मज़ा हो भरपूर, सज़ा रहे दूर || आचार्य प्रशांत (2022)

Acharya Prashant

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मज़ा हो भरपूर, सज़ा रहे दूर || आचार्य प्रशांत (2022)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, आपने कहा था कि ग़लती ‘मैं’ भाव से आती है। तो इसके साथ ही अक्सर हम अपनेआप को ये तर्क देते हैं कि मुझसे ये ग़लती हो गयी, ये मैं नहीं थी। तो ये ‘मैं’ भाव क्या है? और ग़लती किसको कहा जा रहा है तब?

आचार्य प्रशांत: मज़े मारने के बाद सज़ा से बचने का उपाय है ये सबकुछ, बस। मैं वो हूँ जो उपस्थित रहता है जब मज़े हो रहे होते हैं। ‘मैं’ कौन है न? ‘मैं’ वो है जो बिलकुल मौजूद है जब भोग का क्षण है, जब मज़े मारे जा रहे हैं तो वो बाकायदा मौजूद है। और ‘मैं’ वो है जो इंसाफ़ के क्षण में एकदम नदारद है, लापता; उसको ‘मैं’ बोलते हैं। उसका एक ही काम है—मज़े मारना और क़ीमत चुकाने से बचना। क़ीमत चुकाने को ही इंसाफ़ कहते है न। तो ये ‘मैं’ की एक वैकल्पिक परिभाषा हो गई।

कभी कोई बोलता है—‘मैंने ग़लती से मज़े मार लिए।’ ऐसा होता है क्या? या कभी ऐसा होता है कि बोलते हो, ‘अरे! मज़े मारने का क्षण था, ग़लती से मिस (चूक) हो गया।’ होता है क्या? पर ख़रीदारी करने के बाद पैसे देना ग़लती से हम ज़रूर भूल जाते हैं, ऐसा ही होता है न। कभी ऐसा होता है—खाना मँगा लिया और ग़लती से खाना खाना भूल गए। होता है क्या? बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे; फिर उठकर चल दिए तो पीछे से वेटर आया, बोला, ‘सर आपका खाना।’ ‘अरे! मैं भूल गया, भूल गया; ग़लती से खाना खाना भूल गया। ऐसा होता है?

‘मैं’ ऐसा है—भोग के लिए लालायित, भोगने के क्षण में सदा उपस्थित। और मूल्य चुकाने के क्षण में—मैं तो था ही नहीं, वो तो बस संयोग हो गया, दुर्घटना हो गई। मैंने नहीं किया, हो गया। मैं ज़िम्मेदार नहीं हूँ, मैं ज़िम्मेदार नहीं हूँ, मैंने नहीं किया।(बेचारगी का अभिनय करते हुए)

उस आदमी के जीवन में क्रांति हो गई जिसके जीवन से ‘ग़लती’ शब्द मिट गया। जो अपने व्याकरण से इस शब्द को ही मिटा दे, कहे, ‘मैं इस्तेमाल ही नहीं करूँगा इसका। और मैं बहुत नहीं जानता, न गीता समझ पा रहा, न उपनिषद् समझ पा रहा हूँ; पर एक काम करता हूँ—अब कभी नहीं कहूँगा कि मैंने कुछ ग़लती से कर दिया। मैंने करा और अगर मैंने करा, तो मेरे भीतर की ही कोई राक्षसी वृत्ति है जिसने करवाया। इंसान हूँ, वयस्क हूँ, मैं ज़िम्मेदारी लेता हूँ—मैंने करा, मुँह नहीं चुराऊँगा, पीठ नहीं दिखाऊँगा। भले ही मुझे ही भीतर से तर्क उठ रहा हो कि ये तो हो गया, संयोग से हो गया, ग़लती हो गयी, वाकई ग़लती हो गयी, जेन्यूइन मिस्टेक (असली ग़लती) है।

