
प्रश्नकर्ता: मेरा ब्रेकअप हुआ है और मेरी प्रेमिका ने तो दो-तीन महीने में एक दूसरा पकड़ लिया है। अब मुझे ख़्याल आते हैं कि वो और वो जो दूसरा वाला है, उनका क्या चल रहा होगा? और ये ख़्याल, ये कल्पनाएँ अब मुझे जीने नहीं दे रही हैं। मैं क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: सचमुच दुनिया में बहुत ग़म है। तुम एक काम करो, बिल्कुल मज़ाक में नहीं बोल रहा हूँ। ठीक है? ये तुम्हें मैं रामबाण इलाज बता रहा हूँ।
जितनी तुम कल्पनाएँ करना चाहते हो, सब कर डालो एक बार में बैठकर, और सहज हो जाओ। तुम क्या कल्पना की बात कर रहे हो? तुम्हें और कुछ नहीं कल्पना आ रही है, यही आ रही है कि सेक्स कर रही होगी उसके साथ। क्योंकि तुमने भी लड़की पकड़ी तो सेक्स के लिए ही थी। अब तुमने किया कि नहीं किया, पता नहीं, पर दूसरे के साथ कर रही है, ऐसा तुम्हें ख़्याल आ रहा होगा, यही तुम्हारे दिमाग़ में ब्लू फ़िल्म चल रही होगी। उससे तुम परेशान हो रहे हो, इतनी सी बात है।
तो तुम वो पूरी चला डालो और उसको रिवाइंड कर-करके पाँच-सात बार, एक ही रात में ख़त्म कर दो। काहे के लिए उसको थोड़ा-थोड़ा अपने आप को कचोटने दे रहे हो। जो भी ज़हर है, पूरा ही पी लो। उसमें ऐसा कुछ है नहीं, थोड़ी देर बाद अपनी कल्पनाओं में पाओगे कि दो जिस्म बचे हैं बस उनके चेहरे नहीं हैं। क्योंकि जिस्म जब दो होते हैं न तो चेहरे तो उनके होते भी नहीं। चेहरे का मतलब होता है, यूनिकनेस, कुछ अलग।
कुछ नहीं अलग होता, दो शरीर बिल्कुल वैसे ही मिलते हैं जैसे आज से एक करोड़ साल पहले भी दो शरीर मिले थे। उनमें कुछ अलग नहीं है, कुछ यूनिक नहीं है। शरीर शरीर होता है। तुम्हारी प्रेमिका का शरीर हो, तुम्हारे पुरखों का शरीर हो, सब शरीर एक से होते हैं। और सब शरीरों का काम होता है वो सब करना जो तुम्हारी कल्पनाओं में आ रहा है। उसमें कुछ अलग नहीं है, कुछ ख़ास नहीं है। तुम उसकी कल्पना का विरोध मत करो। विरोध तुम जितना कर रहे हो, वो कल्पना तुम्हारे लिए उतनी ही अर्थपूर्ण हो जाती है। शांति से बैठकर पूरा ही स्वीकार कर लो। हाँ, ये बिल्कुल सही बात है।
“अभी वो बैठे होंगे, उन्होंने पहले डिनर किया होगा। डिनर करके गाड़ी से लौट रहे होंगे। फिर फॉन्डलिंग शुरू कर दी होगी, अब वो वापस जाएँगे। वापस जाकर थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करेंगे, फिर बिस्तर में घुस जाएँगे, फिर सेक्स करेंगे।” इससे ज़्यादा तो वैसे भी कुछ होता नहीं है। तो इसमें तुम इतना क्यों घबरा रहे हो? पूरा ही सोच लो, और कई-कई बार सोच लो, इतना सोच लो कि ऊब जाओ। मुक्त हो जाओगे।
