प्रश्न: आचार्य जी, जैसे कि किसी ने मुझसे पहली बार झूठ बोला, और जब मैं उसे धमकाता हूँ, जो मुझे उस समय अच्छा लगता है, वो अगर मैं उसको दस दिन बाद बोलूँगा, तो मुझे वो चीज़ नहीं मिलेगी। मैं छटपटा लिया, तब जाकर मैंने उसे बताया, तो फिर वो दस दिन मुझे व्यर्थ प्रतीत होते हैं कि काश मैंने पहले ही क्यों नहीं कह दिया, पहली बार में ही! और वो कहने के बाद, अंदर जो शान्ति आती है कि मैंने जो कहना था कह दिया!
आचार्य प्रशांत: बात को समझियेगा, आप जिस भी चीज़ के लिए व्यग्र रहते हैं, वो चीज़ कहीं न कहीं आप को ये भरोसा देती है कि आप आदमी बढ़िया हो! आदमी बढ़िया हो, बस किसी वजह से अभी लाचार चल रहे हो। अब मौका मिलते ही आप बम की तरह फटने वाले हो। जैसे हिंदी फिल्मों का हीरो होता है ना? कि अभी वो बच्चा है। तो बच्चा है तो उसे घर के एक कमरे में बंद कर दिया गया है, और उसके सामने उसके बाप को गोली मारी जा रही है, और उसकी बहन को उठा ले जा रहे हैं। तो छपटाहट, वैसी ही भावना देती है। हूँ तो मैं हीरो, पर बच्चा। ज़रा बड़ा होने दो, बीस साल का इंतज़ार है बस। बीस साल के बाद, उसकी दाढ़ी में आग लगाऊँगा।
आप समझ रहे हैं ना? दोनों बातें एक साथ अनुभव होती हैं। पहली बात तो ये कि मैं हीरो हूँ। हीरो से कम तो अपने आप को हम मान नहीं सकते। दूसरा ये कि कुछ करना ना पड़े, इसके लिए मैं? अभी बच्चा हूँ! क्योंकि ये मान लिया कि हीरो हूँ, वो भी वयस्क, तो फिर ये भी मानना पड़ेगा कि अब कुछ तुरंत करना भी चाहिए। तो हूँ तो मैं हीरो, लेकिन ज़रा अभी नन्हा-मुन्हा हूँ। तो अभी मैं भविष्य का इंतज़ार करूँगा। एक दिन आएगा जब मैं बड़ा हो जाऊँगा। उस दिन फिर मैं, प्रतिकार लूँगा।
श्रोता : आचार्य जी, बिना छटपटाहट के एक्शन भी तो नहीं ले पाते ना?
आचार्य जी : बिना छटपटाहट के आप जो भी कदम उठाएँगे वो उचित कदम होगा।
श्रोता : जैसे कि यहाँ का वातावरण मानिये कि मुझे पसंद नहीं आ रहा, तो मुझे एकदम छटपटाहट होगी कि मुझे ये पसंद नहीं आ रहा, तभी तो मैं भागूँगा यहाँ से!
आचार्य जी : छटपटाहट के कारण भागना बस ये बताता है कि आप अभी भी अपने आप को ही बचा रहे हो। आपको पसंद नहीं आया और आप भागे, अपने आप को ही तो सही सिद्ध कर दिया ना? यही तो करा है?
श्रोता : तो और क्या करते, आचार्य जी?
आचार्य जी : अगर आप सही ही होते तो आप इस माहौल में पाए क्यों जाते?
भाग कर के आप सिद्ध कर रहे हो कि मैं जैसा ही हूँ मैं सही हूँ, माहौल में कुछ गलती थी, दुर्घटना हो गयी थी, मैं तो यूँ ही फँस गया था। कोई बाँध के लाया था यहाँ? नतीजा जानते हैं क्या निकलेगा? नतीजा ये निकलेगा कि आप उठ कर के इस कक्ष से उस कक्ष में जाओगे, चूँकि आप ही हो यहाँ आने वाले और आप ही हो वहाँ जाने वाले। आप उस कक्ष में भी छटपटाओगे और ज़िन्दगी यही बनी रहेगी। एक कक्ष से दूसरे कक्ष में निरंतर पलायन। एक दुकान में मन नहीं लगा दूसरे पर भागे, दूसरे में मन नहीं लगा, तीसरे में भागे, तीसरे से चौथे में, चौथे से आँठवे में। भागने वाला शेष रहा, भागने वाला क़ायम रहा।
श्रोता : तो आचार्य जी आप कह रहे हैं, कि तुम वहाँ गए ही क्यों?
