आचार्य प्रशांत: ये जो अच्छाई-बुराई, ये सब बातें कर रहे हो न, ये सब सामाजिक नैतिकता हैं। इसमें से कुछ भी तुम्हारी आत्मा से उद्भूत नहीं है। इसीलिए उसमें कोई बल नहीं है। आदिम वृत्तियाँ हैं, पाशविक और उनकी टक्कर तुम करा रहे हो सामाजिक नैतिकता से। चीज़ें दोनों बाहरी हैं, पाशविक वृत्तियाँ बैठी हुई हैं देह में और सामाजिक नैतिकता तुमने सीखी है, पिछले तीस-पचास सालों में। शिक्षा ने सिखा दी, संस्कारों ने सिखा दी, समाज ने। तो तुम देह का और विचारों का संघर्ष करते हो।
भीतर से, देह से उद्वेग उठता है कि सिर फोड़ दूँगा किसी का, ये बहुत पुराना जानवर है, लाखों-करोड़ों सालों पुराना जानवर है जो भीतर बैठा है और उस जानवर का मुकाबला करवाते हो तुम? पंडित से, शिक्षक से, धर्मगुरु से, माँ-बाप से, उन सब लोगों से जिन्होंने तुमको नैतिकता के पाठ पढ़ाये। इन्हीं लोगों ने बताया न क्या अच्छा है, क्या बुरा है? और ये दोनों ही बाहरी हैं। ये जानवर भी बाहरी है और तुम्हें समाज ने जो शिक्षा दी है, वो भी बाहरी है। ये दोनों भिड़ेंगे, इसमें तुम्हें क्या मिल जाएगा? तुम या तो इसके (जानवर के) गुलाम बनोगे, या उसके (सामाजिक नैतिकता के) गुलाम बनोगे। ये ऐसी सी बात है कि दो भेड़िये लड़ रहे हों एक खरगोश के पीछे। दोनों भेड़ियों में से कोई भी जीते, खरगोश को क्या मिला? या तो एक भेड़िये का ग्रास बनेगा या दूसरे भेड़िये का ग्रास बनेगा।
अगर क्रोध जीतता है तो तुम्हारे जैविक संस्कार जीतते हैं — ये पहला भेड़िया है। खा गया ये खरगोश को। खरगोश तुम हो और अगर तुम्हारे सदविचार जीतते हैं तो सामाजिक नैतिकता जीतती है — ये दूसरा भेड़िया है, खा गया खरगोश को, खरगोश तुम हो। बताओ, खरगोश को क्या मिला इन दोनों में कोई भी जीते? खरगोश को तो सिर्फ़ एक है जो बचा सकता है। उसको आत्मा कहते हैं।
‘जब तुम्हारा हृदय ही जानता होता है न कि क्या ठीक, क्या नहीं, तब तुम कुछ गलत कर ही नहीं सकते। फिर तुम निर्विकल्प हो जाते हो, तुम्हारे पास ये चुनाव ही शेष नहीं रहता कि एक के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग भी है चलने के लिए। फिर तुमसे सिर्फ़ एक ही चीज़ होती है और जब एक ही चीज़ हो तुमसे तो समझ लेना वही सही है। फिर दूसरी होने की कोई सम्भावना ही नहीं बचती। दूसरे का विचार ही नहीं है। दूसरा जैसे उपलब्ध ही नहीं है होने के लिए।’ जैसे कि सीधी सड़क हो, उसपर दायें उतरने या बायें उतरने की कोई सुविधा ही नहीं है। ऐसा हो जाता निर्विकल्प, आत्मस्थ चित्त। फिर जो भी तुम करते हो वो ठीक होता है। नहीं तो फिर, दो भेड़ियों में से किसी एक का भोजन बनते रह जाओगे।
