क्या सही, क्या गलत? (जो शेर की ज़िंदगी वो हिरण की मौत) || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. रुड़की में (2022)

Acharya Prashant

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क्या सही, क्या गलत? (जो शेर की ज़िंदगी वो हिरण की मौत) || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. रुड़की में (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य, हमारी लाइफ़ (जीवन) में काफ़ी ऐसी सिचुएशन (परिस्थिति) आती है जब हमें फल को या कारणों को देखकर कर्म का चयन करना होता है। लेकिन गीता में लिखा हुआ है कि हमें उन कर्मों को करना चाहिए जिनको करते हुए हमें फल की चिन्ता ही न हो। लेकिन सर यह तो दोनों चीज़ें तो आपस में अपोज़ (विरोध) कर रही हैं। ऐसे में हम कर्मों का चयन किस प्रकार करें?

आचार्य प्रशांत: देखो, गीता ने तो साफ़ बता दिया, काम इतना सही चुनो, इतना चुनौतीपूर्ण, इतना आवश्यक कि उसको करते समय तुम्हारे लिए सम्भव ही न रहे फल की परवाह करना। और सही काम की पहचान यही होती है। वो तुम्हें इतना अपनेआप में सोख लेता है कि तुम चाहो भी अगर कि परिणाम की चिन्ता करो, तुम कर नहीं पाओगे। तुम नहीं कर पाओगे। हो नहीं पाएगा। परिणाम की चिन्ता करने के लिए भी थोड़ा दिमाग खाली होना चाहिए न? परिणाम की चिन्ता करने में भी थोड़ा समय लगता है न?

सही काम की पहचान ये है कि वो पूरी ज़िन्दगी निगल लेता है। वो तुम्हारी पूरी आहुति माँग लेता है। इसीलिए निष्काम कर्म के लिए जो शब्द है गीता में वह है, यज्ञ। तुम्हें अपनेआप को होम करना पड़ेगा। जीवन में ऊँचा उद्देश्य बनाओ और उसको कहो, "आ, मुझे समूचा निगल जा। मैं अपनेआप की पूरी आहुति दे रहा हूँ तुझे।" अब बताओ कैसे याद रहेगा कि अन्जाम क्या होने वाला है।

जिसको अभी याद है कि अन्जाम क्या होने वाला है, वो काम ठीक कर नहीं रहा है।

पर तुम्हारे प्रश्न में पहले ही ये धारणा थी कि जीवन में कुछ काम ऐसे होते हैं, जिसमें फल की चिन्ता करके कुछ करना पड़ता है। अगर फल की चिन्ता कर ही रहे हो, तो फिर यही देख लो भाई कि इसके फल में मुझे शांति, मुक्ति, बोध कुछ मिल रहा है या नहीं मिल रहा है। लेकिन तुम फल की चिन्ता करो, इससे पहले कृष्ण तुमसे कह गए हैं, ‘फल की चिन्ता यदि करनी पड़ रही है, तो ग़लती पहले ही क़दम पर हो गई।’

शुरुआत ही ग़लत हो गई। अब बताओ क्या करोगे? हममें से ज़्यादातर लोगों को वैसे जीवन का न कोई अनुभव है, न स्वाद है। हम कल्पना भी नहीं कर पाते। वास्तव में, कल्पना करी भी नहीं जा सकती। ऐसा काम, ऐसा जीवन जिसमें परवाह बची ही नहीं है कि अब परिणाम क्या आना है। लेकिन मज़ा वहीं पर आता है। जब आपको नहीं पता होता कि परिणाम क्या होना है। आप बस अपने काम में डूबे होते हैं।

काम में डूबो। काम पसन्द आ गया। काम इस लायक़ है कि पसन्द आए। काम में भी तो कोई पात्रता होनी चाहिए न? ऐसे ही थोड़ी कि कोई भी काम करना शुरू कर दिया और कह दोगे, ‘कर्म करो और फल की चिन्ता मत करो’। ऐसे नहीं होता। फल की चिन्ता न हो इसके लिए काम में कोई योग्यता, पात्रता, गुणवत्ता होनी चाहिए। काम में भी तो कोई मेरिट (योग्यता) हो। उल्टा-पुल्टा कोई काम चुनकर निष्काम कर्म नहीं होने वाला।

नहीं आ रहा समझ में?

