क्या हमारे शरीर में देवी-देवताओं का प्रवेश संभव है?

Acharya Prashant

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क्या हमारे शरीर में देवी-देवताओं का प्रवेश संभव है?
देवी इत्यादि किसी के शरीर में नहीं प्रवेश करती, ये निश्चित रूप से एक मानसिक बात है। और इसीलिए ये चीज़ पाई वहीं पर जाती है ज़्यादा, जहाँ पर इस तरह की भ्रांतियाँ प्रचलित होती हैं। जिसके मन में ये बात पहले से होगी कि देवी इत्यादि प्रवेश करती हैं, वहाँ ये चीज़ खूब होगी। पुराने आदिवासी कबीलों में चले जाओ, वहाँ नियमित रूप से ऐसा होता है कि किसी पर कोई आकर के पुरखा सवार हो गया या किसी पर आकर के कुल देवता सवार हो गया। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर, क्या हमारे शरीर में देवी-देवताओं का प्रवेश संभव है, जैसे अक्सर कहा जाता है कि “शरीर में माता आ गई” और जिनके शरीर में आई, उनके हाव-भाव बदल गए। यह सच्चाई है, कोई मानसिक भ्रम, अंधविश्वास या कुछ और?

आचार्य प्रशांत: देखो, शरीर भौतिक है, तो शरीर में तो भौतिक चीज़ें ही प्रवेश लेंगी न, बहुत सीधा सिद्धांत है। शरीर क्या है? भौतिक, पदार्थ है, मैटेरियल है न शरीर, तो उसमें कैसे कोई चीज़ घुसेगी? तुम्हारे नथनों में हवा घुसती है, हवा क्या है? मॉलीक्यूल होते हैं उसमें वो प्रवेश कर जाते हैं भीतर। तुम्हारे हाथ में रंग लग जाता है या मैल लग जाती है, वो सब चीज़ें भी क्या हैं? वो पदार्थ हैं, रसायन हैं, केमिकल्स हैं, वो तुम्हारे शरीर के साथ जुड़ जाते हैं। हो सकता है तुम्हारी खाल से तुम्हारे भीतर भी आ जाएँ। तुम खाना खाते हो, वो खाना भी पूरा क्या है? वो भी रसायनों का एक समूह ही है।

तो भौतिक शरीर में भौतिक चीज़ें ही तो प्रवेश करेंगी न। तो देवी-देवता अगर तुम कहते हो तुम्हारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, तो फिर वो भी भौतिक हुए। और अगर वे भौतिक हैं, तो फिर इसी दुनिया में कहीं न कहीं रहते हैं। ये खुशख़बरी जैसी तो लगती है बात, कि इसी दुनिया में कहीं न कहीं हैं, तो कभी मिल जाएँगे क्या पता। लेकिन ये बात फिर उनके स्तर को भी बहुत गिरा देती है। देवी-देवता तो आदर के पात्र हैं न, तुम क्यों उनका स्तर गिराना चाहते हो? क्योंकि जो कुछ भी इस दुनिया का है, वो तो इस दुनिया के दोषों से युक्त होगा न। जो भी इस दुनिया का है, वो तो फिर कभी जन्मेगा, कभी जिएगा, बीमार पड़ेगा, बूढ़ा होगा और मर भी जाएगा।

लेकिन हम तो अपने देवी-देवताओं को जिस रूप में चित्रित करते हैं, जैसे उनकी मूर्तियाँ होती हैं, क्या तुमने उनकी उम्र को कभी बढ़ते घटते देखा है? अगर उनकी उम्र बढ़ घट नहीं रही है, अगर उनकी मृत्यु नहीं हो रही है, तो इसका मतलब वो इस दुनिया के नहीं हो सकते। इस दुनिया में तो जो कुछ भी है, वो बदलेगा। पर क्या देवताओं की मूर्तियाँ बदली हैं, कम से कम पिछले कुछ हज़ार सालों में? तो निश्चित रूप से वो इस दुनिया के नहीं हैं। और अगर वो इस दुनिया के नहीं हैं, तो तुम्हारे शरीर में प्रवेश नहीं कर सकते। क्योंकि शरीर में तो सिर्फ़ इसी दुनिया की कोई चीज़ प्रवेश करेगी।

कोई चीज़ कहीं और से आकर तुम्हारे शरीर में प्रवेश करती हो, तो समझ लो वो चीज़ भी जहाँ से आ रही है, वह दुनिया भी इसी दुनिया का हिस्सा है।

भई ऐसे समझो, पृथ्वी है, इस पृथ्वी पर कभी-कभी बाहर से आकर बड़े-बड़े पत्थर गिरते हैं, एस्ट्रॉइड्स, समझ रहे हो? या ये जो तुम देखते हो, उल्काएँ रात में, शूटिंग स्टार्स। ये भी पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करते हैं। बड़ी-बड़ी चट्टानें होती हैं, जो पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करती हैं, घर्षण से इनमें आग लग जाती है, फिर इनकी राख आकर पृथ्वी पर गिरती है। तो तुम कह सकते हो कि पृथ्वी पर देखो, बाहर से कोई चीज़ आ गई। उनमें हो सकता है कई बार ऐसे भी एलिमेंट्स हों, जो पृथ्वी पर पाए नहीं जाते। जानते हो, ऐसा नहीं है कि जितने एलिमेंट्स, जितने तत्व तुम्हारे केमिस्ट्री में पीरियोडिक टेबल में होते हैं, दुनिया में उतने ही होने संभव हैं, और भी हो सकते हैं लेकिन वो पृथ्वी पर नहीं पाए जाते।