हमें लगता है वही बुरे हैं जो गुस्सा करते हैं। नहीं साहब! जो गुस्सा करते हैं वो तो अपना चैन खोये ही हुए हैं, जो गुस्सा करते हैं वो तो प्राणहीन जीवन जी ही रहे हैं। इसलिए नहीं कि गुस्सा बुरी बात है, इसलिए क्योंकि वो भीतर की पाशविकता के शिकार हैं। और जो सुविचारों, सदविचारों का राग अलापते रहते हैं, उनकी भी हालत उतनी ही खराब है जितनी कुविचारों वालों की है। उन्हें भी सुकून नहीं है।
सुकून न सुविचार में है, न कुविचार में है। सुकून तब है जब मन इतना साफ़ हो, जीवन इतना साफ़ हो, दृष्टि इतनी साफ़ हो कि विचार इत्यादि करना ही न पड़े।
वृत्तियों को सुविचार नहीं रोक पाएँगे और अगर रोक भी लें तो ये कोई गौरव की बात नहीं तुम्हारे लिए। पहली बात तो क्रोध को सुविचारों से रोकना बहुत मुश्किल होता है और दूसरी बात, अगर रोक भी लिया तो एक झंझट था क्रोध और दूसरा झंझट बनेंगे ये सुविचार, क्योंकि ये भी चीज़ तो बाहरी ही है। और जहाँ तुम्हारे जीवन में किसी बाहरी चीज़ की मौज़ूदगी है, वहाँ दुख है। सुख तो सिर्फ़ आत्मा में है। उपनिषदों से पूछो तो वो कहेंगे, ‘आनन्द और किसी दूसरी जगह होता ही नहीं, आत्मा में ही आनन्द है।’
सुविचार तो बाहरी विचार है, उसमें आनन्द कैसे पा लोगे? गुस्सा करना या कामुकता शायद बुरे हों, लेकिन वो इसलिए नहीं बुरे हैं जिन कारणों से समाज उन्हें बुरा ठहराता है। थोड़ा तो गौर करो। सब धर्म, सब पंथ, सब देश सदा से कंचन, कामिनी, क्रोध को बुरा ही कहते आये हैं न? कहते आये हैं न? लेकिन दुनिया फिर भी कामुक लोगों से भरी हुई है, क्रोधियों से भरी हुई है, लालचियों से भरी हुई है। क्यों हुआ ऐसा? क्योंकि वृत्ति की जो विराट ताकत है, उसका सामना समाज की लचर नैतिकता नहीं कर सकती।
तुम्हारे भीतर एक बहुत बलशाली पशु बैठा है। उसके गले में तुम सुविचारों का फंदा नहीं डाल पाओगे। वो तोड़-ताड़ देगा। हमेशा यही होता है न? तुम बड़ी कोशिश करते हो अपनेआप को बताने की, ‘अरे-अरे-अरे! पर-स्त्रीगमन पाप है, क्रोध पाप है, सिर फोड़ना पाप है, चोरी करना पाप है, हिंसा पाप है।’ कितना अपनेआप को ये सब बताते हो और सौ में से नब्बे दफ़े कौन जीतता है, जानवर या सुविचार?
श्रोता: जानवर।
आचार्य प्रशांत: जानवर ही जीतता है न। इसका मतलब इन सुविचारों में कोई दम है ही नहीं। उस जानवर को तो कोई और ही है जो हराएगा। सुविचारों से नहीं हारने वाला वो जानवर और कोई उसे क्यों हराये? तुम्हें पहले पता तो हो कि उस जानवर से तुम्हें नुकसान क्या है। गौर से समझो। जब तुम्हें ये पता होगा कि उस जानवर से तुम्हें क्या नुकसान है, फिर जिस चीज़ का नुकसान हो रहा होगा, वही चीज़ तुम्हें आकर के जिताएगी।
