प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अपने रिश्तों को निभाने के कारण मैं अशान्त हो जाता हूँ। ऐसा क्यों होता है?
आचार्य प्रशांत: एक छोटा सा सूत्र याद रखो। जो कुछ भी परेशान कर रहा हो, उसे झेलने की कोई विवशता है नहीं। जब तुम्हें अन्ततः शान्ति ही चाहिए, तो उसको क्यों बर्दाश्त किये जा रहे हो जो तुम्हें अशान्त करता है? शान्ति भी कहते भले हो कि अन्ततः चाहिए, पर अन्ततः चाहिए या अभी चाहिए? बोलो जल्दी।
प्र: अभी चाहिए।
आचार्य: जब अभी चाहिए, तो अभी उसको क्यों झेल रहे हो जो परेशान करता है? बस यही सूत्र है। पर हम तमाम तरीक़े के कारण, रैश्नलाइजे़शन (औचित्य), जस्टिफ़िकेशन (स्वीकार्य कारण) निकालते हैं कि अभी हम उसको क्यों झेल रहे हैं जो हमें परेशान करता है। हम कहते हैं, 'अभी तो झेल रहे हैं न, कल अपनेआप अलग होना होगा तो हो जाएगा, अभी हमें झेलने दो।' अपनी हालत को न्यायसंगत मत ठहराओ। जहाँ भी शान्ति नहीं है, वहाँ तुम अपने साथ अन्याय ही कर रहे हो।
प्र: आचार्य जी, यदि मेरी अशान्ति का कारण कोई अपना है और उससे अलग होने में अशान्ति की और सम्भावना है, तो मुझे इस स्थिति में शान्ति कैसे मिलेगी?
आचार्य: तथ्य क्या है? कल्पना क्या है? अभी वो परेशान कर रहा है, और अलग हो जाऊँगा तो बहुत परेशान हो जाऊँगा, इसमें तथ्य क्या है और कल्पना क्या है?
प्र: परेशान कर रहा है, ये तथ्य है; परेशान हो जाऊँगा, ये कल्पना है।
आचार्य: उसका कोई प्रमाण नहीं?
प्र: प्रमाण नहीं।
आचार्य: तो ज़रा वही होने दो। इसका तो प्रमाण है कि ये मुझे अभी परेशान कर ही रहा है — ये बात प्रामाणिक है, ये हो रही है, ये घटना घट रही है। पर तुम अलग इसलिए नहीं होते, क्योंकि तुम्हें लगता है कि अलग हो गया तो न जाने क्या होगा — वो कल्पना है। तुम्हें कैसे पता कि जो तुम सोच रहे हो, वही होगा? तुम इतने होशियार हो कि तुम भविष्य पढ़ लोगे? तुम इतने होशियार होते तो अभी परेशान हो रहे होते? अभी तो तुम हो बिलकुल बुद्धू, पर कल्पना में हो जाते हो बिलकुल होशियार, कि मैं कल्पना करके ख़ुद जान लूँगा कि अगर मैंने इसको छोड़ा तो क्या पता क्या दुर्घटना घटित हो जाए।
कल्पना में बड़े होशियार हो जाते हो कि कहीं छोड़ने से कोई त्रासदी न आ जाए, आसमान न फट पड़े। आसमान तो तब फटा है जब तुमने पकड़ा है। जब पकड़ने चले थे, तब सोचा था कि पकड़ने के अंजाम क्या होंगे? अब झेल रहे हो पकड़ने के अंजाम! क्या यही प्रमाण काफ़ी नहीं होता तुम्हें ये बताने के लिए कि जब मैं तब न जान पाया कि पकड़कर क्या होगा, तो अब मैं कैसे जान सकता हूँ कि छोड़कर क्या होगा? जब मैं तब इतना मूढ़ था कि समझ न पाया कि पकड़ने से क्या होगा, तो अब मैं क्यों अपनेआप को इतना होशियार समझता हूँ कि कल्पना किये जाता हूँ कि छोड़ दूँगा तो क्या होगा?
