निषिध्य निखिलोपाधीन्नेति नेतीति वाक्यत:। विद्यादैक्यं महावाक्यैर्जीवात्मपरमात्मनो:॥
‘नेति-नेति’ शास्त्र-वाक्यों की सहायता से सभी उपाधियों का निषेध करके महावाक्यों द्वारा इंगित जीवात्मा और परमात्मा की एकता का अनुभव करो।
—आत्मबोध, श्लोक ३०
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। पिछले सत्र में आपने कहा कि ज्ञान को हटाना व झूठ को जानना ही नेति-नेति का अर्थ है। आचार्य जी, इसके आगे की यात्रा के बारे में जानना चाहता हूँ, इसके आगे की यात्रा कैसे हो? नेति-नेति के बाद कोई भी नया काम करने में कोई रुचि नहीं आ रही है। श्लोक के मुताबिक नेति-नेति से ‘अहम् ब्रह्मस्मि’ की यात्रा अब कैसे हो? कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: देखा? रुचि के मारे! जो पूरी उलझन है, वो इस एक शब्द पर केंद्रित है, क्या?
श्रोतागण: रुचि।
आचार्य: “रुचि नहीं आ रही है।“ ये मसला मुझे कभी समझ में ही नहीं आता। रुचि नहीं आ रही हो तो ना आए। रुचि इतनी ज़रूरी क्यों है, भाई?
मैं बहुत विचार भी करूँ, सोचूँ भी, तो मुझे कभी पता नहीं चलता, कुछ याद नहीं आता कि मैं जो कर रहा हूँ, उसमें मेरी रुचि है या नहीं है। रुचि हो तो ठीक, ना हो तो ठीक, जो करना है सो करना है। जो है सो है न, कि नहीं? या व्यक्तिगत पसंद-नापसंद बहुत बड़ी बात हो गए?
अब आप भी युवा ही हैं, तीस-पैंतीस की उम्र है, और वहीं जाकर फँस रहे हैं। कह रहे हैं कि “आचार्य जी, आपने नेति-नेति का पाठ पढ़ाया, बहुत सारी चीज़ों का झूठ, उनकी व्यर्थता दिख गई, लेकिन अब समस्या ये है कि नेति-नेति के बाद कोई भी नया काम करने में कोई रुचि नहीं आ रही है।"
रुचि की नेति-नेति कब करोगे?
हर चीज़ का झूठ तुमने देख लिया, रुचि कितना बड़ा झूठ है, ये कब देखोगे? हर चीज़, तुम कह रहे हो, तुमने जान ली कि किस झूठे स्रोत से उद्भूत होती है। जो झूठा है, उसका स्रोत भी झूठा ही होगा कुछ। रुचि किस स्रोत से आती है, ये कभी जाँचना चाहा तुमने?
क्या ये ज़ाहिर-सी बात नहीं है कि भारतीय हो तो अस्सी-प्रतिशत संभावना है कि क्रिकेट में रुचि होगी। तो अब रुचि में 'आत्मिक' क्या हुआ? ब्राज़ील में पैदा हुए होते तो?