काश कि तुम कह पाते कि जानवर जब आता है तो तुम्हारी शांति छीन ले जाता है। अगर तुम ये कह पाते तो इस वक्तव्य का अर्थ होता कि तुम्हें शांति प्यारी है। जैसे ही तुम कहते कि तुम्हें शांति से प्रेम है, तुम अब शांति के भक्त हो गये, पुजारी हो गये। अब शांति आ जाती तुम्हारे समर्थन को। अब शांति उस जानवर के सामने जाकर खड़ी हो जाती, जानवर को हारना पड़ता। इसीलिए मैंने तुम्हें आरंभ में ही दस बार पूछा कि नुकसान क्या है। काम करते हो, क्रोध करते हो, जो भी कुछ करते हो उसमें नुकसान क्या है? पर तुम बता ही नहीं पा रहे। जब साफ़-साफ़ महसूस करने लगोगे और बड़ी पीड़ा उठेगी — तब जो तुम महसूस कर रहे होगे, वही तुम्हारे बचाव को आ जाएगा। विरह का यही अर्थ होता है — जिसकी कमी को अनुभव कर रहे हो, फिर वही उस कमी को दूर करता है।
विरह का मतलब समझना। जिसकी कमी को तुम अनुभव कर रहे हो और रो रहे हो और प्रार्थना कर रहे हो, फिर वही आकर के स्वयं अपनी कमी को दूर करता है। तुम भी पहले ये अनुभव तो करो कि क्रोध उठता है तो क्या खो देते हो। जिसको खो देते हो, उसकी याद में रोओ। फिर वो आएगा तुम्हारे बचाव में। फिर वो तुम्हें बचा ले जाएगा। सुविचार नहीं बचाने वाले।
अध्यात्म सुविचार की शिक्षा नहीं है। हालांकि, बहुत घूम रहे हैं जो अध्यात्म के नाम पर सुविचार प्रसारित करते रहते हैं। उनसे पूछो तो दो ही चीज़ें होती हैं — एक सुविचार और एक कुविचार। उनसे पूछो, ‘सत्य क्या है?’ इसका उन्हें कुछ पता नहीं। उनसे पूछो, ‘मौन?’ ‘नहीं, सुविचार। अच्छा सोचो।’ दिक्कत बस ये है कि जिसको वो अच्छा बोल रहे हैं, वो अच्छा है ही जानवर के विरोध में। चूँकि जानवर बुरा है, इसलिए वो जानवर के विरोध में कुछ अच्छा खड़ा कर देते हैं। तुम्हारे अच्छे की परिभाषा ही जानवर पर आश्रित है। जानवर जो कुछ करता हो तुम उसके विपरीत को कह देते हो — ‘अच्छा’। ऐसे नहीं जीत पाओगे जानवर को।
तुम्हें जानवर से जीतने के लिए जानवर से विपरीत नहीं चाहिए कुछ, तुम्हें जानवर को जीतने के लिए जानवर से आगे का चाहिए कुछ। इन दोनों बातों में बहुत-बहुत अंतर है। तुम कमरे के एक कोने में खड़े हो, विपरीत क्या हुआ? कमरे का दूसरा कोना। रह कहाँ गये? कमरे में ही। जबकि तुमको चाहिए है दसवीं मंज़िल। जानवर कमरे के एक कोने में खड़ा होता है, सुविचार कमरे के दूसरे कोने की बात करने लगते हैं। उससे कोई लाभ नहीं होगा।
कुविचार है, ये जो सामने खड़ी हुई है स्त्री — ये बड़ी मोहिनी, ये बड़ी कामिनी है — ये कुविचार है। तो तुम सुविचारों का आश्रय लेते हो। सुविचार है — ‘ये जो सामने स्त्री खड़ी हुई है, ये माँ है, ये मौसी है मेरी।’ तो फिर तुम्हें तुम्हारे शिक्षकों ने बता दिया है कि स्त्रियों में माँ की छवि देखो। उल्टा ज़रूर हो जाता है। जैसे ही तुम कह देते हो, जो भी स्त्री है, वो माँ है। तो ये ज़रूर हो जाता है कि तुम माँ को भी फिर स्त्री की तरह देखना शुरू कर देते हो। बहुत हैं ऐसे किस्से। ऐसे नहीं होगा। एक कमरे के ही एक कोने से दूसरे कोने तक जाने से नहीं होगा। ऊपर जाना होगा। स्त्री को पहले तुम देख रहे थे भार्या की तरह, फिर देखने लग गये अम्मा की तरह, इससे कोई तुम्हारी तरक्की नहीं हो गयी। तुम्हें अभी भी वो लग तो स्त्री ही रही है न। चाहे उसको बीबी बोलो, चाहे माँ बोलो। तुम्हारी नज़रों में है तो वो अभी भी? स्त्री ही न।