अच्छा चलो! जब मैं पहुँचा आइआइटी तो भई सबको यही लगता है जेईई देते वक़्त कि हमारी तो टॉप हन्ड्रेड (शीर्ष सौ) में आएगी। मुझे भी यही लगता था। आयी ही नहीं, तो मुझे गुस्सा! मैंने कहा, ’ये कौन हैं, जिनकी आयी है? इनमें कौनसे सुर्खाब के पर लगे हैं?’ तो कैम्पस में जो कॉम साइंस (कम्प्यूटर साइंस) वाले थे। ख़ासतौर पर हॉस्टल में। उनमें से पाँच-सात को मैंने पकड़ा, बातचीत की। बात-बात में कुछ चीज़ें निकलवानी।

तो एक बात मुझे समझ में आयी। सब यही कह रहे थे कि हमें पता नहीं था कि इतनी रैंक (स्थान) आ जाएगी। जेईई तेरह हो, जेईई अट्ठाईस हो, बावन हो। बात कर रहा हूँ, पर एक चीज़ साझी थी। बोले, ‘हमें पता नहीं था’। कई तो ऐसे थे जिन्हें झटका लग गया था, ये क्या हो गया? एक ने कहा कि मैं इंतज़ार कर रहा था कि कल अख़बार में करेक्शन (सुधार) छपेगा। तब हम न्यूज़पेपर में देखते थे रिज़ल्ट्स।

बोले, ‘मैं देख रहा था कि आज ये आ गई। इतनी तो हो नहीं सकती। अभी कल जो है छपेगा कि फलाने की जो ये रैंक है, ये तेरह नहीं है, तेरह सौ है। या क्या पता सिलेक्शन (चयन) ही न हुआ हो।’ बात समझ में आ रही है? उनको कुछ मिलने लग गया था, उन सवालों में। वो जिन टॉपिक्स (विषयों) से डील कर रहे थे, वो टॉपिक्स में ही कुछ आनन्द-सा आने लग गया था। उसके बाद ये नहीं रह जाता कि क्या रैंक आनी है, क्या नहीं आनी है। नहीं रह जाता।

चलो, ये बात तब उन्होंने कहीं, मैंने सुन ली। फिर इसी का अनुभव मुझे अपने जीवन में हुआ, चार-पाँच साल बाद। मेरे लिए यूपीएससी बहुत आवश्यक था और यूपीएससी में भी आइएएस। और उसी साल मैंने कैट (कॉमन एडमिशन टेस्ट) भी भरा। अब यूपीएससी मेरे लिए इतना ज़रूरी था कि मैंने उसको जान दे दी थी पूरी अपनी। फोर्थ ईयर (चौथे साल) से बल्कि थर्ड ईयर (तीसरे साल) के अन्त से ही मैंने उसकी तैयारी शुरू कर दी थी।

आइआइटी में अपने सारे इलेक्टिव्स (ऐच्छिक) भी सारे वही लिए थे, जो सिविल्स में काम आते। मैथ्स, फिज़िक्स के ही सारे बेसिक साइंस के ही सारे इलेक्टिव्स लेता था। और उसमें जान लगाकर के जो मैं कर सकता था, मैंने करा। अठारह नवम्बर को मेरे मेंस का आख़िरी पेपर था। और नौ दिसम्बर को था कैट। तो मुझे कुल मिलाकर के मिले थे ढाई-तीन हफ़्ते तैयारी करने के लिए। ढाई हफ़्ते! उस ढाई हफ़्ते में भी मेंस जब ख़त्म हुए यूपीएससी के, तो एक-आध-दो दिन तो मैंने आराम करा। तो कुल मिलाकर के मिले होंगे वही पन्द्रह दिन कुल।

पन्द्रह दिन कैट की तैयारी करी। और वो जब तैयारी कर रहा था तो आइआइटी में ही एक वो चलती थी, टेस्ट सीरीज़। तो उसमें सब जाते थे, टेस्ट (परीक्षा) देते थे। सिर्फ़ टेस्ट , पढ़ाई नहीं। आकर सिर्फ़ टेस्ट दे लो तो कॉम्पेरेटिवली (तुलनात्मक रूप से) पता चल जाएगा कि कहाँ पर हो। तो उसमें मैं भी गया, दो-तीन टेस्ट देकर के आया बीच में। तो मैंने तैयारी तो कुछ कर नहीं थी। तो कैम्पस के ही बहुत सारे स्टूडेंट्स (विद्यार्थी) थे जिनके मुझसे ज़्यादा मार्क्स (अंक) आते थे, वो जो कैट की मॉक टेस्ट सीरीज़ थी उसमें। ठीक है!