इससे ज़्यादा कुछ कर लेंगे? इससे ज़्यादा क्या करेंगे वो? ऐसा तो होगा नहीं कि अचानक यहाँ से कूद लगाई और जाकर जुपिटर पर बैठ गए, और वहाँ ग्रेविटी ज़्यादा है, इसीलिए सेक्स में ज़्यादा मज़ा आया होगा। जैसे दो छिपकलियाँ कमरे के अंदर होती हैं, जैसे दो तिलचट्टे होते हैं, जैसे सड़क पर दो कुत्ते होते हैं, वैसे ही दो इंसान होते हैं वासना के क्षण में, कर लो पूरी कल्पना। उसमें कल्पना करने जैसा कुछ भी नहीं है। कल्पना तो ऐसी चीज़ की, की जाती है जो तथ्य के रूप में मौजूद न हो, तब कल्पना की ज़रूरत पड़ती है। उसमें कल्पना भी क्या करनी है। सेक्स इज़ अ फैक्ट ऑफ़ लाइफ़। सामने है, हर जगह है, चल रहा है, चलता ही जा रहा है।
तुम्हारी एक्स-गर्लफ्रेंड ने कर लिया, तो उसने कौन सा कमाल कर लिया? कोई अद्भुत बात हो गई? और वो तुम्हारे साथ भी कर रही होती, तो भी वही सब कर रही होती जो किसी और के साथ कर रही होगी। तो तुम हो कि कोई और है, सच पूछो तो एक ही बात है। दो बॉडीज़ हैं, फेसलेस बॉडीज़। ज़बरदस्ती का आइडेंटिफिकेशन मत करो। हर आदमी को ये बात समझ नहीं आएगी, बहुत लोग कहेंगे, ऐसा थोड़ी होता है, ये कैसी बातें कर रहे हो।
पर तुमने अगर मेरे साथ थोड़ा सुना है, पढ़ा है, अध्यात्म, उपनिषद्, गीता थोड़ा तुम्हारे भीतर उतरी है, तो मनुष्य क्या है? मनुष्य की पहचान क्या है? त्रिगुणात्मक प्रकृति क्या है? (सत, रज, तम) और किस तरीक़े से वो हमें संचालित करती है, ये सब समझ में आया होगा। तो फिर समझ पाओगे कि मैं तुम्हें क्या कह रहा हूँ। कुछ विशेष नहीं है बेटा यहाँ पर। क्या विशेष हो जाना है, बताओ न क्या विशेष हो जाना है?
तुम्हें आज ये समस्या आ रही है कि तुम्हारी लड़की चली गई। कल को तुम्हारी जान चली जानी है। क्या समस्या? संतों ने कहा है न,
एक दिन ऐसा आयेगा, कोई काहू का नाहि। घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहि।।
घर की नारी को तुम बचाने की कोशिश कर रहे हो, जो तन की नाड़ी है, ये पल्स, ये भी नहीं रहेगी एक दिन। और ये सिर्फ़ तुम्हारी कहानी नहीं है, हम में से हर एक की कहानी है। इसमें विशिष्ट क्या है? व्हाट इज़ सो यूनिक, स्पेसिफिक अबाउट इट? और सूत्र तुम्हें दे रहा हूँ, नॉन रेजिस्टेंस का।
प्रकृति का विरोध नहीं किया जाता, रेजिस्ट मत करो — अविरोध। जो हो ही रहा है, उसके दृष्टा हो जाओ, “हाँ, ठीक है, ये तो प्रकृति में सदा से होता आया है, अभी भी हो रहा है। मैं काहे को लेकर इसको इतना छटपटा रहा हूँ, मैं क्यों ऐसी बात को महत्त्व दे रहा हूँ जो सार्वजनिक है।” और ये बात सिर्फ़ प्रेमी-प्रेमिका की नहीं है। जो भी तुम्हें भविष्य की कल्पनाएँ बहुत भयानक लगती हों न, उनसे भागा मत करो। बैठकर पूरा सोच ही लिया करो, कि “हाँ, ठीक है,” हो जाने दो।
वर्स्ट केस सिनेरियो क्या है? ये सब हो भी जाएगा, तुम पाओगे कि जो चीज़ तुम्हें बहुत डराती है, वो इतनी भयानक नहीं है कि वो तुम्हारी हस्ती को उखाड़ दे। उसको सिर्फ़ कल्पना में रखोगे, उसका विरोध करते रहोगे, तो वो भयानक लगती रहेगी। स्वीकार कर लो, हाँ, ठीक है, कब तक इसे अस्वीकार करें, आज नहीं तो कल तो ऐसा होना ही है। मौत जैसी बात है, कि क्या उसको अस्वीकार करें। कल नहीं भी आई, हमने टाल दी कल तो परसों आएगी। उसको अस्वीकार क्या करना है?
