प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। आपके मार्गदर्शन से जीवन में कई परिवर्तन आये हैं। और सारे डाइमेंशन्स (आयाम) में प्रोग्रेस (उन्नति) हो रही है, एकेडमिकली (शैक्षणिक) और सोशली (सामाजिक) भी। आपकी जब हम सबने बुक्स पढ़ी थी, ’इज़ शी जस्ट फ़ूड टू यू’ और जो विगनिज़्म (शुद्ध शाकाहार) के बारे में आपके जो वीडियोज़ थे वो हम सबने देखे थे, तो मैं और मेरे दोस्त वो बुक एंड (खत्म) करते-करते ही वीगन हो गये थे।
और कई बार जैसे मेरे दोस्तों से भी प्रश्न आता है कि जैसे आपकी बुक पढ़ते-पढ़ते हम सब एंड (अन्त) में वीगन हो गये, लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जैसे कुछ डिस्ट्रैक्शन्स (विकर्षण) जैसे हम सब यूथ हैं तो कुछ डिस्ट्रैक्शन्स होते हैं, जैसे अभी फिलहाल पोर्नोग्राफ़ी है, ये सब है। तो पोर्नोग्राफ़ी और इन सब से भी शरीर को सुख मिलता है। तो ऐसा क्यों है कि एक सुख को हम तुरन्त छोड़ देते हैं और एक सुख को छोड़ना काफ़ी मुश्किल हो जाता है?
आचार्य प्रशांत: वो प्रकृति की ज़्यादा गहरी माँग है न। कहती है, ‘अपना शरीर बचाकर रखो और अपने बाद बहुत सारे शरीर पैदा करके जाओ।’ अब अपना शरीर तो आप शुद्ध शाकाहारी होकर भी बचा सकते हो, तो उसमें प्रकृति बहुत हो-हल्ला नहीं करती, बहुत विरोध नहीं करती। कोई दूध और माँस वगैरह छोड़ दे, तो प्रकृति उसमें कोई विरोध नहीं करने वाली। होगा भी तो दो-चार दिन आपको ऐसा लगेगा कि अरे! दूध वाली चाय मिल जाती तो अच्छा रहता। दो-चार दिन के बाद खुद ही बढ़िया लगने लगता है कि शरीर हल्का लग रहा है। उसमें प्रकृति ज़्यादा विरोध करने नहीं आती क्योंकि वो यही तो कह रही थी कि शरीर चलाते रहो। शरीर तो चल ही रहा है। पहले माँस से चलता था, अब बिना माँस के चल रहा है, तो ठीक है। लेकिन जो दूसरी शर्त होती है प्रकृति की, वो ज़बरदस्त होती है। वो कहती है कि सिर्फ़ अपना एक शरीर नहीं चलाना है, अपने बाद कम-से-कम पाँच–दस और पैदा भी तो करने हैं। तो वो जब दूसरी शर्त पूरी नहीं होती है तो प्रकृति फिर परेशान करती है। उसी परेशानी को आप ’डिस्ट्रैक्शन’ बोल रहे हो। वो डिस्ट्रैक्शन नहीं है, वही ट्रैक (रास्ता) है। प्रकृति का वही ट्रैक है।
आप जंगल में थे तो आप क्या करते थे? लाइब्रेरी में बैठते थे? दिनभर इधर-उधर घूमते थे। माने इस उम्र के जब हो गये थे जंगल में, तो क्या करते थे? दिन भर इधर-उधर घूमते थे, पेड़ पर चढ़ते थे, नदी में कूदते थे, खाना-पीना मिल गया, फिर खोजते थे कोई सेक्स के लिए मिल जाए, फिर किसी से लड़ाई कर लेते थे। फिर जाते थे कुछ खाने-पीने को मिल गया, कभी मिला, कभी नहीं मिला, किसी दिन बहुत सारा मिल गया। जब लगा कि अभी शरीर तगड़ा है और आज खाने-पीने को भी अच्छा मिल गया है तो फिर खोजा कि सेक्स-वेक्स हो जाए। यही तो जंगल में किसी भी जानवर की ज़िन्दगी होती है न? वही मनुष्य की भी ज़िन्दगी थी पुरानी। सभ्यता से पहले यही तो मनुष्य का जीवन था। यही प्रकृति आपसे करवाना चाहती है।
