कामवासना, रोमांस और गुलाबी अरमान

Acharya Prashant

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कामवासना, रोमांस और गुलाबी अरमान
जिससे बहुत आकर्षण हो, उसके पास जाकर परख लिया करो। परखने का कोई बहुत गड़बड़ मतलब मत निकाल लेना। दो बातें कर लो, इतने में ही नशा उतर जाएगा। दो बातें कर लो, थोड़ी देर के लिए भूल जाओ कि सामने वाले का लिंग क्या है। उससे इंसान की तरह दो बातें कर लो, नशा उतर जाएगा। हमारे यहाँ बात करने का तो चलन ही नहीं है, क्योंकि बात में तथ्य उभरकर आता है। हमारी संस्कृति कल्पना की है—तथ्य जानो ही नहीं। आज भी दो-तिहाई लोग तो शादी तक भी अपने भावी साथी का तथ्य नहीं जानते, बात ही नहीं करी होती। और जब बात ना करी हो, तो हम काहे को बुरा माने किसी के बारे में? यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, सर, जैसे कामवासना एकदम से आती है, तो लगता है कि इससे चैन मिल जाएगा। तो उस समय तो हमें कुछ दिखाई नहीं देता, उस समय हम बिल्कुल डूबे रहना चाहते हैं, फिर आपकी बात भी ध्यान नहीं रहती, या कुछ भी ध्यान नहीं रहता। उस समय तो हम बिल्कुल उसमें डूब जाते हैं। तो उसके थोड़ी देर बाद, जब चली जाती कामवासना, उसके बाद पता चलता है कि गलत किया, गिल्ट होता है, उसके बाद लगता है कि समय खराब किया, व्यर्थ की ऊर्जा खराब की।

तो यह चीज़ एकदम से एक बार समझ में आ गई, दो बार आ गई, तीन बार आ गई, हज़ारों बार हो जाती है यह चीज़, मतलब तब भी वह चीज़ समझ में नहीं आती, सर। तो इसको रोका कैसे जाए? यह चक्र चलता ही रहता है।

आचार्य प्रशांत: जो समय और ऊर्जा खराब होते हैं, इसलिए थोड़ी खराब होते हैं कि तुम उसमें डूब जाते हो। यह खराब इसलिए होते हैं क्योंकि तुम उसमें तैरते हो, मज़े ले लेकर तैरते हो। जो डूब जाए, तो उसका समय बच जाएगा, एक झटके में डूबेगा, नीचे दलदल पाएगा, बिल्कुल पलट के वापस आ जाएगा, भग लेगा, समय बच जाएगा।

तुम डूबते भी कहाँ हो? तुम तो वैसे हो जैसे कई लोग घाट पर बैठ जाते हैं और एड़ियाँ पानी में डालकर छपक-छपक करते हैं, हौले-हौले, झीने-झीने मज़ा लेना। समय वासना में थोड़ी खराब होता है? समय रोमैंस में खराब होता है? वासना में समय खराब करने का तुम्हारा स्टेमिना ही नहीं है।

(सब हँसते हैं।)

तुम्हारा समय तो घंटों-घंटों, महीने-महीने तुम खराब करते हो रोमैंस में। बारह बजे रात में फोन लगाया है, सुबह पाँच बजे तक, "बाबू, अच्छा, सो जाओ तो सोने के बाद की तस्वीरें भेजना।" लोग बोलते हैं कि समस्या कामवासना है। समस्या कामवासना नहीं है, खासकर जिस अर्थ में तुम कह रहे हो ना, समय की बर्बादी वगैरह, उसमें नहीं समय की बर्बादी होती, सचमुच नहीं होती, प्रकृति ने ऐसी बनाई ही नहीं है कि उसमें समय की बर्बादी हो।

समय की बर्बादी होती है भावना लोक में, कल्पना लोक में। बैठे हुए हैं और अहाह......(कल्पना का चित्रण प्रदर्शित करते हुए।)

उसका तो एक ही तरीका है—कोई सार्थक काम दो अपने आपको। सार्थक काम दो।गुंजाइश ही नहीं बचेगी कि बैठकर गुब्बारे फुला रहे हो, उड़ा रहे हो, नीचे से ताक रहे हो—"गुलाबी गुब्बारा। पीला गुब्बारा।" और ये अनुभव भी किया होगा कि जिन दिनों में कोई ज़रूरी काम रहता है, उन दिनों में ये सब चीजें आकर्षित नहीं करती हैं।

और कुछ करने को नहीं होता, फिज़ूल बैठे होते हो, तो और क्या करोगे? मनोरंजन... सबसे सस्ता मनोरंजन है इसमें कुछ खरीदना नहीं पड़ता। फैक्ट्री यहीं पर है, माल की यहीं बैठ गए, सोच रहे हैं—"आहा। आनंद आ रहा है," गाने-वगैरह सारे। कैसेट लगा दिए, रूमानी गीत, ग़ज़ल, सब चल रहा है।

भारत में रोमैंस ज़्यादा है, पश्चिम के मुकाबले। बताओ, क्यों? क्योंकि, जैसे कहा ना कि जो गहराई में चले जाते हैं, उनको दिख जाता है वहाँ दलदल है, वो आज़ाद हो जाते हैं, वो समझ जाते हैं कि यह जो चीज़ है, पूरा जो ताल बना हुआ है, इसमें ऊपर-ऊपर से लग रहा है कि कुछ आकर्षक है, साफ़ है। जैसे ही नीचे जाओ, तो नीचे सब गंदगी है।