आचार्य जी : मैं कह रहा हूँ, तुम जो हो, तुम्हारा ये होना ही था कि तुम किसी उलटी-पुल्टी जगह पाये जाओ और तुम्हारा फिर ये होना ही था कि तुम ये ना देखो कि मेरा तो यहाँ आना अवश्यम्भावी था। तुम कहो कि चूक हो गयी कि मैं यहाँ फँसा। फिर तुम उस जगह से उठ कर के फिर किसी वैसी ही जगह पर फिर से पाए जाओ। ये तुम्हारा होना ही था। छटपटाहट कभी ये थोड़े ही कहती है, कि कुछ मूल भूत गलती मुझ में है। छटपटाहट ये नहीं कहती है, कि ‘मैं’ ही क़ैद हूँ। छटपटाहट का वक्तव्य होता है, मुझे मुक्त होना है। वो ये थोड़े ही कहती है, मुझे विगलित होना है? वो ये थोड़े ही कहती है, मुझे खत्म होना है? वो ये कहती है, मुझे, मैं रहते हुए, मुझे, क़ायम रहते हुए, मुक्त होना है। उसे उस ‘मैं’ में, उसे इस ‘मुझे’ में, कोई खोट दिखाई ही नहीं देती। उसे खोट दिखाई देती है, अपने से बाहर। आप इस कमरे में छटपटा रहे हो, आपको खोट दिखाई देगी इस कमरे में! अपने को भी आप हद से हद इतना ही दोष दोगे कि, कमरा इतना बुरा था तो मुझ जैसा बढ़िया आदमी इस कमरे में क्यों आया? अपना दोष यदि है भी तो बस इस सीमा तक है कि इतने घटिया कमरे में, मुझ जैसा उज्ज्वल व्यक्ति फँसा ही क्यों? आप बात समझ रहे हो? छटपटा क्या रहे हो, तुम्हारे साथ ये होना ही था ।
क्या छटपटा रहे हो? एक तरह का पछतावा है छटपटाहट। तुम ये साबित करना चाह रहे हो कि तुम तो कोई और हो, और ये बड़ा अन्याय हो गया है तुम्हारे साथ कि तुम यहाँ फँस गए हो।
श्रोता : और ये बार बार होता है, फिर पिछली बार को याद करते हैं, कि तब भी ऐसा ही हुआ था ।
आचार्य जी : अरे! हमारी चलती, तो हमारे इतने नंबर आये होते, उस कॉलेज में पढ़े होते, तो ज़िन्दगी में ऐसे मुक़ाम पर होते। पर बड़ी छटपटाहट है भीतर कि वो सब कुछ हो नहीं पाया जिसके हम क़ाबिल थे या जिसके हम हक़दार थे। तुम्हारे साथ ठीक वही सब हुआ है जिसके तुम क़ाबिल हो! छटपटा क्यों रहे हो? किस बात की छटपटाहट है?