तुम्हें ऊपर जाना है दसवीं मंज़िल पर। वहाँ से जब नीचे देखते हो तो कौन स्त्री, कौन पुरुष। कमरे के अन्दर तुम स्वयं ही पुरुष हो, इसीलिए स्त्री से तुम्हारा दो ही तरह का नाता हो सकता है कि या तो वो तुम्हारी पत्नी होगी, या वो तुम्हारी माँ होगी। पुरुषों और स्त्रियों में और तो कोई नाता होता नहीं। पत्नी वाला नाता तुम्हें बुरा लगता है कि हर दूसरी स्त्री तुम्हें पत्नी जैसी ही नज़र आती है तो तुम कहते हो, ‘इसको माँ बना लें या उसको बोलें, बहन जी।’ ये कुछ नहीं है। ये उमड़ती कामुकता को दबाने की कोशिश है कि सब स्त्रियों को बोल रहे हो, ‘माताजी, बहन जी।’ काहे माताजी, बहन जी? क्यों? उससे भी पूछा है, ‘वो तुम्हारी बहन होने को राज़ी है?’ और वो संन्यासिनी हो तो तुम उसे काहे माँ बना दे रहे हो? तुम संन्यासी हो, ब्रह्मचारी हो और कोई तुम्हें आकर के बोले कि तुम बाप हो हमारे। तो कैसा लगेगा तुम्हें? इल्ज़ाम लगेगा न?
और तुम्हें क्या लगता है स्त्रियों को बड़ा अच्छा लगता है कि तुम उन्हें बार-बार बोलते हो, ‘माँ-माँ’? वो तुमसे कहेगी, ‘ये दुर्घटना कब हुई? मैं माँ कब बन गयी तुम्हारी?’ और तुम्हारे लिए तो ‘माँ’ बड़ा गौरवशाली शब्द है। क्यों? क्योंकि तुम जब भी किसी स्त्री को माँ बोलते हो तो तुम्हें लगता है कि तुमने उसको ऊँचा ओहदा दे दिया। क्यों? क्योंकि माँ नहीं बोलोगे तो फिर क्या बोलोगे? फिर तो बीबी है, मोहिनी है, कामिनी है। लेकिन तुम चाहे उसको मोहिनी बोलो, चाहे माँ बोलो, तुमने अपनेआप को तो बचा ही लिया न। तुम तो एक देहधारी पुरुष ही रह गये न। फिर इसीलिए मुँह से माँ-माँ कहते रह जाते हो, भीतर वासनाएँ जस-की-तस बची रहती हैं। नैतिकता से वृत्तियों को नहीं जीत पाओगे। वृत्तियों को जीतने के लिए तो ठोस अध्यात्म चाहिए।
समझ में आ रही है बात?
फिर न तो वो तुम्हें बीबी जैसी लगेगी और न ही? माँ जैसी लगेगी। औरतें जब बीबी जैसी लगती हों तो इसका इलाज ये नहीं है कि सब औरतों को माँ बना लो, कि बहन बना लो। उसका सीधा इलाज ये है कि तुम पुरुष होना छोड़ दो। क्योंकि चाहे वो बीबी जैसी लगती हो, चाहे माँ जैसी लगती हो तो तुम क्या रह गये? पुरुष। ये तुमने बड़ा खेल खेला। ये असली इलाज नहीं है। असली इलाज ये है कि तुम पुरुष होना छोड़ दो, तुम अपनेआप को एक लिंग से संबंधित करके देखना छोड़ दो। अब न वो बीबी है, न ही माँ है। जब तुम ही पुरुष नहीं रह गये तो कौनसी बीबी? कौनसी माँ?
अपनी वास्तविक पहचान का अनुसंधान है अध्यात्म। उसमें उतरो। और ये कुविचार-सुविचार का बचकाना खेल खत्म करो। बच्चों को भी ये खेल शोभा नहीं देता, तुम तो बहुत बड़े हो।