तो इसीलिए अभी भी वो जो चाह है भीतर बनी हुई है। पोर्नोग्राफ़ी उसी चाह का अंजाम है। ऊपरी हमारे संस्कार बदल गये हैं, भीतर-भीतर हम अभी भी जंगल में हैं। क्योंकि अगर आप विकास की दृष्टि से देखो, इवोल्यूशनरी टाइम स्केल पर देखो तो हम बस कल-परसों तक जंगल में थे। मनुष्य ने खेती करनी सिर्फ़ दस हज़ार साल पहले शुरू करी है। मनुष्य ने व्यवस्थित चिन्तन और विचार मात्र पाँच–छ: हज़ार साल पहले शुरू करा है। तो हम बहुत नये हैं व्यवस्था में, सभ्यता में बहुत नये हैं और जंगली हम लाखों साल पुराने हैं।
समझ रहे हो बात को? जंगल के हम लाखों साल के हैं और जंगल से बाहर अभी हम बस कल-परसों आये हैं। तो जो भीतरी हमारे जैविक संस्कार हैं, वो सब अभी भी किसके हैं? जंगल के हैं। और जंगल ने हमें दो बातों के लिए बहुत तैयार करा। पहला — ‘शरीर को अपने बचाकर रखो।’ और दूसरा — ‘खतरा तो चारों ओर है, तुम्हारा शरीर कभी भी मिट जाएगा, उससे पहले सन्तानें पैदा कर दो बहुत सारी, और वो भी जितनी महिलाओं के साथ हो सके उतनी अलग-अलग महिलाओं के साथ।’ क्योंकि पता नहीं कौनसी महिला किस प्रकार की सन्तान पैदा करे।
तो तुम अपना रिस्क डाइवर्सिफ़ाई (ज़ोखिम विविधीकरण) कर दो। जैसे स्टॉक मार्केट में होता है न, थोड़ी पूँजी एक जगह लगाते हो, थोड़ी एक जगह लगाते हो। सारा पैसा एक ही शेयर में थोड़े ही लगा देते हो? डायवर्सिफ़ाइड पोर्टफोलियो रखते हो न? तो वैसे ही प्रकृति चाहती है कि तुम अपने वीर्य का भी डायवर्सिफ़ाइड पोर्टफोलियो रखो कि थोड़ा इसको दे आये, थोड़ा उसको दे आये, थोड़ा उसको दे आये। अब पता नहीं कहाँ पर रिटर्न अच्छा आ जाए? तो ये सब पुरानी एक व्यवस्था है जो चल रही है। और वो चूँकि शरीर में बैठी हुई है, उसको अभी बदलने में थोड़ा वक्त लगेगा।
ये भी जो बात है, ‘अपनेआप को बचाकर रखो,’ उसी का अंजाम तरह-तरह की बीमारियाँ हैं। जब आप जंगल में थे तो आपके लिए बहुत ज़रूरी था कि आप को जहाँ जितना मिलें, फटाफट खाते चलो क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं था। खेती तो करते नहीं थे तो अन्न पर आपका कोई नियन्त्रण तो था नहीं। पैदावार पर, खाद्यान्न पर आपका कोई नियन्त्रण तो था नहीं। कभी मिल भी सकता खाना, कभी नहीं भी मिल सकता। तो जब मिले तो क्या करना होता था? हपककर खाओ!