कहते हैं न हम जेन्यूइन मिस्टेक, जेन्यूइन मिस्टेक है। जेन्यूइन मिस्टेक है, भले ही भीतर से तर्क उठ रहा हो, पर मैं मानूँगा ही नहीं। मैं तो बस एक बात बोलूँगा, ‘अगर मैं इसमें संलिप्त था तो ज़िम्मेदारी मेरी है। बोलूँगा ही नहीं की मिस्टेक (ग़लती) है। मैं नहीं कहूँगा ‘हुआ’। मैं कहूँगा ‘किया, मैंने किया, मैंने किया’।

क्योंकि निष्काम कर्मयोगी तो मैं हूँ नहीं कि मैं कह दूँ कि मैं तो बस करता हूँ, परिणाम की ज़िम्मेदारी तो राम की है। मैं तो जब भी कुछ करता हूँ तो परिणाम पर ही नज़र रखकर करता हूँ, तो परिणामों की सारी ज़िम्मेदारी मैं उठाता हूँ। मैं जो कुछ कर रहा हूँ उसका परिणाम बुरा आया, आई ओन अप (मैं ज़िम्मेदारी लेता हूँ) मैंने किया। दुर्घटनावश नहीं हो गया, संयोगवश नहीं हो गया, मैंने किया।

एक काम था जो मुझे करना था और वो काम अपने परिणाम अब लेकर के सामने आया है। बिलकुल सामने आ गया है, कुछ आंकड़े हैं जो सामने आ गए हैं। किसी काम की बीस इकाइयाँ आपको पूरी करनी थीं, ट्वेन्टी यूनिट्स ; आपने पूरी करी हैं सात, आप बिलकुल नहीं कहेंगे कि इस वजह से ऐसा हो गया, उस वजह से ऐसा हो गया। मैंने किया, मैंने किया, मैंने किया।

बहुत आगे तक जाओगी अपनी भाषा में से ये शब्द हटा दो, क्या? 'ग़लती'। और, और आगे जाना हो तो एक और शब्द 'मजबूरी'। ना कुछ ग़लती से होता है, ना कहीं मजबूर हो तुम। जो भीतर बैठा हुआ है न जानवर वो ही है जो सबकुछ करता है। और मान लो कि वो कर रहा है, मत कहो कि संयोग हैं, तो उस जानवर से मुक्त हो सकते हो। नहीं तो वो जानवर तुम्हारे साथ खेल खेलता ही रहेगा।

प्र: एक और प्रश्न है आचार्य जी, जैसे अपनी ग़लती देख भी ली है, तो उसको देखने के प्रति बहुत विरोध उठता है। और तब ऐसा लगता है कि कोई सामने वाला ही बता दे, लेकिन ख़ुद नहीं देखना चाहते हैं। तो यह विरोध कम कैसे होगा?

आचार्य: कम नहीं करो। ऐसी इच्छा, ऐसी प्रार्थना ही मत करो कि ये विरोध कम हो जाए। तुम कहो, ‘जितना भी विरोध है उसके बावजूद, मैं करती रहूँ।’ और करके देखो, आनन्द उसी में है। ये मैं बात काव्यात्मक तौर पर नहीं कह रहा हूँ, ये बिलकुल यथार्थ है। अपने अनुभव से कह रहा हूँ। जिगर किसको कहते हैं? जीना किसको कहते हैं? जान किसको कहते हैं? ताक़त किसको कहते हैं? ये सिर्फ़ तब पता चलता है जब सामने ज़बरदस्त चुनौती हो। जो तुम्हें लग रहा हो कि तुम्हें बिलकुल रौंद डालेगी, और तुम खड़े रहो उसके सामने।

मोनिका सेलेस, टेनिस प्लेयर (खिलाड़ी) हुआ करती थी। एक तुम बच्चे रहे होगे उस वक़्त। तुम बच्चे थे, तुम नहीं जानते। और भी हैं, आज भी हैं, टेनिस प्लेयर्स (खिलाड़ी) हैं। उनको देखो, जब वो हिट करते हैं बॉल को तो उनके ग्रंट (घुर घुर शब्द) निकलता है (गले की ओर इंगित करते हुए) ग्रंट समझते हो कैसी आवाज़? जानते हो वो कितना मुश्किल शॉट है जो मारा है उन्होंने। बहुत आसान था कह देना कि इसको तो मार ही नहीं सकता, छोड़ दो न। जान निकल गई है उसको मारने में इसलिए गले से आवाज़ आ जाती है। उसी में आनन्द है, आनन्द और किसी चीज़ का नाम है ही नहीं।

