बनेगा, उसे इस व्यवस्था का फिर दंड भी झेलना पड़ेगा।
बहुत खुश होते हो न — अरे, हम कैंपस में थे, इतने बड़े कैंपसेस में भारत के मैंने पढ़ाई करी, पर उसके बाद भी हमारे साथ थे लड़के — ‘मुझे देखो, बहुत पढ़ी-लिखी लड़की नहीं चाहिए।ʼ क्यों? बोलते हैं, ‘बात बहुत करती है।ʼ मतलब समझ रहे हो? मुँह बहुत चलाएगी। ‘मुझे तो बस बीए-वीए कर रखा हो अपना थोड़ा-बहुत; भाई, मैंने क्यों आइआइटी करी है! कमाने वाला काम मेरा है, घर में मेरा मूड अच्छा रखे। मुझे बहुत इंटेलेक्चुअल वाइफ (बुद्धिमान पत्नी) वगैरह नहीं चाहिए।ʼ ठीक है, कर लो ऐसा। अब आज उनकी दुर्गति देखता हूँ (रोते-बिसुरते व्यक्ति की भंगिमा बनाते हुए), दिखा ली न चालाकी कि डिपेंडेंट वाइफ़ (आश्रित पत्नी) चाहिए!
डिपेंडेंट वाइफ़ लाओगे, वो तुम्हें पकड़कर रखेगी। उसका डर समझो न, उसके पास कुछ नहीं है ज़िंदगी में तो वो क्या करे बेचारी? कोई बिल्कुल दुर्बल होता है तो वो बहुत एग्रेसिव (आक्रामक) हो जाता है। आपके पास जीने का, खाने-पीने का एक ही सहारा बचे तो आप कैसे हो जाओगे? पर आपको बड़ा अच्छा लगता है, ‘देखा न, ये मेरी लंबी उम्र के लिए कितने व्रत रखती है।ʼ वो इसीलिए रखती है कि तुम मर गए तो वो सड़क पर आ जाएगी, कमाती-खाती होती तो नहीं रखती।
चीन में ऐसा आता है उल्लेख, मिस्र में भी आता है कि रानियों को कर दिया जाता था कि ये मरेगा राजा अगर तो इसके साथ तुम भी दफ़न कर दी जाओगी। और वो इतना फिर प्यार देती थी राजा को, इतना प्यार देती थी राजा को, लगता था प्यार मिल रहा है। प्यार नहीं मिल रहा है, उनको तुम पर आश्रित बना दिया गया है, डिपेंडेंट बना दिया गया है। बोल दिया गया कि ये मरेगा तो तुझे भी मरना होगा, तो वो कुछ भी करके कोशिश करती थी उसको ज़िंदा रखने की। ये है तुम्हारे व्रत, उपवास की हकीकत। और यही वजह है कि पति नहीं पत्नियों के लिए उपवास रखते; पत्नी मर जाए तो क्या हो गया, पति जाकर दूसरी ब्याह लाते हैं।
अच्छा संबंध, स्वस्थ संबंध दो आज़ाद लोगों के बीच ही हो सकता है — डिपेंडेंट वाइफ़, चाहे डिपेंडेंट हसबेंड, न्यूरोसिस (मानसिक तनावपूर्ण बीमारी) होगा बस। हर समय घर में भूचाल चलते रहेंगे और वातावरण बेहद बीमार रहेगा।
किसी को अपने ऊपर आश्रित मत होने देना, ये प्यार नहीं होता है। ‘मुझमें प्यार इतना है, मैं चालीस साल से उसका बोझ ढ़ो रहा हूँ,ʼ ये प्यार है? ये हिंसा है।
वो भी एक व्यस्क है, ऐडल्ट है, वो अपने पैरों पर खड़ी हो सकती थी, अपने पँखों से उड़ सकती थी। तुमने उसके पँख कतर दिए और अब तुम एहसान बता रहे हो कि मैं इतना प्यार करता हूँ कि मैं उसको अपनी पीठ पर ढ़ो रहा हूँ। जैसे तुम किसी को लाश बना दो और फिर लाश को ढ़ोते फिरो और एहसान बताओ कि देखा, मैं इसको इतना ढ़ो रहा हूँ।