वही नतीज़ा है कि आज भी हम पाते हैं कि लोग मोटे होते हैं, मधुमेह होता है, रक्तचाप होता है। हमारी जो सबसे घातक बीमारियाँ हैं आज वो न बैक्टीरिया से हैं, न वायरस से हैं; वो लाइफ़स्टाइल रिलेटेड हैं। वो लाइफ़स्टाइल रिलेटेड बीमारी और कुछ नहीं है कि बस वो यही है कि बस गये हो आप शहरों में और मेट्रोज़ में, लेकिन शारीरिक संस्कार आपके अभी भी हैं जंगल के। तो हर आदमी शक्कर के पीछे लालायित हैं और शक्कर बीमारियों की कितनी बड़ी जड़ है। पर शक्कर आपको क्यों चाहिए? क्योंकि शक्कर आपातकाल में साथ देता है।
आप अगर शक्कर नहीं भी खाते हो तो आप जानते हो, आप दूसरी चीज़ें जो खाते हो वो भीतर जाकर शक्कर बन जाती हैं? आप अगर ये भी कह दो कि मैं शक्कर नहीं खाता, तो आप दूसरी जो चीज़ें खाते हो न, वो भीतर जाकर शक्कर बनती हैं। शरीर के लिए शक्कर इतनी ज़रूरी होती है, वो खुद बना लेगा शक्कर।
तो अब जब शक्कर मिलने लग गयी तो पुराने संस्कारों ने क्या बोला? ‘जितनी शक्कर हो सके खाओ।’ तो शक्कर-ही-शक्कर, शक्कर-ही-शक्कर हम खाये जा रहे हैं। और पहले शक्कर की इतनी खेती नहीं होती थी गन्ने की, पिछले सौ सालों में गन्ने की पैदावार ज़बरदस्त तरीके से बढ़ गयी। तो इसीलिए पिछले सौ सालों में शक्कर से सम्बन्धी जो लाइफ़स्टाइल बीमारियाँ थीं, वो सब भी बहुत तेज़ी से बढ़ गयीं।
तो जो एक्सेसिव शुगर कंज़म्शन है और जो पोर्नोग्राफ़ी का कंज़म्शन है, ये एक तरीके से दोनों एक ही जगह से आ रहे हैं। कहाँ से? जंगल से। हमारा जो जंगली अतीत है, वही हमें मजबूर करता है ― घी, और शक्कर, और कार्बोहाइड्रेट्स बहुत सारे खाने के लिए। ’फैट, शुगर, कार्ब्स,’ ये हमारा जंगली अतीत हमें मजबूर करता है। उसको देखकर हमारे ऐसे लार आ जाती है। वो लार क्यों आ जाती है? क्योंकि शारीरिक संस्कार हैं पुराने; वो बदल रहे है धीरे-धीरे, पर उन्हें बदलने में अभी कुछ हज़ार साल लगेंगे। और शारीरिक संस्कार पुराना ये भी है; आपको मालूम है अभी जब भारत आज़ाद हुआ तो औसत उम्र कितनी थी भारतीय की। कितनी थी? पच्चीस साल। हम फट से मर जाते थे (मुस्कुराते हुए)।
और जब भारत आज़ाद हुआ, तब तक अमेरिका में, यूरोप में समृद्धि आ गयी थी। पर अमेरिका-यूरोप में भी उससे आप तीन–चार सौ साल पीछे चले जाइए पन्द्रहवीं–सोलहवीं शताब्दी में। तो वहाँ भी जो औसत उम्र थी वो बहुत कम थी, आदमी बहुत जल्दी-जल्दी मरता था। और जंगल में तो न सिर्फ़ आपकी औसत उम्र बहुत कम होती थी, बल्कि जो चाइल्ड मोर्टेलिटी रेट (बाल मृत्यु दर) था, वो भी बहुत ज़्यादा होता था।
