प्रश्नकर्ता : आचार्य जी, संत ओशो जी का एक वीडियो देखा था जिसमें वो कह रहे थे कि “वासना जब अपने चरम सीमा पर पहुँचती है तब प्रार्थना में तब्दील हो जाती है।” तो यह वक्तव्य समझ नहीं आ रहा।
आचार्य प्रशांत: तुम्हारी वासना जब पहाड़ पर चढ़ जाती है तब क्या तुम्हारे हाथ जुड़ जाते हैं?
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: यही समझ नहीं आया कि वो क्या कहना चाहते हैं।
आचार्य: बेटा युवा हो, वासना का अनुभव तुम भी करते हो।
प्र: तो वो वासना को प्रार्थना से कैसे जोड़ रहे हैं? क्या कहना चाहते हैं?
आचार्य: अब वो कुछ कह रहे होंगे। जो भी कह रहे हैं वो तुम पर लागू नहीं होता। खुद पर न लागू हो रहा हो तो छोड़ दो। कोई यहाँ बैठा है जो बता दे कि वासना जब बिलकुल चरम पर पहुँचती है, एकदम जब स्खलन होने वाला होता है तब कितने लोग भजन गा उठते हैं: ओ गिरधर प्यारे, निर्गुण और न्यारे?
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: नहीं आचार्य जी उन्होंने कहा था कि उसी ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन होता है और ऊर्जा ऊपर की ओर जाती है।
आचार्य: (व्यंग्य करते हुए) अरे तुम्हारा भी तो ऊर्ध्वगमन होता है, उसमें भजन कहाँ आया? कि आया कभी?
प्र: नहीं।
आचार्य: तो फिर? नहीं होता ऐसा। बहुत लोग हैं जिन्होंने हज़ारों बार अपनी वासना को शिखर पर पहुँचाया, उससे किसी को प्रार्थना नहीं आ जाने वाली। हाँ, इस भाव के साथ वासना को ज़रूर अनुमति, लाइसेंस मिल जाएगा बार-बार आने का कि, "यही चीज़ बार-बार आएगी शिखर पर पहुँचेगी तो प्रार्थना बनेगी; यही तो तरीका है प्रार्थना का, कि वासना जगाओ, वासना जगाओ!" एक युक्ति बताई होगी उन्होंने जो लाखों में से किसी एक पर कारगर होती है। तुम इस चक्कर में मत फँस जाना, कि वासना बढ़ाऊँगा तो प्रार्थना बन जाएगी। और प्रार्थना बढ़ाऊँगा तो? फिर तो दोनों तरफ़ से बात चलेगी न। प्रार्थना करते-करते वासना शिखर पर पहुँच जाएगी। वासना और प्रार्थना के लक्ष्य ही अलग-अलग हैं बेटा।
वासना पदार्थ में तृप्ति ढूँढती है, प्रार्थना पदार्थ से अनासक्त हो चुकी है।
इन दोनों में अंतर समझो। वासना अभी पदार्थ से बहुत उम्मीद रखती है। वासना सोच रही है कि पदार्थ के माध्यम से ही तृप्ति मिल जाएगी और प्रार्थना पदार्थ से नाता छोड़ चुकी है।
वासना और प्रार्थना एक तल की थोड़े ही बातें हैं। फिर तो जिन लोगों ने पूरा जीवन ही वासना की तृप्ति में लगाया हो उनको सबसे बड़ा भक्त बन जाना चाहिए था। ऐसा होते देखा है क्या?
इन चक्करों में कोई न रहे कि कामवासना की पूर्ति कर-करके तुममें अध्यात्म जग जाने वाला है, बिलकुल भी नहीं।
प्र: इस साधना की क्या विधि हो सकती है?
आचार्य: विधियाँ ही विधियाँ हैं, तुम किस दिशा की विधि जानना चाहते हो?
प्र: कई आचार्य बहुत सारी विधियों के बारे में बताते हैं, तो कौन सी विधि आत्मज्ञान के लिए सही है?