मज़ाक बना लो अपना। यही सब, तभी तो दिया है न, कि गधाराम बड़ा प्रेमी प्रेमी बना करते थे, देखो, अभी क्या चल रहा है। अपने दुख को काटने के लिए अपना ही चुटकुला बनाना अच्छा एक ज़रिया होता है। क्योंकि दुख गंभीरता माँगता है। दुखी आदमी को देखना वो कितना गंभीर रहता है। देखा है कभी दुखी आदमी को? एकदम गंभीर रहता है।
अपना दुख काटना हो तो गंभीरता हटा दो, अपने ही ऊपर हँसना शुरू कर दो, दुख चला जाएगा।
और हँसा ऐसे ही जाता है कि बहुत सीरियस हो रहे थे साहब अपने अफेयर में। ये देखो क्या चल रहा है। हँसो अपने ऊपर। और इतना ही नहीं, अपने सब दोस्तों को भी बता दो। उनको ख़ासतौर पर आग्रह करो कि सब मेरे ऊपर हँसो, सब मेरा चुटकुला बनाओ।
प्रश्नकर्ता: 20 साल की हो गई हूँ। बहुत जी लिया अब जिया नहीं जा रहा।
आचार्य प्रशांत: सामने होती तो अभी कान मरोड़ दिए जाते। 20 साल की हो, कहीं और जिया नहीं जा रहा। क्यों?
प्रश्नकर्ता: क्योंकि आईआईटी पटना में हैं, मैकेनिकल ब्रांच में हैं। वहाँ मन नहीं लग रहा, सीजीपीए बस सात आई है।
आचार्य प्रशांत: अरे भैया, सात, अबव एवरेज होती है।
प्रश्नकर्ता: लेकिन मेरा फ्रेंड सर्किल है, उसमें सबसे कम आई है मेरी। कोडिंग सिखा रहे हैं, मुझे कोडिंग नहीं करनी।
आचार्य प्रशांत: तो मत करो।
प्रश्नकर्ता: कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखाई देता, रोती हूँ। सुसाइड के ख़्याल आते हैं। स्ट्रेस से बीमारी हो गई है, नींद नहीं आती। कॉलेज की दो महीने की छुट्टी में एक महीना रोते-रोते निकाल दिया।
आचार्य प्रशांत: अरे भाई, इतनी किताबें हैं, 20 साल की हो, कुछ खेलना शुरू करो, पढ़ो, घूमो। छुट्टी है तो रो क्यों रही हो बैठकर के? उत्तर भारत में कहीं इतनी गर्मी है, घूमते-घूमते पहाड़ों पर चले जाओ। यही वो उम्र है जब बहुत सस्ते साधनों से जा सकते हो, साधारण कमरों में रह सकते हो। थोड़ा भारत को समझो। हैं! 20 साल!
प्रश्नकर्ता: मुझे बहुत टेंशन हो गई है, मैं मर जाऊँगी। क्योंकि मैं आईआईटी पटना में हूँ और मेरी सीजीपीए सबसे कम आ गई।
आचार्य प्रशांत: कितनी कम आ गई?