भारत में नीचे जाने पर वर्जना है, तो ऊपर-ऊपर छप-छप करके अपने आपको भ्रमित रख लेते हो। पश्चिम में वे तुरंत ही नीचे पहुँच जाते हैं, इसलिए रोमैंस पर वहाँ अपेक्षतयः कम समय बर्बाद होता है।

यहाँ तो लड़की से बात करने से पहले, ढाई साल तक तो उसके बारे में सोचते हो। ढाई साल देखेंगे, उसके बाद बात करेंगे। और बात भी क्या होगी? "अ..." उसके आगे की बात तो गले में अटक जाएगी।

ऐसे-ऐसे करके पंचवर्षीय योजनाएँ चलती हैं। पाँच साल पहले ताड़ो, फिर एक शब्द बोलो, फिर किसी दिन जाकर कुछ बात कर पाओ। ऐसे पंद्रह साल बीत गए, तब तक उसका ब्याह हो गया। फिर पाँच साल रो कहीं पर।

प्रश्नकर्ता: हुआ है सर ऐसा।

आचार्य प्रशांत: हाँ।

(सब हँसते हैं)

अब ये समय की बर्बादी है, ना? ये राष्ट्रीय पेशा बन गया है हमारा। रोमैंस... काल्पनिक... गुब्बारे। इससे अच्छा जाकर सीधे बात कर लो। वो भी तुम्हारी ही प्रजाति की, तुम्हारी ही उम्र की जीव है एक। इतना कुछ तुम्हें वहाँ खास या विशेष या आकर्षक मिलेगा ही नहीं कि फिर फँसे रहो। तुम्हारा कोई दोस्त-यार होगा, उस पर कोई लड़की मरती होगी? तुम्हारा नहीं होगा, मान लो, किसी और का होगा?

है, है? वो दोस्त है ना, एकदम एक नंबर का चिरकुट। और वो लड़की उस पर मरती है। क्यों मरती है? क्योंकि उसने आकर कभी ढंग से बात ही नहीं करी उस लड़के से। बात करना तो छोड़ दो, अगर वह उसके छह फीट के दायरे में भी आ जाए तो बदबू से ही भाग जाए और वो छह फीट के दायरे में भी नहीं आएगी। वो दूर बैठकर के सपन सलोने बिल्कुल सजा रही है, और सपन सलोने का तो कोई इलाज नहीं होता ना। दूर बैठकर किसी के बारे में गुलाबी सपने तुम पकाते रहो, कौन रोकता है?

इसलिए भारत में रोमैंस ज़्यादा है, क्योंकि वर्जनाएं ज़्यादा है। इसी लिए फिर यहाँ जवानी बर्बाद भी बहुत होती है। जितनी दुनिया की टॉप कहानियाँ हैं आशिकी की; आशिकी नहीं, असफल आशिकी, बर्बाद आशिकी—वह सब की सब कहाँ से हैं? बताओ, देवदास डेनमार्क में हो सकता था? उस तरह का नमूना? सिर्फ भारत में ही संभव है। सोचो, कितना अजीब लगेगा—"आई ऍम देवदास फ्रॉम डेनमार्क।" हो ही नहीं सकता। "आई एम पारो फ्रॉम प्रशिया।" नॉट पॉसिबल।

जिससे बहुत आकर्षण हो, उसके पास जाकर परख लिया करो। परखने का कोई बहुत गड़बड़ मतलब मत निकाल लेना। दो बातें कर लो, इतने में ही नशा उतर जाएगा। दो बातें कर लो, थोड़ी देर के लिए भूल जाओ कि सामने वाले का लिंग क्या है। उससे इंसान की तरह दो बातें कर लो, नशा उतर जाएगा। हमारे यहाँ बात करने का तो चलन ही नहीं है, क्योंकि बात में तथ्य उभरकर आता है। हमारी संस्कृति कल्पना की है—तथ्य जानो ही नहीं।

आज भी दो-तिहाई लोग तो शादी तक भी अपने भावी साथी का तथ्य नहीं जानते, बात ही नहीं करी होती। और जब बात ना करी हो, तो हम काहे को बुरा माने किसी के बारे में? अच्छा ही अच्छा सोचो ना। बढ़िया, अपना वही सपन सलोने। किसी लड़की में ऐसा कुछ नहीं होता कि तुम फिदा हो जाओ उस पर। पूर्ण विराम। पूर्ण विराम। दुनिया में कोई लड़की आज तक ऐसी बनी ही नहीं है, कि वो तुमको बड़ी शांति या तृप्ति दे देगी। कोई नहीं है।

और ना किसी लड़की के लिए कोई लड़का बना है, जो उसकी ज़िन्दगी के केंद्र पर बैठ जाए और उसके हृदय को बिल्कुल भर दे। ना ऐसी कोई लड़की है, ना ऐसा कोई लड़का है। हाँ, ऐसी लड़कियाँ हैं, लड़के भी हैं—कल्पनाओं में हैं। उन्हीं कल्पनाओं में जीने की हमारी आदत बन गई है। भारत में आज भी रोमैंस जिन्दा है, तो कहाँ जिन्दा है? मेट्रोस में थोड़ी जिन्दा है?