उसको लाश भी तुम्हीं ने बनाया इसीलिए ढ़ोना पड़ रहा है। उसको लाश बनाया क्यों, ये बताओ? उसको ज़िंदगी क्यों नहीं दी? प्रेम जिससे करते हैं उसको जीवन दिया जाता है न, उसके पँख नहीं कतरे जाते, उसको लाश नहीं बनाया जाता। उसको आकाश दिया जाता है, उसको सदा के लिए अपने सहारे पर आश्रित नहीं कर दिया जाता।
न माँओं को शौक है बहुओं से लड़ने का, न बहुओं को कुत्ते ने काटा है कि वो सासों से जाकर के लड़ती रहें। ये उन दोनों की पराधीनता का सूचक है, ये उन दोनों की बेबसी का सूचक है। जितने तरीके से हो सके तुम्हारे घर में, तुम्हारी ज़िंदगी में जो लोग हों, उनको सशक्त बनाओ।
मारे गए गुप्ता जी गुलफ़ाम, बताओ क्यों?
गाड़ी घर में रखे थे पाँच साल से, बीवी को चलानी नहीं सिखाई। दिल का दौरा पड़ा, एम्बुलेंस नहीं आई और बीवी को गाड़ी चलानी आती नहीं। घर में गाड़ी है तो बीवी को भी सिखा दो चलाना, डरो मत। बड़ा डर लगता है, ‘पता नहीं ससुरी गाड़ी लेकर किधर निकल जाए, आज-कल की त्रियाचरित्र का कोई भरोसा नहीं है, बहुत फैल रहा है ये फेमिनिज्म-वेमिनिज्म।ʼ
दोनों को जीवन में कुछ सार्थक दीजिए करने के लिए जो उनको लड़ाई-झगड़े, सिर फुटौवल से ज़्यादा रस देता हो, फिर वो नहीं लड़ेंगी। आमतौर पर महिलाओं के जीवन में वैसा भी कुछ नहीं होता, कमाना-धमाना भी नहीं होता और कला-साहित्य आदि के क्षेत्र में भी उनका कोई दखल नहीं होता, कोई मौजूदगी नहीं होती।
क्रिकेट भी नहीं देखती हैं बहुत सारी तो महिलाएँ, उत्तर भारत में खासकर, उन्हें वो भी नहीं समझ में आता। ‘का जनी का करत रहत हैं गुल्ली-डंडा! एक ठे गेंद आई, मार दिहिन ओका लट्ठ से, चार ठे मनसेरुआ ओके पीछे दौड़े लाग हां।’ उन्हें क्रिकेट भी नहीं ठीक से समझ में आता, तो और क्या करेंगी? एक ही मनोरंजन है — तीन इधर बैठ जाएँगी, चार उधर बैठ जाएँगी, लड़ेंगी आपस में।
तो जो सास को मस्त पसंद है कुछ देखना, टेनिस देखना पसंद है। लंबा मैच चल रहा है बढ़िया चार घंटे वाला और बहू उपद्रव काट रही है, सास मैच छोड़ेगी कभी? कहेगी, ‘करती रह, जा बावरी। क्या एस मारी है बाप!ʼ ऐसी माएँ चाहिए। सत्तर की उम्र में वो खुश हो रही हैं, ‘भाई जो भी हो, नाडाल की बॉडी मस्त है।ʼ ऐसी माँ चाहिए, ‘क्या एस मारता है! और फेडरर की सिंगल हैंडेड बैकहैंड स्लाइस, आहा!’ और बहू बैठकर ऑनियन की स्लाइसेस कर रही है और आँखों से आँसू बहा रही है। कह रही है, ‘ये ससुरी! सास को फ़र्क ही नहीं पड़ रहा, वो टेनिस की स्लाइस देख रही है।’
ज़िंदगी में कुछ अच्छा, ऊँचा आ जाए, अर्थपूर्ण हो जो, सुद्देश्य हो जो, तो फिर लड़ाई-झगड़े में कौन पड़ना चाहता है?