प्र: फुटबॉल।
आचार्य: फुटबॉल में रुचि होती, भाई! रुचि में ऐसा क्या असली है कि दीवाने हुए जा रहे हो? हिंदू हो तो भजन में रुचि हो जाएगी, मुसलमान हो तो अज़ान में रुचि होगी, लड़के हो तो लड़की में होगी। सब अस्सी-प्रतिशत संभावना के तौर पर बोल रहा हूँ।
(श्रोतागण हँसते हैं)
भाई, बीस-प्रतिशत भारतीयों को क्रिकेट नहीं भी पसंद होता। शाकाहारी घर में पैदा हुए हो तो दाल-रोटी में रुचि होगी, माँसाहारी घर में पैदा हुए हो तो कबाब-बिरयानी में रुचि होगी। चीन में पैदा हुए हो तो चाउमीन चाहिए, तमिलनाडु में हुए हो तो डोसा चाहिए। देखते नहीं हो कि रुचि समय, काल, स्थान की दासी है? तुम्हारी नहीं है रुचि, तुम्हारी परिस्थितियों की है रुचि, और परिस्थितियाँ बदल दो, रुचि भी तो बदल ही जाती है न? आज उन्हीं चीज़ों में रुचि रखते हो जिनमें आज से दस साल पहले रखते थे? ऐसा है क्या? दस साल बाद भी रुचि बदल चुकी होगी।
पर ऐसी परिवर्तनशील और निराधार रुचि को देवतुल्य बनाकर तुम दुःख पाते हो। तुम कहते हो, “अब और कुछ करने में रुचि नहीं आ रही है।" मैं बताता हूँ हो क्या रहा है। नेति-नेति तुमने पढ़ी; जिन चीज़ों में तुम्हारी रुचि थी उन्हीं की तो नेति-नेति करोगे। जो चीज़ें अच्छी लगती थीं, उनकी नेति-नेति करी कि 'नहीं, नहीं, इनमें कुछ नहीं रखा'। और जो चीज़ें बुरी लगती थीं उनकी नेति-नेति करी कि इनमें कुछ नहीं रखा। पर अच्छेपन और बुरेपन की तुमने नेति-नेति नहीं करी।
तो अब जो तथाकथित अच्छी-अच्छी चीज़ें ज़िंदगी से गई हैं उनका अभाव खलता है। उनको तुमने हटा तो दिया पर मान अभी-भी यही रहे हो कि वो रुचिपूर्ण चीज़ें थीं, सरस थीं बहुत। इसी तरीके से जिन चीज़ों से तुम दूर भागते थे, जिन चीज़ों से अरुचि थी तुम्हारी, उस अरुचि को भी तुमने हटा तो दिया, उन चीज़ों को भी तुमने फ़ौरी तौर पर, सतही तौर पर स्वीकार तो कर लिया, लेकिन कह अपने-आप से यही रहे हो कि 'मैंने अब उन चीज़ों को भी स्वीकार कर लिया है जो बेकार की हैं। मैंने उन चीज़ों को हटा दिया है जो मुझे बहुत पसंद थीं, और अब मैंने उन चीज़ों को भी स्वीकार कर लिया है जो मुझे नापसंद थीं।' लेकिन मामले की तह तक नहीं पहुँच रहे हो, ये नहीं कह पा रहे हो कि पसंद-नापसंद बात ही बकवास है।
सार-असार होता है, नित्य-अनित्य होता है; भेद सिर्फ़ इस आधार पर करा जा सकता है कि क्या सार है, क्या असार है, क्या नित्य है, क्या अनित्य है, क्या सत्य है, क्या असत्य है। सिर्फ़ ये दो वर्ग हो सकते हैं – असली-नकली, सच-झूठ, सार-असार। लेकिन तुम्हारी दुनिया में दो वर्ग कौन-से चलते हैं?
श्रोता: रुचि-अरुचि।
आचार्य: पसंद-नापसंद, रुचि-अरुचि। ये जो तुमने वर्गीकरण कर रखा है, यही कितना बड़ा झूठ है ये तुम नहीं देख पा रहे, इसकी तुम नेति-नेति नहीं कर पा रहे। तुम ये भी अगर कहोगे कि अध्यात्म ऊँची बात है, तो ये कहोगे, “अध्यात्म ऊँची बात है, उसके लिए तो हमने वो चीज़ें भी छोड़ दीं जो हमें पसंद थीं।"
इस वक्तव्य से क्या पता चलता है?