छोटे शहरों और गाँवों में जिन्दा है। वहाँ बीस वर्षीय साधनाएँ होती हैं। "नाथ, तुमको कभी पता नहीं चलेगा, पर चुप-चुप के, चोरी-चोरी, हृदय से मैं तुमको अपना पति स्वीकार कर चुकी हूँ।" उसको कभी पता भी नहीं चलेगा। ये चुप-चुप के, चोरी से, नाथ को हृदय ही हृदय में पति स्वीकार कर चुकी है। "नाथ, तुम्हारा खैनी खाता है, तुम्हें पता है ये? बस में पीछे लटक के जाता है। एक बार लटक के जा रहा था, पीछे से कुत्ते ने काटा है उसको।" ये दृश्य देखा है तुमने कभी? सोचो, इनके नाथ; प्राणेश्वर- राज्य परिवहन में बस में पीछे लटके हुए हैं और खुजली वाला, अधमरा कुत्ता उनके पिछवाड़े से लटका हुआ है। अब बताओ, रोमैंस कहाँ गया? भाई, ये सब तुम्हें पता ही नहीं, क्योंकि तुम्हारे पास बस क्या है तुम्हारी? कल्पनाएँ।

ये लड़कियों के बारे में सोचते हैं, इनको ऐसे आता है कि जैसे कोई वो बिल्कुल परी है, देवी है, बादलों पर पाँव रख के चल रही है, पता नहीं क्या है। कभी गर्ल्स हॉस्टल के आसपास भटकना, या तुम्हारी कोई बहन वगैरह हो जो हॉस्टल में रहती है, उससे पूछना। जब एक-दूसरे से लड़ती हैं लड़कियाँ और कैट फाइट होती है—एक-दूसरे का मुँह नोच लेती हैं, बाल नोच लेती हैं और गाली-गलौज करती हैं—सारा नशा उतर जाएगा।

तो कहना, "ऐसा कोई वीडियो बना दो बस एक बार। दो लड़कियाँ एक-दूसरे की माँ-बहन कर रही हैं।" ज़िन्दगी भर के लिए रोमैंस तो उतरे। और वह तुम्हारी प्राणों की रानी है? और दूसरे को कह रही है, "अभी ते..."

अब ऐसा तो नहीं है कि ये सब तुम्हें सुनने को नहीं मिलेगा। सुनने को मिलेगा, पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। इससे बेहतर है कि पहले सुन लो। इतना बेवकूफ बनाना आसान होता है, ना? मेरे साथ का एक था, वह जाया करता था एलएचएमसी—लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज। वहाँ की एक लड़की, उससे डेटिंग चल रही थी। उसको बोला, "मैं अभी रात में पहुँचा। लेट क्यों हो गई?" "एक्चुअली, वो आज हॉर्स राइडिंग मेरी बहुत देर तक चली।"

वो डॉक्टर है। वो ऐसे, "हाँ, हॉर्स राइडिंग।" तथ्यों से कोई लेना ही देना नहीं। कोई भी चटनी चटा दो, मानने को तैयार। और यह आके बताए, "पता है, मैं उसको हॉर्स राइडिंग बोलता हूँ, मान लेती है। उसको लगता है, मैं बहुत अच्छा राइडर हूँ।" मैंने कहा, "बेटा, वैसे ही, वो भी तो बहुत कुछ बताती होगी, जो तुम मान लेते होगे।"

जब काम भरा हो आँख में, सच नज़र नहीं आता है। और जब नज़र आता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। एक मुन्नू इधर, एक मुन्नू उधर, सर पे एलीमनी की तलवार, ४९८ए। फिर काहे को रोओगे? वो सब आशिक ही थे, जो फिर बाद में रोए कि "अरे, अरेरेरे! ये तो डायन निकली।" ना वह परी थी, ना वह डायन है। वह एक साधारण जीव है, जिसको तुम्हारी काम से भरी हुई आँखें कभी परख ही नहीं पाई।

ये बहुत साधारण प्रयोग है, खुद ही सोच लेना। अपने बारे में तो सबको पता है, अपने बारे में तो गलतफहमी में बहुत नहीं हुए। सोचो, तुम्हारे जैसा आदमी भी किसी के सपनों का राजा हो सकता है। सोचो। जब तुम्हारे जैसा आदमी किसी के सपनों का राजा हो सकता है, तो फिर तुम्हारे सपनों की रानी भी कैसी हो सकती है? हो सकता, तुमसे भी गई-गुजरी हो।

हमारे तो कोई साथ का होता था, उसकी गर्लफ्रेंड वगैरह आती थी, इतनी हँसी छूटती थी कि इसकी..? इसको समझती क्या है? और वो उसको ऐसे देख रही है, बिल्कुल एडमिरेशन में—"माय अडोरेबल वन।" हमको पता है ना, यह क्या है? इसको अभी घुड़क दो तो बिस्तर के नीचे घुस जाए।

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मैं बिहार से हूँ, मेरा सवाल भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री से संबंधित है। बीते कई सालों से मैंने यह देखा है की कोई भी कंटेंट ड्रिवेन सिनेमा ये इंडस्ट्री ने नहीं दिया है। ज़्यादातर सिनेमा और संगीत में फूहड़ता होती है, वहीं अगर मैं बाकी रीजनल सिनेमा को देखूँ जैसे कि हिंदी हो गई, दक्षिण के सारे राज्य हो गए- मराठी, पंजाबी, हरियाणवी, इन सब में कुछ लोग ऐसे ज़रूर होते हैं जो कंटेंट ड्रिवेन सिनेमा बनाते हैं।

जैसे की मराठी में आनंदी गोपाल करके मूवी है। मैंने देखी थी कुछ सालों पहले। और ऐसा नहीं है कि इन इंडस्ट्रीज में फूहड़ सिनेमा नहीं बनता है, वहाँ पर भी है, लेकिन वहाँ पर अच्छी मूवीज बनाने वाले लोग भी हैं।

ऐसा क्यों होता है कि इतने गौरवशाली इतिहास वाले राज्य के पास पटकथा के तौर पर बस फूहड़ता है या कोई घिसीपिटी कहानी है?

