प्रश्नकर्ता: लाइफ़ (ज़िन्दगी) में हमारे पास बहुत सी *चॉइसेस (विकल्प) हैं लेकिन जो सही रास्ते, सही काम हैं, उसके लिए तो कोई चॉइस ही नहीं है। तो बीच में जो छोटे-छोटे काम हैं, छोटी-छोटी चॉइस हैं, जैसे आज कहाँ चले आये, कुछ खा लिया, कोई ये खा लिया, कोई वो खा लिया, वो अलग चीज़ है लेकिन जो सही काम है, उसमें कोई चॉइस ही नहीं है?
आचार्य प्रशांत: होनी नहीं चाहिए, पर हम उसमें भी बना लेते हैं। होनी तो बिलकुल नहीं चाहिए, वहाँ पर तो निर्विकल्प होना चाहिए तुमको, पर तुम वहाँ पर भी तो विकल्प निकाल ही लेते हो न।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल हमने ‘अनहद’ किया था, उसका क्या तात्पर्य है? मतलब, किसलिए?
आचार्य प्रशांत: एक इशारा था कि अपने बिना भी कर्म हो सकता है। पाँव चल रहे हैं, हाथ चल रहे हैं, कर्म तो है ही पर तुम्हारे निर्देश पर नहीं हो रहा, किसी और के इशारे पर हो रहा है। तुम नहीं तय करोगे कि झूमना है कि उछलना है, कि क्या करना है; एक शब्द आएगा और वो तुम्हें सुझा जाएगा। और सारा खेल बस तुम्हारे और उस शब्द के बीच का होगा।
तुम्हारी इन्द्रियाँ काम नहीं कर रही हैं, इस तरह कि तुम्हें दूसरे दिखायी नहीं दे रहे। और अगर दूसरे तुम्हें दिख भी गये तो तुम्हें दूसरों से कोई प्रयोजन नहीं रखना है। अभी सारा खेल बस तुम्हारे और शब्द के बीच का है– ध्वनि। और वो ध्वनि मानवीय नहीं है, जैसे आकाश की गूंज तुम्हें आकर इशारे दे रही हो और तुम उसके गुलाम हो, कर्म हुआ जा रहा है। उस गुलामी में बड़ी मौज है, यही है ‘अनहद’।
प्रश्नकर्ता: अगर इसको रीयल लाइफ़ से रिलेट करें (असल ज़िन्दगी से जोड़ें), तो सबकुछ अपने आप हो रहा है।
आचार्य प्रशांत: हो तुमसे ही रहा है लेकिन तुम उस घटना के, कर्म के स्रोत नहीं हो; तुम माध्यम हो। स्रोत तुमसे बाहर है कहीं, स्रोत तुमसे बड़ा है कहीं; तुम माध्यम हो, तुम ज़रिये हो। टाँगे तुम्हारी चल रही हैं; इशारा कोई और दे रहा है। और जो इशारा दे रहा है वो ज़मीनी नहीं है, मानवीय नहीं है।
प्रश्नकर्ता: यही मेरी समझ में क्यों नहीं आता?
आचार्य प्रशांत: ये समझ में आने की चीज़ ही नहीं है (मुस्कुराते हुए)। दो-चार होते हैं, उन्हें समझ में आ जाता है, उन पर मैं बहुत हँसता हूँ कि तुमने समझ कैसे लिया, ये कोई समझ में आने की चीज़ है? इसमें तुम क्या समझ गये?
ऐसे ही रहो कि नहीं समझ में आता! जब तक नहीं समझ में आ रहा तब तक उसकी गरिमा है, महिमा है, तब तक उसका आकर्षण है, तब तक उसमें एक खिंचाव है। जिस दिन तुमने उसे समझ में कैद कर लिया, उस दिन वो दो-कौड़ी की चीज़ हो गयी।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं वो मिस्टेक्स (गलतियों) वाला पढ़ रही थी, उसमें लिखा था कि अगर तुमने गलतियाँ की हैं तो उसकी कंसीक्वेंसेस (दुष्परिणाम) तुम्हें ही झेलनी पड़ेंगे और आपको इतना मजबूत होना चाहिए ये कहने के लिए कि, 'हाँ भाई! मैंने किया है तो मैं अब ये कीमत भी चुकाऊँगा'। लेकिन फिर इससे ये भी तो हो सकता है कि फिर मैं कहूँ कि ठीक है, एक और कर लेता हूँ?