सोचो, जंगल में कोई बच्चा पैदा हुआ है, वो कितने दिन जिएगा? कितने दिन जिएगा? कैसे जिएगा? न ठीक से खाने को, न पीने को, न वैक्सीन, न दवाई, न अनुकूल वातावरण। माँ को अपना ही भरोसा नहीं, वो इधर-उधर दौड़ रही है कि कहीं से कुछ खाना मिल जाए। कभी जंगली जानवरों ने हमला कर दिया, कभी कुछ हो गया; बच्चा कितने दिन जिएगा? तो जंगल में ये ज़रूरी था कि हर स्त्री लगातार गर्भवती रहे और कम-से-कम दस–पन्द्रह बच्चे पैदा करें। जब दस–पन्द्रह वो पैदा करती थी, तो एकाध-दो उसमें से जीते थे।
अब जंगल पीछे छूट गया लेकिन वो चीज़ स्त्री के शरीर के भीतर बैठ गयी है कि मुझे पन्द्रह बच्चे पैदा करने हैं। उसी चीज़ को आप पाते हो, जिसको आप आज बोल देते हो, जो फेमिनिन नेचर (स्त्री प्रकृति) है। बहुत सारा जो फेमिनिन नेचर है, वो और कुछ नहीं है, जंगल से जो हमने संस्कार ले रखे हैं शारीरिक, वही है बस! द अर्ज टुवर्ड्स मदरहुड, (मातृत्व के प्रति आग्रह) वो और कुछ नहीं है।
और समाज भी जो बोलता रहता न महिलाओं को, ‘बच्चे पैदा करो, बच्चे पैदा करो!’ वो चीज़ भी जंगल से आ रही है। क्योंकि तब सिर्फ़ एक स्त्री की बात नहीं थी, वो जो पूरा कबीला था, उसका ही अस्तित्व संकट में पड़ जाता अगर महिलाएँ कम बच्चे पैदा करतीं। कबीला ही मिट जाता। तो हम जंगल से बाहर आ गये, लेकिन जंगल हमसे बाहर अभी तक नहीं निकला है।
तो इसीलिए हमारे बहुत जो केन्द्रीय व्यवहार हैं, उनमें अभी भी वो पशुता, वो जंगलीपन बरकरार है। चाहे वो खानपान की बात हो, चाहे वो हमारा सेक्सुअल बिहेवियर हो या पोर्नोग्राफ़ी की तरफ़ हमारा रुझान हो, वो सबकुछ वहीं से आ रहा है। और चाहे वो ये सब बातें हो कि साहब, ज़मीन पर कब्ज़ा कर लो, ज़मीन, ज़मीन!
आप देखोगे, आदमी जितना पुराना होता है, वो ज़मीन के लिए उतना लालायित रहता है। उसको आप बोलिए, ‘मेरे वर्चुअल एसैट्स (आभासी सम्पत्ति) हैं,’ उसको समझ में ही नहीं आता। आप किसी को बोलिए कि भाई, मेरी एक वेबसाइट है और उस वेबसाइट का वैलुएशन (मूल्यांकन) इतना है, उसको समझ में नहीं आएगा। वो कहेगा, ‘ज़मीन दिखाओ, ज़मीन।’ क्योंकि जंगल में वर्चुअल एसैट नहीं चलता था। जंगल में क्या चलती थी? ज़मीन ही चलती थी।
तो भूधन, पशुधन और स्त्रीधन ― ज़मीन कितनी हैं, जानवर कितने हैं, और स्त्रियाँ कितनी हैं। इससे निर्धारित होता था कि तुम धनी कितने हो। किसी को दान भी दिया जाता था तो यही दान दिया जाता था, क्या? भूदान, गौदान या कन्यादान, क्योंकि यही चीज़ें थीं दान देने लायक, दे दो।
इन्हीं का मूल्य था, अर्थव्यवस्था में इन्ही तीन चीज़ों का मूल्य था। ज़मीन का; क्योंकि उसमें बीज डालो तो अन्न उगता था। पशु; वो खेती के काम आते थे या खेती के नहीं भी काम आये तो पकड़ लिया, उनसे दूध ले लिया, माँस ले लिया, चमड़ा ले लिया, बहुत कुछ, सवारी कर ली। और कन्याएँ; उनका भी यही था कि जैसे भूमि में बीज डालो तो उनमें पैदावार होती है, वैसे ही कन्याओं से भी पैदावार होती है। वही अभी भी हमारी मानसिकता है। तो जितनी पिछड़ी हुई मानसिकता रहेगी, वो जंगल के उतने करीब की रहेगी।
बात समझ रहे हो?