आचार्य प्रशांत: देखो सारी चीज़ तो इंसान के मन पर निर्भर करती है। एक बार आप किसी को भरोसा दिला दो कि जोड़-तोड़ से, जुगाड़ से नैया पार हो सकती है, कि आस्था कामना, मान्यता, रूढ़ि, अंधविश्वास ये सब चीज़ें जीवन में सुख ला सकती हैं, तो उसके बाद वो किसी आगे की चीज़ को चाहता ही नहीं, क्यों चाहे?

कल वो किसी से बात हो रही थी, किसी की बात पढ़ी मैंने तो उन्होंने फिल्म है, ‘द स्टॉकर’ तो वो मुझे रिकमेंड करी, सबको करी, कम्युनिटी पर आया था। अब वो जो फिल्म है, वो किसी की आंतरिक पीड़ा का नतीजा है। मैं अभी तक देख नहीं पाया हूँ। हालांकि उसका यूट्यूब लिंक आ गया है, मैंने रख लिया है, तीन घंटे की है, उसको समय निकाल के देखूंगा।

वो कोई ऐसा है जिसको दिख रहा है कि मैं एक विकसित मुल्क से आ रहा हूँ, जो उसके निर्माता उन्हें पता है विकसित मुल्क से आ रहे हैं, शिक्षा भी मिल गई है, पैसा वगैरह भी है, सुविधाएं हैं, लेकिन फिर भी बात बन नहीं रही है। तब व्यक्ति निर्माण करता है, रचना करता है। तब क्रिएटिविटी आती है।

जब उसको आगे की चाहत हो और जब उसके पास ऐसे तरीके भी हो जो प्रदर्शित कर सके कि उसके वर्तमान उपाय है, वो निश्फल जाने वाले है। उदाहरण देता हूँ।

आप अगर सोचो, आप अगर किसी फिल्म के अगर निर्माता हो या निर्देशक हो या आपने पटकथा लिखी है। तो आप एक ऐसी जगह से आ रहे हो जहाँ भौतिकवाद बहुत चलता है, यह पश्चिम में बनी फिल्म है। और भौतिक चीज़ें जो होती हैं, वो सब मेज़ेरेबल होती हैं, नापी जा सकती हैं न। तो वहाँ आपको दिख जाता है की मैंने ये चीज़ है, ये चीज़ आजमाई तो इससे मुझे इतना मिला। आपको ये भी दिख जाता है दूसरी चीज़ से कितना मिला, तीसरी ऐसी कितना मिला, क्यूँकी वहाँ मामला फैक्चुअल है।

वहाँ मामला खाने जैसा है, आपको दिख जाता है आपने खाना खाया तो पेट फूल रहा है। तो एक सीमा के बाद आप खाना नहीं खा सकते, क्योंकि अब उससे लाभ होने की जगह हानि होनी शुरू हो गई है। शुरू में कामना बहुत थी, लग रहा था, इसमें से स्वाद भी मिलेगा, पोषण भी मिलेगा। तो जीभ एकदम लपलपा रही थी, पेट भी आग्रह कर रहा था, मन भी दौड़ रहा था खाओ खाओ। खाने के बाद, लेकिन वो क्यूँकी एकदम फैक्चुअल है, भौतिक है तो पता चल जाता है की इससे बात बन नहीं रही है, और बात बनाऊंगा तो और नुकसान हो जायेगा। पेट पहले ही फूल गया है।

तो फिर वो आगे को निकलते हैं, वो कहते हैं जो भौतिक चीज़ें हैं, उनसे बात बन नहीं रही, तो आगे को निकले। जिन भौतिक चीज़ों से ऐसी अपनी उम्मीदें रखते हैं, वो सब भौतिक चीज़ें, हमने कहा मेज़ेरेबल है, नापी जा सकती है, फैक्ट है वहाँ पर।

समझ रहे हैं। मैं कहूँ उदाहरण के लिए कि ये है इसको पी के मेरा काम बन जाएगा। मैं कहूँ की ऐसी दस चीज़ें मेरी ज़िन्दगी में ला दो तो मेरा काम हो जाएगा। तो मेरा किसी तरह से डिसइल्यूज़नमेंट हो पाएगा, यह संभव होगा की मैं डिसअप्पॉइंट हो जाऊँ, डिसइल्यूज़न्ड हो जाऊँ, वो घटना मेरी ज़िन्दगी में घट सकती है।

या मैं कहूँ की मेरे बहुत सारे रिश्ते होने चाहिए। अठारह स्त्रियाँ मेरे ज़िन्दगी में होनी चाहिए। एक आएगी, दूसरी, आएगी, तीसरी, आएगी, चौथी, आएगी, अगर मैं बिल्कुल ही विकसित नहीं हूँ तो एक बिंदु पर आकर मुझे दिख जाएगा की ऐसे तो बात नहीं बननी है, ठीक है/

तो इसलिए फिर पश्चिम आगे की ओर जा पाता है। जो आपने कहा न, वहाँ भी कचड़ा पिक्चरें बनती है लेकिन वहाँ कचड़ा पिक्चरों के अलावा कुछ अच्छा भी बन जाता है, पश्चिम में भी बन जाता है और भारत में भी आपने मराठी, बंगाली, इत्यादि सिनेमा की बात करी, वहाँ भी बन जाता है।