तुम छोड़ो न! छोड़ने के रास्ते में यही सबसे बड़ी बाधा है — कल्पना। छोड़ते हो, और छोड़ते ही दिल काँप जाता है, क्योंकि एक चित्र आता है आँखों के सामने कि बस अब छोड़ा है तो ये सबकुछ होगा — महविनाश, तमाम तरह के अनिष्ट। और छोड़ता कोई है नहीं, छोड़ा तुमने कभी है नहीं, तो तुम्हें कैसे पता कि छोड़ने पर ये सब होता है? और तुम्हें कैसे पता कि छोड़ने पर और कुछ नहीं होता? क्या पता छोड़ने पर कुछ और ही हो जाए! कोई फूल ही खिल जाए! तुम्हें कैसे पता कि नहीं खिलेगा?
मूल स्वभाव के विरुद्ध जाकर अगर जी रहे हो, तो न अपने साथ भला कर रहे हो, न किसी और के साथ। बात ख़त्म।
प्र: आचार्य जी, हमारा मूल स्वभाव क्या है?
आचार्य: शान्ति। जिसकी संगत में अशान्त हो जाओ, उससे तत्क्षण मुक्ति पाओ। तुम भी उससे मुक्त हो जाओ, उसको भी अपने से मुक्त करो।
प्र: अगर आप ख़ुद ही अशान्त हैं, तो आप किसी के भी साथ रहिए, आपको तो शान्ति प्राप्त होगी ही नहीं।
आचार्य: नहीं होगी।
प्र: अपनेआप को शान्त कैसे किया जाए?
आचार्य: कम-से-कम उन प्रभावों से तो दूर हो जाओ जो अशान्त करते हैं। क्या पता कि तुम्हारी अशान्ति तुम्हारी हो ही न, सब बाहर से आयी हो! क्या पता कि तुम्हारा स्वभाव तो शान्ति है, जो अशान्ति तुमने पकड़ रखी है, वो आती ही दूसरों से है! और इस कारण यदि अशान्त करनेवालों से दूर हो गये तो अशान्ति से भी दूर हो गये।
किसी की भी अशान्ति आन्तरिक नहीं होती। हम सबकी अशान्ति बाहरी होती है, आयातित होती है; बाहर से ही आती है, परिस्थितियों से आती है, दूसरों से आती है।
प्र: आचार्य जी, तो फिर ये क्यों कहा जाता है कि अपने कष्टों का कारण हम स्वयं ही बनते हैं?
आचार्य: हम स्वयं इसलिए बनते हैं, क्योंकि हम उनको (कष्ट) आने देते हैं। दिख रहा है कि ये अशान्त करता है और फिर भी मैं इसको आने दूँ, और आने ही न दूँ, मैं ख़ुद कूद-कूद उसके पास जाऊँ, तो मैं अपने कष्ट का कारण स्वयं बना।
जहाँ मन खट्टा हो जाए, फिर कह रहा हूँ, ‘वहाँ जाने की कोई मजबूरी नहीं। फिर कितनी क़ीमत देनी पड़े, दे दो वो क़ीमत, पर अपने सुकून से समझौता मत करो।’
प्र: आचार्य जी, हमारे जीवन में हम अनेक रिश्तों से जुड़े होते हैं, जैसे — माँ-बाप, भाई-बहन इत्यादि। इनमें से जिस रिश्ते से हम परेशान हों, उसे त्याग तो दें, पर उस रिश्ते को त्यागने के बाद भी आप शान्त नहीं रह सकते, क्योंकि आप जुड़े हुए हो उससे।
आचार्य: इसमें से तथ्य क्या है, कल्पना क्या है?
प्र: जी, इतनी गहराई में तो नहीं जा पाऊँगी मैं। (हँसते हुए)
आचार्य: गहरा क्या है! कितनी बार त्यागा है, कितनी बार त्यागने का अनुभव है कि कह रहे हो कि त्यागने पर भी शान्ति नहीं मिलती? त्यागा कभी है नहीं, त्यागने की कल्पना खूब है!
प्र: उन रिश्तों से जुड़े हुए हैं, मन उनसे लगा हुआ है।
आचार्य: और मन उससे लगा हुआ है, और लगकर क्या पा रहा है?