प्राण अगर निकल ना रहे हों, तो आनन्द आ ही नहीं सकता। आनन्द ऊँची चीज़ है और हर ऊँची चीज़ क़ीमती होती है न? वो क्या क़ीमत माँगती है? वो प्राण की क़ीमत माँगती है।

अगर इतना मुश्किल नहीं है—और चार-चार, पाँच-पाँच सेट के होते हैं। चार-चार घंटे खेलते हैं ये लोग। और एक दूसरे को कहाँ-कहाँ नहीं दौड़ा रहे होते हैं, उस कोने में उस कोने में (कोनों की ओर इशारा करते हुए)। डेढ़ सौ मील की गति से तो सर्विस हो रही होती है। और वो कोई जानबूझकर आप आवाज़ नहीं निकालते हो। आपको पता है? आवाज़ वो निकल जाती है क्योंकि प्राण जैसे निकल रहे हैं न, वैसे आवाज़ निकल जाती है। वो हुँकार है, उसी हुँकार में आनन्द है।

ये एक, एक, एक तबियत की बात होती है, ये एक निर्णय होता है। ये एक व्यक्तित्व का प्रकार बन जाता है, पर्सनालिटी टाइप , दृष्टि, ऐटिट्यूड टूवर्ड्स लाइफ़ (जीवन के प्रति दृष्टिकोण) कि हम वो हैं जो और सख़्त हो जाते हैं जब पत्थर से टकराते हैं। सामने हवा हो, घास हो, खरगोश के बाल हों तो हम नर्म रह सकते हैं फिर भी। मुलायम फूल हाथों में हैं, कोई छोटा बच्चा हाथों में है, हम नर्म रह सकते हैं शायद फिर भी। लेकिन जब आँधी से टकराएँगे, पत्थर खाते हैं, तो हम और सख़्त हो जाते हैं।

कोई साधारण स्थिति हो जीवन की, उसमें तो हम झुक भी लेते हैं, आसानी से झुक लेते हैं, कोई बात नहीं है। जैसे छोटे बच्चे के आगे झुक नहीं लेता आदमी। वो आकर आपको दो-चार घूसे-वूसे भी मार देता है, आप उसे पलटकर थोड़ी... वो आपको मार रहा है; ठीक है, मार ले, क्या हो गया। लेकिन जब कोई बड़ी चुनौती सामने आती है तो फिर तो हम, हुँकार ही जवाब होता है। ये करके देखो। ये करा नहीं है क्योंकि इसका हमें अभ्यास कराया नहीं जाता बचपन से।

हमें कुछ इस तरह की नीति पढ़ाई जाती है कि जब चुनौती ज़्यादा बड़ी हो जाए तो उसको बाईपास कर दो। कोई युक्ति लगाकर के कोई दूसरा रास्ता ढूँढ लो। नहीं, हेड ऑन कॉलिजन (सीधी टक्कर) चाहिए। क्या चाहिए? हेड ऑन कॉलिजन। सीधे जाकर भिड़ना सीखो, टूटना सीखो। चोट खाओगे, ख़त्म नहीं हो जाओगे। और अगर ख़त्म भी होना है, तो ख़त्म होने का इससे ज़्यादा शानदार तरीक़ा नहीं हो सकता।

ये डरी हुई शक़्ल लेकर के तुम अस्सी साल, सौ साल जी भी लो, तो तुम्हें क्या मिल जाएगा। इससे अच्छा ये नहीं है कि एक तेज के साथ और शान के साथ एक नूर हो, एक आभा हो, एक रौब हो; उसके साथ तीस-चालीस साल ही जी लो। वो बेहतर नहीं है क्या? और यहाँ तो ऐसा कुछ है भी नहीं कि जान जा रही हो, या कोई आ रहा है वो तुम्हें खून निकाल देगा। समझाने के लिए एक अतिशयोक्ति कर रहा हूँ।