अब कैट देकर निकले नौ दिसम्बर को। और उस साल कैट का फॉर्मेट (प्रारूप) बदल गया था पूरा। और मैंने इतनी भी नहीं तैयारी करी थी कि मुझे पता चले कि फॉर्मेट बदल गया है। (श्रोता हँसते हैं) चार सेक्शन (खंड) पहले आते थे। उस साल तीन सेक्शन हो गए। पहले एक-सौ अस्सी-सवाल आते थे, उसमें एक-सौ-पैंसठ हो गए। और सवाल बहुत कठिन कर दिए। बहुत कठिन कर दिए। मैंने इतनी प्रैक्टिस (अभ्यास) भी नहीं करी थी कि मुझे पता हो कि बहुत कठिन हो गए हैं ये तो।

तो वो जो मॉक टेस्ट थे उसमें भी जब एक सौ अस्सी सवाल होते थे, मैं उसमें से एक सौ बीस करीब कर पाता था। और ये जो आया, इसमें भी मैं एक सौ बीस ही करके निकला। तो मैंने कहा कि जैसे पहले करते थे वैसे ही करके निकले हैं। कोई बहुत अच्छा तो हुआ नहीं है। पहले भी बहुत सारे अपने से ऊपर रहते थे, अब भी रहेंगे। बाहर निकला तो ये जितने मॉक वाले टॉपर थे वहीं सेन्टर पर बैठकर रो रहे थे। मैंने पूछा, ‘क्यों रो रहे हो’। बोले, ‘सब लुट गए, बर्बाद हो गए, कुछ नहीं बचा ज़िन्दगी में’।

तो मैंने कहा, ‘कितने करके आए हो?’ कोई सौ भी करके नहीं आया था। अब क्यों एक सौ बीस हो गए? क्योंकि जो कैट का जो पूरा फॉर्मेट था उसमें जैसे सवाल होते थे बस अपना उसको कर रहा था सोचा नहीं था कि आगे इसमें से कुछ मिलेगा, नहीं मिलेगा। उन सवालों को करना अच्छा लगता था। मैथ्स के, लॉजिक (तर्क) के, डाटा के और इंग्लिश के सवाल होते थे। उनको अपना करते रहते थे। बढ़िया लगता था। आइआइएम में जाने की कोई बहुत इच्छा भी नहीं थी। पहली जो पसन्द थी वो तो यही थी कि आइएएस में जाना है।

और फिर दोनों के रिज़ल्ट आए। तो रिज़ल्ट आए तो पता चला कि सिलेक्शन (चयन) तो हो गया यूपीएससी में, पर आइएएस से चूक गए हैं, रैंक उससे नीची हो गई है। और कैट में क्या हुआ है? कैट में टॉपर बनकर निकले हैं बिलकुल। मैंने कहा, ‘ये कैसे हो गया?’ जिस चीज़ में परिणाम बहुत चाहने लग जाओ वो चीज़ जैसे छिटक जाती है हाथ से। जहाँ कुछ नहीं चाहिए बस कर रहे हो चुपचाप, वहाँ अनपेक्षित परिणाम आ जाते हैं।

ये जो उदाहरण दिया है, ये कोई पूरे तरीक़े से निष्काम कर्म का नहीं हो गया। इससे तुम्हें निष्काम कर्म नहीं समझ में आएगा लेकिन इतना समझ जाओगे कि सकाम कर्म — सकाम कर्म माने जो काम करा जाता है बार-बार अन्जाम के बारे में सोचकर के — कि सकाम कर्म अपने अन्जाम को ही ख़राब कर देता है। जिस काम को करते हुए तुम सौ दफे सोचोगे कि इससे कामना पूर्ति होगी कि नहीं होगी, इससे जो मुझे चाहिए वो मिलेगा कि नहीं मिलेगा, तुमने ख़ुद ही व्यवस्था कर दी उस काम को ख़राब करने की। काम वो चुनो जो करने में मज़ा आता हो।