प्रश्नकर्ता: बिल्कुल।

आचार्य प्रशांत: लेकिन जो हमारी काउबेल्ट है, जो हिंदी हार्टलैंड है हमारा, इसकी खासियत है कुछ ऐसी जो इसे पश्चिम से तो क्या, भारत के भी दक्षिण से और बंगाल से बहुत भिन्न बनाती है। हमारा जो हिंदी हार्टलैंड है, जिसमें आपका पूरा मिथिला का, भोजपुर का क्षेत्र आता है, बिहार आता है, उसमें आपका पूरा उत्तर प्रदेश भी मैं जोड़ लेता हूँ, राजस्थान भी जोड़ लीजिए, मध्य प्रदेश भी जोड़ लीजिए, सब कुछ। इसमें कुछ बहुत ही अद्भुत बात है। यूनिक बिल्कुल अद्वितीय है। वो बात ये है कि कामना हमें भी उतनी ही है जितनी दक्षिण भारत वालों को या जितनी पश्चिम वालों को। कामना हमें भी उतनी है। कामना में कोई कमी नहीं है, इंसान सब पैदा हुए हैं। तो इंसान पैदा हुआ, कामना तो उसे भी है। लेकिन हमने कामना पूरी करने के बड़े पराभौतिक तरीके निकाल लिए हैं।

पश्चिम के पास पैसा है और आज दक्षिण भारत के पास। दक्षिण भारत में, महाराष्ट्र को भी जोड़े ले रहा हूँ। दक्षिण भारत के पास शिक्षा है, उत्तर भारत, विशेषकर बिहार वो जगह है जहाँ न पैसा है, न शिक्षा है। हमारी कामनाएँ इस पर नहीं आश्रित होती, क्योंकी इससे भी कामना रखने के लिए पहले खरीदना पड़ेगा।

तो हमारी कामनाएँ उन चीजों पर फिर आश्रित हो जाती है जिनको खरीदने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। ऐसी दो चीजों को मैं आपको उदाहरण दे देता हूँ। जो आपको खरीदने नहीं पड़ेंगीं, वो आपको मिली हुई है। बताऊँ? तन और मन। आप गरीब से गरीब आदमी हो तन तो है न? आप बिल्कुल अशिक्षित आदमी हो, तन तो तब भी है और मन भी है।

तो हम अपनी कामनाएँ पूरी करने के लिए तन का इस्तेमाल करते हैं। तो आबादी का विस्फोट देख लो। जिसके पास पैसा और शिक्षा हो, वो अपनी कामनाएँ पूरी करने के, उसको भीतर बेचैनी लग भी रही है तो वो कोई दुनिया में निकल करके थोड़ा ढंग का काम कर सकता है। वो ये भी कर सकता है कि मैं जा रहा हूँ, मैं ट्रेकिंग करूँगा, मैं दूसरा देश घूमूँगा कुछ भी कह सकता, मैं किताब पढूंगा कुछ भी।

और जो एकदम गरीब है, वो अपने तन का इस्तेमाल करता है अपनी कामना को पूरी करने के लिए और तन का इस्तेमाल करने में खूब खाएगा, गजब का वो ज़ायकेदार भोजन बनाएगा, भोजन ही भोजन की बात दिन भर करेगा। और अगर वो वयस्क हैं तो सहवास, संभोग, सेक्स के द्वारा अपने आप को किसी तरीके से शांति देना चाहेगा।

अब जब ये आपकी ज़िन्दगी बन जाएगी तो आपकी फिल्मों में भी तो यही दिखाई देगा न? हवस और हिंसा। जब आप अपनी कामनाएँ बस इसी तरीके से पूरी कर सकते हो की आप गरीब हो और आप अशिक्षित हो तो फिर हवस और हिंसा ही आपकी ज़िन्दगी है। वही फिर आपकी कामना में रहती है। घर आते हो, बच्चों को मारते पीटते हो और पत्नी का बलात्कार करते हो, वही चीज़ फिर फिल्मों में आ जाती है।

और दूसरे वाले का जो चीज़ मुफ़्त मिलती है वो है मन। आप कितने भी गरीब और अशिक्षित हो, मन तो है न? वो जो मन है वो हमारी कामना पूरी करने के लिए कल्पना देता है। मन को कल्पना करने का तो कोई पैसा नहीं लगता कि लगता है? मन कल्पना क्या करता है कि वो आकाश में वो फ़लाना बैठा हुआ है और मैं उससे ऐसी ऐसी इस तरीके से मन्नत माँगूंगा तो पूरी हो जाएगी।

नेपाल में ये गढीमाई वाला उत्सव जो है वो चल ही रहा है। इन्हीं दिनों होता है छह-सात-आठ-नौ, इन्हीं दिनों में है, दिसम्बर में। है नेपाल में, और वहाँ लाखों पशुओं की पक्षियों की बलि होती है, वो सब पशु पक्षी बिहार से जाते हैं। क्यूंकि मामला सस्ता है कबूतर ही तो काटना है, मुर्गा ही तो काटना है, काट दो कामना पूरी हो जाएगी। इतनी सस्ती बात है कि तुम भैसा काट दोगे तो कामना पूरी हो जाएगी?

लेकिन मन की कल्पना कि देवी बैठी है और देवी मेरी कामना पूरी कर देंगी। कोई उसमे शिक्षा नहीं चाहिए, कोई प्रयास नहीं चाहिए। जी-तोड़, लगन की और साधना की कोई ज़रुरत नहीं है। बकरा काट दो कामना पूरी हो जाएगी। तन ने क्या कहा, ‘खाना खा लो, तो कामना पूरी हो जाएगी, तो लाओ बिल्कुल एक ज़ायकेदार खाना दो मुझे ज़रा, खाऊंगा और आप देखोगे जितनी गरीब जगहें होती है वहाँ खाना उतना ज़्यादा मसालेदार होता है नोट करना। मिर्च भी उतनी ज़्यादा डलती है गरीब जगहों पर।

जैसे जैसे जगह शिक्षित और अमीर होती जाती है वैसे वैसे वहाँ का खाना सादा होता जाता है। और आदमी जितना गरीब होता है, अशिक्षित होता है उसके खाने में मसाले और मिर्च उतने ज़्यादा होते है। उसकी बहुत वजह है।