आचार्य: आत्मज्ञान जिसको होता है, विधि उसी की शक्ल देखकर दी जाती है। विधि ऐसे ही नहीं है। प्रिस्क्रिप्शन ड्रग (डॉक्टर द्वारा सुझावित दवा) है, ओटीसी (सामान्य दवा) नहीं है। आयोडेक्स नहीं है कि लगा लिया और काम हो गया, कोई भी लगा लेगा।
जो तुम्हारी हालत है उसके अनुसार तुम्हें विधि अनुमोदित की जाती है। डॉक्टर मरीज़ को देखकर दवाई देता है या अपनी सनक के अनुसार? ऐसे बोलते हो क्या कि, “फलाने वाले डॉक्टर हैं न, वो ये वाली दवाई देते हैं।” ये तो बात वैसी हुई कि “फलाने आचार्य ये वाली विधि बताते हैं।” अरे कोई उनकी ज़िद है क्या कि वो यही दवाई देंगे? वो तो तुम्हारी शक्ल देखेंगे, जो तुमको दवाई चाहिए होगी वो देंगे। उन्होंने पहले ही मन थोड़े ही बना रखा है। गुरु है या अमृतसरी छोले-कुलचे की दुकान है? कि तुम कोई भी हो, कहीं से भी आए हुए हो मिलेगा तुम्हें छोला ही कुलचा, और कुछ वहाँ है ही नहीं। तो ऐसा थोड़े ही होता है कि एक ही विधि है, वो ही सबमें बाँटी जा रही है, बाँटी जा रही है; “लो तुम भी लो, तुम भी यही लो।” गुरु माने एक मोटा *मेन्यू*। फिर तुम्हारी हालत देखकर तुम्हारे लिए तय किया जाता है कि तुम्हारे लिए क्या ठीक है।
(प्रश्नकर्ता की ओर देखते हुए) असन्तुष्ट लग रहे हो, वासना वाली विधि ही चाहते हो शायद। सोच रहे होगे, “आपने उर्द्धगमन ठीक से कराया नहीं।”
(श्रोतागण हँसते हैं)
मुझसे लोग बहुत नाराज़ हैं इस वक्त। खासतौर पर जो यूट्यूब वाली कम्युनिटी (समुदाय) है। मेरे वीडियो छाप देते हैं, उनमें वासना और वीर्य और इस तरह के शब्द होते हैं। बहुत सारे लोग ऐसे ही आकर्षित होकर पहुँच जाते हैं कि कुछ मिलेगा और वहाँ कुछ इस तरह का (अभी जैसे चर्चा हो रही है वैसे) मिल जाता है, तो जो उर्द्धगमन हो रहा होता है वो अधोगमन हो जाता है। रात में बारह बजे से तीन बजे तक एक-से-एक बिफरे हुए कमेंट्स (टिप्पड़ियाँ) आते हैं, बिलकुल झँझनाए हुए। इसीलिए तो किसी नेकमेंट्स में लिखा था कि, “भारतवर्ष की जनसंख्या अगर कम हुई तो आधा इल्ज़ाम आप पर जाएगा। सब युवाओं का अधोगमन कराए दे रहे हैं।”
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्र२: आचार्य जी, मैं काम करता हूँ और उसके बाद जो समय मिलता है उसका उपयोग मैं कबीर जी की और ओशो जी की किताबें पढ़ने में और इस तरह के कार्य करने में लगाता हूँ जो आध्यात्मिक उन्नति करे। इस पर मेरी पत्नी की शिकायत रहती है कि मैं परिवार के साथ समय नहीं बिताता और उनसे बात नहीं करता। पर मुझे लगता है कि मैं अपनी सारी ज़िम्मेदारियाँ निभाता हूँ। इस स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए?
आचार्य: ठीक है, जो आप पढ़ रहे हैं वो परिवारजनों को भी पढ़ाइए। समय दीजिए न उनको। प्रश्न ये है कि समय आप उनको क्या करते हुए दे रहे हैं। जब आप कहते हैं कि किसी को समय देना है तो अर्थ है कि दो लोग साथ-साथ कुछ कर रहे हैं। साथ-साथ होना एक बात है पर क्या करते हुए एक साथ हो? किसी के साथ समय बिताने का एक तरीका ये भी हो सकता है कि, "चलो पिक्चर देख कर आते हैं!" और ये भी हो सकता है कि, "चलो साथ में भजन गाते हैं।" क्या करते हुए साथ समय बिताना है, ये विवेक से तय करिए। दीजिए समय।
प्र३: आचार्य जी, मैं कठोपनिषद पढ़ रहा था। उसमें नचिकेता यमराज से तीसरे वर के रूप में ब्रह्मज्ञान माँगते हैं। इसपर यमराज नचिकेता को ‘श्रेय’ और ‘प्रेय’ दो मार्ग के बारे में बताते है। ये दोनों मार्ग क्या है? कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य: जो तुम्हें अच्छा लगता है और जो तुम्हारे लिए वास्तव में हितकारी है, ये दोनों अलग-अलग हैं। जो तुम्हें अच्छा लगता है वो ‘प्रेय’ का मार्ग है और जो तुम्हारे लिए वास्तव में हितकारी है वो ‘श्रेय’ का मार्ग है। हममें से अधिकांश लोग जब श्रेय और प्रेय में चुनाव करना होता है तो प्रेय को चुन लेते हैं। और इसीलिए फिर वो तमाम तरह के दुःख पाते हैं और बंधनों में पड़े रह जाते हैं।
प्र३: हम कैसे जान पाएँगे कि कौनसा श्रेय है और कौन सा प्रेय?