आचार्य प्रशांत: झेल सकते हो तो करे जाओ! कल सुबह भी तो यही बात हो रही थी, कि अगर अभी तुम झेलने से उकताए नहीं हो तो करे जाओ न।
प्रश्नकर्ता: तो इसमें उकताना ही एक फैक्टर (कारण) है या फ़िर समझ भी एक फैक्टर है, कि हाँ समझ गयी हूँ?
आचार्य प्रशांत: समझ जो शब्द है वो बड़ा अर्थहीन शब्द होता है। समझ का अर्थ होता है कि अब वो नहीं बचा जो नासमझ था। वो जो नासमझ है, अगर वो उकतायेगा नहीं, तो मिटेगा नहीं। और वो उकतायेगा तभी जब दो चीज़ें एकसाथ हों, एक तो कर्मफल और दूसरी अनुकम्पा। ये दो चीज़ें जब मिल जाती हैं तो नासमझी मिटती है। पहली चीज़ कर्मफल की चोट पड़े और दूसरी चीज़ दैवीय सहारा मिले। जब दोनों एक साथ मिलते हैं, तो फिर नासमझी के दिन पूरे होते हैं।
अगर अभी नासमझी की चोट नहीं पड़ रही, अभी कर्मफल भुगतना नहीं पड़ रहा और गुरु का सहारा मिले या ग्रन्थों का उपदेश मिले, तो ऐसा लगता है कि ये लोग व्यर्थ ही उपदेश दे रहे हैं। सब ठीक ही चल रहा है, ये क्यों उपदेश दे रहे हैं? हम तो स्वस्थ हैं, हमें दवाई क्यों दी जा रही है? तो ज़रूरी है कि जब तुम्हें दवाई दी जा रही हो, उस वक़्त तुम्हें पता हो कि तुम बीमार हो और तुम्हें कष्ट है।
चोट पड़ रही हो कर्मफल की, और सहारा मिल रहा हो गुरु का ग्रन्थ का, ये दोनों जब एकसाथ हो रहे हों तो फिर नासमझी छूट जाती है।
प्रश्नकर्ता: पर इस चोट को भी हम नाम दे देते हैं कि नहीं, ये तो हमारी रेस्पोंसिबिलिटी (ज़िम्मेदारी) है?
आचार्य प्रशांत: ये सब नाम भी तुम तभी तक दे सकते हो जब अभी होश बचा हो। जब इतनी ज़ोर की चोट पड़े कि हाय-हाय करते भागो, तो फिर नाम देना वगैरह सब भूल जाएगा। अगर अभी नाम दे पा रहे हो, बहाने बना पा रहे हो तो इसका मतलब है कि अभी पूरी चोट पड़ी नहीं है; तुम खाये जाओ, इतनी ज़ोर की पड़ेगी कि सब कर्तव्य-वर्तव्य भूल जाएगा।
प्रेमी आकर गाल पर हल्के से थपकी दे, तो बोलते हैं, ये तो प्रेम है। ज़रा ज़ोर से मार दे, तो कहते हैं, ये उसका खेल है। और लगातार पटापट-पटापट तो फिर बोलना भूल जाओगे कि ये तो प्रेम में किल्लोलें चल रही हैं, ये तो रासलीला हो रही है, फिर भूल जाओगे। या फिर तब भी कहोगे कि ये तो प्रेमी की मनुहार है, खिलवाड़ है? बोलिए-बोलिए।
प्रश्नकर्ता: सर, जब हम यहाँ से चले जाएँगे तो शुरू करने के लिए हमें क्या करना चाहिए, किताबें पढ़ने के अलावा?