बट डॉन्ट केव इन, डॉन्ट नील डाउन जस्ट टू इज़िली (लेकिन झुकें नहीं, इतनी आसानी से घुटने न टेकें)। मुस्कुराया करो, जब, जब दिखाई दे न कि अब तो, अब तो सामने जो खड़ा है वो बहुत बड़ा है, तब कहा करो, ‘अहा! अब आएगा न मज़ा भीडू।’ अपने से छोटों से या अपने से बराबरी वाले से टकराकर के क्या मिलना था। अब जो सामने खड़ा है, डेविड वर्सेज़ गोलियाथ हो रहा है अब। एक इत्तू सा और एक कित्ता बड़ा वो? वो बहुत बड़ा (हाथ से ऊँचाई दर्शाते हुए)। अब आएगा न मज़ा भीडू।

बराबर वालों से पंगे लेकर क्या मिलता है? जैसे एक लस्टफुलनेस (वासना) है ये, जैसे आनन्द ही इसी में आना हो। टूटने में ही आनन्द मिल रहा है, मज़ा आता है। और ये एक कल्टीवेट (विकसित) करने की चीज़ है, ये दिन-ब-दिन अभ्यास से सीखनी पड़ती है। छोटी-छोटी बातों में कह दो—‘अभी क्या है, सिर दर्द हो रहा है, मैं काम नहीं कर रही’। इसीलिए कहा गया था ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’। वहाँ पर वचन से मतलब यही नहीं जो दूसरे को वचन दे दिया। हम सबसे ज़्यादा वचन तो अपनेआप को देते है न। उदाहरण के लिए, आज नहाना है। अब वो एक-एक घंटा करके बात टलती रहती है। अभी अच्छा ठीक है, एक बजे नहा लेंगे, दो बजे नहा लेंगे, तीन बजे नहा लेंगे। अब तो तीन बज गए, बहुत लेट हो गया; अब नहीं नहायेंगे।

वचन दे दिया तो करो, ‘प्राण जाए पर वचन ना जाए’। किसी को बोल दिया है कि ये करेंगे तो करेंगे। और वो करने में ख़ुद से टकराना पड़ता है। अभ्यास करो इसका, रोज़-रोज़ अभ्यास करो, फिर टकराने में मज़ा आने लगेगा। और दूसरी तरह का भी अभ्यास हो सकता है, विपरीत। जहाँ तुम कतराने का अभ्यास कर लो, मुँह छुपाने का अभ्यास कर लो, कट लेने का अभ्यास कर लो। कि सामने थोड़ी सी तकलीफ़ आयी नहीं और क्या किया, पतली गली से निकल लिए। और अगर तुम पतली गली से निकलने का अभ्यास कर लोगी, तो कोई तुमको बोलने नहीं आएगा कि ग़लत ज़िन्दगी जी रही हो।

करोड़ों लोग वैसे ही जीते हैं: डरी हुई बेईमान ज़िन्दगी, ख़स्ताहाल, बेरौनक; सब ऐसे ही जीते हैं। तो कोई नहीं कहने आएगा कि ये अपराधिनी, पिशाचनी! कोई नहीं आएगा ऐसे कहने तुम्हें क्योंकि तुम बहुमत में होओगी। सब तुम्हारे ही जैसे होंगे, कौन तुम पर उँगली उठाएगा। बल्कि वो तुम्हें और स्वीकार करेंगे, कहेंगे, ‘हमारे ही जैसी है, आजा बिटिया, आजा यहाँ बैठ।’ बस ज़िन्दगी ख़राब चली जाएगी जैसे उन सबकी जाती है।

तो ये भी एक बहुत उम्दा बात इसमें से निकल रही है। बहुमत के विरुद्ध जीने की आदत ही डाल लो, हर छोटी बात में ज़िन्दगी में। जो काम सब कर रहे हों, अपनेआप को ऐसा प्रशिक्षण दे दो, इंटरनल ट्रेनिंग (आन्तरिक प्रशिक्षण) कि अगर कोई ऐसा काम है जिसको सब कर रहे हैं तो अपनेआप को कहो ‘ग़लत ही होगा’। निन्यानबे प्रतिशत सम्भावना यही है कि ग़लत ही काम होगा, ग़लत ही होगा नहीं तो सब कैसे कर रहे होते।