प्रश्नकर्ता: 7 आई है। 10 की स्केल पर 7।
आचार्य प्रशांत: हे भगवान! फर्स्ट ईयर में तो मेरी भी इतनी आई थी। पढ़ाई करो, घूमो, खेलो। इतनी किताबें जो मैंने ही सुझाई हैं, उसको पढ़ क्यों नहीं रहे हो? डूब मरने से अच्छा है स्विमिंग सीख लो। आत्महत्या के ख़्याल आते हैं, डूब मरेंगे, इससे अच्छा पानी में ही डूबना है तो स्विमिंग सीख लो न। यही टाइम है स्विमिंग सीखने का।
देखो भाई, न तो अपना विक्टिमाइजेशन करना चाहिए, न अपना ग्लोरिफिकेशन करना चाहिए। ठीक है? और अहंकार में ये दोनों ही टेंडेंसी साथ-साथ चलती हैं। वो कभी अपने आप को ग्लोरिफाई करता है कि मैं कितना महान हूँ। वो कभी अपने आप को विक्टिमाइज करता है कि मैं महान तो हूँ, पर दुनिया ने मुझे क़द्र नहीं दी। जो है सो है। जो भी स्थिति है, उसमें अब देखो, बेहतर क्या कर सकते हो। आईआईटी का कैंपस है, उसमें फैसिलिटीज़ मिली हैं उनका फायदा उठाओ।
कोई भी स्थिति आ जाए, ज़िंदगी में अपने आप को विक्टिम मत बनाना ज़बरदस्ती। और वही विक्टिम बनाने में ही एक चीज़ होती है, अपने आप को शहीद बनाना। वो विक्टिमाइजेशन से जुड़ी हुई बात है, जो विक्टिमाइजेशन को ग्लोरिफाई कर देती है। “आई एम द ग्लोरियस शहीद।” न तो सेल्फ ग्लोरिफिकेशन, न ही सेल्फ विक्टिमाइजेशन। कुछ नहीं करना है, काम करना है। काम करो, मौज करो।
प्रश्नकर्ता: अतीत में अज्ञानवश झुन्नू ने जो गलत कर्म और कांड कर दिए हैं, तो अब क्या ज़िंदगी भर डर कर रहना पड़ेगा, कि कहीं आज या भविष्य में अतीत के गलत काम उजागर न हो जाएँ? समाज और परिवार से बहिष्कृत न कर दिया जाए। क्या हम पूरी ज़िंदगी गिल्ट-फ्री रहकर नहीं जी सकते हैं? अपनी गलती से सीख लेकर और सबक लेकर।
आचार्य प्रशांत: देखिए, दो बातें होती हैं। पहले तो ख़ुद वो मत रहो जिसने अतीत में ये सब गलतियाँ करी हैं, जिसको भी आप गलती बोल रहे हो, अगर आप सचमुच मानते हो कि उसमें कुछ गलत था ही, तो वो मत रहो न जिसने गलतियाँ की थीं। बदल जाओ पूरे तरीक़े से। तो पहली चीज़ तो ये है कि बदल ही जाओ वो रहो मत।
और दूसरी चीज़, बदलाव में ये शामिल होती है कि आंतरिक बदलाव के साथ बाहरी आता ही आता है। आप ये नहीं कह सकते कि मैं भीतर से बदल गया हूँ, पर बाहर मेरे सब कुछ वैसा ही है जैसा पहले था। कि मैं भीतर से तो बदल गया हूँ, पर मैं अभी भी वही खाता हूँ जो मैं पहले खाता था। मेरी अभी भी संगत वही है जो पहले थी। मेरा अभी भी चुनाव करने का तरीक़ा, नौकरी करने का तरीक़ा, रिश्ते बनाने का तरीक़ा, सब वैसा ही है जैसा पहले था। लेकिन मेरा दावा ये है कि मैं भीतर से बदल गया हूँ।
तो पहली बात तो ये कि भीतर से बदलो। अगर लगता है अतीत में गलती करी थी, तो भीतर से वो मत बने रह जाओ जिसने गलती करी थी। और दूसरी बात ये कि भीतर से अगर सचमुच बदलना है, तो बाहर भी बदलाव को आने की अनुमति देनी पड़ेगी। अपने आप को ऐसों के साथ ही बाँधे रहोगे, जो आपके यथार्थ से ज़्यादा आपकी छवि से प्यार करते हैं, तो गड़बड़ हो जाएगी न। फिर डर के ही रहना पड़ेगा, क्योंकि छवियाँ तो काल्पनिक हैं, कभी भी टूट जाएँगी।