प्र: दुख, अशान्ति।
आचार्य: तो लगे रहो! कोई विवशता पाते हो, इस कारण कहे जाते हो कि दुख भले ही पा रहा हूँ, पर छोड़ नहीं सकता। मैं इतना ही कह रहा हूँ कि अस्तित्व ने तुम्हें ऐसी कोई विवशता नहीं दी है, ये विवशता तुमने ख़ुद कल्पित की है। किसी परमात्मा का ऐसा कोई आदेश नहीं है कि दुख में जियो। तुम इसलिए नहीं पैदा हुए हो कि कष्ट भोगो। कष्ट अगर तुम भोगते हो, तो वो तुम्हारी अपनी मूढ़ता है, अपना चुनाव है। देखो न, जो आनन्दधर्मा है, जिसका स्वभाव है सच्चिदानन्द, वो मनुष्य अगर दुख में और क्लेश में जिये, तो कितनी विद्रूप बात है! है कि नहीं?
प्र: लेकिन ऐसे तो सारी दुनिया ही जी रही है।
आचार्य: क्योंकि हमें ये बता दिया गया है कि आनन्द से बढ़कर भी कुछ और है। आनन्द माने परमात्मा। हमें ये बता दिया गया है कि परमात्मा से ऊपर भी कुछ और है।
आप अपने बच्चों को क्या तालीम देते हो? कि आनन्द से बढ़कर है 'कर्तव्य', कि आनन्द से बढ़कर है 'शिक्षा', आनन्द से बढ़कर है 'मर्यादा'। अब आनन्द की क़ुर्बानी तो जाएगी! जिसने आनन्द को छोड़ा, उसने परमात्मा को छोड़ा। जिसने शान्ति को छोड़ा, उसने परमात्मा को छोड़ा। ये सब हमारी ग़लत तालीम और ग़लत संस्कारों का नतीजा है।
प्र: इस हिसाब से चलें तो हमारे सभी रिश्ते-नाते तो बेकार ही हैं, क्योंकि अगर हम उनके साथ जुड़ें तो अशान्ति और क्लेश बिलकुल होगा ही होगा।
आचार्य: किसके लिए बेकार है, सिर्फ़ आपके लिए या उनके लिए भी?
प्र: सभी के लिए।
आचार्य: है न! तो दोनों पक्ष क्लेश पा रहे हैं। फिर?
प्र: फिर तो मतलब कुछ भी नहीं रहा, फिर तो कोई रिश्ते रहे नहीं न।
आचार्य: ये नहीं रहे। ये मत बोलिए कि कुछ भी नहीं रहा, ये नहीं रहे। फिर कुछ और रहेगा। फिर कुछ और रहेगा और वो जो कुछ और होगा, वो बड़ा खूबसूरत होगा। ये नहीं रहेगा जो अभी है। और ये जो है, इसमें आप ही नहीं, दूसरा पक्ष भी दुख पा रहा है। इसे क्यों क़ायम रखना चाहते हो?
प्र: लेकिन हम अकेले कैसे रह सकते हैं?
आचार्य: अकेला कहाँ कहा मैंने? मैंने कहा, ‘कुछ और रहेगा।’ वो कुछ और क्या होगा, वो अज्ञात है, इसीलिए डरते हो। आश्वासन माँगते हो कि ठीक है, इसे तो छोड़ देंगें, अभी छोड़ दें, पर पक्का कर दो कि जो कुछ नया आएगा, वो इससे बेहतर होगा। यही माँग है न?
ऐसा नहीं है कि तुम अभी जहाँ हो, उस जगह से तुम्हें कोई बड़ा प्रेम है। अभी छोड़ने को राज़ी हो जाओगे अगर कोई बेहतर विकल्प मिले, पर वो विकल्प सिद्ध होना चाहिए कि बेहतर है।
प्र: क्या चीज़ों को त्यागने से ही हम शान्ति पा सकते हैं?