खाने में और तो कुछ है ही नहीं। तो कैसे अपने आप को सांत्वना दे कि मैंने कुछ खाया? तो फिर बहुत सारी मिर्च खाता है तो उसको फिर उत्तेजना होती है मिर्च खाने से, तो उसको लगता है चलो कुछ खा लिया। रोटी के साथ प्याज़ ऐसी थोड़ी खाई जाती है। बोलते हैं, रोटी प्याज़ खा लेंगे, प्याज़ रोटी के साथ; उसकी वजह है, रोटी प्याज़ नमक वज़ह है। प्याज़ से लगता है कि कुछ गया भीतर। प्याज़ थोडा जलाती है तो लगता है कुछ गया, गंध मारती है तो इंद्रियों को लगता है कुछ हुआ, स्वाद में भी कुछ हुआ और गंध में भी कुछ हुआ।

तो हमने ये धारणा बना ली है कि जो कुछ भी पाना है वो या तो शरीर से मिल जाएगा, शरीर माने अपना शरीर, दूसरे का शरीर। तो जिस हद की अश्लीलता हम पाते हैं भोजपुरी फिल्मों वगैरह में, उसका ये कारण है। कि शरीर से मिल जाएगा। गाने के बिल्कुल अश्लील बोल लिख दो, पैसे लग रहे हैं क्या इस बात के? कुछ नहीं लग रहे। बल्कि जितने अश्लील बोल लिखने है, उतने सस्ते में हो जाता है। उसके पैसे नहीं लग रहे हैं।

और बाकी कामनाएँ पूरी करने के लिए क्या है? अंधविश्वास है, रूढ़ियाँ हैं, वो फलाना पेड़ है, उस फलाने पेड़ से जाकर, मन्नत माँगेंगे तो पुत्र रत्न मिल जाएगा, लो कामना पूरी हो गई। अब जब आप इससे कामना करते हो न (ग्लास को हाथ में रख दिखाते हुए), तो इसका फाल्सिफिकेशन हो सकता है, क्योंकि वो बिल्कुल मटीरियल एक साधन था, वो फाल्सीफाई हो जाएगा।

लेकिन जब आप मानसिक कल्पना से एक छवि बनाते हो और अपनी कामना वहाँ टिकाते हो तो उसका फाल्सिफिकेशन नहीं हो सकता न, माने वो चीज़ कभी भी असत्य सिद्ध नहीं हो सकती।

प्रश्नकर्ता: झुठलाई

आचार्य प्रशांत: हाँ, उसको झूठ नहीं साबित किया जा सकता है। आप जा कर के बकरा काट आए और आपने चाहा था, बकरा काटने से फलाने की बीमारी दूर हो जाए, घर में कोई था आपका इलाज़ कराने का तो पैसा है नहीं, तो उसने आपने कहा मंदिर में जाके बकरा काट देता हूँ, उसकी बीमारी दूर हो जाएगी।

गढ़िमाई- दुनिया का सबसे बड़ा पशु हत्या का आयोजन होता है, वहाँ कहा जाता है की देवी है गढ़िमाई देवी; वो सपने में आई थी, उन्होंने कहा था कि अगर मुझे पशुओं का खून चढाओगे, तुम्हारी कामना पूरी करूंगी। ये दुनिया का ये वर्ल्ड रिकॉर्ड है, सबसे बड़ा आयोजन होता है, पाँच साल में एक बार होता है। वहाँ सब पशु जो है वो ज़्यादातर बिहार से जाते हैं। कुछ थोड़े बहुत पूर्वी उत्तर प्रदेश से आते हैं, और कुछ नेपाल के जो सीमांत इलाके हैं वहाँ से। दुनिया का सबसे बड़ा पशुवध का आयोजन होता है।

लेके गए, एक ने बकरा काट दिया कि घर में जो बीमार है, उससे ठीक हो जाएगा, वो ठीक तो हुआ नहीं, मर ही गया। तो इससे जो पूरी बात थी, जो पूरी मान्यता थी, वो फॉल्सिफाई नहीं हुई है, फॉल्सिफाई माने उसका असत प्रदर्शित होना, माने उसका पर्दा फास होना, माने उसके झूठ का प्रदर्शन हो जाना, वो नहीं हुआ है। बल्कि कहा यह जाएगा कि देवी ने उन्हें अपने पास बुला लिया, यहाँ जमीन पर थे, बीमारी में दुख पा रहे थे, देवी ने अपने पास बुला लिया और देवी के चरणों में सुख पाएँगे, कुछ फालसिफिकेशन नहीं हुआ।

जब जहाँ पर आपने अपनी कामना स्थापित कर रखी है, वो कभी फॉल्सिफाई नहीं होगी, माने झुठलाई ही नहीं जाएगी तो आप आगे नहीं जाओगे कभी बाबा। हम आगे नहीं जा पा रहे, क्योंकि हम ऐसों से कुछ माँग रहे, जिन्होंने दिया कि नहीं दिया, ये बात सबूत के साथ कभी प्रदर्शित करी नहीं जा सकती।

नहीं समझे?