यथार्थ आकर के एक धक्का मारेगा, सारी छवियाँ टूट जाती हैं।
और छवियों को बचाए रखने में बड़ी मेहनत लगती है बाबा। किसी के सामने अपनी छवि बनाकर नहीं रखनी चाहिए, बड़ा महँगा सौदा होता है। क्योंकि सच्चाई मेहनत नहीं माँगती है। सच्चाई तो माने जो हो, उसमें कुछ बनावट नहीं है, उसमें कोई श्रम नहीं है, उसमें कुछ पकाना नहीं है, उसमें कुछ सजाना नहीं है। जैसे हो, वैसा ही बस प्रस्तुत हो जाना है। तो उसमें श्रम नहीं लगता, पर झूठ में छवि बनाकर रखने में बड़ा श्रम लगता है। तो ऐसों को बहुत महत्त्व क्यों देना, जो आपसे वो श्रम करवाते हों, जो कहते हो कि अगर हमसे रिश्ता रखना है तो वैसे बने रहो जैसी इच्छा भी तुम्हारी हम चाहते हैं। जिसको आपका सच स्वीकार नहीं है, उसको आप स्वीकार नहीं हैं न। उसने आपसे रिश्ता बनाया, उसने आपकी छवि से रिश्ता बनाया है। और आपकी छवि आप हैं नहीं, तो माने, उसका आपसे कोई रिश्ता है नहीं।
ज़िंदगी में कोशिश ये करनी चाहिए कि कम से कम चीज़ें रहें जिन्हें छुपा के जीना पड़े। बड़ा बोझ उतर जाता है। नहीं तो एक झूठ को बचाने के लिए सौ बोलने पड़ते हैं। इससे अच्छा ये है कि बेबाकी से सच में जियो। एक बात छुपानी है न, सौ बातें बोलनी पड़ेंगी।
फिर से सोचिए न, जो आपके यथार्थ से सहमत ही नहीं है, जो आपके यथार्थ को अस्वीकार करना चाहता है, उससे आपका कोई रिश्ता है ही कहाँ। आप तो उसके सामने कुछ और बनकर बैठे हो, तब वो आपको स्वीकार कर रहा है। जिस दिन आप जो बनकर बैठे हो, जिस दिन आप उसके सामने जो सुंदर, प्रिय मुखौटा लगाकर बैठे हो, आपने वो मुखौटा उतार दिया, उस दिन वो आपको उतार देगा।
अगर आपको मेरा मुखौटा पसंद है, तो बताइए, आपने मुझसे कोई रिश्ता बनाया है या मेरे मुखौटे से? मुखौटे से। और मुखौटा ढोना बड़ी मेहनत का काम है, बहुत मेहनत का काम है। मैंने बड़े हँसी-हँसी के तरीक़े में कहा था, 12–14 साल पहले की बात होगी। तो वही सब कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ थे, उनके साथ हो रहा था। फरवरी का महीना था, वैलेंटाइन्स डे के आसपास का समय। तो इसी पर किसी ने सवाल पूछ लिया कि इन दिनों हम लड़कियों को इंप्रेस करने के लिए कितना कुछ करते हैं।
तो मैंने कहा, और जो कुछ तुम करते हो, वो करके कोई सही रिश्ता नहीं बन सकता। क्योंकि जिसको तुम इंप्रेस कर रहे हो, उसको तुम अपना मुखौटा दिखा रहे हो।
तो एक खड़ा हो गया, तो वो बोला कि "बट व्हाई शुड आय नॉट इंप्रेस माय गर्लफ्रेंड, इवन इफ दैट मींस वियरिंग अ मास्क?" गर्लफ्रेंड है मेरी, मैं उसको इंप्रेस क्यों ना करूँ? और इंप्रेस करने के लिए अगर मुझे मुखौटा लगाना पड़ता है, तो मैं क्यों न लगाऊँ?