अब वो कैट के पेपर होते थे मॉक। उसको बैठकर अपना दो घंटे लगा रहे हैं, वो एक तरह की रिफ्रेशिंग एक्टिविटी (ताज़गी देने वाली गतिविधि) हो जाती थी। क्योंकि सिविल सर्विसेज़ में बिलकुल अलग तरह का सिलेबस (पाठ्यक्रम) होता है। उसके बाद जब पन्द्रह दिन मिले कैट के लिए तो वो मन को उसमें थोड़ी ताज़गी ही मिली कि ये सब कर रहे हैं। वो काम चल गया आगे पन्द्रह दिन की ही तैयारी में। समझ में आ रही है बात कुछ?

बहुत आगे के बारे में सोचना नहीं चाहिए। सन्तों ने कहा है, समझाने वालों ने कि विचार करना ही है तो आत्म-विचार करो। परिणाम का विचार नहीं। किसका विचार? आत्म का विचार। मैं कौन हूँ? मेरा चल क्या रहा है? उसका ज़्यादा विचार करो। मुझे आगे मिल क्या जाएगा ये बात तो बहुत बाद में आती है न? पहले मुझे पता तो हो कि मेरी हालत क्या है और फिर मुझे चाहना क्या चाहिए?

हम सब की डिज़ायर्स (इच्छाएँ) खूब होती हैं। हम चाहते खूब हैं, पर हमें ये नहीं पता होता कि क्या चाहना ठीक है। अन्धी डिज़ायर्स होती हैं डिज़ायर में कोई प्रॉब्लम (समस्या) नहीं है। आप कुछ चाह रहे हो, ये समस्या की बात नहीं है। लेकिन आप कुछ ऐसा चाह रहे हो जिससे आपको कुछ हासिल ही नहीं होना, यह तो समस्या की बात है न?

तो इसीलिए चाहने से पहले ख़ुद को देखो। ख़ुद को देखो, सही काम करो, आगे-पीछे की बहुत मत सोचो। ठीक है, जो होगा देखा जाएगा, इतना अपने भीतर भरोसा होना चाहिए, आगे जो भी होगा देख लेंगे। अभी हमें जो ऊँचे-से-ऊँचा, ठीक-से-ठीक लगा वो हमने करा। आगे की बहुत परवाह हमें करनी नहीं है।

प्र२: आचार्य जी प्रणाम, मेरा नाम अरुण त्यागी है। आचार्य जी सामान्यतः हम जब परिस्थितियों को देखते हैं तो हम कई बार यह सोचते हैं कि क्या सही है क्या ग़लत है। तो बहुत सारी परिस्थितियों में वह किसी के लिए सही हो सकता है किसी के लिए ग़लत। जैसे यदि सिंह किसी पशु का शिकार कर रहा है तो सिंह के दृष्टिकोण से वो ठीक है, लेकिन पशु के दृष्टिकोण से यदि उसके बच्चे की हत्या हो रही है तो वह ग़लत है।

सामान्य जीवन में भी यदि हम देखें कि कोई बिज़नेसमैन (व्यवसायी) यदि किसी प्रोडक्ट (उत्पाद) को ज़्यादा रेट (मूल्य) पर बेच रहा है तो वह बिज़नेस कर रहा है, उसके लिए अच्छा है। लेकिन मूल रूप से वो उस कस्टमर (ग्राहक) के लिए ठीक नहीं है। तो इन परिस्थितियों को कौन डिसाइड (निर्णय) करता है कि क्या हमारे जीवन में जो हो रहा है कि हम क्या ठीक है क्या ग़लत है। और पैरामीटर्स (मापदण्ड) क्या हो सकते हैं वह।