लेकिन वो अंतरिक्ष में और जगहों पर होते हैं। कई बार ऐसा होता है कि बाहर से कोई चट्टान आई, पृथ्वी पर गिरी, और वहाँ थोड़ी सी मात्रा में एक नया एलिमेंट ही मिल गया। ऐसा भी होता है। लेकिन क्या इसका मतलब ये है कि वो चट्टान, जहाँ से आ रही है, दूसरी दुनिया का हिस्सा है? नहीं, वो भी इसी दुनिया का तो हिस्सा है। समझ में आ रही है बात? भले ही तुम उससे परिचित नहीं थे, पर वो थी तो यही दुनिया न, कोई दूसरी दुनिया तो नहीं हो गई।

तो माने जो भी कुछ तुम्हारे जीवन में प्रवेश कर सकता है, तुम्हारे शरीर में प्रवेश कर सकता है, तुम्हारी दुनिया में प्रवेश कर सकता है, वो इसी दुनिया का हिस्सा है। कोई दूसरी दुनिया है ही नहीं। एक ही दुनिया है, जिसको कहते हैं मानसिक दुनिया। उसको मानसिक दुनिया क्यों कहते हैं? क्योंकि मन उसकी जाँच-पड़ताल कर सकता है। मन उसके बारे में सोच सकता है, मन उसका संज्ञान ले सकता है। मन उसकी तरफ़ बढ़ सकता है।

दुनिया की परिभाषा ही क्या है? जिसकी मन कल्पना कर सके, वो दुनिया।

मन जिसकी कल्पना कर सके, वो दुनिया। तो अलग-अलग दुनिया नहीं हो सकती। एक ही दुनिया है, क्योंकि कल्पना करने वाला मन तो एक ही है न।

मन अगर कल्पना कर रहा है, तो जिसकी कल्पना कर रहा है मन, वो चीज़ दुनिया की हो गई, दुनियावी हो गई। समझ में आ रही बात? और मन जिसकी कल्पना कर रहा है, सिर्फ़ वही चीज़ तुम्हारे शरीर में, जीवन में आ सकती है। मन हो सकता है उसकी कल्पना तब तक न कर पाता हो जब तक मन उसको देख न लेता हो, पर जब देख लेगा तब कर लेगा उसकी कल्पना, तब उसको नाम दे लेगा।

तो देवी इत्यादि किसी के शरीर में नहीं प्रवेश करती, ये निश्चित रूप से एक मानसिक बात है। और इसीलिए ये चीज़ पाई वहीं पर जाती है ज़्यादा, जहाँ पर इस तरह की भ्रांतियाँ प्रचलित होती हैं। जिसके मन में ये बात पहले से होगी कि देवी इत्यादि प्रवेश करती हैं, वहाँ ये चीज़ खूब होगी। पुराने आदिवासी कबीलों में चले जाओ, वहाँ नियमित रूप से ऐसा होता है कि किसी पर कोई आकर के पुरखा सवार हो गया या किसी पर आकर के कुल देवता सवार हो गया।

और दूसरे तरीक़े के समाज हैं वहाँ चले जाओ, वहाँ ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। तुम किसी स्कैंडिनेवियन देश में चले जाओ, जो शिक्षा में बहुत उन्नत है, जहाँ वैज्ञानिक सोच बड़ी गहरी है, वहाँ तुम नहीं पाओगे कि किसी पर भी कोई पुरखा, कोई मृतक, या कोई देवी इत्यादि आकर सवार हो रही है।

तो ये बातें मन की हैं। जो मानता है, उसको होती हैं; जो नहीं मानता, उसको नहीं होंगी। मानने के कारण ही होती हैं। इनका कारण ये नहीं है कि बाहर कोई घूम रही थी रूह वग़ैरह या देवी वग़ैरह, जो भीतर प्रवेश कर गई। इसका कारण ये है कि तुम ऐसा मान रहे थे, इसलिए तुम्हें ऐसा लग रहा है। तुम मानना छोड़ दो, लगना बंद हो जाएगा। ये जीवन का बड़ा महत्त्वपूर्ण नियम है, आप सब समझ लें।

ऐसा मत समझ लेना कि तुम्हारे अनुभवों में कोई सच्चाई होती है। अक्सर तुम्हें वही अनुभव होता है, जिसके लिए तुम तैयार बैठे होते हो। जिस चीज़ को तुम माने ही बैठे हो कि “ऐसा है, ऐसा है,” वो चीज़ तुम्हें लगने भी लगती है कि हो गई।

तो इसलिए बहुत सावधान रहा करो अपनी मान्यताओं को लेकर के। जिस चीज़ को लेकर तुम बहुत आश्वस्त हो जाओगे, वो चीज़ तुम्हारी ज़िंदगी में प्रवेश भी कर जाएगी। तुम दिन-रात अपने आप को यही बताओ कि “फलानी चीज़ है मेरे साथ, फलानी चीज़ है मेरे साथ।” वो चीज़ तुम पाओगे, तुम्हें होने भी लग जाएगी। वो चीज़ वास्तव में नहीं हुई है, पर तुम्हारा अनुभव ऐसा होने लग जाएगा।

इसलिए अनुभव सब झूठ होते हैं न, इसलिए बोधवान आदमी कभी अनुभवों को बहुत गंभीरता से नहीं लेता। उसे पता है कि ये जो अनुभव करने वाला है, अनुभोक्ता, मन, ये अपने ही भ्रमों का ख़ुद ही शिकार रहता है, अपने जाल में ख़ुद ही फँसा रहता है। मैं क्या इस पर यकीन करूँ। आ रही बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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