तो मैंने उसको उसी की अदा में जवाब दिया: "बिकॉज़ यू कैन नॉट किस वियरिंग अ मास्क एँड व्हाट इज़ द पॉइंट इन बीइंग विद हर इफ यू कैन नॉट इवन किस हर।" जो आशय था, वो समझिए। जिसके सामने मुखौटा लगाकर जा रहे हो, उसके साथ क्या रिश्ता बनाओगे। इसी बात को मैंने उसको लड़के को इस तरीक़े से समझाया था कि तुम गर्लफ्रेंड के लिए मुखौटा लगा रहे हो, पर मुखौटा लगाकर तो तुम उसको किस भी नहीं कर सकते। तो क्या मिला तुम्हें मुखौटा लगाकर?
इसको जीवन में नियम की तरह पकड़ लीजिए। आप जो कुछ भी हैं, पहली बात — उसको सुधारते रहना है, सुधारते रहना है, सुधारते रहना है, ये अंदरूनी बात हो गई, भीतरी बात हो गई। एक न एक रूप में हम सब अभी जहाँ पर हैं गलत ही हैं, कोई भी पूर्णतः शुद्ध तो हो नहीं गया, न आप, न मैं। हम सब झुन्नूलाल हैं।
तो पहली बात तो भीतर अपने पर लागू होती है कि मैं जैसा भी हूँ, मुझे बेहतर होते रहना है, होते रहना, होते रहना, होते रहना। लेकिन मैं बेहतर होते रहने की कितनी भी कोशिश करूँ, कुछ गुण-दोष, कुछ विकार तो सदा रहेंगे। मिट्टी का शरीर है।
जो व्यक्ति मेरे यथार्थ को स्वीकार नहीं कर सकता और चाहता है कि मैं कोई आदर्श छवि की तरह जियूँ, उसके सामने जो मेरी सच्चाई है, मेरी नग्नता है, मैं उसको प्रकट कर दूँगा। और फिर मैं कह दूँगा, भाई, देख लो, मैं ऐसा हूँ। अब अगर मैं तुम्हें स्वीकार हूँ, तो ठीक है। नहीं तो फिर हमारा रिश्ता पहले भी कभी था ही नहीं। द बॉल इज़ इन योर कोर्ट।
बहुत मेहनत लगेगी किसी की नजरों में अपनी सही छवि बनाकर चलना। अरे, बड़ी मेहनत का काम है, बहुत मेहनत का। मैं ज्ञानी बनकर बैठ जाऊँ, जो बात मुझे पता नहीं है, आप पूछें, मैं उसमें बोलने लग जाऊँ। कितना श्रम लगेगा न। मैं आपके साथ रोज़-रोज़ इतने-इतने घंटे बात इसीलिए कर पाता हूँ, क्योंकि मुझे सोचना नहीं पड़ता। छवि पर चलने में बहुत सोचना पड़ता है। बार-बार गणना करनी पड़ती है कि जो मैं बोल रहा हूँ, कहीं उससे मेरी छवि तो नहीं टूटेगी।
मुझे आपके सामने अपनी छवि बनाकर रखनी ही नहीं है। तो इसलिए आप जो भी बोलते हो, मैं उस पर बेझिझक स्पॉनटेनियसली जो आता है, वो अभिव्यक्त कर देता हूँ। और यही मुझे अपनी एक-एक बात को तोलना पड़े कि कहीं इस बात में मेरे लिए ख़तरा तो नहीं हो जाएगा। अगर मैंने ऐसा बोल दिया तो क्या होगा? वैसा बोल दिया तो क्या होगा? तो इतनी थकान हो जाएगी कि।
कोई रिश्ता गड़बड़ है, ये जानने के लिए बस ये देख लो कि उसमें मुखौटे पहनने पड़ते हैं। और मुखौटे उतारने लगो तो रिश्ता टूटने लगता है। कई बार वो मुखौटे हम इतने दशकों तक लगातार पहनते हैं, कि रिश्ता ही एक मुखौटे और दूसरे मुखौटे के बीच में बन जाता है और हमें लगता है यही तो रिश्ता है।