आचार्य: त्याग का मतलब होता है कि मूर्ख बनकर नहीं जियूँगा। त्याग का मतलब होता है कि जलती लकड़ी हाथ में है, बिलकुल अंगारा, और उससे कष्ट है, तो पकड़े नहीं रहूँगा। त्याग का मतलब होता है 'छोड़ा'। क्यों छोड़ा? इसलिए नहीं छोड़ा, क्योंकि धर्म की बात है, मर्यादा की बात है, त्याग की बात है। इसलिए छोड़ा, क्योंकि बेवकूफ़ नहीं हूँ यार! हाथ जल रहा था तो छोडूँगा नहीं तो क्या करूँगा।
हाथ जल रहा था तो छोड़ दिया। सहज बात है! त्याग सहज होता है, उसमें कोई बनावटीपन, कोई तैयारी, कोई प्रक्रिया नहीं होती।
प्र: क्या कोई ऐसा उपाय है जिससे हम सबके बीच में रहते हुए भी शान्त रह सकें?
आचार्य: तुम सबके बीच किस तरीक़े से हो? तुम सबके बीच उसी तरीक़े से हो जैसे कि यहाँ बीच में कोई बैठा हो जो दुर्गन्ध छोड़ रहा हो। तुम सबके बीच वैसे ही हो जैसे कि यहाँ पर कोई आतंकी घुस आये और हम सबके बीच रहे, और गोलियाँ चला रहा हो।
हम सब एक-दूसरे के बीच हैं ज़रूर, पर किस तरीक़े से हैं? हमारे रिश्ते कोई प्रेम के रिश्ते हैं? आप क्या बोलते हो सबके बीच रहना! सबके बीच रहकर आप क्या किसी को सुकून देते हो, आनन्द देते हो? एक-दूसरे के साथ ज़रूर हो, पर वैसे ही जैसे दो सेनाएँ एक-दूसरे के साथ होतीं हैं।
दो सेनाएँ एक-दूसरे के साथ कैसे होतीं हैं? ख़ंजर ही घोप रही हैं एक-दूसरे को। आप बोलो कि गले मिल रहे हैं! दो पहलवान हैं, वो एक-दूसरे से लड़ रहे हैं, और दोनों ने जकड़ रखा है एक-दूसरे को। बोलो कि गले मिल रहे हैं! आलिंगनबद्ध हैं! हाँ, अगर बेहोशी में हो और ऐसे देखोगे, और पहलवानों ने ऐसे पकड़ा हुआ है, बोलोगे, 'देखो, प्रेमी हैं, गले मिल रहे हैं।' वो गले नहीं मिल रहे हैं, वो पछाड़ने की कोशिश कर रहे हैं एक-दूसरे को।
तुम रिश्तेदारों में भी जाते हो, तो उन्हें पछाड़ने की ही तो कोशिश कर रहे होते हो। अच्छा, भारी वाला हार! अच्छा, वो उधर शर्मा जी के बेटे का आइआइटी में हो गया बिल्लू! ये और क्या है? ये युद्ध ही तो चल रहा है, और क्या चल रहा है! तो ये क्या है कि हम सबके बीच रहते हैं! सिर्फ़ इसलिए कि दस लोगों के साथ बैठे हो, तुम उनके साथ नहीं हो गये। साथ होने का अर्थ बिलकुल दूसरा होता है, साथ होने का अर्थ होता है प्रेम।
किसी पार्टी में जाते हो — विवाह की कोई दावत है, वहाँ गये — वहाँ तुम्हें प्रेम कहाँ दिखायी पड़ता है? कहीं भी नहीं है; उस मंच पर भी नहीं है जहाँ दूल्हा-दुल्हन बैठे हैं। ये तो छोड़ ही दो कि जो मेहमान आये हैं, उनमें आपस में प्रेम है या नहीं है, वहाँ मंच पर जो दो जने बैठे हैं, उनमें भी नहीं है।
अब तुम बोलो कि देखिए, ये पूरा एक सामाजिक माहौल है, एक उत्सव किया जा रहा है। उसमें प्रेम कहाँ है, ये बताओ? लोग बहुत सारे हैं और साथ-साथ हैं, हो सकता है एक ही थाली से खा भी रहे हों। एक-दूसरे को बधाइयाँ दे रहे हैं, गीत-संगीत चल रहा है, कोई नाच रहा है। उसमें बता दो कि निकटता कहाँ है, साथ होने का भाव कहाँ है, प्रेम कहाँ है? तो क्यों बोल रहे हो कि हम सबके साथ हैं? तुम कहाँ साथ हो? शारीरिक रूप से बस लगता है कि साथ हो, मन तो कोसों दूर है।
पर जब दृष्टि स्थूल रहती है तो कहती है, ‘नहीं, अगल-बगल बैठे हैं न, तो साथ हो गये। देह मिल गयी न, तो मिलन हो गया।’ ये स्थूल दृष्टि का नतीजा है, उसको सिर्फ़ मोटी चीज़ें दिखायी पड़ती हैं। ‘हो गया न! देखो न! अगल-बगल बैठे हैं, यही प्रेम है। एक ही घर में रहते हैं, तो साथ हैं।’
जितने लोग एक ही घर में रहते हैं, चाहे मियाँ-बीवी हों, चाहे माँ-बाप हों, उनमें कहाँ कुछ साथ है! कहाँ कोई साथ है! कहाँ!