जितनी पिछड़ी मानसिकता होती है, वो जंगल के उतने निकट की होती है। और मुक्ति का अर्थ एक तरीके से यही होता है — स्वयं से मुक्ति, शरीर से मुक्ति। आन्तरिक तल पर मुक्ति का अर्थ होता है — स्वयं से मुक्ति और बाहरी तल पर मुक्ति का अर्थ होता है — समाज से, संसार से मुक्ति।
अगली बार जब ये सब चीज़ें दिखें तो आईने की तरफ़ देखना और कहना, ‘हूँ तो मैं गोरिल्ला ही।’ नथिंग बट द प्रिमिटिव अर्ज तो रिप्रोड्यूस, (पुनरूत्पादन की आदिम इच्छा के अलावा कुछ नहीं) वही बन जाती है पोर्नोग्राफ़ी। उसके बाद तुम्हें देखनी है तो देख लेना। ये कोई नैतिक दायित्व नहीं है कि तुम्हें बन्द ही कर देना है। जो करना है करो, लेकिन जानते हुए करो कि क्या कर रहे हो। और अगर जानते हुए कर रहे हो तो जो गलत है वो करना मुश्किल होता जाएगा।
आ रही है बात समझ में?
कोई मोरल सैंक्शन (नैतिक स्वीकृति) नहीं है। बहुत लोगों को लगता है ‘अरे, छी-छी गन्दी बात!’ एक से एक मूर्खतापूर्ण तर्क आते हैं, वो बोलते हैं, ‘जीवन ऊर्जा का नाश हो रहा है, वीर्यनाश माने पौरुष का नाश।’ एक से एक बैठे हुए हैं ज्ञानी। कोई बताता है, ‘लिंग टेढा हो जाता है।’ कोई बताता है, ‘अब इसके बाद तुम्हारा जो आधा किलो रक्त कम हो गया’। वो सब बेकार की बातें हैं।
पोर्नोग्राफ़ी के साथ जो एक चीज़ जुड़ी हुई है, वो यही है — ‘हस्तमैथुन’। वो अच्छा है या बुरा है, ये नैतिक आधारों पर नहीं तय हो सकता। उसको इसी बात से तय करना होगा कि उसकी जो ललक है, अर्ज है, वो तुमको आ कहाँ से रही है?
जब तुम समझोगे कि वो सारी ललक तुम्हारे जंगली अतीत से आ रही है, तो शायद फिर व्यवहार में कुछ परिवर्तन आये। अन्यथा उस पर तुम नैतिक पहरे बैठाओ, उसका दमन करो, सेक्सुअल अर्ज का सप्रेशन करो, उससे बहुत लाभ होता नहीं है। समझना समाधान होता है, दबाना समाधान नहीं होता। समझो कि क्या चल रहा है? समझो!
एक बार समझ जाओगे क्या चल रहा है? फिर कहोगे, ‘इसकी तो कोई ज़रूरत नहीं।’ तो उसके बाद फिर व्यवहार परिवर्तित होता है। कैसे परिवर्तित होता है? परिवर्तित होकर क्या बन जाएगा? ये हमें जानने की ज़रूरत नहीं। बोध पर्याप्त है। मेरा काम है जानना, उसके बाद जो होगा, स्वयमेव होगा।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, इसी से लेकर एक छोटा सा प्रश्न और था। जैसे मेरे फ्रेंड्स पूछते हैं तो मैं उनको बताता हूँ कि जब थॉट्स ऐसे आ रहे हैं, तो आप उन थॉट्स को ऑब्ज़र्व (निरीक्षण) करो, उनको देखो। उनको देखने से ही आप उनके जब पास जाओगे तो आप उनसे दूर होते जाओगे। तो उनका तर्क ये आता है कि जब उन थॉट्स को और देखते हैं तो हम उसमें और सबमर्जड् (डूब) हो जाते हैं।