आचार्य प्रशांत: यहाँ से जाओगे, उससे पहले काफ़ी चीज़ें बतायी जाएँगी।
प्रश्नकर्ता: एक लाइन पढ़ी थी मैंने इसमें, इफ़ यू सी एन एक्शन बीइंग हैपनिंग, एंड इफ यू वांट टू ट्रांसफॉर्म इट, डोन्ट डू इट; इट विल बी एन एनदर एक्शन (यदि आप कोई कार्य घटित होता हुआ देखें और उसमें परिवर्तन करना चाहें, तो ऐसा न करें; यह एक और कार्यवाही होगी)। अगर वो नहीं करते तो सुधार के मौके कम हैं, वो भी मैंने देखा। ये एक्शन था, मैं ये कर रहा हूँ और अगर मैं कोई एक्शन न लूँ, तो चेंज (बदलाव) नहीं होगा।
आचार्य प्रशांत: नहीं, अगर वगैरह बचते ही नहीं न। आपको दिख गया कि कोई एक्शन ठीक नहीं है, तो उसके बाद अब अगर कहाँ बचा, 'कि अगर इसको न करूँ'? दिख गया ठीक नहीं है, अभी भी विकल्प है उसे करने का? अगर अभी विकल्प है, तो आपने देखा नहीं। फिर तो आपने बस तुक्का मारा है।
प्रश्नकर्ता: उसको चेंज करने की कोशिश तो करनी चाहिए आगे।
आचार्य प्रशांत: अगर दिख गया है तो आगे से कोशिश करने का क्या अर्थ है? वो तो तत्काल छूटेगा न। तुम गलत रास्ते पर चले जा रहे हो और तुम्हें तभी पता चला गलत रास्ता है, तो क्या ये कहोगे कि अगली बार से अब इस रास्ते से नहीं चलूँगा या ये कहोगे कि अभी रुको और मुड़ो? बोलो? या ये कहोगे कि अगली बार से नहीं चलूँगा इस पर, पर अभी तो गलत चला ही जाता हूँ?
जानना माने मजबूर हो जाना, उसी मजबूरी को कहते हैं, ‘निर्विकल्पता’। कि अब नहीं कर सकते भाई, जान लिया अब कैसे करूँ! नासमझी में कर गये तो कर गये, बेहोशी में हो गया तो हो गया; अब कैसे करें! अब हम चाहेंगे तो भी नहीं कर पाएँगे।
इसमें मक्खी पड़ी है (कप को दिखाते हुए) और ऐसे अपना पीये जा रहे हैं, पीये जा रहे हैं, कोई नुक़सान ही नहीं हो रहा, कुछ नहीं कोई दिक्क़त नहीं है। अब देख लिया की पड़ी है, तो दो ही बातें हो सकती हैं— या तो इसे छोड़ दो, और अगर ज़बरदस्ती करोगे अपने साथ कि पियोगे तो (उल्टी करने का अभिनय करते हुए), अब ये बड़ी अजीब बात है। उसी को नासमझी में पी रहे थे, कुछ फ़र्क नहीं पड़ रहा था और जानने के बाद उसको पीया तो? उल्टी हो गयी। तो कर नहीं पाओगे। जानना माने पूर्णविराम, खेल ख़तम, अब तो पता चल गया।
तुम नये को आने नहीं देते न, तुम पुराने को ही नये नाम देते रहते हो, तुम अभी पुराने से पूरे तरीके से नाउम्मीद नहीं हुए। उन्होंने उक्ति दिखायी है, मैंने कहीं बोला होगा कि ‘आशा बचाती है अतीत के कचरे को’। अतीत को कचरा तुमने समझा ही नहीं है, तुम्हें आशा है कि एक दिन ये सोना बनेगा। ये कचरा है ही नहीं, लग रहा है कचरे जैसा पर मेरे दिल से पूछो, मेरी भावनाओं से पूछो, मेरे प्रेम से पूछो, इस कचरे में से एक दिन हीरे-मोती झरेंगे। तो ये जो तुम्हारी आशा है, वो उस कचरे को सुरक्षित रखेगी। यही कहा है उसमें।
मोह इतना सघन हो जाता है कि तुम सत्य से इनकार करने लगते हो। बात सीधी है, कचरा है लेकिन उसके साथ बहुत रहे हो, उससे पहचान जोड़ ली है, तो अब कचरे को कचरा नहीं बोलोगे। क्योंकि कचरे को कचरा बोला तो खुद को कचरा बोला; पहचान जोड़ ली है न। यही अहंकार है– पहचान जोड़ लेना और फिर जिस वस्तु से सम्बद्ध हो, उसके सारे गुण अपने ऊपर ले लेना।
प्रश्नकर्ता: सर, जैसे बोलते हैं कि किताबें पढ़नी चाहिए, थोड़ा बाहर घूमकर देखना चाहिए। घूमने भी निकलो तो नए लोगों से मिलो और वही रोजमर्रा की बातें मत करो, कुछ नया हो। तो वो सब करके देखा पर जब तक घूम रहे हैं तो ठीक है, जहाँ हम बैठे किसी के साथ तो घूम-फिरकर वही सब शुरू हो जाता है?
आचार्य प्रशांत: (मुस्कुराते हुए) ईमानदार रहो और डर को प्रोत्साहन मत दो; पुरानी जगहों पर नहीं घूमना पड़ेगा। हज़ार अन्तरिक्ष हैं घूमने के लिए, तुम्हें दो-चार बासी गलियों में ही कैद रहने की ज़रूरत नहीं है।
प्रश्नकर्ता: थोडा समझा दीजिए इसे, सर?
आचार्य प्रशांत: क्या समझाऊँ, अन्तरिक्ष कोई समझाने की चीज़ है (व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ)!
प्रश्नकर्ता: नहीं अन्तरिक्ष नहीं, दो-चार बासी गलियाँ मतलब।
आचार्य प्रशांत: वो तुम मुझे समझा दो, बासी गलियाँ मुझसे ज़्यादा तुम जानते हो। मैं अन्तरिक्ष जानता हूँ, वो समझा नहीं सकता; बासी गलियाँ तुम मुझे समझा दो।
प्रश्नकर्ता: सर, क्या दूसरे की स्थति देखकर भी सीखा जा सकता है या..?
आचार्य प्रशांत: हाँ, बिलकुल किया जा सकता है क्योंकि दूसरा, दूसरा नहीं है। दूसरे की स्थिति आपकी ही है। दूसरे से सीख सकते हो, जब ये देख लो कि दूसरा और मैं कितने एक हैं। फिर कहोगे, 'वो-वो नहीं है, वो मैं हूँ। तो उसका अतीत मेरा अतीत है और उसका अंज़ाम मेरा अंज़ाम है।
प्रश्नकर्ता: जैसे कि सर हम देखते हैं कि ठीक है, बड़ी-बड़ी कम्पनियों में काम करने वाले लोग भी बोलते हैं, 'यहाँ ये प्रॉब्लम है, वहाँ ये प्रॉब्लम है'। किसी भी पोजीशन पर हो, कितना भी उसको पैकेज मिल रहा हो। वो चीज़ कभी-कभी खुद भी समझ में आती है कि हाँ, उसको गोल (लक्ष्य) बनाकर भी क्या फ़ायदा?
आचार्य प्रशांत: वो सब देख लो तो छुटकारा और आसान हो जाता है। जो एक भ्रम और उम्मीद रहती है कि वहाँ पहुँचकर के शायद झंझट मिट जाते हों; दिख जाता है कि वहाँ पहुँचना माने और दस झंझट इकठ्ठा करना।
चोट पड़ रही हो कर्मफल की, और सहारा मिल रहा हो गुरु का ग्रन्थ का, ये दोनों जब एकसाथ हो रहे हों तो फिर नासमझी छूट जाती है।
अगर अभी नासमझी की चोट नहीं पड़ रही, अभी कर्मफल भुगतना नहीं पड़ रहा और गुरु का सहारा मिले या ग्रन्थों का उपदेश मिले, तो ऐसा लगता है कि ये लोग व्यर्थ ही उपदेश दे रहे हैं। सब ठीक ही चल रहा है, ये क्यों उपदेश दे रहे हैं?
जब दो चीजें एकसाथ होती हैं, कर्मफल और अनुकम्पा, तब नासमझी मिटती है।