प्रश्नकर्ता: हाँ बिल्कुल।

आचार्य प्रशांत: मैं कहूँ कि मैं फलाना काम करूँगा तो उससे मुझे कुछ मिल जाएगा। अभी हम आंतरिक शांति की बात कर रहे हैं। मैं कहूँ की इसको पीऊंगा बार बार (ग्लास को हाथ में रख समझाते हुए) तो शांति मिल जाएगी तो मेरी इस धारणा में झूठ था, ये बात खुल जाएगी क्यूंकि कितना भी पी लो, शांति नहीं मिलती। पर मैं ये कहूँ की वो ऐसा है, वैसा है पितरों की आत्माएँ घूम रही है और ऐसा कर दो तो उन आत्माओं को अच्छे से पता है कि हमारे लिए बेहतर क्या है वो आत्माएँ वैसा कर देंगीं।

प्रश्नकर्ता: हवा हवाई बातें।

अब हवा-हवाई बात है, जिसको कभी झुठलाया नहीं जा सकता। आप कैसे साबित करोगे कि ये बात आपकी गलत है? कैसे साबित करोगे?

कोई भौतिक चीज़ होती है तो उस पर प्रयोगशाला में प्रयोग करके आर या पार सिद्ध कर दिया जाता है। मैं कह दूँ की इसका वजन (ग्लास को दिखाते हुए) अट्ठारह किलो है, तो आप एक वजन नापने की मशीन लाओगे ऐसे रखोगे और सिद्ध कर दोगे की अठारह किलो तुम झूठ बोल रहे थे।

पर मैं कहूँ की मेरे पितरों की आत्मा यहाँ सब तैर रहीं हैं, आप कैसे सिद्ध करोगे कि मैं झूठ बोल रहा हूँ? सिद्ध करो। मैं कहूँ कि मेरा लड़का नहीं हो रहा था पर मैंने फलाने बाबा जी का जाके चरणामृत पीया या पता नहीं क्या पिया और पत्नी को भी वही पिलाया तो मेरा लड़का हो गया।

आप कैसे सिद्ध करोगे कि लड़का चरणामृत से नहीं हुआ है? जो कौज़ल रिलेशनशिप है, जो कारणता है उसको प्रमाणित नहीं करा जा सकता ना अप्रमाणित करा जा सकता है। ठीक है।

मैं अपनी पत्नी के ऊपर दस साल से रोज लदता था, पर पुत्र रत्न पैदा ही नहीं हो रहे थे, पुत्रियाँ आ गईं थी- अठ्ठारह। फिर मैं गया बाबा जी के पास, बाबाजी ने “हु लू लू लू” मंत्र दे रहे हैं, कान में मंत्र दे रहे हैं, मंत्र है इसको अपना दोहराया करो और फिर लड़का पैदा हो गया। अब तुम कैसे सिद्ध करोगे की वो लड़का बाबाजी के वजह से पैदा हुआ है कि नहीं हुआ है, कैसे सिद्ध करोगे?

प्रश्नकर्ता: वो बोलेंगे कुछ तो है।

आचार्य प्रशांत: कुछ तो है। अब वो ग्लास जैसी ईमानदार चीज़ नहीं है ना कि वजन था, नाप लिया, पक्का हो गया की अठारह किलो की नहीं है, बात खत्म हो गई। अब इससे तो उम्मीद रखी नहीं जा सकती अठारह किलो की, लेकिन बाबा जी से और धारणाओं से, अंधविश्वासों से, उम्मीद टूट नहीं सकती क्योंकि उनको फॉल्सिफाई करने का, उनको असत्य प्रमाणित करने का कोई तरीका होता नहीं है।

तो उम्मीद अखंड बनी रहती है। तो आदमी फिर कभी आगे नहीं जाता, बियौंड नहीं जाता, ट्रांसेंड नहीं करता, वो उन्ही चीज़ों में बस लिपट के रह जाता है, हमेशा के लिए, उन्ही चीज़ों में वो फंसा रह जाता है। आगे बढ़ने के लिए अभी सूत्र है, इसको समझ लीजिए।

जीवन में आगे बढ़ने के लिए पीछे की उम्मीद का टूटना बहुत जरूरी है। आप जहाँ रह रहे हो, अगर आपको उम्मीद बनी हुई है कि वहाँ रहते रहते ही आप कर जाओगे, आपकी प्रगति हो जाएगी तो आप कभी नहीं छोड़ोगे। आप आगे बढ़ पाओ, आप बेहतर जगह पहुँच पाओ, इसके लिए पहले उम्मीद टूटे कि आप जहाँ हो वहाँ कुछ नहीं हो सकता।

लेकिन अगर वो उम्मीद अपने किसी इंटैन्जिबल चीज़ पर डाल दी है, हवा में तैर रही है, मेरी ऐसी धारणा है, हमारे यहाँ ऐसा माना जाता है, वो आपने इंटैन्जिबल चीज़ पर डाल दी है तो उम्मीद कभी टूटेगी नहीं। जब उम्मीद कभी टूटेगी नहीं, पूरी तरह से, तो आप कभी आगे बढ़ोगे नहीं।

ये सब शिक्षा के अभाव से हो रहा है। और कोई बात नहीं है। भारत में सबसे कम साक्षरता दर अगर कहीं पर है, तो हमारे इन्हीं राज्यों में है और जिनको हम साक्षर बोलते भी हैं, वो ज़्यादातर नकली साक्षर है। जिस दिन सचमुच ही साक्षर होने लग गए हमारे यूपी, बिहार, उस दिन भारत का और पूरी दुनिया का नक्शा बदल जाएगा। मानवता जैसी है, ऐसी नहीं रह जाएगी।

समझ में आ रही है बात?