सर इसी में एक क्वेश्चन (प्रश्न) और बढ़ाना चाहूँगा। जैसे मान लीजिए हम ज्ञान की प्राप्ति की बात करते हैं और किसी पिता की दो संतान हैं। तो एक ज्ञान की प्राप्ति के लिए बाहर निकल जाए जबकि दूसरा अपने माता-पिता की सेवा के लिए अपना जीवन पूरा उन्हीं के लिए लगा दे। तो ऐसे में कर्मा (कर्म) किसको हिट (आघात) करेगा? मतलब कौन ठीक कर रहा है? जो ज्ञान की प्राप्ति के लिए घर छोड़कर अपने माता-पिता को छोड़कर जा रहा है वह ज्ञान की प्राप्ति ठीक प्राप्त कर रहा है या जो घर में अपने माता-पिता की सेवा कर रहा है? धन्यवाद गुरु जी!

आचार्य: शेर हिरण का शिकार कर रहा है, ये न ठीक है न ग़लत है; ये प्राकृतिक है। और प्रकृति में सही और ग़लत जैसे शब्द वैध नहीं होते। जब वेदान्त से हम बिलकुल अपरिचित होते हैं, तो हमें नहीं पता होता कि हम चेतना हैं। और सारी बातें ठीक या ग़लत सिर्फ़ चेतना पर लागू होती हैं। सिंह और हिरण ये पशु हैं। और पशु प्रकृति का उपकरण जैसा होता है, मशीन, यन्त्र जैसा होता है। वहाँ सही ग़लत कुछ नहीं होता।

रेंडम ब्राउनियन मोशन (यादृच्छिक ब्राउनियन गति) चल रहा है। एक मॉलिक्यूल (अणु) जाकर दूसरे से भिड़ जाता है। ये कुछ सही हुआ है या ग़लत हुआ है? ये सही है कि ग़लत है? बोलो जल्दी। कुछ नहीं है, प्राकृतिक है। न सही है न ग़लत है। तो शेर ने हिरण को मार दिया, न सही है न ग़लत है; बस प्राकृतिक है। सही और ग़लत शब्द सिर्फ़ चेतना के सन्दर्भ में प्रासंगिक, माने रिलेवेंट , माने मीनिंगफुल (अर्थपूर्ण) होते हैं।

सही की क्या परिभाषा है?

मनुष्य बन्धन में पैदा होता है। जो कुछ उसको मुक्ति की ओर ले जाए वो सही है।

ये सही की परिभाषा है। मनुष्य बन्धन में पैदा होता है। सही की एकमात्र परिभाषा, कुछ अगर तुमको मुक्ति की ओर ले जा रहा है — अभी ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की बात हुई थी न आरम्भ में ही। क्या मतलब था उसका? जो कुछ तुम्हें अँधेरे से रोशनी की ओर ले जा रहा है वो सही है। उसके अलावा सब ग़लत है। सब ग़लत है।

जो कुछ तुम्हें असत् से सत् की ओर ले जा रहा है वो सही है, बाक़ी सब ग़लत है।

और चाहे शेर हो चाहे हिरण हो दोनों को न असत् से मतलब है न सत् से मतलब है, वहाँ जो हो रहा है वो होता रहे। वो प्राकृतिक गतिविधियाँ हैं। उसका तुम क्या करोगे? तुम कहो इंजन ने पेट्रोल को जला दिया। इंजन के लिए तो अच्छा हुआ पेट्रोल बेचारा मारा गया। कितना ग़लत हुआ। अरे! न इंजन को चेतना है न पेट्रोल को चेतना है। तो सही और ग़लत शब्द वहाँ पर रिलेवेंट (प्रासंगिक) ही नहीं हैं।

और इंजन और पेट्रोल जैसे ही हैं कुछ-कुछ शेर और हिरण भी क्योंकि दोनों की चेतना का स्तर बहुत नीचे है। और दोनों बेचारे बस वही कर रहे हैं जो माँ प्रकृति ने उनको करने के लिए पैदा करा है। उनके पास कोई विकल्प नहीं है न। सही और ग़लत शब्द वहीं पर प्रासंगिक होते हैं जहाँ आपके पास चॉइस (चुनाव) हो, विकल्प हो। क्या शेर के पास घास का विकल्प है? तो शेर क्या करेगा? शेर और कुछ कर ही नहीं सकता। सही और ग़लत सिर्फ़ इंसान के लिए रिलेवेंट शब्द हैं क्योंकि इंसान चुन सकता है।

