प्रश्नकर्ता: सर, हम उन लोगों को कैसे पहचानें जो नकली हैं, जो दिखावा कर रहे हैं?
आचार्य प्रशांत: सवाल दूसरे को ध्यान में रखकर पूछा गया है कि किसी ऐसे को कैसे पहचानें जो नकली है, जो दिखावा कर रहा है, जिसका अपने अंतस् से कोई संबंध नहीं है। सवाल दूसरे को ध्यान में रखकर पूछा गया है। लेकिन इसका समाधान दूसरे को ध्यान में रख कर नहीं दिया जा सकता।
हम वैसा ही देखते हैं, जैसा हम होते हैं। बात समझ रहे हो?
हम ठीक वैसा ही देखते हैं, जैसा हम होते हैं।
तुम्हारी आँखों पर जिस रंग का चश्मा लगा हो, दुनिया तुम्हें ठीक वैसे ही नज़र आएगी। तुम यदि सिर्फ अपने आप को एक व्यक्तित्व मानते हो, तो तुमको सिर्फ सामने वाले में व्यक्तित्व ही नज़र आएगा। तुम अपने आप को अगर बस सिर्फ इतना ही जानते हो कि मैं वही हूँ जैसे मैंने कपड़े पहन रखे हैं, जैसे मेरी शक्ल-सूरत है, जैसा मेरा चलने का और बात करने का अंदाज़ है। तुम अपने आप को अगर इन्हीं पैमानों पर परिभाषित करते हो, तो तुम सामने वाले को भी इन्हीं पैमानों पर परखोगे। बात सीधी है?
प्रश्नकर्ता: हाँ सर।
आचार्य प्रशांत: जब अपने बारे में मुझे सबसे ज्यादा इसी बात का ख़्याल रहता है कि मैं दिखता कैसा हूँ। तो सामने वाले को लेकर मैं पहली चीज़ यही जाचूँगा कि…
प्रश्नकर्ता: वो दिखता कैसा है।
आचार्य प्रशांत: वो दिखता कैसा है। ये बात समझ में आ रही है? स्पष्ट है?
प्रश्नकर्ता: हाँ सर।
आचार्य प्रशांत: अब अगर मेरा ही जीवन नकली है, मैंने ही नकली को असली मान रखा है तो मेरे पास कोई चारा नहीं रह गया, कोई विकल्प नहीं रह गया। मुझे सामने वाले नकली को भी असली मानना ही पड़ेगा। और तुम पूछ रहे हो कि मैं कैसे जानूँ कि कौन नकली है। पर तुम्हें तो उसके नकली को असली मानना पड़ेगा क्योंकि तुमने अपने जीवन में भी नकली को असली मान रखा है। तो तुम्हें वही पैमाना, वही स्टैण्डर्ड उसके ऊपर भी लागू करना पड़ेगा। फँस गए। कोई तरीका ही नहीं है जानने का।
तो समाधान क्या निकलता है? समाधान ये निकलता है कि अगर दूसरे के नकलीपन को परखना है, दूसरा एक नकाब ओढ़े हुए है, छुपा रूप है उसका और तुम इस बात को देख लेना चाहते हो, पैनी निगाह से, कि यहाँ तो बात नकली है, ये व्यक्ति झूठा है, इसका आचरण सिर्फ एक धोखा है तो उसके लिए तुमको खुद ऐसा होना पड़ेगा जिसका आचरण धोखा नहीं है।
तो इसलिए मैंने शुरुआत में ही कहा था कि सवाल तुमने दूसरों को ध्यान में रखकर पूछा है। लेकिन समाधान अपने भीतर खोजना पड़ेगा। जिसको दूसरे की सच्चाई जाननी है उसको पहले किसकी सच्चाई जाननी पड़ेगी?
प्रश्नकर्ता: अपनी।
आचार्य प्रशांत: जो यह तय करना चाहता है कि दूसरा नकली है या नहीं, उसे पहले किसे असली करना पड़ेगा? अपने आप को। क्योंकि मैं जैसा हूँ मुझे संसार भी वैसा ही दिखाई पड़ता है। नकली को नकली लोग ही पसंद आएँगे। चील कितना भी ऊँचा उड़ती है उसकी नज़र कहाँ रहती है? पूरा ऊपर उड़ गई पर उसकी नज़र होती है एक ज़रा से मांस के टुकड़े पर, उसकी नज़र वहाँ रहती है।
जैसा तुमने अपने मन को कर लिया है तुम्हारा मन वहीं जाकर बैठ जाएगा। तुम्हें एक क्षण नहीं लगेगा नकली को नकली जान लेने में, अगर तुम असली हो गए। फिर तुम ये सवाल नहीं पूछोगे कि नकली को कैसे जानूँ, कि मुझे धोखा ना हो जाए। तुम्हें धोखा फिर हो नहीं सकता क्योंकि पहला धोखा तुम्हें कोई दूसरा नहीं देता।
जो सबसे महत्वपूर्ण धोखा है, जो केंद्रीय और मूलभूत धोखा है वो तुम्हें दूसरे नहीं दे रहे हैं। वो धोखा तुम खुद अपने आप को दे रहे हो। और मैं तुमसे कह रहा हूँ कि जिसने अपने आप को धोखा देना बंद कर दिया, अब संसार उसे धोखा नहीं दे पाएगा।
तो अगर ये चाहते हो कि दूसरों से धोखा ना खाओ - और मैं समझता हूँ कि यहाँ सभी लोग यही चाहते होंगे कि दूसरों से धोखा ना खाएँ - जो दूसरों से धोखा ना खाना चाहते हों, वो पहले अपने आप को धोखा देना बंद करें। आ रही है बात समझ में? और अब मैं तुमसे सवाल पूछता हूँ। हम किस-किस तरीके से अपने आप को धोखा देते हैं?