श्रोता : ये हमें वहाँ स्थापित नहीं करता? जैसे कि आराम पहुँचाता है, कि बस अपने साथ तो यही है।
आचार्य जी : यही है, हाँ! इसलिए छटपटाते हो! कि छटपटायें तो क्या पता आगे बढ़ जाएँ, नहीं छटपटाए तो क्या पता वहीं फँसे रह जाएँ। जैसे कहा कि स्थापित हो जाएँ। नहीं।
जब तुम छटपटाते हो, तब तुम भाग जाते हो अपने आप से।
तुम अपनी ओर से आँखें फेर लेते हो। तुम तब जानना ही नहीं चाहते कि तुम्हारे साथ ये जो रोज़-रोज़ दुर्घटनाएँ होती हैं, ये होती क्यों हैं? जब तक रुकोगे नहीं, थमोगे नहीं, तब तक जानोगे कैसे कि ये रोज़-रोज़ की लाचारगी की वजह क्या है? वजह तुम जानोगे। वो झूठी वजह होगी। वजह जानते हो तुम क्या जानोगे? वजह तुम कहोगे, परिस्थितियाँ। वजह, तुम कहोगे, दूसरे लोग। वजह, तुम कहोगे, दुर्घटनाएँ। तुम कहोगे, ये तो वक़्त ज़रा खराब चल रहा था। इसलिए मारे गए। वजह, तुम बताओगे, वक़्त।
छटपटाहट हमेशा वजह कहीं और खोज ले जाती है। मूलतः तुम ही वजह हो। ये छटपटाहट तुम्हें कभी नहीं जानने देगी। इसके लिए तो रुकना पड़ेगा। और रुकने का मतलब, फिर से कह रहा हूँ, रुकने का मतलब ये नहीं है कि तुम कहना शुरू कर दो कि जो है बड़ा अच्छा है, मैंने स्वीकार किया। रुकने का मतलब ये है कि बीमार हूँ और बीमारी के तथ्य से भाग नहीं रहा।
श्रोता : आचार्य जी, ये स्वीकार ही तो हो गया ना!
आचार्य जी : ये स्वीकार नहीं है। स्वीकार करने का अर्थ तो ये हो गया कि मैंने कह दिया कि बीमारी स्वभाव है। बीमारी जान रहे हैं। समझना, इसलिए तो ये बड़ी हिम्मत का काम है। बीमार हूँ, और बीमारी के तथ्य से भाग भी नहीं रहा। मैं जी रहा हूँ, इस गहरी विडंबना में कि स्वास्थ्य बीमार है और मैं इस अंतर्विरोध से, भाग भी नहीं रहा। बिलकुल नहीं भाग रहा।
अभी तुम्हारी क्या हालत है? बहुत बीमार हूँ! जैसे ही तुम कहते हो बहुत बीमार हूँ, एक जादू होता है, क्योंकि एक अनहोनी घटना घट गयी है। जानते हो क्या? तुम कह रहे हो बहुत बीमार हूँ, और सच्चाई के साथ कह रहे हो। ये पहला वक्तव्य है। दूसरी बात, अगर तुम वास्तव में सच्चाई के साथ कह रहे हो कि बहुत बीमार हूँ, तो तुम बीमार हो नहीं सकते।
क्योंकि सच्चाई तो स्वास्थ्य है। ये वैसी ही बात है कि कोई बोले कि, मैं झूठ बोल रहा हूँ। ये बड़ा असम्भव वक्तव्य है। अगर तुम वास्तव में झूठ बोल रहे हो, तो तुम ये बोल ही नहीं सकते कि झूठ बोल रहे हो। तो तुम बोलते कि मैं तो? सच बोल रहा हूँ। तो अनहोनी घटती है जैसे ही तुम कहते हो, मैं बीमार हूँ। अब तुमने एक पुल बना दिया है। उसके बीच में, जो तुम अपने आप को समझे बैठे हो, और उसके बीच में, जो तुम वास्तव में हो। अब तुमने दूरी मिटा दी। ये बात आप समझ रहे हैं ना, क्या कह रहा हूँ मैं? जो वास्तव में बीमार हो गया, वो क्या कह पायेगा कि मैं बीमार हूँ?