शेर माँस खाए, कुछ ग़लत नहीं किया। इंसान माँस खाए, बहुत ग़लत कर दिया। क्योंकि तुम चुन सकते थे और तुमने ग़लत चुना। समझ में आ रही है बात? शेर ने हिरण को मारा। क्या हिंसा हुई? बिलकुल भी हिंसा नहीं हुई है। लोग कहते हैं प्रकृति में हिंसा है। प्रकृति में कोई हिंसा नहीं है। ‘हिंसा और अहिंसा’ ये शब्द सिर्फ़ चेतना के लिए इस्तेमाल हो सकते हैं; प्रकृति के लिए नहीं। समझ में आयी बात?

तो ये मत कहो कि एक बन्दे का ठीक है दूसरे का ग़लत है। जो सही है वो सबके लिए सही होता है। जो ग़लत है वो सबके लिए ग़लत होता है। एक व्यक्ति के लिए अगर कुछ शुभ है तो वो पूरे संसार के लिए शुभ होगा। एक व्यक्ति के लिए अगर कुछ अशुभ है तो वो पूरे संसार के लिए अशुभ होगा। हाँ! ये हो सकता है कि भ्रमवश आपको ऐसा लग न रहा हो। अब आपको पिताजी के पास रहना है या बाहर जाकर नौकरी करनी है।

अभी आपने कहा कि एक माता-पिता की देखभाल के लिए रुक गया। एक बाहर जाकर नौकरी कर रहा है। कैसे पता करें सही किया, ग़लत किया, किसने सही किया। बस ये देख लो कि माँ-बाप के पास रुकने से माँ-बाप को क्या मिल रहा है? हो सकता है माँ-बाप के मोह की पूर्ति होती हो, तो तुमने कुछ अच्छा तो नहीं कर दिया।

सेवा से तुम्हारा आशय क्या है? सेवा से तुम्हारा आशय बस यही है अगर कि माँ-बाप को बाज़ार से कुछ सामान लाना था वो मैं लाकर के दे देता हूँ। तो मैं सेवा कर रहा हूँ। तो ये सेवा का सबसे छोटा रूप है।

अगर अच्छा होता है भ्रमों का कटना, अगर सही होती है मात्र मुक्ति, तो माँ-बाप की सेवा का भी फिर एकमात्र सही तरीक़ा क्या हो सकता है? अरे बोलो! माँ-बाप के भ्रमों से उनको मुक्ति दो। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि बीमार पड़े तो अस्पताल मत ले जाओ। कहो, ‘ये तो सेवा है ही नहीं’। वो सेवा का साधारण और निचला तरीक़ा है।

अब कोई बाहर जाकर के नौकरी कर रहा है। वो बाहर क्यों गया है नौकरी करने? अगर वो बाहर नौकरी करने इसलिए गया है कि उसे सिर्फ़ पैसा कमाना है तो मुझे नहीं लगता कि इसमें कुछ सही है। पर बाहर वो गया है ताकि वह पैसा कमा करके ज़िन्दगी में कोई ऊँचा काम कर पाए। या वो बाहर इसलिए गया है क्योंकि वो जो ऊँचा काम कर रहा है वो बाहर जाकर ही हो सकता है। तो वो बिलकुल सही कर रहा है।

तो सही ग़लत क्या है यह जानने के लिए पहले तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम कौन हो। क्योंकि सही किसके साथ होगा? मेरे साथ। और ग़लत भी कुछ है तो किसके साथ होगा? मेरे साथ। सही या ग़लत दोनों शब्द किसके कांटेक्ट्स (सन्दर्भ) में है? मेरे! तो पहले मुझे अपना पता होगा न? तब मुझे पता चलेगा, क्या सही क्या ग़लत। मैं कौन हूँ? मैं एक अतृप्त चेतना हूँ। जो कुछ मेरी चेतना को तृप्ति की ओर ले जाता है— ‘सही’, जो नहीं ले जाता— ‘ग़लत’। चाहे वो कितना भी अच्छा लगता हो।