ये लोंग-लहसुन फिर कौन करेगा? कोई नहीं! हम खुद ही आने नहीं देते महिलाओं के जीवन में ऐसा कुछ; नहीं आने देते न? अधिक-से-अधिक वो क्या करती हैं? टीवी में देखती हैं वो सीरियल, वो भी सास-बहू के होते हैं। वो वहाँ सामने देखती हैं, फिर ऐसे देखती हैं (तिरछी नजर करके) और दोनों एक-दूसरे को ऐसे ही कर रही हैं और सीरियल खत्म होने से पहले ही बाल नुचने शुरू, ‘तोरा झोटा उखाड़ लेब।ʼ
साहित्य में कोई रुचि नहीं; आप बैठकर के पढ़ रहे हैं कोई किताब और उसमें डूब गए हैं, कोई आकर आपको उकसाए भी लड़ने के लिए, तो क्या आप उत्तेजित हो जाओगे? लड़ने लगोगे? नहीं, आप कहोगे, ‘यार! यहाँ शोर बहुत हो रहा है, मैं बाहर कहीं जाकर पढ़ लेती हूँ।ʼ उन्हें किताबें भी नहीं पढ़नी क्योंकि पुरुष ने उन्हें आज तक किताबों का कोई तोहफ़ा भी नहीं दिया।
कह रहे हैं, ‘अब क्या करोगी तुम पढ़-लिखकर, नकल करके बीए हो गया था न? तुम्हारी तो डिग्री भी इसीलिए थी कि ब्याह हो जाए; ब्याह हो गया, क्या करोगी? ये किताब हटाओ, चलो, इधर आओ। इधर आओ बेटा, इधर आओ। किताब उधर रख दो, लाइट बंद कर दो, दरवाज़ा बंद कर दो, बिस्तर पर आ जाओ।’ अब तुम उसको पूरा जानवर ही बना दोगे तो फिर वो बर्ताव भी जानवरों जैसा ही तो करेगी न। कुछ मेहनत करो, कुछ इन्वेस्टमेंट करो, पढ़ाओ-लिखाओ, ताकतवर बनाओ, कुछ उसकी चेतना का भी ऊर्ध्वगमन हो।
बहुत सारे परिवारों में तो पत्नी की याद ही बस तभी आती है, ‘दिन-भर का काम-साम निपट गया है, सब हो गया है, बढ़िया है। आ जाओ, इधर आ जाओ, लाइट बंद कर दो, दरवाजा बंद कर दो।ʼ मैं नहीं कह रहा हूँ आपके यहाँ ये हो रहा है, मैं हमारे देश की, विशेषकर उत्तर भारत की कहानी बयान कर रहा हूँ — विशेषकर जो हमारा मध्यम वर्ग है। इतनी हीनभावना भरी होती है पतियों में, जान-बूझ करके पत्नियों को एकदम अशिक्षित, गँवार रखते हैं कि कुछ सीख गई, कुछ जान गई तो कहीं हाथ से न निकल जाए। अब ये हाथ से निकलने का मतलब क्या होता है, समझ में नहीं आता। हाथ में कैसे रहती है, इसका मतलब क्या है?