कोई गलती इतनी बड़ी नहीं होती अतीत की, कि उसके लिए आप जीवन भर अपने आप को अपराधी बनाती रहें। कुछ नहीं ऐसा हो गया। क्या कर लोगे? हम ही इतने से होते हैं। हम गलती क्या इतनी बड़ी कर देंगे? हम कौन? हमारी औकात क्या? झुन्नू कह रहा है कि मैंने अनंत आकार की गलती कर दी है। तेरे पास और क्या अनंत है कि तू अनंत आकार की गलती कर लेगा। ये भी अहंकार की एक चाल है, अपने आप को अनंत सिद्ध करने की, कि मैंने गलती असीम कर दी। तेरा सब कुछ इतना-इतना है (छोटा), तेरी गलती इतनी बड़ी कैसे हुई, तू बता तो दे। हो सकती है?
रोटी थी, इतनी बड़ी रोटी थी, और रोटी सड़ भी जाएगी या रोटी आप पका रहे थे, वो जल भी जाएगी, तो इतनी बड़ी तो रहेगी। या ये कहोगे, कि “हाय राम! मैंने इतनी बड़ी रोटी जला दी (बड़े आकार की)।” इतनी बड़ी तो नहीं जलेगी। वो जितनी थी, उतनी ही तो जलेगी। जब थी ही इतनी बड़ी (एक छोटा आकार), तो गलती भी तो इतनी ही बड़ी हो सकती है न। तो काहे को भीतर ये बोझ ले चलना कि मैंने बड़ी, भारी गलती कर दी। हमारा कुछ नहीं बड़ा भारी है।
जिन्होंने कोई गलती नहीं की है, वो भी कल राख हो जाएँगे। जिन्होंने बहुत गलतियाँ कर दीं, वो भी कल राख हो जाएँगे। इतना नहीं सोचते कि मैं बड़ा पापी हूँ, वग़ैरह-वग़ैरह, ये सब। हाँ, जो सुधरने को तैयार नहीं है, वो ज़रूर थप्पड़ खाएगा ज़िंदगी से। गलतियाँ तो होती हैं, सुधरो न, सुधरो, सुधरते चलो।
और दोस्त वो है जो सुधरने में सहायक बने। जो गलतियाँ गिनाए, वो थोड़ी दोस्त है। और गलतियाँ गिनाके बोले कि तू भ्रष्ट है, तू पतित है, और मैं सिर्फ़ उसको दोस्त बना सकता हूँ जिसकी उज्जवल छवि हो। ये दोस्त नहीं है। दोस्त वो है, जिसको सब तुम्हारी गलतियाँ पता हों, जिसको बेधड़क जाकर अपनी गलती बता सको।
लेकिन फिर वो जवाब माँगे कि अच्छा, अब तूने गलती बता दी, अब ये बता, सुधर कैसे रहा है। मुझे कोई समस्या नहीं है कि तूने गलतियाँ की। लेकिन मुझे बहुत समस्या होगी अगर तू सुधर नहीं रहा है, इसको दोस्त बोलते हैं। जिसको अपनी गलतियाँ भी बेखौफ होकर बता सको और जो फिर तुम्हें बेखौफ होकर पकड़ सके कि अब तूने गलती तो बता दी, चल, कोई बात नहीं, लेकिन अब सुधर के भी दिखा।
प्रश्नकर्ता: मैं अपने जीवन को देखता हूँ तो सारे ही काम गलत केंद्र से हैं। पर जब केंद्र बदलने की कोशिश करता हूँ, तो परिवार और समाज का ऐसा दबाव आता है कि मेरा सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है। कैसे आगे बढ़ूँ?