प्रश्नकर्ता: जी

आचार्य प्रशांत: डिसअपॉइंटमेंट, फुल डिसअपॉइंटमेंट हमें कभी होता नहीं है। इसमें (ग्लास को दिखाते हुए) फुल डिसअपॉइंटमेंट हम अफोर्ड कर लेते हैं। थोड़ा हींग्लिश बोल रहा हूँ, पता नहीं लोग कारणता समझ रहे है की नहीं।

इसमें फुल डिसअपॉइंटमेंट हम अफोर्ड कर लेते है क्यूँकी इसमें कोई इमोशनल इनवेस्टमेंट नहीं है न। लग रहा था, किसी ने कहा कि अठारह किलो का हमने नापा, अठारह किलो का निकला नहीं, तो हमने कहा, ‘नहीं है अठारह किलो का, इससे उम्मीद छोड़ दो’ क्यूँकी इससे कोई नाता नहीं था, इससे हमारे कोई धार्मिक संस्कार नहीं जुड़े हुए थे। तो हम कह देते हैं इसको छोड़ दो।

लेकिन जिन चीजों के साथ आपने भावना जोड़ दी और कह दिया कि संस्कृति है और गौरव है, वो सब जोड़ दिया, वहाँ पर पहली बात तो साबित हो नहीं सकता कि वो चीज़ नकली है। और दूसरी बात साबित हो भी जाए तो आपका जो झूठा भ्रम है, गौरव है, अहंकार है, वो आपको उन चीजों को छोड़ने नहीं देता। जब छोड़ने नहीं देता तो आप उन में फँसे रह जाते हो। जब फँसे रह जाते हो तो कभी आगे बढ़ नहीं पाते।

तो फिर जो समाज में हो रहा है, वही फिल्म में दिखाई देता है। जो समाज में हो रहा है, फिल्मों में दिखाई देता है। फिल्म समाज से अलग थोड़ी हो सकती है। समाज ही बहुत टुच्ची चीजों में फँसा हुआ है तो फिल्मों में भी वह टुच्चइ दिखाई देती है।

सिर्फ एक इसका उपाय है- शिक्षा। और शिक्षा के लिए, कभी भी शिक्षा मंत्री पर शिक्षा विभाग पर आश्रित मत रह जाइएगा। क्योंकि अगर जन मानस इलेक्टोरेट शिक्षित हो गया तो फिर इन नेताओं का क्या होगा? बहुत सारी पार्टियाँ हैं वो तो चल ही सिर्फ तब तक सकती है जब तक की वोटर अशिक्षित है। तो वो तो और कोशिश करती है कि शिक्षा फैलने न पाए। क्योंकि अगर थोड़ा-सा भी शिक्षित और समझदार हो गया वोटर तो उन पार्टियों ने जो झूठ और प्रोपेगेंडा और फालतू प्रचार कर रखा है, और तमाम तरह की साजिशें उनको उठा के लात मार के फेंक देगा बाहर।

शिक्षा की ज़रूरत है और शिक्षा से आशय मेरा यह तो है ही कि आपको समाजशास्त्र का पता हो, आपको भूगोल का पता, इतिहास का पता हो, गणित का पता हो और लॉजिक का, तर्क का बहुत जरूरी है पता हो। और अपना भी पता हो, आंतरिक शिक्षा माने अध्यात्म।

ये जब आता है तो आदमी फिर आगे को बढ़ता है। ये आता है तो फिर इसकी, इसकी आहट, इसके आगमन की गूंज, आपकी कलाओं में दिखाई देती है, जिसमें फिल्में भी शामिल है, जिसमें साहित्य भी शामिल है।

हम बहुत गलत तरह की धारणाओं के मकड़जाल में फँस गए हैं। हमे एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान की ज़रूरत है, पुनर्जागरण की ज़रूरत है। संस्कृति के नाम पर हमने बहुत कचरा कूड़ा, बहुत सारी अपनी गंदी आदतों को पूजना शुरू कर दिया है। हम जानते भी नहीं संस्कृति होती क्या है और जहाँ जो अंधविश्वास, जो रुढी, जो पुरानी, सड़ी, गली, प्रथा आदत चल रही है, हम उसी को पूज रहे हैं। और अगर हम यही पूजते रहेंगे तो वही होता रहेगा जिसको देख के आपको दुख है।

वो जो सड़ांध है वो आपको गानों में भी दिखाई देगी, फिल्मों में दिखाई देगी, टूटी हुई सड़कों में दिखाई देगी, गंदे मकानों में दिखाई देगी, सरकारी दफ्तरों के भ्रष्टाचार में दिखाई देगी, हर जगह आपको जो भीतरी हमारी संस्कृति है, उसकी दुर्गंध बाहर दिखाई देगी।

भारत को इस वक्त वास्तविक धर्म की ज़रूरत है। हमें शिव चाहिए, हमें तांडव चाहिए। भारत के पास बहुत सारा सड़ा, पुराना, कचड़ा, कूड़ा इकट्ठा हो गया है। हमें सफाई की ज़रुरत है। आज भारत में धर्म का मतलब ही होना चाहिए शिवत्व।

हमें एक प्रकार की आंतरिक प्रलय चाहिए कि भीतर हमारे जो कुछ भी बहुत पुराना जमा हो गया है, वो सब बिल्कुल राख हो जाए। तांडव चाहिए भीतर। या फिर बिहार को कोई बुद्ध मिल जाए जो कह दे कि जिसको तुम आज तक आत्मा बोलते हो वो अनात्मा है। जो कह दे कि जिसको तुम आज तक अर्थपूर्ण मानते आए हो वो शून्य है।

इस अर्थ में बुद्ध बिल्कुल शिव है। प्रलय ही करी थी, बुद्ध ने। सब तोड़ दिया था। बिहार को बहुत ज़रूरत है। आमूलचूल विध्वंस चाहिए। ये पुरानी सड़ी कांपती बुनियाद पर कोई नया भवन खड़ा नहीं हो पाएगा। बुनियाद में ही डायनामाइट लगाना पड़ेगा, भीतर महादेव से आग्रह करिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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