ये बड़ा प्रचलित मुहावरा है हमारे यहाँ, ‘हाथ से निकल जा रही है लड़की।ʼ ये हाथ, कैसे, कहाँ थी हाथ, हाथ में क्या था? पूरी हमारी संस्कृति ही इसी पर आधारित है कि लड़की हाथ से नहीं निकलनी चाहिए। वो हाथ से नहीं निकलेगी तो फिर गुलाम, पशु, गँवार की तरह रहेगी और तुम्हारी ज़िंदगी नर्क भी बनाएगी। तुम उसकी ज़िंदगी नर्क करो, वो तुम्हारी ज़िंदगी नर्क करेगी।
पर तुम्हें अपनी ज़िंदगी नर्क होने देना स्वीकार है पर लड़की को स्वतंत्रता देना स्वीकार नहीं है, ‘हाथ से न निकल जाए लड़की। ये दुकानें (दुकानों पर) इतनी देर रात तक क्यों खड़ी रहती हैं, जिला प्रशासन से बोलकर दुकानें जल्दी बंद कराओ।ʼ क्यों? ‘लड़कियाँ हाथ से निकल रही हैं।’ ‘ये कोचिंग वाले बैच शाम को क्यों चलते हैं, शाम को नहीं चलनी चाहिए कोचिंग।ʼ क्यों? ‘लड़की हाथ से निकल रही है।’
न जाने किस बात की हमको इन्फिरियोरिटी (हीनता) है, ये कौन-सा कॉम्प्लेक्स (जटिलता) है कि बड़ा डर लगा रहता है कि कहीं लड़की, बहन, पत्नी हाथ से न निकल जाए। इंसान है औरत भी; और भयानक बदला लेती है, बहुत भयानक बदला लेती है। वो कोई मुक्तपुरुष, सिद्धपुरुष नहीं है, वो भी इंसान है। आप उसको जो चोट देते हो वो तो दिखाई देती है बाहर से; औरत जब बदला लेती है और चोट देती है न, तो वो पता नहीं चलता — छाती छलनी हो जाएगी, हो रही होगी।
और लेगी बदला, तुमने उसको कहीं का नहीं छोड़ा, वो बदला क्यों न ले? बहुत भारी बदला लेती है वो। वो तुमको नहीं मार सकती तो तुम्हारे सामने तुम्हारे बच्चे को पीटेगी। तुम अपने बच्चे को छुड़ा लोगे तो तुम्हारे सामने खुद को पीटेगी। उसके तरीके दूसरे होते हैं।
प्रश्नकर्ता: सर, अगर हम प्रयत्न भी कर रहे हैं पिछले कई सालों से, शादी से, शादी के एक साल के बाद ही, तुरंत ही प्रयत्न किए जा रहे हैं कि आप कुछ करिए, कुछ पढ़िए, कुछ लिखिए, कुछ भी करिए, आपका जिसमें भी मन हो। दो-तीन बार मैंने खुद से उनको जॉब ढूँढकर दिया है, लेकिन उनकी ही कोई इच्छा नहीं हो रही है कि मैं जॉब करूँ, मैं ये करूँ।
आचार्य प्रशांत: कह दो, रिश्ता ही नहीं रखूँगा। या तो आज़ाद इंसान की तरह मेरे साथ रहो, ऐसे तुम आश्रित होकर के, चिपककर के जिओगी तो मुझे रिश्ता ही नहीं रखना है। भाई, उसके ऊपर भी तो हज़ारों सालों की परंपरा, रीति-रिवाज़, कुप्रथाएँ हावी हैं न। वो भी ऐसा थोड़े ही है कि आज़ाद होने के लिए छटपटा रही है।
उसको भी यही बताया गया है कि कुछ नहीं करना लाइफ़ में, मर्द को मुट्ठी में रख बस। तो कहती है, ‘काहे के लिए मेहनत करूँ?’ “धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाए।” ‘बाहर जाकर मेहनत काहे के लिए करनी है, हसबेंड को मुट्ठी में रखो, उसकी सारी सैलरी अपनी है।’ काहे के लिए मेहनत करे वो?
