कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि। योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।
कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुध्दि के लिए कर्म करते हैं।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ५, श्लोक ११
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। कृष्ण जी कह रहे हैं, "कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुध्दि के लिए कर्म करते हैं।" इसमें ‘ममत्वबुद्धिरहित’ का आशय कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: बुद्धि में ‘मम्’ (मेरा) की भावना को त्यागकर। ममत्वबुद्धि मतलब बुद्धि जिसमें ममत्व की भावना बहुत प्रगाढ़ है।
कर्मयोगी इसलिए नहीं काम करता कि यह चीज़ उसकी है, यह चीज़ उसकी नहीं है, यह मेरा है, यह मेरा नहीं है। ममत्व माने ‘मेरे’ की भावना, ‘कुछ मेरा है’। कर्मयोगी इसलिए नहीं करता कि यह मेरा है, यह मेरा नहीं है। कर्मयोगी का लक्ष्य सिर्फ एक होता है; कृष्ण। यह कह रहा है श्लोक।
कर्मयोगी इधर-उधर के लक्ष्यों की परवाह नहीं करता, उसका एक सधा हुआ लक्ष्य होता है बस। बाकी सब बातों की वह अवहेलना करता है। उसका कुछ अपना नहीं है, वह किसी भी चीज़ के साथ ‘मम्’ नहीं लगाता। वह कहता है, “मेरे तो बस कृष्ण हैं, और कोई नहीं है।” तो ममत्वबुद्धि का वह त्याग करता है।