मन गलत दिशा को क्यों जाता है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

11 min
286 reads
मन गलत दिशा को क्यों जाता है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

आचार्य प्रशांत: दिनेश का सवाल है कि मन सभी का अधिकतर गलत कार्यों की तरफ ही क्यों भागता है। मन कैसे ऐसा कर ले कि उधर को ना जाए?

यदि मन को साफ़-साफ़ पता ही हो कि कुछ गलत है, तो उधर जाएगा नहीं। मन उधर को ही जाता है जिसके सही होने की तुमने उसे गहरी शिक्षा दे रखी होती है। पहले तो इस यकीन को, इस मान्यता को निकाल दो मन से कि मन गलत तरफ की ओर आकर्षित होता है। मन गलत की ओर आकर्षित नहीं होता। मन उधर को ही जाता है जिधर जाने में सुख है। ये तुमने उसे बता रखा है। मन का अपना कुछ होता नहीं। मन तो एक खाली जगह होती है जिसमें वही सब भर जाता है जो तुम भरने देते हो। मन तो लगा लो एक खाली डब्बे की तरह है या एक खाली कंप्यूटर की तरह है। उसमें सॉफ्टवेयर तुम डालते हो। मन को पूरी ट्रेनिंग तुम देते हो। मन में सारे संस्कार, कंडीशनिंग तुम भरते हो। अब दिक्कत ये आती है कि तुम्हीं ने वो संस्कार उसमें भरे, और एक दूसरे मौके पर तुम देखते हो कि ये संस्कार तुम्हें नुकसान पहुँचा रहे हैं। तुम कहते हो कि ये तो गलत दिशा है। यही तुम मुझसे सवाल पूछ रहे हो कि मन गलत दिशा में क्यों भागता है। अरे, वो दिशा गलत है ही नहीं। तुम्हीं ने तो उसे सिखाया है।

एक उदाहरण देता हूँ। एक छात्र है, वो पढ़ रहा है। उससे पूछो कि, "पढ़ क्यों रहा है?" तो उसको ये सिखाया गया है, और उसने ये बात स्वीकार कर ली है कि पढ़ा इसलिए जाता है ताकि परिणाम अच्छा आए। और ये बात उसने मान ली है। इस शिक्षा को उसने अपने अंदर बैठा लिया है कि पढ़ा इस हेतु जाता है कि परिणाम आ जाए। ठीक? मैं अब उससे पूछूँ कि, "परिणाम तुझे अच्छा क्यों चाहिए?" तो वो ये कहेगा कि, "परिणाम इसलिए अच्छा चाहिए ताकि अंततः नौकरी लग जाए।" ये बात भी वो लेकर पैदा नहीं हुआ था। ये बात भी उसके भीतर डाल दी गई है, और उसने स्वीकार कर ली है कि शिक्षा इसलिए होती है ताकि अंततः नौकरी लग जाए। अब उसने ये बात मान ली है।

"अच्छा तुझे नौकरी क्यों चाहिए?"

"सर, पैसे मिलेंगे।"

ये बात भी वो लेकर पैदा नहीं हुआ था। ये बात भी उसके भीतर डाल दी गई है कि काम इसलिए किया जाता है ताकि पैसे मिलें।

"चलो आत्मबल ठीक है। पैसों का क्या करोगे? खाना-पीना हो जाएगा। खाना-पीना तो अब भी हो रहा है जब तुम कमाते नहीं। तो नौकरी वाले पैसे क्यों चाहिए, ठीक ठीक बताओ?"

"वो थोड़ा ज़िंदगी ज़्यादा मस्त हो जाएगी, रंगीन हो जाएगी, मौज-मस्ती करेंगे।"

"अच्छा क्या करोगे मौज मस्ती में?"