आचार्य प्रशांत: सबसे पहले तो कुछ दम दिखाओ भाई, 26 साल के हो। अभी बैठे हो न, तो पृथ्वी का जो वायुमंडल है, वो सैकड़ों-हज़ारों किलोमीटर का है। और वो जो पूरा का पूरा वायुमंडल है, वो तुम्हारे ऊपर दबाव बना रहा है। क्या कर रहा है? दबाव बना रहा है। उसी को एटमॉस्फेरिक प्रेशर बोलते हैं।
बचपन में पढ़ते होंगे — 760 मिमी ऑफ़ Hg (मरकरी),* 76 सेंटीमीटर। ये एटमॉस्फेरिक प्रेशर है, ज़बरदस्त। बड़ा ऊँचा होता है, एटमॉस्फेरिक कॉलम बहुत दूर तक जाता है और वो सब का सब तुम्हारे ऊपर दबाव बना रहा है। पर तुम उस दबाव में बिखर जाते हो क्या? नहीं बिखर जाते। कारण पता है? दिल। जितना दबाव वो ऊपर से बनाते हैं, ठीक उतना ही दबाव ये जो तुम्हारा दिल है, ये भीतर से बना देता है। उसको बोलते हैं ब्लड प्रेशर। ब्लड प्रेशर एटमॉस्फेरिक प्रेशर को बिल्कुल न्यूट्रलाइज कर देता है। नहीं तो ये भी हो सकता था कि एटमॉस्फेरिक प्रेशर तुमको बिल्कुल। दिल चाहिए न बाहर का दबाव झेलने के लिए।
उन्होंने दबाव बनाया, तो बनाया। तुम्हारा दिल धड़क नहीं रहा है क्या? बाहर से दबाव है, वो बता रहे हो। भीतर से कोई दबाव क्यों नहीं उठता? भीतर से भी तो उठना चाहिए न दबाव। बस इतना बता रहे हो, बाहर वाले दबाव बना देते हैं — परिवार और समाज वाले। भीतर? यहाँ कोई नहीं बैठा है, जो दबाव बना रहा हो, कि मैं तुम्हारी सच्चाई हूँ, मैं तुम्हारा प्यार हूँ, मुझे कब अभिव्यक्त करोगे? उसकी नहीं आवाज़ सुनाई देती।
जवान आदमी प्रेमी होना चाहिए, नुकसान बर्दाश्त करने का साहस रखे प्रेम की ख़ातिर।
समाज, परिवार, दुनिया, व्यवस्था — ये सब दबाव सिर्फ़ स्वार्थ दिखाकर बनाते हैं। अब प्रेम है, जो स्वार्थ को चलने नहीं देता। प्रेम नहीं है, तो स्वार्थ चल जाएगा, जीत जाएगा स्वार्थ। स्वार्थ जीत जाएगा, माने समाज जीत जाएगा। वो तो तुम्हें बताते यही हैं।
परिवार बोलेगा, हमारी नहीं सुनोगे तो ज़ायदाद से बेदखल कर देंगे। समाज बोलेगा, हमारी नहीं सुनोगे तो नौकरी छीन लेंगे। ऐसे ही तो होता है। जिसको न ज़ायदाद चाहिए, न नौकरी चाहिए, कहता है, भाड़ में जाओ, दूसरी देख लेंगे। उस पर कौन दबाव बना सकता है? डरा कम करो।