तो आपको बहुत मेहनत करनी पड़ेगी उसके भीतर जो इस तरीके के संस्कार भरे हैं, उन संस्कारों को काटने के लिए। और इस हद तक मेहनत करनी पड़ेगी कि शर्त रख दीजिए कि अगर तुझे घर में इसी तरीके से रहना है तो फिर मेरे साथ नहीं रह सकती।
प्रश्नकर्ता: और सर, आज ही एक न्यूज़ में मैंने पढ़ा है, एक फैमिली कोर्ट का ही मामला था जिसमें ये हुआ कि पति की आमदनी बाइस हज़ार थी और उसके ऊपर छः लोगों का भार था। तो उसका डिवोर्स प्रोसेस (तलाक की प्रकिया) चल रहा था, तो पत्नी अलग हो गई पति से और बेटी अपने साथ में ले गई। तो कोर्ट ने ये कहा कि पति ने ये आर्ग्यूमेंट (तर्क) रखा कोर्ट के सामने कि 'वो अपने आप से कमा रही है। वो इतना कमा रही है कि वो खुद का भी पोषण कर सकती है और अपनी बच्ची का भी पोषण कर सकती है, तो कोर्ट मुझ पर क्यों केस डाल रहा है? कोर्ट मुझको क्यों कह रहा है कि मैं ही अपने बच्चे और अपनी पत्नी का भरण-पोषण करुँ? वो मुझसे अलग रही है फिर भी।'
ये कोर्ट का फ़ैसला है सर। तो कोर्ट भी यह कहता है कि आप अपनी पत्नी और बच्चे का भरण-पोषण करो, भले ही वो आपके साथ नहीं रह रहे। तो ये घटना मुझे बहुत छू गई सर।
आचार्य प्रशांत: तो ये शादी से पहले नहीं समझ में आई थी बात? तब क्या कर रहे थे? जिन महोदय की ये घटना है, उन्होंने क्या देखकर विवाह किया था? तब तो बस यही देखकर लिया लेते हो कि बढ़िया किचन और बिस्तर के लिए बढ़िया होनी चाहिए। बाद में जब अलिमनी (गुज़ारा) देनी पड़ती है, तो समझ में आता है कि जे का होगो!
ब्याह कर लाते हो, उससे पहले परख लिया करो। एकाध-दो साल तो बातचीत करो थोड़ी, तो किसी का मन कुछ पकड़ में आए। तब तो कहते हो, ‘नहीं, वो भौजाई ने देख लिया है न, काफ़ी है। बस भौजाई जैसी होनी चाहिए (शर्माने का अभिनय करते हुए)!’ जाने ये किस तरीके का, मेरे तो कान खड़े हो जाते हैं ऐसे तर्क सुनकर, काहे के लिए शादी में इतनी आतुरता रहती है कि बिना जाने-समझे? अब वो कह रही है, ‘पैसे दो,’ अब दो, भरो। मुझे इसमें कोई सहानुभूति नहीं है।
ऐसे पतियों की बड़ी लंबी-चौड़ी फौज है जो कह रहे हैं, ‘हमारी पत्नी हमारा शोषण कर रही है।’ ये तो बेटा, बस दांव उलटा पड़ गया, लाए तो तुम भी उसे इसीलिए थे कि तुम उसका शोषण कर सको। ये तो संयोग की बात है कि वो कर ले गई, तो मैं कैसे किसको गुनहगार मानूँ? अब मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा हूँ कि वो शोषण नहीं कर रही है। वो बिल्कुल कर रही है, एकदम कर रही है; और राक्षसी है कि कर रही है शोषण, बिल्कुल। महिलाएँ ऐसी होती हैं बहुत सारी। जैसे पुरुष राक्षस हो सकते हैं, महिलाएँ भी राक्षसी हो सकती हैं, होती हैं। लेकिन ये भी तो बताओ न कि तुमने उस राक्षसी में क्या देखकर रिश्ता बनाया था?