"सर, ऐसे ही थोड़ा मनोरंजन, इधर-उधर घूमेंगे।"

"नहीं नहीं ऐसे नहीं, थोड़ा खुलकर बाताओ। मौज-मस्ती का तुम्हारा अर्थ क्या है? तुमने क्या सीख लिया है? ये खाली शब्द नहीं, इनमें कुछ भरा हुआ है। तुम किसको कहते हो ‘मौज मस्ती’?"

"सर, मैं कभी गोवा नहीं गया। नौकरी लगेगी, पैसे आएँगे, तो मैं गोवा जाऊँगा।"

"अच्छा गोवा जाओगे, ये तो अच्छी बात है। गोवा में सुन्दर-सुन्दर चर्च हैं और मंदिर हैं वहाँ जाना चाहते हो?"

"अरे क्या बात कर रहे हो सर आप। मंदिर तो मेरे गाँव में भी हैं। गोवा कोई मंदिर के लिए जाता है!"

अब ये बात भी उसने सीखी है कि मस्ती का अर्थ है गोवा जाना। और गोवा में क्या करना? अभी पूछ रहा हूँ मैं उससे। "हाँ बताओ, गोवा में क्या करोगे?"

"सर, समुद्र है।"

"तो क्या करना है? डूब जाना है, गोतें मारनी हैं? करना क्या है ठीक-ठीक बताओ?"

"सर समुद्र है तो वहाँ बीच भी होता है।"

"हाँ, बीच होता है तो अच्छी बात है। तो बीच माने रेत। रेत तो दीवार में भी होती है। तो क्या करोगे उसका?"

"सर, वो बीच पर नाचने में बड़ा मज़ा आता है। वो फिल्मों में देखा है, बीच पर नाचते हैं। बड़ा अच्छा लगता है।"

अब ये सब तुमने मन में बैठाया है कि इसी को तो सुख कहते हैं। सुख क्या है? बीच में जाकर नाचना; यही सुख है। बात समझ रहे हो? गलत दिशा मत बोलना। ये बात तुमने मन में बैठ जाने दी है कि पढ़ रहा हूँ तो परिणाम आए, परिणाम आए ताकि नौकरी लगे, नौकरी लगे तो पैसा आए, पैसा आए तो अय्याशी करुँ, अय्याशी करुँ, तो बीच पर जाऊँ, बीच पर जाऊँ तो नाचूँ। तो अंततः तुम्हारे लिए परम सुख क्या है? वहाँ बीच पर नाचना। अब तुम पढ़ने बैठे हो। ठीक है? यहाँ पर बगल में टी.वी. रखा है, और टी.वी. पर उसी तरीके के गाने चल रहे हैं बीच पर नृत्य हो रहे है। तुम हो, माहौल है। अब परमसुख क्या है? वही। तुमने ही अपने मन को संस्कारित कर रखा है कि वही परमसुख है। तो जब वही परमसुख है, तो आदमी पढ़े क्यों ? किताब बंद हो जाएगी। तुम उधर देखने लगोगे। पर तब तुम क्या कहोगे कि मन गलत दिशा में भाग रहा है?

मन गलत दिशा में नहीं भाग रहा। मन ठीक वहीं को जा रहा है जहाँ जाने की तुमने उसे शिक्षा दे रखी है। जब तुम मन को लगातार यही शिक्षा देते हो कि अय्याशी ही सुख है। तो मन अय्याशी की तरफ भागे तो इसमें ताज्जुब क्या है? फिर क्यों परेशान होते हो कि मन उधर को ही भाग रहा है? तुम उसे दिन-रात शिक्षा वही देते हो। तुम सड़क पर निकलते हो, तुम देखते हो किसी नेता का काफिला चला जा रहा है, वहाँ साथ में हथियारबंद लोग हैं, तुम कहते हो कि, "यही जीवन का परम उत्कर्ष है। ये मिल जाए तो इससे ऊँचा कुछ नहीं हो सकता।" अब अगर तुम किताब पढ़ रहे हो और उसी तरह का दृश्य आने लग जाए रेडियो में, टी.वी. में या सामने अखबार में दिख जाए या इंटरनेट में दिखने लगे और तुम्हारा मन उधर को ही भागे, तो अब उसमें क्या आश्चर्य है?