आचार्य: गौर से देखो कि जो करने जा रहे हो उसका तुमपर प्रभाव क्या पड़ेगा; वो तुम्हारे अहम् को बढ़ा रहा है, अहम् की सेवा में जा रहा है या अहम् को मिटाएगा और गलाएगा। अहम् की सेवा में जो कुछ जाता है, अहम् को बहुत पसंद आता है—प्रेय। अहम् को जो कुछ मिटाता है वो अहम् को भाता नहीं—श्रेय।
प्र४: आचार्य जी, जब सत्संग में बैठते हैं, सुनते हैं, तो सुनते समय सब समझ में आ रहा होता है परन्तु बाद में जब हम इसे याद करते हैं तो ये अचानक से याद नहीं आता। तो यह सही है या अनुचित है?
आचार्य: बेटा सत्संग बाग में ली जा रही सुबह की ताज़ी हवा की तरह होता है। सत्संग ऐसे होता है जैसे बाग में बह रही सुबह की बयार। तुम उस हवा में साँस ले सकते हो, पर तुम उसे अपने साथ थोड़े ही ले जा सकते हो, कि तुम कहो कि, "बाद में उसका कुछ पता क्यों नहीं चलता?" वो इसलिए था ही नहीं कि तुम उसको कैद करके अपने साथ कहीं आगे ले जाओ। वो इसलिए था ताकि तुम उसी माहौल में रहने के लिए प्रोत्साहित हो जाओ।
पाँच बजे, छह बजे किसी उपवन की ताज़ी हवा खाकर तुम आठ-नौ बजे शहर के व्यस्ततम चौराहे पर खड़े हो जाओ और कहो कि “वो सुबह-सुबह जो ताज़ी हवा ली थी, अब उसका कुछ पता क्यों नहीं चल रहा? वो कहाँ चली गई?” तो बेकार की बात है न?
वो अनुभव तुम्हें इसलिए दिया गया था ताकि वो अनुभव तुम्हें पकड़ ले और तुम कहो कि, "अब मुझे उस चौराहे पर जाना ही नहीं है। मुझे इसी हवा में साँस लेना है, इसी साफ़-सुथरी स्वास्थप्रद हवा में ही अब मुझे लगातार साँस लेना है।" तुम क्यों उस उपवन को छोड़कर उस ट्रैफिक वाले चौराहे पर दोबारा जाकर खड़े हो रहे हो? और खड़े ही नहीं हो रहे फिर वहाँ खड़े होकर शिकायत करते हो कि “वो हवा कहाँ गई सुबह वाली ताज़ी-ताज़ी?” और कुछ लोग और भी होशियार होते हैं, वो बोतल में, डिब्बी में, मुट्ठी में हवा भरकर ले जाते हैं। वो कहते हैं, “अभी सुबह की हवा है, डिबिया में डाल ली है, बीच-बीच में इसमें नाक खोंसते रहेंगे। आ हा हा!”
तुमको वो अनुभव—दोहरा रहा हूँ—इसलिए दिया जाता है ताकि तुम उस अनुभव के सामने बिक जाओ।
तुम कहो कि, "इतना प्यारा है ये अनुभव कि अब मुझे सतत इसी में रहना है।" वो अनुभव इसलिए नहीं होता कि वो तुम्हारे प्रदूषित जीवन को संतुलित रख सके। कि, “दिनभर प्रदूषित हवा पीते हैं तो सुबह एक घण्टे की सत्संगी हवा फेफड़ों के लिए अच्छी रहेगी।”