प्र: आचार्य जी, हम सबके भीतर ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, लालच और तमाम तरह के विकार तो मौजूद हैं ही। हम तो निरन्तर लगे ही रहते हैं एक-दूसरे को नीचा दिखाने में, दूसरे को पछाड़कर ख़ुद विजेता बनने में। इस दृष्टि से देखें तो हम सभी एक-दूसरे के दुश्मन ही हैं। (सभी हँसते हैं)
आचार्य: देखो, बोध में ये होता है। आमतौर पर तुम्हें कोई बताये कि ये सब तुम्हारे दुश्मन हैं, तो तुम्हें क्रोध आएगा, विरोध आएगा, तुम्हारी त्योरियाँ चढ़ जाएँगी। पर जब तुम जानते हो, जब तुम्हें बोध उठता है, जब तुम रियलाइज़ करते हो कि ये सब दुश्मन हैं, तो तुम मुस्कुराते हो।
समझना। कोई बताये कि सब दुश्मन हैं तुम्हारे, तो तुम्हारे भीतर से विरोध आएगा, क्रोध आएगा। लेकिन जब तुम ख़ुद जानते हो — तो अभी देखा, क्या कर रहा था — मुस्कुरा रहा था (प्रश्नकर्ता की ओर इंगित करते हुए)। अब इसमें मुस्कुराहट है। ‘अच्छा! तो हम सब दुश्मन थे।’
फिर सब मुस्कुराओगे, ‘ओहो! तो हम तीस साल से साथ रह रहे थे, चार बच्चे कर दिये, हम दुश्मन थे। ये तो बड़ी मज़ेदार बात है!’ (आचार्य जी हँसते हुए)
अब वहाँ कोई कष्ट नहीं है। तथ्यों में कोई कष्ट नहीं होता। और तथ्यों में जब गहरा उतरा जाता है, तो उसी का नाम बोध है। वहाँ कोई कष्ट नहीं है, वहाँ आनन्द है, वहाँ मुस्कुराहट है।
प्र: रियलाइज़ेशन (बोध) से त्यागने को कम किया जा सकता है?
आचार्य: रियलाइज़ेशन और त्यागना एक ही बात है। तुम क्या पकड़कर रखते हो? अपने भ्रम। और रियलाइज़ेशन यानि बोध का अर्थ है भ्रमों को त्यागना। तो वो एक ही है। त्यागने का ये मतलब थोड़े ही है कि जाकर कहीं कूड़ेदान में डाल आये। पकड़ा भी यहीं है, छोड़ोगे भी यहीं (सिर की ओर इशारा करते हुए) — यही है रियलाइज़ेशन , यही बोध है।
कोई हाथ से थोड़े ही पकड़ते हो। वो तो बताने के लिए एक स्थूल उदाहरण देना पड़ता है कि हाथ में कोयला पकड़ रखा है, पर पकड़ तो यहाँ (दिमाग) रखा है न। जब पकड़ यहाँ रखा है तो छोड़ोगे भी यहीं। और पकड़ यहाँ भी नहीं रखा, ये भी बहुत स्थूल है। जहाँ भी पकड़ रखा हो, वहीं छोड़ना। (आचार्य जी हँसते हुए)
प्र: बोध होते ही त्याग तो अपनेआप ही हो जाएगा, करने की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। अंगारा छूट ही जाएगा हाथ से, छोड़ना थोड़े ही है उसे।
आचार्य: तो त्याग करना नहीं होता, त्याग करने की चीज़ नहीं होती।
प्र: त्याग करना नहीं होता, त्याग हो जाता है।
आचार्य: फिर कोई विकल्प भी नहीं होता न उसमें। फिर तुम पूछोगे नहीं कि क्यों त्यागें, फिर तुम ये नहीं कहोगे कि अच्छा, त्याग दिया तो हमारा क्या होगा। ‘और त्याग दिया, और फुफिया ससुर को बुरा लग गया तो!’ (सभी श्रोता हँसते हैं)
फिर ये सब सवाल पूछोगे? कि अलीगढ़ वाली ताई जी त्यागने को बड़ा बुरा मानती हैं!