किसकी संगति अच्छी है? मैं उसके साथ रहूँगा जिसके साथ दिमाग थोड़ा साफ़ होता है, खुलता है। वो सही है। मैं किसके साथ नहीं रहूँगा? जो दिमाग को और कचरा कर देता हो, उसकी संगति ग़लत है। जीवन में अब तुम कुछ भी करने जा रहे हो, कुछ भी करने जा रहे हो, सही और ग़लत का निर्धारण बस इसी बात से कर लेना उसकी संगति से तुम्हारी ये जो भ्रमित और बद्ध और संकुचित चेतना है इसे फ़ायदा होगा या नहीं होगा? चाहे नौकरी का चुनाव कर रहे हो, चाहे साथी का, चाहे जीवन में कोई भी निर्णय कर रहे हो। सारे निर्णय इस पैमाने पर करे जा सकते हैं।

और शेर और हिरण का उदाहरण कभी मत लेना दोबारा। ठीक है? इस तरह की बातें ही मत करना कि शेर भी तो खाता है जानवरों को या कि जंगल में ये चलता है तो हम भी करेंगे। तुम जानवर नहीं हो। जानवरों का उदाहरण लेना अच्छी बात नहीं है। ठीक है? (श्रोता तालियाँ बजाते हुए।)

प्र३: प्रणाम आचार्य जी! मेरा नाम शिवम यादव है और मेरा प्रश्न यह है कि व्हाय टुडेज़ यूथ इज़ मिसयूजिंग द फ्रीडम गिवन बाइ दियर फैमिली मेम्बर्स। एंड व्हाय दे आर मोर इंक्लाइन्ड टू लिव इन अ सूडो वर्ल्ड? एंड द बिगेस्ट क्वेश्चन इज़ इवन दियर फैमिली मेम्बर्स आर सपोर्टिंग देम, नोइंग द ट्रुथ? (युवा अपने परिवारजनों द्वारा दी गई आज़ादी का दुरुपयोग क्यों कर रहा है? और वे एक नकली दुनिया में रहने के प्रति अधिक इच्छुक क्यों हैं? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि उनके परिवार वाले भी उनकी सच्चाई जानते हुए भी उनका साथ दे रहे हैं।)

आचार्य: ये आज की बात नहीं है, हमेशा से यही रहा है। आदमी को झूठ में ज़्यादा सहूलियत दिखती है। तो इसमें कुछ ऐसा नहीं है जो आज ही हो गया है। झूठ सहूलियत देता है, सच चोट देता है। बहुत कम लोग होते हैं जो फैसला करते हैं चुनाव करते हैं कि हम को झूठी सहूलियत से ज़्यादा सच्ची तकलीफ़ प्यारी है। अब आज का युवा वर्ग है, उनके माँ-बाप के पास पैसा बढ़ गया है। पहले माँ-बाप के पास इतना पैसा भी नहीं होता था तो सहूलियतें और बढ़ गईं हैं, विकल्प बढ़ गए हैं।

इंडस्ट्रीज़ (उद्योग) इतनी बढ़ गई हैं कि मार्केट (बाज़ार) में इतने तरीक़े के सामान हैं जो तुम्हारे सामने चॉइसेस की तरह ऑप्शंस (विकल्पों) की तरह आते हैं। ये ले लो, ये ले लो, ये ले लो! उन सामानों को ख़रीदने का तुम्हारे पास पैसा भी है। जिन सामानों को नहीं ख़रीद सकते कम-से-कम उनको देख सकते हो इंटरनेट पर।

सो देयर इज़ सो मच टू गिव यू प्लेज़र। वेन देयर इज़ सो मच टू गिव यू प्लेज़र द नीड फॉर रियलिटी डिमनिशेज़। (तो आपको खुशी देने के लिए बहुत कुछ है। जब आपको खुशी देने के लिए बहुत कुछ हो, तो सच्चाई की आवश्यकता कम हो जाती है।) और प्लेज़र अक्सर रियलिटी (सच्चाई) को भुलाकर ही मिलता है। लेकिन जो रियलिटी को भुलाकर के सुख लेता है, वो फिर अपना ही सर्वनाश कर रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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