प्रश्नकर्ता: सर, अगर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में देखें तो पढ़ाई को ले सकते हैं।
प्रश्नकर्ता: सर, बहुत बातें होती हैं जो हम अपने माता-पिता को सही नहीं बताते, तो उस समय हम खुद को धोखा दे रहे होते हैं।
आचार्य प्रशांत: ठीक है। और बोलो हम कैसे अपने आप को धोखा देते हैं? हमें इसकी तो परवाह है कि दूसरा हमें धोखा ना दे दे और मैं उससे पहले की एक बात कर रहा हूँ कि हम खुद कैसे धोखा देते हैं अपने आप को? और बोलो, एक-दो और लोगों से सुनना चाहता हूँ।
प्रश्नकर्ता: सर, ये सोच कर कि सामने वाला हमें धोखा दे रहा है, हम खुद को धोखा दे रहे होते हैं।
आचार्य प्रशांत: बहुत अच्छे, और बोलो।
प्रश्नकर्ता: सर, ओवरस्मार्ट बनकर।
आचार्य प्रशांत: बढ़िया, कि 'मैं बहुत चालाक हूँ।'
प्रश्नकर्ता: किसी की कॉपी (नकल) कर के।
आचार्य प्रशांत: किसी की नकल कर के।
प्रश्नकर्ता: अपना बढ़ावा खुद कर के।
आचार्य प्रशांत: 'मैं बड़ा महान हूँ।'
अब ऐसे समझो कि जो सच है, वो कहीं छुपा हुआ तो होता नहीं, वो सामने ही होता है। आँखें खोलोगे नहीं कि सच दिख जाएगा। तो धोखा देने का एक मात्र तरीका क्या हुआ?
प्रश्नकर्ता: आँखें बंद रखना।
आचार्य प्रशांत: आँखें बंद रखना। तो तुमने जितनी बातें कहीं वो घूम-फिर कर यही हैं कि हम जान-बूझ कर अपनी आँखें बंद रखते हैं क्योंकि ये पक्का है कि आँख खोल ली तो सच दिख जाएगा। अब जिसने अपनी आँखें बंद कर रखी हैं, जो सच को देखना ही नहीं चाहता, वो दूसरों का भी धोखा कैसे पहचानेगा?
दूसरों से सतर्क मत रहो, अपने आप से सतर्क रहो। तुम्हारे दुश्मन बाहर कहीं नहीं बैठे हैं। तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन तुम्हारे भीतर ही बैठा हुआ है। सबसे बड़ा दोस्त भी वही है। पर सबसे बड़ा दुश्मन भूलना नहीं कि तुम्हारे ही भीतर बैठा हुआ है।
बाहर के धोखे तो छोटे-मोटे होते हैं। बड़ा धोखा वो है जो हम अपने आप को देते हैं, अपनी आँखें बंद रख कर। हम सच को देखना ही नहीं चाहते। आँखें अभी खोलो, सच दिख जाएगा। सच को क्यों नहीं देखना चाहते क्योंकि हमें ये घुट्टी पिला दी गई है, हमारे मन में ये बात बैठा दी गई है कि सच खतरनाक है। हमारे मन में ये धारणाएँ जमी हुई हैं कि झूठों में जीना, धोखे में जीना, कहीं-न-कहीं से हमारे लिए फायदेमंद है। तो हमने धोखेबाज़ी को अच्छा समझ लिया है।
तुमने देखे हैं ऐसे लोग, जिनसे तुम बात करो तो वो कहेंगे कि धोखेबाज़ी तो बहुत बढ़िया चीज़ है। और वो हज़ार तरह के तर्क देंगे। वो कहेंगे कि धोखेबाज़ होना क्यों ज़रूरी है। जिस किसी ने अपने आप को ये समझा लिया कि धोखेबाज़ी ज़रूरी है, धोखेबाज़ी फायदेमंद है, उसको तो दुनिया देगी ही धोखा। अरे जब तुम्हीं मानते हो कि धोखेबाज़ी अच्छी चीज़ है, तो फिर रहो धोखे में। अपने आप से भी खाओ, दुनिया से भी खाओ, मौज मनाओ।
प्रश्नकर्ता: सर, क्या कोई इंसान हमेशा, हर स्थिति में बच कर रह सकता है?
आचार्य प्रशांत: देखो बहुत कष्ट में रहेगा। क्योंकि जीवन तुम्हारे धोखों के अनुसार तो चलता नहीं। तुम अपने आप को धोखा दे दोगे। जीवन को तो नहीं दे दोगे। जीवन तुम्हें ठोकरें देगा, तुम्हें कष्ट मिलेंगे लेकिन पागलपन हम पर कुछ ऐसा छाता है कि हम तमाम कष्ट झेलने को तैयार हो जाते हैं, आँखें खोलने को तैयार नहीं होते।
हम कहते हैं कि दुख अच्छा है। दुख झेले जाने चाहिए। और तुमने ऐसे लोग देखे होंगे, जो दुख को पकड़कर ही बैठ जाते हैं। उनको कष्ट में भी मज़ा आना शुरू हो जाता है। वो सब कुछ झेलने को तैयार हैं, आँख नहीं खोलेंगे। जान दे देंगे, पर आँख नहीं खोलेंगे। मन को इस हद तक विकृत किया जा सकता है और मन हो जाता है। मन को संस्कारित किया जा सकता है।