राम और लक्ष्मण के सामने भी आई थी सूर्पनखा, उन्होंने तो रिश्ता नहीं बना लिया। उन्होंने तो देखा कि रूप है पर राक्षसी है, तो रिश्ता नहीं बना लिया। तुम काहे के लिए रिश्ता बना लेते हो खट से? बस रूप देखते हो और घुस जाते हो और उसके बाद कहते हो, ‘अरे! क्या बताएँ, जीवन भर गुजारा-भत्ता देना पड़ेगा,ʼ दो।
वैसे जहाँ तक मुझे पता है सीमित समझ में — मुझे ज़्यादा पता होना नहीं चाहिए, क्योंकि मेरी उपलब्धि ही जीवन में यही है कि मुझे कोई ज़रूरत नहीं है कि मुझे ये सब पता हो — लेकिन जहाँ तक मुझे पता है, अलिमनी वगैरह की बात तब आती है जब — और वो दोनों पक्षों की होती है — जो ज़्यादा कमा रहा होता है, वो दूसरे को देता है। तो अगर पति-पत्नी दोनों कमा रहे हैं, तो उसमें इसका कुछ होना नहीं चाहिए। अब इसमें कोई विशेष क्लॉज (अनुच्छेद) लग रहा होगा तो मैं नहीं जानता।
मामला जड़ से ही सड़ा हुआ है भाई, तुम ये क्यों बोलते हो कि तलाक के बाद जो हो रहा है उसमें अन्याय है? तलाक के बाद छोड़ दो, शादी से भी पहले से जो हो रहा है वो भी गलत है। जिस पेड़ की जड़ ही सड़ी हुई हो, उसमें फल क्या रसदार लगेंगे? जिस तरीके से हम रिश्ते बनाते हैं और जो हमारी पूरी प्रथा और हमारे तौर-तरीके हैं, ये विष-वृक्ष है।
प्रश्नकर्ता: सर, मैं जिस फील्ड (क्षेत्र) में काम करता हूँ, मैं ब्लड बैंक टेक्नीशियन हूँ, तो महिलाएँ उसमें ज़्यादा रहती हैं। तो अभी तक मैं इतने साल से, मैं दस साल से काम कर रहा हूँ, तो मैंने एक चीज़ नोटिस की है कि जितनी भी महिलाएँ होती हैं, या तो उनकी जॉब छूटती है या तो उनका पति छूटता है। मेरे सामने ऐसे पाँच केसेस (मामले) हैं, जिसमें से पाँच में से चार में उनकी जॉब छूटी है — जो बहुत ही अच्छे पद पर थीं। और एक ही केस ऐसा है जिसमें उसने पति छोड़ा है।
आचार्य प्रशांत: तो यही बात मैं महिलाओं से पूछ रहा हूँ न, ‘पति क्या देखकर बनाया था? क्या ऐसा हो गया कि उसने बोल दिया, अल्टीमेटम (अंतिम चेतावनी) दे दिया कि या तो नौकरी छोड़ दे या मुझे छोड़ दे? क्या देखकर ब्याह करा था उससे? राजकुमार, राजदुलारा है? आहाहा!’ शुरुआत में ही तुम इतनी नालायकी कर देते हो कि उसके बाद रोने से कोई फ़ायदा नहीं है।
भारत में जो लेबर पार्टिसिपेशन रेट (श्रम भागीदारी दर) है महिलाओं का, वो लगातार गिरता जा रहा है। ये अजीब बात है, हम कहते हैं, पर कैपिटा इनकम (प्रति व्यक्ति आय) बढ़ रही है, एजुकेशन (शिक्षण) बढ़ रही है, हर तरीके से महिलाएँ ज़्यादा सशक्त हो रही हैं, लेकिन कुल लेबर फोर्स (श्रम बल) में महिलाओं का जो अनुपात है वो लगातार गिर रहा है। हर साल गिर रहा है, क्योंकि संस्कृति वही पुरानी है।
अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही है, तो पुरुषों की तनख्वाह बढ़ रही है। जब पुरुष की तनख्वाह बढ़ जाती है, तो घर में पत्नी से बोलता है कि बढ़ तो गई मेरी सैलरी, तू अपनी जॉब छोड़ दे। मेरी सैलरी बढ़ गई है, मेरी सैलरी काफ़ी है दोनों के लिए। माने सन् उन्नीस-सौ-नब्बे में या दो-हज़ार में या दो-हज़ार-दस में जितने प्रतिशत महिलाएँ बाहर निकलकर काम करती थीं, आज उतना भी नहीं कर रही हैं। और ज़्यादातर महिलाएँ जो जॉब छोड़ रही हैं, वो बहुत गरीब नहीं हैं, वो निम्न वर्ग से नहीं आती, वो मध्यम वर्ग से आती हैं।
अर्थव्यवस्था भले ही बेहतर होती जा रही है, हमारी संस्कृति और ज़्यादा रसातल में गिरती जा रही है। कई मामलों में, कल्चरल सेंस (सांस्कृतिक भावना) में हम ज़्यादा लिबरेटेड (मुक्त) थे आज से तीस-चालीस साल पहले; सांस्कृतिक तौर पर हमारा पतन हुआ है तीस-चालीस साल में। और ये जो एफएलपीआर है, फीमेल लेबर पार्टिसिपेशन रेट (महिला श्रम भागीदारी दर), ये उसका सबूत है एक।
प्रश्नकर्ता: और सर, एक विरोधाभास भी देखा है मैंने अस्पताल में कि जो लेबर कक्षा (श्रमिक वर्ग) की महिलाएँ होती है, जो वर्कर (कार्यकर्ता) होती हैं, जो हाउसकीपिंग है, उसमें ज़्यादातर महिलाएँ होती हैं और उनके पति उनको फोर्सफुली (ज़बरदस्ती) भेजते हैं काम करने के लिए।
आचार्य प्रशांत: हाँ, क्योंकि वहाँ मजबूरी है अभी।
प्रश्नकर्ता: और एक और चीज़ उनमें नोटिस की है मैंने कि जो महिलाएँ वहाँ पर आएँगी, उनके तीन से चार बच्चे होंगे, सर। और उनका पति नहीं पूरा कर पाता, तो उनकी महिलाओं को फोर्सफुली भेजता है कि तुम काम करो, चौबीस घंटे काम करो।
आचार्य प्रशांत: वहाँ मजबूरी है न, वहाँ मर्द इतना कमा ही नहीं रहा कि चले, तो फिर अपनी मर्दानगी को एक तरफ़ रखकर औरत को बाहर भेजता है कि जा, तू भी कमाकर ला, नहीं तो भूखे मर जाएँगे। यही मर्द जिस दिन थोड़ा सा ज़्यादा कमाने लगता है, उस दिन औरत को कहता है कि कहीं नहीं बाहर, घर में बैठ। क्योंकि बाहर जाती है तो नैन-मटक्का करती है और ज़्यादा बड़ी-बड़ी बातें करती है, घर में बैठ।
ये बहुत लंबा-चौड़ा विषय है, हमें लग रहा था कि कम-से-कम जो फीमेल फिटिसाइड (कन्या भ्रूण हत्या) है वो कम हो रही है। पिछले पाँच साल में वो दोबारा बढ़ गई है, ये हमारी संस्कृति एक नई दिशा ले रही है। मैं कितनी बार ये आँकड़ा उद्धृत कर चुका हूँ कि भारत की जनसंख्या में चार से पाँच करोड़ महिलाएँ नदारद हैं, गायब हैं, वो मार दी गई हैं। कोई बात नहीं कर रहा है कि ये चार-पाँच करोड़ महिलाएँ, इनको किसने मारा?
प्राकृतिक रूप से महिलाएँ और पुरुष लगभग एक बराबर होने चाहिए जनसंख्या में। और भारत की जनसंख्या में महिलाओं की अपेक्षा पुरुष चार-पाँच करोड़ ज़्यादा हैं, क्योंकि बाकी बच्चियों को जन्म लेने से पहले ही मार दिया हमने। और हम बहुत गौरव अनुभव करते हैं कि ऐसा हमारा चाल-चलन है, व्यवहार है, प्रथा है, परंपरा है। एक-दो लड़कियाँ कहीं से गायब हो जाएँ तो बवाल हो जाता है, दंगा भी हो जाएगा। चार करोड़ लड़कियाँ गायब हैं, उसकी कोई बात नहीं करना चाहता।