प्र: हमारे सामने परिस्थिति ही ऐसी बन जाएगी कि त्याग सहज ही हो जाएगा।
आचार्य: परिस्थिति बाहर नहीं बनेगी, भीतर कुछ ऐसा होगा कि अपनेआप मुक्त हो जाओगे।
प्र: आचार्य जी, बोध होगा कैसे?
आचार्य: जब होगा, छोड़ दोगे। बोध होगा और मूर्खता है — अब इसमें तथ्य क्या है और कल्पना क्या है? (सभी श्रोता हँसते हैं) देख रहे हो, क्या छुपा रखा है सवाल में! ये नहीं पूछ रहे कि अभी (बोध कैसे होगा)। बोध होगा कैसे? कब? छब्बीस तारीख को। तो बोध तो होगा छब्बीस तारीख को, तो अभी क्या है? वो ठीक है, अभी मूर्खता ठीक है! (आचार्य जी व्यंग्य करते हुए)
प्र: आचार्य जी, मुझे लगता है कि हमने एक धारणा बनायी हुई है कि त्यागने का अर्थ होता है शारीरिक रूप से छोड़ देना।
आचार्य: यहाँ से कहानी नहीं शुरू होती। हम त्यागने को शारीरिक दूरी इसीलिए मानते हैं, क्योंकि उससे भी पहले हमने प्रेम को भी क्या माना था?
प्र: शारीरिक।
आचार्य: शारीरिक निकटता। जब निकटता शारीरिक हो, तो फिर त्याग भी क्या होगा? शारीरिक। तुम किसी के पास आ गये और उससे बात करने लगे, तो इसका नाम तुमने क्या दे दिया? कि ये तो देखिए प्रेम है, ये अपनापन है, ये निकटता है। तो जब त्यागने की बात चलेगी तो तुम तुरन्त क्या कहोगे? कि दूर हो गये। ये दोनों ही झूठ थे। तुम्हारा पास आना भी झूठ, तुम्हारा दूर जाना भी झूठ। त्यागने का अर्थ ये नहीं है कि व्यक्ति को त्यागा, त्यागने का अर्थ है कि दोनों प्रकार के झूठों को त्यागा। हम ये भी जान गये कि हम अपनेआप को जिनके समीप समझते थे, हम उनके समीप कभी थे ही नहीं। भले ही दशकों से एक ही कमरे में रह रहे थे, एक ही बिस्तर पर सोते थे, पर समीपता तो थी ही नहीं। झूठ को त्यागा, भ्रम को त्यागा।
और फिर वहाँ ये ज़रूरत नहीं रह जाती कि तुम बच्चों की तरह कहो कि अब कट्टी, हम दूर जा रहे हैं। ये सब बड़ी बचकानी बातें हैं कि घर छोड़कर निकल लिये; कि नहीं, अब तुम उस कमरे में सोना, हम वहाँ सोएँगे। उससे क्या हो जाएगा, दिमाग तो वही है। यहीं से पकड़ रखा था , यहीं से छोड़ो। (आचार्य जी सिर की ओर इशारा करते हुए)
जब भ्रम छूटते हैं, तब प्रेम आता है। तुम डरते इसलिए हो, क्योंकि तुम्हें लगता है कि भ्रम नहीं, प्रेम छूटेगा। सच तो ये है कि प्रेम कभी था ही नहीं, भ्रम था। भ्रम जाएगा, प्रेम आएगा। डरो मत।