आचार्य प्रशांत: होने दो, होने दो। नया अभ्यास है, उसमें दुर्घटनाएँ घटेंगी शुरू में, बिलकुल हुआ था। तो ये उन दिनों की बात है बहुत पुरानी, एक दशक से ज़्यादा पुरानी बात है। जब संस्था में रविवार की छुट्टी हुआ करती थी। अब तो तीसों दिन काम रहता है, कभी छुट्टी जैसा कोई शब्द ही नहीं है हमारे यहाँ। पर कभी ऐसा होता था कि रविवार को हम काम नहीं करते थे। हम माने मैं करता था, लोग नहीं करते थे।
तो मैं तो अपना बैठा कर रहा था। दो देवियाँ थीं हमारे यहाँ, उनकी छुट्टी थी। तो वो दोपहर में आ गयीं तुनकी हुई दोनों। बोली, ‘छुट्टी तो आपने दे दी हैं, ये तो बताइए छुट्टी का करना क्या है? छः दिन तो क्या करना है, क्या नहीं करना है, वो सब आपको केन्द्र में रखकर होता है। अब ये रविवार हमसे बर्दाश्त नहीं होता। खाली छोड़ दिया है, करने को कुछ है नहीं। आपने सिखा दिया है कि जीवन में लगातार सही उद्देश्य के लिए काम करो। तो रविवार क्या जीवन से बाहर है? रविवार को भी कुछ काम बता दीजिए फिर।’
मैने कहा, ‘ये अज़ीब बात है! लोग छुट्टियाँ माँगने आते हैं, इनको मिली हुई हैं, ये आयी हैं कि नहीं, छुट्टी नहीं चाहिए, कुछ काम दे दो।’ मैंने कहा, ‘अब काम तो नहीं दूँगा।’ तो मैंने उन्हें काम दिया, थोड़ा मनोरंजन वाला। मैंने कहा, ‘जाओ, मॉल जाओ। और वहाँ पर दो–तीन घंटे ऑब्ज़र्वेशन करना। और देखना कि वहाँ पर कौन-कौनसी वृत्तियाँ दिखाई दे रही हैं। पूरा जो वहाँ पर लोगों का व्यवहार है खरीददारी में, खान-पान में, जो भी है वो पूरा देख के आना।’
तो दोपहर में आयी थीं, चली गयीं। ये शाम को आयीं, सात–आठ बजे वापस। तीन बैग इधर खरीददारी के लटका रखे हैं, तीन इधर लटका रखे हैं, दोनों ने। और ले आकर केबिन में खड़ी हो गयीं — ‘हमने ये-ये खरीदा।’ मैंने कहा, ‘ये क्या कर लिया?’ बोलीं, ‘कुछ नहीं, गये थे लोगों को ऑब्ज़र्व कर रहे थे, हमें लगा हम भी कर लेते हैं शॉपिंग, सब शॉपिंग कर रहे हैं तो उन्हें हम ऑब्ज़र्व क्या करते रहें। हमनें भी कर डाली शॉपिंग।’
तो ये होता है। इसलिए अवलोकन में ये ध्यान रखना होता है कि देखने गये हो, भोगने नहीं गये हो। वरना देखी जा रही वस्तु, भोग का आसानी से विषय बन सकती है। अपने ऊपर इतनी कड़ाई रखनी होती है कि भई! क्या कर रहे हो? देखना है, भोगना थोड़े ही है।
वो शुरू-शुरू में होता है, होने दो। एकाध बार हो जाएगा, फिर दिख जाएगा कि ऐसी गड़बड़ की आशंका रहती है, आगे सम्भावना कम हो जाएगी।
जिस चीज़ को देख रहे हो उसमें इतना भी नहीं आकर्षण है कि उसे साफ़-साफ़ देख लोगे, तब भी आकर्षण बना ही रहेगा। और मैं फिर कह रहा हूँ, ‘मैं किसी नैतिक आधार पर हाँ या ना नहीं बता रहा हूँ पोर्नोग्राफ़ी को।’ मैं कह रहा हूँ, ‘समझ लो कि तुम्हारी कोई भी वृत्ति, कोई भी व्यवहार, कहाँ से आता है?’ उसके बाद भी अगर आता है, उसके बाद उसकी कोई उपयोगिता है; आमतौर पर जिस चीज़ को समझ जाओ, वो चीज़ अपना आकर्षण खो देती है।
जिसको जानते ही नहीं हो न, उसको ही बहुत अधिक महत्व और सम्मान और इज्ज़त कीमत देते रहते हो। जिसको जानने लग जाओ, उसको फिर सम्यक स्थान देते हो कि इतनी ही इसकी कीमत है, इतनी ही इसको मैं जगह दूँगा, इससे ज़्यादा इसको जगह नहीं दे सकता।