सबके जैसा सोचना नहीं, सबके जैसे खाना-पीना नहीं, सबके जैसे जीना नहीं; तभी होगा ऐसा कि सबके जैसा अंजाम नहीं। नहीं तो जो सबका अंजाम है, वही तुम्हारा अंजाम है। दूसरों को अपना मापदंड कभी बनाओ ही मत, ख़ासतौर पर ये जो साधारण लोग होते हैं। ये कुछ नहीं हैं, ये बरसाती कीड़े हैं। प्रकृति ने पैदा कर दिया है, दो दिन प्रकृति की ही व्यवस्था में जिएँगे और तीसरे दिन प्रकृति की ही मिट्टी में ग़र्क हो जाएँगे। तुम इन्हें अपना आदर्श, अपना उदाहरण बनाना चाहती हो क्या? इसी को तुम बोलना चाहती हो, द नार्मल कॉमन मेन स्ट्रीम लाइफ़ (सामान्य मुख्यधारा का जीवन)।

रिजेक्ट एवरीथिंग दैट इज़ मेन स्ट्रीम। एटलिस्ट नाइनटी नाइन परसेंट ऑफ दैट। मे बी देयर इज़ वन परसेंट समथिंग देयर, दैट यू कैन एग्री टू, जस्ट वन परसेंट। बट मोस्ट ऑफ इट, रिजेक्ट जस्ट बाय द फैक्ट दैट इट इज़ मेन स्ट्रीम। हैड इट बीन ऑफ एनी वर्थ? व्हाई वुड इट हैव बीन मेन स्ट्रीम एट ऑल। (हर उस चीज़ को अस्वीकार करें जो मुख्य धारा है, उसमें से निन्यानवे प्रतिशत को सूचीबद्ध करें। हो सकता है कि वहाँ एक प्रतिशत कुछ ऐसा हो जिससे आप सहमत हो सकें, केवल एक प्रतिशत। लेकिन इनमें से अधिकांश को सिर्फ़ इस तथ्य से ख़ारिज कर दीजिए कि यह मुख्य धारा है। क्या इसका कोई मूल्य था? आखिर यह मुख्य धारा क्यों होती?)

अगर चीज़ अच्छी होती, तो ये इतने सारे मूर्ख उसको कैसे, उसका पालन कर रहे होते। दिस इज़ एक्सेप्शनल (यह असाधारण है)। एक्सेप्शनल (अपवाद स्वरूप) है न ये? बार-बार मैं बोलता हूँ—‘कुरुक्षेत्र में कितने खड़े हैं? कम-से-कम हज़ारों, कम-से-कम हज़ारों। एक के लिए थी ये (गीता) एक के लिए।’ मॉसेस (जनसाधारण) के लिए तो नहीं थी न, या थी? तो तुम्हें मॉसेस (जनसाधारण) के साथ ही रहना है तो इनको (गीता की प्रति हाथ में लेकर) तुम फिर क्यों परेशान कर रहे हो?

हैव द हार्ट, हैव द गट्स टू लिव एन एबनॉर्मल लाइफ़, एंड रोर विथ कंटेम्प्ट, ‘येस, आई एम एबनॉर्मल’। आई एम नॉट वन ऑफ यू। (दिल रखो, असामान्य जीवन जीने का साहस रखो और तिरस्कार के साथ दहाड़ो, ‘हाँ, मैं असामान्य हूँ। मैं तुममें से नहीं हूँ।’)

एक्सीलेंस इज़ अनकॉमन, एक्सीलेंस इज़ एबनार्मल। मीडियोक्रिटी इज़ कॉमन एंड नार्मल। (उत्कृष्टता असामान्य है, उत्कृष्टता असामान्य है। मध्यमता आम और सामान्य है।)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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