कि तुम्हें अभी-भी वो चीज़ें मूल्यवान तो लगती ही हैं जो तुम्हें पसंद थीं, तभी तो तुम उनका हवाला देकर कह रहे हो कि, "हमने देखो कितनी मूल्यवान चीज़ें छोड़ दीं अध्यात्म के लिए।" अगर तुम्हें उन चीज़ों की मूल्यहीनता दिख ही गई होती तो तुम कहते कि, "अध्यात्म के बाद वो सब छूट गया जो मूल्यहीन था, फ़ालतू था।" तुम ये नहीं कहते कि 'मैंने वो सब छोड़ दिया जो फ़ालतू था'। उसे तो छोड़ना ही था क्योंकि वो फ़ालतू था।
तुम कहते हो, "अध्यात्म के लिए हमने बड़ी कुर्बानी दी है, वो सब चीज़ें भी छोड़ दीं जो हमें बहुत पसंद थीं।" वो चीज़ें तुम्हें आज भी पसंद हैं, और इसीलिए तुम कलप रहे हो। तुमने उनको छोड़ा भी है तो बस ऊपर-ऊपर, भीतर-ही-भीतर तुम आज भी उनके आशिक़ हो, मौका मिले तो गोलगप्पा गप्प! ऊपर-ऊपर छोड़ रखा है।
तुम्हें ये देखना पड़ेगा कि जो तुमने पकड़ रखा है वो है ही व्यर्थ। रुचि ही बड़ा धोखा है क्योंकि रुचि तुम पर आरोपित की जाती है समय द्वारा, परिवार द्वारा, धर्म द्वारा, काल द्वारा, परिस्थिति द्वारा, शिक्षा द्वारा, मीडिया द्वारा। बार-बार दुहाई देना कि 'मेरा इंट्रेस्ट है कि नहीं है', मूर्खता की बात है, मत करो ये। तुम्हारा इंट्रेस्ट तुम्हारा है ही नहीं, वो तो स्थितियों का है, यूँ ही आ गया। फिर नेति-नेति आसान हो जाएगी।
नेति-नेति के सामने चुनौती ही है पसंद-नापसंद – क्या प्रिय लगता है, क्या अप्रिय लगता है। सबसे पहले उसी की नेति-नेति कर दो। सबसे पहले उस प्रक्रिया को ही समझ लो जिस पर चल कर के किसी को कुछ अच्छा लगने लगता है और कुछ बुरा लगने लगता है।
दस-बारह साल तक के होते हो, तुम्हें कौन-सा लड़कियाँ, स्त्रियाँ बड़ी प्रिय लगने लगती हैं? माँ अपनी प्यारी लगती है स्त्रियों में, बस; जाकर के अपना उसको पकड़ लिया, खुश हैं। उसके बाद क्या होता है, प्रक्रिया को समझना – देखोगे कि प्रक्रिया रासायनिक है। शरीर में कुछ द्रव्यों का उत्सर्जन होता है, कुछ ग्रंथियाँ सक्रिय हो जाती हैं, और फिर तुमको स्त्रियाँ प्रिय, रुचिकर लगने लगती हैं, लगती हैं न?
तुम कभी सोचते ही नहीं कि, "आठ साल की उम्र तक तो ये जो उर्मिला है, बड़ी साधारण-सी ही थी, मैं पसंद ही नहीं करता था इसके साथ खेलना-वेलना कुछ भी। यही बल्कि आती थी कि चलो खेलें, तो मैं कहता था, 'हट! क्रिकेट खेलना है, तुझे बॉलिंग बैटिंग कुछ आती नहीं।' और चौदह के हुए नहीं कि ये उर्मिला कुछ खास लगने लगी है। अब बोलता हूँ, 'उर्मी! उर्मी! आजा खेलें'।"
(श्रोतागण हँसते हैं)
मामला ही पलट गया, अब वो बोलती है कि दूर हट!
तुम सोचते हो कि ये कोई आंतरिक रुचि इत्यादि की बात है, ये बात किसकी है?
प्र: शरीर में होने वाले रासायनिक बदलाव की।
आचार्य: तो ये जो पूरी प्रक्रिया है, इसको समझो, ताकि पसंद-नापसंद की ही नेति-नेति कर डालो। फिर कुछ नहीं सताएगा। फिर पूछा है कि “नेति-नेति से 'अहम् ब्रह्मस्मि' की यात्रा कैसे हो?”
कोई यात्रा नहीं चाहिए। नेति-नेति पूर्ण हो, यही ब्रह्मस्मि है। तुम्हारी अभी पूर्ण ही नहीं हुई है, तुम यूँ ही मान्यता रख रहे हो कि 'नेति-नेति तो कर ली, 'अहम् ब्रह्मस्मि' हो नहीं रहा, मैं परेशान हूँ।' नेति-नेति हुई ही नहीं है अभी, पूरी करो।