तो
अपनी बीमारी कि खुली उद्घोषणा, अपनी बीमारी से रूबरू हो जाना। यही समझ लीजिये कि स्वास्थ्य उतर आया। स्वास्थ्य ने दस्तक दे दी। और ये बात स्वीकार से ज़रा हट के है।
मैं बीमार हूँ – बात ऐसी भी कही जा सकती है कि बीमारी तो मेरा स्वभाव है, मैं उसकी बात नहीं कर रहा हूँ। ये जानते हुए भी कि बीमारी स्वभाव नहीं है, ये जानते हुए भी, कि बीमारी अपवाद है, आप में हिम्मत होनी चाहिए कि आप कहें कि – मैं बीमार हूँ। इन दोनों को साथ-साथ रखना है। जानना है कि मैं कौन हूँ, और झूठ भी नहीं बोलना है कि अभी तो मैं बीमार हूँ।
*आध्यात्मिकता* में, ये झूठ बहुत चलता है। ग्रन्थ आपको ये तो बता जाते हैं कि आपका स्वभाव है सत्य , कि आत्मा अमर है, अजर है। ग्रन्थ आपको ये तो बता जाते हैं, कि आपका स्वभाव है स्वास्थ्य । पर ग्रन्थ आपको ये थोड़े ही बता जाते हैं कि आपका स्वभाव स्वास्थ्य होगा, पर तुम्हारे जीवन का जो तथ्य है वो बीमारी है। तो नतीजा क्या निकलता है कि जितने आध्यात्मिक खोजी होते हैं, वो भले ही सड़ी-गली हालत में हों पर उनसे पूछो कैसे हो? तो कहेंगे, सच्चिदानन्द! ये बड़ी आत्म-प्रवंचना है, खुद को बेवक़ूफ़ बना रहे हो।
दोनों बातें एक साथ बोलनी हैं, स्वास्थ्य तो सत्य है। तुम पूछते हो कैसे हैं, तो हम दोनों बातें बोल रहे हैं! यहाँ तो सत्य है (दिल में) पर बाकी सब तो बीमार ही हैं। दोनों बातें साथ-साथ। अगर आपने कह दिया, मात्र सत्य ही सत्य है, तो झूठ बोल रहे हो यार! अपने जीवन को देखो। अपनी उदासी को देखो। अपनी प्राण-हीनता को देखो, अपनी प्रेम-हीनता को देखो! तुम वास्तव में कहना चाहते हो कि सत्य ही सत्य है? कहाँ से सत्य है? तुम्हारा जीवन ही गवाही नहीं दे रहा कि सब कुछ सत्य है। तो ये मत कहना कि सब कुछ सत्य है।
जो ये कहे कि, मात्र सत्य है, वो झूठ बोल रहा है। दूसरे होते हैं, जिनसे पूछो क्या हालत है? वो कहेंगे, सब खराब है, सब बिलकुल बर्बाद, दुनिया में आग लगी हुई है, कोई बचा नहीं है। ये मूढ़ हैं। इन्हें बस वो दिखाई दे रहा है जो इन्हें आँखों से दिखाई देता है, जिसके बारे में ये सोच पाते हैं।
सच्चा आदमी वो है, जो दोनों तलों पर, एक साथ जीए। वो कहे कि मन तो उलझा-उलझा है, दिल लेकिन तब भी सुलझा है।
शरीर पे तो ज़ख्म बहुत हैं, मन ने भी बहुत चोटें खायी हैं। पर आत्मा फिर भी पुलकित है। दोनों बातें एक साथ! अब जीने का मज़ा है। अब जादू हुआ। कि चोट तो बहुत खायीं हैं, घाव भी रिस रहे हैं, जीवन ने ठोकरें भी बहुत दी हैं, लेकिन हम ‘फिर भी’ मौज में हैं। ये ‘फिर भी’, बड़ा आवश्यक है। ये ‘फिर भी’ बहुत ज़रूरी है। दोनों बातें एक साथ बोलनी बहुत ज़रूरी हैं। आप समझ रहे हैं ना? दोनों में से यदि आप एक को भी पचा गए, दोनों में से यदि आपने एक को भी गायब कर दिया, तो फिर आप झूठे हो गए। पाखंडी हो गए। पाखंड मत करियेगा।
क्या हाल है भाई? भूख तो लगी हुई है, पर हम भरे हुए हैं। दोनों बातें बोलनी ज़रूरी हैं। भूख लग तो रही है, इसमें क्या शक़ है कि भूख लग रही है, लग रही है, बिलकुल लग रही है। लेकिन क्या भूख हावी हो गयी हम पे? नहीं, ऐसा तो नहीं होने देंगे। हम भूख के तथ्य के प्रति मौजूद हैं, हमें पता है भूख लग रही है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हम भूखे हो गए हैं। भूख लग रही होगी, हम तो भरे हुए हैं! दोनों बातें एक साथ होंगी। भूख लग रही है, फिर भी, भरे हुए हैं। दोनों में से एक को भी छुपा मत दीजियेगा। क्योंकि दोनों ही बातें ज़रूरी हैं, मन और शरीर के लिए तो यही बात सही है कि भूख लग रही है और आत्मा के तल पर आप लगातार भरे हुए हैं, तो वो बात भी कहनी ज़रूरी है।
कोई आये, पूछे, कितने ज़रूरी हैं हम तुम्हारे लिए? आप कहिये, तुम ना मिले, तो शरीर तड़पेगा, और मन खाली-खाली रह जाएगा। लेकिन सही बतायें? हम पे कोई असर नहीं पड़ेगा। अब बात बनी। अब आपने जो बात बोली, वो हक़ीक़त है। अगर आपने ये बात बोली कि देखो, तुम नहीं मिले तो हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तो झूठ बोला आपने। क्योंकि सही बात तो यही है कि वो ना मिला आपको, तो आप रोओगे। तो क्यों छुपा रहे हो ! बोल ही दो खुल के कि बहुत ज़रूरी हो तुम हमारे लिए। तुम नहीं मिले, तो मन बहुत तड़पेगा! लेकिन एक दूसरी बात भी बराबर की सही है, तुम मिलो या ना मिलो, हम तो हम हैं।
समझिएगा, दोनों बातें एक साथ! पहली बात तो ये कि, तुम बहुत बहुत प्यारे हो, और बहुत ज़रूरी हो हमारे लिए। तुम्हारे बिना तड़पेंगे और दूसरी बात ये कि मिलो चाहे ना मिलो, हम मौज में हैं। अब ये दोनों बातें, परस्पर विरोधी लगती हैं ना! ऐसा लगता है दोनों एक साथ कैसे हो सकती हैं? इन्हीं दोनों बातों को एक साथ ले के चलना, इसी को मैं कह रहा हूँ कि पुल बनाना ज़रूरी है इन दोनों आयामों के बीच! इसी का नाम आध्यात्मिकता है। कि एक तरफ तो प्यास लगी भी है, और दूसरी ओर मर भी नहीं रहे हैं पानी के लिए। लगी है प्यास, और कोशिश कर रहे हैं मिल जाए पानी। नहीं मिला, तो ठीक है! मर भी गए तो भी मर नहीं रहे हैं। हद से हद क्या होगा? पानी नहीं मिलेगा तो मर जायेंगे? पर हम मर नहीं रहे हैं! मर जाएँगे लेकिन मर नहीं रहे हैं।
श्रोता : ढीठ हैं !
आचार्य जी : ढीठ, हाँ, बढ़िया !
(श्रोतागण हँसते हैं)
आत्मा, परम जिद्दी है। वो नहीं कोई कमी-वमी मानती। उसको त्रुटियों का कोई आभास नहीं होता।
श्रोता : रूमानी एवं यथार्थवादी एक ही समय में !
आचार्य जी : बिलकुल! दोनों एक साथ! दोनों एक साथ!
श्रोता : क्या यही है अद्वैत? दोनों को साथ में ले कर चलना?
आचार्य जी :
*अद्वैत* है – द्वैत लगातार मौजूद रहे, लगातार मौजूद रहे द्वैत, तब भी अद्वैत है! अद्वैत ये नहीं है, कि द्वैत के विरोध का नाम अद्वैत है! समस्त द्वैत के मध्य, द्वैत से अछूते रह जाने को, अद्वैत कहते हैं। सर्दी और गर्मी के बीच में, आप ना सर्द हैं, ना गर्म हैं, इसको अद्वैत कहते हैं! द्वैत के बीच है *अद्वैत*। द्वैत का मूल है *अद्वैत*।