सही मुद्दे लेकर आओ ज़िन्दगी में भाई! इन चीज़ों की बात करने के लिए वक्त नहीं बचेगा।
फिर ये चीज़ें वैसी ही हो जाएँगी, तुम्हें अटपटा लगेगा कि मैं आचार्य जी से क्या पूछूँ? ‘आचार्य जी मेरा एक मोज़ा खो हो गया, अब जो बचा हुआ है वो बहुत लोनली अनुभव कर रहा है। उसका जोड़ा टूट गया।’ ये कोई पूछने वाली बात है? इसी स्तर का सवाल है ये कि पोर्नोग्राफ़ी और मास्टरबेशन और ये सब। और ऐसे सवाल दसियों बार आ चुके हैं।
इस मुद्दे का उत्तर न हाँ में है, न न में है। इस मुद्दे का उत्तर ये है कि ज़िन्दगी को इतना सार्थक बना लो कि ये मुद्दे पीछे छूट जाएँ। ये भी कोई महत्व की बात है कि तुम वहाँ बैठे हो तो तुमने एक मोज़ा पहना है कि दो मोज़ा पहना है? है कोई महत्व की बात? नहीं है न? वैसे ही ये भी महत्व की बात नहीं है कि तुमने कल पोर्न देखी थी कि नहीं देखी थी।
पर वो चीज़ें महत्व की तब बन जाती हैं, जब जीवन निरर्थक होता है। जब जीवन में छोटी-छोटी कामनाओं और स्वार्थ के अलावा और वही आम ज़िन्दगी के आम मसलों के अलावा कोई बड़ा लक्ष्य होता नहीं, तब यही चीज़ें बहुत बड़ी लगने लग जाती हैं।
‘आचार्य जी मेरी नाक बहती है, मैं क्या करूँ?’ ये कोई पूछने का सवाल है? ‘नाक बहती है मैं क्या करूँ?’ पोंछ लो! नहीं पोंछना तो मत पोंछो। पोंछो, चाहे नहीं पोंछो, फ़र्क क्या पड़ता है? कोई बहुत बड़ी बात है ये?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो मुक्ति का अर्थ यही है कि ये छोटी चीज़ें सब छोटा ही स्थान पायें। जिसकी जो जगह है जीवन में उसे उतनी ही जगह मिले, उससे आगे न मिले जगह। आपको कोई आपका आदर्श पुरुष मिले तो आप उससे ये पूछोगे क्या कि सर आप पोर्न देखते हो कि नहीं? बोलो! दस लोगों की सूची बना लो जिनको तुम आदर्श मानते हो, महापुरुष जैसा और मान लो कि वो तुमको मिल गये, तो उनसे तुम ये पूछोगे कि आप पोर्न देखते थे कि नहीं देखते थे? ये सवाल पूछना ही बचकानी बात है, बहुत छोटा सवाल है ये। उनके जीवन में और कुछ है जो बहुत ऊँचा और बहुत महत्वपूर्ण है। उन दूसरे मुद्दों की बात करोगे न आप, या पोर्न पूछोगे उनसे? वैसे ही अपना जीवन बना लो कि ये मुद्दा ज़िन्दगी में बहुत छोटा हो जाए।
जब ज़िन्दगी छोटी होती है तो छोटे मुद्दे भी बड़े हो जाते हैं। ज़िन्दगी इतनी बड़ी कर लो कि इस तरह के मुद्दे बिलकुल छोटे हो जाएँ।
सोचो न, अपने किसी महापुरुष के सामने खड़े हो गये हो और तुम उनसे सवाल ये पूछ रहे हो कि आपने पोर्न देखी कि नहीं देखी? कोई फ़र्क पड़ता है इस बात से, देखी कि नहीं देखी? इनकी महानता क्या इस बात में है, कि देखी? क्या इस बात में है, कि नहीं देखी? मुद्दा ही हीन है, क्षुद्र है। इस मुद्दे का उल्लंघन कर जाना है, आगे निकल जाना है। ज़िन्दगी में ये सब चीज़ें छोटी हो जाएँ।