जबसे पैदा हुए तुम्हें कहा गया कि पैसा बड़ी बात है। अब पैसे से जितनी सुख-सुविधाएँ आ सकती हैं, जितना वैभव और ऐश्वर्य आ सकता है, वो बड़ी बात है। तुम यहाँ बैठे हो और तुम्हारा मन बार-बार ये करे कि, "शॉपिंग मॉल में चला जाऊँ!" तो इसमें क्या ताज्जुब है? क्योंकि पैसा तो तुम्हें वहीं पर बिखरा दिख रहा है और पैसे से जो कुछ हो सकता है, वो भी दिख रहा है। तो अब हॉस्टल में बैठने का मन कहाँ करेगा? मन कहेगा कि, "चलो उधर ज़रा घूम कर आते हैं। खूब रौशनी है, चिकना फर्श है, सुन्दर चेहरे हैं।" ये सब शिक्षा तुमने ही दी है अपने-आपको।

तो जो लोग चाहते हैं कि मन उनके साथ रहे, उन्हें मन की पूरी शिक्षा ही बदलनी पड़ेगी। मन के ये जो गहरे संस्कार हैं, इनको बदलना पड़ेगा। तुमने झूठी बातों को अपने मन में महत्व दे रखा है। और जब तक मन में उन्हीं को महत्व दिए रहोगे, तब तक जीवन वैसा ही चलेगा जैसा चल रहा है- बिखरा-बिखरा सा- कि चलते उधर को हो और पाँव उधर को बहकते हैं। समझ में आ रही है बात? एक आम आदमी परमसुख किसको मानता है, ये बड़ी आसानी से देखा जा सकता है। फिल्में आती हैं, एक ऊँची-से-ऊँची और अच्छे-से-अच्छी फिल्म आएगी और वो उसी मल्टीप्लेक्स में लगी होगी जिसमें एक दो-कौड़ी की सस्ती मसाला फिल्म लगी हुई है, और वो मसाला फिल्म खूब चल रही होगी, और दो-सौ करोड़ का व्यापार कर रही होगी। क्योंकि जो आम आदमी है उसने परमसुख मान ही इसी बात को रखा है कि बद्तमीज़ियाँ हो रही हों, अश्लीलताएँ दिखाई जा रही हों, नंगे नाच चल रहे हों। तो जब तुम उन्हीं बातों को सुख मानते हो, तो तुम्हारा मन किसी और दिशा में लगेगा कैसे? और तुम किसी भी दिशा में चलोगे मन तुम्हारा उड़-उड़ कर उधर को ही जाएगा, जैसे कोई कौआ हो। मन क्यों कौए जैसा कर रखा है? बात मज़ाक से आगे जाती है, बात को समझो।

हमारा मन पूरे तरीके से कौए जैसा हो गया है। तुम उसके सामने शुद्ध पानी रख दो और बगल में किसी नाले का गन्दा बदबूदार पानी हो, तुम अच्छे से जानते हो कौआ कहाँ जाएगा। तो क्यों कौए जैसे हो गए हो? और तुम कौए पैदा नहीं हुए थे। तुम्हारी नियति थोड़े ही थी कि तुम ऐसे रहो कि जिधर गंदगी है उधर को ही चल दिए। ये सब काम तुम मक्खियों के लिए छोड़ो, कौए के लिए छोड़ो। तुम्हारा पूरा शरीर स्वस्थ होगा, पर उस पूरे स्वस्थ शरीर में कहीं एक थोड़ा-सा मवाद हो, फोड़ा हो, तो मक्खी को क्या दिखाई देगा? तुम्हारे पूरे साफ़ शरीर में कहीं नहीं बैठेगी। वो कहाँ जाकर बैठ जाएगी? वहीं जहाँ गन्दगी है। हम भी ऐसे ही हो गए हैं। अभी मैं यहाँ पर चित्रों का एक समूह लगा दूँ। कोलाज जानते हो? चित्रों का समूह जिसमें बहुत सारे चित्र हों। यहाँ पर बहुत सारे छोटे-छोटे चित्र लगा दूँ। और वो चित्र वैज्ञानिकों के हो सकते हैं, संतों के हो सकते हैं, दार्शनिकों के हो सकते हैं, खोज करनेवालों के हो सकते हैं। और उनके बीच में एक घटिया सा नग्न चित्र लगा दूँ , तुम अच्छे से जानते हो कि तुम्हारी आँख कहाँ जाकर ठहर जाएगी। बात सच है कि नहीं है? तुम्हें और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ेगा। तुम्हारी आँख बस एक जगह जा कर टिक जाएगी, जैसे अर्जुन का तीर। बाकि सब दिखाई ही नहीं देता। और फिर मुझसे सवाल करोगे कि मन गलत दिशा की ओर क्यों जाता है। अरे गलत कहाँ है? तुम्हें जाना ही वहाँ है।

एक छात्र आया और बोलता है कि, "मैं रात में पढ़ने बैठता हूँ, पर पढ़ नहीं पाता।" मैंने पूछा कि, "समस्या क्या है? सही-सही बताओ।" उसने कहा कि, "मैं रात में पढ़ने बैठता हूँ, पर पढ़ नहीं पाता।" मैंने कहा कि, "फिर करते क्या हो वो बताओ। पढ़ते नहीं हो तो कुछ और करते होंगे।" बोलता है कि, "सर, वो टी.वी. है घर में।" मैंने बोलो कि, "क्या टी.वी. कूद कर आता है तुम्हारे ऊपर? टी.वी. से क्या समस्या है?" बोलता है, "सर उसमें वो वाला भी चैनल आता है।" मैंने पूछा कि, "कुल कितने चैनल हैं टी.वी. में?" बोलता है कि, "सौ से ऊपर हैं।" मैंने बोला कि, "तुम कितने चैनल पसंद करते हो?" कहता है, "दो।" माने एक-सौ-दो चैनल में जो बाकि सौ हैं, वो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते। इन दो पर जाकर तुम बार-बार बैठते हो। और कह रहे हो कि टी.वी. समस्या है। टी.वी. कैसे समस्या है? तुम अपने मन को देखो जिसे एक-सौ-दो में यही दो दिखाई पड़ते हैं। तुमने क्यों दी अपने मन को ऐसी शिक्षा?

कबीर का एक दोहा है जिसे मैं अकसर कहता हूँ। तुमसे भी कह देता हूँ-

"पहले तो मन काग था, करता जीवन घात,

अब मनवा हंसा भया, मोती चुन-चुन खात।"

पहले मन कौए जैसा था। अपने ही जीवन को ख़त्म किये दे रहा था। अब मन हंस जैसा हो गया है, मोती चुन-चुन कर खाता है। गन्दगी की ओर जाता ही नहीं। कितनी ही गन्दगी पड़ी हो, मन मेरा उधर को जाता ही नहीं।

मैं तुम्हें चुनौती दे रहा हूँ, मैं तुम्हें आमंत्रण दे रहा हूँ कि क्या तुम अपना मन ऐसा बना सकते हो जो मोती ही चुन-चुन कर खाए और गन्दगी की ओर जाए ही नहीं? अब ये तुम्हारे ऊपर है। अगर कौए जैसे रहोगे, तो इस पर बोल दिया है कबीर ने, "करता जीवन घात।" अपना ही जीवन ख़राब कर रहे हो। अपना ही जीवन घात कर रहे हो। आ रही है बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories