विवरण: नमस्कार। मैं, राणा यशवंत, आपका स्वागत करता हूं।
हिंदू समाज में सदियों पुरानी एक परंपरा रही है और वह समागम की है। समागम जिसमें समाज के सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक इन तीनों पक्ष के लिए पाठ्यक्रम सिलेबस तैयार किए जाते रहे। और इस परंपरा को हम कुंभ कहते हैं। कुंभ की जो पौराणिक कहानी है, वह यह कहती है कि देवताओं और दानवों के बीच में युद्ध हुआ।
युद्ध जो है समुद्र मंथन के दौरान जो आखिर में अमृत निकला, उसको हासिल करने के लिए। विष्णु ने इंद्र के बेटे जयंत को कलश दिया कि लो और तुम भागो। और जयंत के पीछे दानव गए। फिर जयंत को उन्होंने पकड़ा और उस युद्ध के भीतर जो चार बूंदे छलकी: प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। इन चार जगहों पर गिरी। और इन चार जगहों पर महाकुंभ का आयोजन होता रहा है। पौराणिक कथा यह है। इसके भी अपने कुछ निहितार्थ होंगे। इसके भी अपने कुछ मायने होंगे। और यह जो लगातार एक बड़ा समाज दुनिया का रहा है। जो हर बारह वर्ष पर बैठता रहा है महाकुंभ के नाते। उसका अपना कुछ सामाजिक आध्यात्मिक और धार्मिक पक्ष होगा। उसके अपने अर्थ होंगे। इसको समझने के लिए आज मेरे साथ आचार्य प्रशांत जी हैं। आपका बहुत-बहुत स्वागत है।
आचार्य प्रशांत: हां, जी।
प्रश्नकर्ता: कुंभ कलश ये जो पौराणिक कथा है, ये क्या कहती है यानी कि सिर्फ कथा भर है या इसके अपने कुछ अर्थ भी हैं।
आचार्य प्रशांत: बहुत गहरे अर्थ हैं। बहुत गहरे अर्थ हैं। पुराणों की कथाओं को अगर सिर्फ किस्सा कहानी मान लिया तो धर्म मनोरंजन बनकर रह जाता है। लेकिन दर्शन के, वेदों के, वेदों के दर्शन यानि वेदांत के प्रकाश में अगर पुराणों की कथा को समझ लिया तो वह कथा फिर बोध बन जाती है। मनोरंजन नहीं बनती और कथा दोनों चीजें बन सकती है।
समझा नहीं तो फिर वो वही है कि हां कहानी है, मनोरंजन हुआ मजा आ गया। और दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत ने पुराणों को ज्यादातर बस कथा, कहानी, किस्से की तरह ही इस्तेमाल करा। बड़ा मजा आता है कि अपना अच्छा ऐसा हुआ फिर ऐसा हुआ। उसको ऐसा मान लिया जैसे ऐतिहासिक घटना हो। उसका जैसे आपने कहा ना निहितार्थ, उसके मर्म में क्या बात छुपी हुई है? वो किस ओर इंगित कर रहा है? उसका प्रतीकात्मक अर्थ क्या है? भारत इससे ज्यादातर अपने आप को वंचित करता रहा है। लेकिन हम समझ ले तो बहुत आनंद आएगा।
अब तो कुंभ का मौका है। समझने के लिए उपयुक्त अवसर है। पहली बात क्या है? सारी चीज मृत्यु से बचने के लिए हो रही है। अमर हो जाओगे, अमर हो जाओगे, कुंभ में अमृत है, अमर हो जाओगे। कौन है जो मरता है और अमर होना चाहता है? वो कौन है, वेदांत हमसे कहता है उसका नाम है अहंकार ‘मैं’। हम कहते हैं ना मैं मर जाऊंगा, मैंने जन्म लिया मेरा जीवन है, मेरी मृत्यु होगी तो यह मैं है जो सदा मृत्यु के भय में रहता है। ये मैं है जो सदा कहता रहता है मृत्यु ना हो जाए। हर आदमी घबरा हुआ है मौत से। और जो पूरा जीवन है, सृष्टि है, वह लगातार आपको बता रही है कि मृत्यु मृत्यु मृत्यु। हर जगह आप कुछ ना कुछ बदलता देख रहे हैं। कुछ बीतता देख रहे हैं वो मृत्यु जैसी ही बात है। जो अभी है वह कल नहीं। होता भी है तो बदल जाता है। वो मृत्यु ही है आदमी उसी से घबराया रहता है वही हमारी मूल बेचैनी है मृत्यु।
अब मृत्यु से दोनों घबराए हुए हैं। देव भी और दानव भी। तो तो यह किसके प्रतीक हैं? दोनों अहंकार के ही प्रतीक हैं। क्योंकि मौत से तो अहंकार ही घबराता है। दोनों घबराएं तो दोनों अहंकार के ही प्रतीक हैं।
दोनों अहंकार के प्रतीक है तो एक सुर क्यों? एक असुर क्यों? क्योंकि अहंकार दो तरह का हो सकता है। एक अहंकार होता है सत्यमुखी और एक अहंकार होता है माया। दोनों अहंकारी मुक्त नहीं है। अहम् मतलब जो अभी एक भ्रम तो पाले हुए, उसको कहते हैं क्या?
प्रश्नकर्ता: पर दोनों में अंतर क्या है?
आचार्य प्रशांत: दोनों का अंतर यह है कि दोनों बंधे हैं पर एक मुक्ति की दिशा में देख रहा है और एक माया की दिशा में देख रहा है। बंधन में दोनों जैसे दो इंसानों में अंतर होता है ना कि दोनों अब मनुष्य का जन्म लेकर पैदा हो गए हैं। दोनों देहधारी हैं। पर एक कह रहा है कि जीवन योग के लिए है और दूसरा कह रहा है जीवन भोग के लिए है। एक कह रहा है कि जीवन मुक्ति के लिए और दूसरा कह रहा है जीवन भक्ति के लिए है। ये सुर और असुर का अंतर है। दोनों अहंकार के ही प्रतिनिधि है। दोनों अहम् ‘मैं’ है: ईगो, दोनों उसी के प्रतीक है। पर ईगो दो तरह की हो सकती है। एक ईगो जो लिबरेशन की राह तक रही हो, जिसको सत्य से प्यार हो और दूसरी ईगो जो कह रही हो नहीं भाई यहीं पे अपनी कामनाएं पूरी करो, मौज करो। इसीलिए तो पैदा हुए हैं। लिबरेशन वगैरह कुछ नहीं है।
प्रश्नकर्ता: यावज्जीवेत सुखं जीवेद…
आचार्य प्रशांत: हां कुछ-कुछ वैसी ही बात कि जैसे भी हो जिस भी साधन से हो, कुछ उल्टा पुल्टा करके हो लेकिन सुख को हासिल करो। भले ही वो जो सुख है वो अपने साथ कितना भी दुख लेके आ जाए पर दो पल के लिए सही मौज आ जाएगी। तो यह जो दो पल की मौज वाला खेल है यह असुरों का है। हम देवता भी अहंकारी हैं तो वो भी ऐसा नहीं है कि कोई बिल्कुल परम हो गए, मुक्त हो गए तो गड़बड़ियां वो भी बहुत करते हैं। इसीलिए वो अक्सर दानवों द्वारा पीटे भी जाते हैं। लेकिन उनके साथ भली बात यह है कि जब वो पीटे जाते हैं तो फिर वो परम की शरण में चले जाते हैं। दानवों को आप नहीं पाओगे कि जो परम है, अल्टीमेट है, उच्चतम है, जिनको हम भगवान के नाम से संबोधित कर सकते हैं, सत्य बोल सकते हैं, आत्मा बोल सकते हैं; उनके पास आप दानवों को जाता नहीं देखोगे।
तो देवता भी भ्रमित होते हैं। देवता भी अपनी कामनाओं के जाल में फंस जाते हैं। देवता भी मदमस्त हो जाते हैं। पर जब फिर उनकी कम से कम दुर्दशा होती है तो चले जाते हैं भगवान के पास। तो अब यह दोनों अहंकार के प्रतीक हैं और अहंकार मौत से घबराया रहता है। तो मौत से बचने के लिए अब दोनों क्या कर रहे हैं। कह रहे हैं कि चलो हम करेंगे समुद्र मंथन। इनको खबर लग गई है कि समुद्र का मंथन करने से कुछ ऐसा हो जाता है कि आदमी मृत्यु के पार चला जाता है।
अब मृत्यु इतना बड़ा खतरा होती है कि उसके लिए देवताओं और दानवों ने भी आपस में संधि कर ली। अभी इससे हमें अहंकार की प्रकृति के बारे में ज़बरदस्त तरीके की अंतर्दृष्टि माने इंसाइट्स मिल रही हैं कि देवता और दानव भी कोलैबोरेशन कर रहे हैं। उनमें भी संधि हो गई है। मौत इतनी ज़बरदस्त चीज़ होती है कि वो दुश्मन को भी दोस्त बना देती है थोड़ी देर के लिए। अभी इनकी दुश्मनी आगे चलकर के फिर सामने आ जाएगी।
ये हम कथा के अर्थ में प्रवेश कर रहे हैं। तो ये दोनों मिलकर के लगते हैं अपना वो वासुकी पर्वत…. सबसे पहले क्या निकल पड़ता है? हलाहल, हलाहल। कहां से हलाहल निकल पड़ा है? अगर ये दोनों अहंकार के प्रतीक हैं तो ये मंथन किसका प्रतीक है? किस चीज का मंथन हो रहा है?
तो ये आत्म मंथन हो रहा है। है क्योंकि वेदांत कहता है कि अमरता तुम्हारे केंद्र का नाम है। तुम अपने केंद्र से बहुत छिटक गए हो इसलिए तुम मृत्यु धर्मा हो गए हो। तुम्हें अपने ही भीतर जाना पड़ेगा। जो अपने भीतर एकदम गहराई तक पहुंच गया वो अमर हो जाता है। पर अपने भीतर जाने के लिए अपना ही मंथन करना पड़ता है। तो जो समुद्र मंथन है यह कौन सा समुद्र है? भवसागर है। भव माने होना। यह मेरे होने का सागर है। तो ये दोनों मिलकर के अपना ही मंथन कर रहे हैं। कोई यह ना सोचे कि सचमुच कहीं पर कोई ऐसा समुद्र था और वहां पर नाग की रस्सी बना करके और पर्वत के माध्यम से ऐसे ऐसे उसको दूहा जा रहा है। वह नहीं हो रहा है।
प्रश्नकर्ता: सांकेतिक है।
आचार्य प्रशांत: वो सांकेतिक है और बड़े मीठे तरीके से सांकेतिक है। जिन्होंने कथा दी, उन्होंने हम पे भरोसा करा कि हम कथा का निहितार्थ समझ पाएंगे। अब हम खुद ऐसे मूर्ख निकले हैं कि हम उसमें से कोई अर्थ ना निकाले। हम सोचने लग जाए कि सचमुच कहीं इतना बड़ा सांप होता है कि उसका जो इस्तेमाल है वह रस्सी की तरह करा जाएगा। और यह तो फिर हमारा अनाड़ीपन है। तो जब अपना मंथन किया गया सत्य को पाने के उद्देश्य से तो सत्य तो नहीं मिला। सबसे पहले ज़हर मिल गया। हलाहल विष।
इससे पता क्या चलता है कि जब भी आत्म में प्रवेश करोगे, जब भी देखना चाहोगे कि मैं कौन हूं, मेरी जिंदगी क्या है? यही है स्वयं में प्रवेश करना। तो सबसे पहले तुम्हें प्रचंड विरोध मिलेगा स्वयं से ही। जो भी कोई ध्यानस्थ जीवन जीना चाहता है, जो भी कोई आत्म अवलोकन करना चाहता है, वो पाता है कि जैसे ही खुद को देखना शुरू करता है बड़ा बुरा लगता है। ज़हर उसका प्रतीक है। क्योंकि खुद को देखोगे तो सबसे पहले अपना ज़हर ही दिखाई देगा। हमारे पास है ही इतना ज्यादा ज़हर।
हमारी जो ज़िंदगी है वो आंतरिक तौर पे बड़ी विषैली है। टॉक्सिक है। हलाहल उसका प्रतीक है। वो निकलता है। अब वो निकलता है तो अब आपके सामने दो रास्ते हैं। एक तो यह कि घबरा के भाग जाओ। और यह जो मंथन की प्रक्रिया है इसको ही रोक दो। कह दो कि भाई शुरू में ही ज़हर निकल रहा है। आगे पता नहीं क्या निकलेगा। अमरता की तलाश में सीधे मौत निकल पड़ेगी। बंद करो यह सब। पर ऐसा होता नहीं है।
कथा हमसे कहती है कि अब उसको लेकर के महादेव के पास जाते हैं और महादेव कहते हैं, ‘लाओ और उसको धारण कर लेते हैं। नीलकंठ हो जाते हैं।’ वो विष यहां पर अपने (गले की ओर इशारा करते हुए) उनके स्थित हो जाता है। अर्थ क्या है इस बात का? कोई यह थोड़ी है कि सचमुच ज़हर लेकर गए थे और अर्थ क्या है? बड़ा गहरा, बड़ा प्यारा अर्थ है इसका। इसका अर्थ यह है कि जब तुम कोई ऊंची शुद्धि की, आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू करो और पाओ कि भीतर से विरोध आ रहा है तो तुम्हारे जीवन में कोई ऐसा होना चाहिए जो तुम्हें सहारा दे सके, जो तुम्हारी ज़िंदगी के विष को अपने ऊपर ले सके। जो कहे कि प्रक्रिया रोक मत देना मैं तुम्हारे साथ खड़ा हूं। लाओ मुझे दे दो ज़हर।
यह ज़हर तुम्हें बर्बाद कर देता पर मुझे बर्बाद नहीं करेगा। मैं महादेव हूं, मैं इसको यहां धारण कर लूंगा। मुझ में यह सामर्थ्य है कि मैं विष भी पीकर नहीं मरूंगा। तुम में वो सामर्थ्य नहीं है। लाओ, ये मुझे दे दो। तो वह जो फिर प्रतीक है वह हो गया ‘गुरु’ का, ‘महागुरु’ का, ‘गुरुओं के गुरु’ का, महागुरु महादेव का हो गया। कि उन्होंने ले लिया और कहा कि लाओ मैं अपने ऊपर धारण कर लेता हूं। तुम अपना कार्यक्रम जारी रखो। तो ज़हर निकल गया जो सबसे गड़बड़ चीज हो सकती थी वो सबसे शुरू में आ गई वो निकल गई।
अब उसके बाद जो है बढ़िया बढ़िया चीजें निकलने लग गई। और पुराण में बड़ा विस्तार से उल्लेख आता है कि क्या-क्या उसमें से वस्तुएं निकलती है। कुछ मुझे याद हैं, कुछ नहीं याद है। पर वो जो कुछ निकलता है एरावत हाथी निकलता है, वहां से और कल्पवृक्ष निकलता है वहां से और कामधेनु निकलती है जात-पारजात ये सब काफी सारा है। देवियां निकलती हैं और रत्न कई प्रकार के निकलते हैं तो ये है कि एक बार तुम ज़हर से गुजर गए अपने भीतरी तो फिर वहां तुम्हें कुछ मूल्य का मिलने लग जाएगा। पर वो जो मूल्य का मिल रहा है तुम उस पर रुक गए तो अमृत नहीं।
एक बार जो ज़हर है उसको पार कर गए भीतरी, इतना तुमने साहस दिखा दिया कि हां मैं अपने भीतर देख रहा हूं मुझे ज़हर ही ज़हर दिख रहा है लेकिन फिर भी मैं अब स्वयं को देखने की प्रक्रिया रोकूंगा नहीं तो फिर तुम्हें अपने भीतर कुछ मूल्य का, महत्व का भी दिखाई देने लगेगा। और वो तो है ही। मूल्य का, महत्व का नहीं होता तो तुम ज़हर को पार कैसे कर पाते?
ज़हर पाने के बावजूद आत्म अवलोकन की प्रक्रिया का जारी रखना बताता है ना कि भीतर ज़हर है पर ज़हर से ज्यादा साहस है। साहस ना होता और श्रद्धा ना होती तो ज़हर से घबरा कर भाग जाते। तो वही जो फिर साहस है, श्रद्धा है वो फिर उसके प्रतीक आते हैं कि ये रत्न हो गए कि कामधेनु हो गई, कल्पवृक्ष हो गया। वो सब उसके प्रतीक हैं। तो वो सब निकलते हैं अपना देव दानव उनका निपटारा कर लेते हैं।
अभी तक कोई समस्या नहीं है। क्योंकि इनसे तो काम बनना भी नहीं है कि रत्न मिल गया कि कल्पवृक्ष मिल गया कि बढ़िया वाली अपनी कामधेनु मिल गई। उससे तो होना भी नहीं है। चाहिए क्या है? अमृत।
अमरता चाहिए अमरता। तो अब अमरता के लिए अपना कार्यक्रम जारी रहता है। अब अमरता फिर मिल भी जाती है वहां से कुंभ एक निकलता है जिसमें अमृत होता है। वो जो कुंभ है वह प्रतीक है सत्य का, वो प्रतीक है आत्मा का, वो प्रतीक है उस बिंदु का जिस तक पहुंचने के लिए हम सब पैदा होते हैं। हमारा जन्म ना तो विष पीते रहने के लिए हुआ है। ना हमारा जन्म रत्नों, आभूषणों और कल्पनाओं में और कामनाओं में जिनके प्रतीक यह सब हैं कि अप्सराएं निकल रही हैं और रत्न निकल रहे हैं और कामधेनु निकल रही है और कल्पवृक्ष निकल रहे हैं। सब क्या है? ये सब कामना पूर्ति के उपाय हैं।
तो ना हमारा जन्म इसलिए हुआ है कि हम रिश्तों वगैरों के विष में फंसे रह जाएं। ना हमारा जन्म इसलिए हुआ है कि हम कामनाओं के चक्कर में पड़े रह जाए कि रत्न मिल गया कि स्त्री मिल गई कि ये हो गया वो हो गया। हमारा जन्म हुआ है अमृत तक पहुंचने के लिए। तो मंथन की प्रक्रिया तब तक चलनी चाहिए जब तक सब कुछ काट करके बिल्कुल अपने केंद्र तक ना पहुंच जाओ। कुंभ उस केंद्र का प्रतीक है।
कि एकदम यहां पर जब एकदम पहुंच जाओगे तो वहां पर अमृत मिलेगा। अमृत मिलेगा माने वो मिलेगा जो कभी मरता नहीं। क्यों नहीं मरता? क्योंकि मरती यानि बदलती तो बस वो सब चीजें हैं ना जो प्रकृति के अंतर्गत आती हैं। प्रकृति में जो कुछ है बदलता है। माने मरता है। तुम्हें वहां पहुंचना है, अपने आप को तुम्हें वो देख लेना है जो प्रकृति का है ही नहीं।
जो प्रकृति का साक्षी मात्र है। प्रकृति बदल सकती है। जो प्रकृति को देख रहा है वो कैसे बदल जाएगा? और अगर जो बदल रहा है देखने वाला तो आप यह देख लो कि अभी यह भी बदल रहा है तो आप उसके भी साक्षी हो जाओ। साक्षी होने का मतलब है प्रकृति से परे हो जाना। यही जो साक्षीत्व है इसको आप कह सकते हो अमरता या कुंभ। और इसी की बात उपनिषद् करते हैं जब वो कहते हैं, ‘मृत्योर्मामृतं गमय’। वो इसी कुंभ की बात कर रहे हैं। या जब वो कहते हैं कि ‘तमसो मा ज्योतिर्गम्य’ वो इसी प्रकाश की बात कर रहे हैं, वहीं तक पहुंचने की।
अब उपनिषद् उसको बड़े शास्त्रीय तरीके से कह देते हैं। उपनिषद् विद्वानों के लिए है। पुराण आम जनता के लिए। आम जनता के लिए कि उनकी शुरुआत तो हो जाए। उनकी शुरुआत हो जाए फिर वो उपनिषद् तक आ जाएंगे। समस्या ये हो जाती है कि लिखिए तो पुराण इसलिए कहते हैं कि शुरुआत हो जाए पर आम जनता वह पुराणों से उपनिषदों पर नहीं आती। वो पुराणों पर ही अटक कर रह जाती है। और गड़बड़ बात कई बार यह होती है कि वह पुराणों के अनुसार उपनिषदों का अर्थ शुरू कर देती है। वह यह नहीं कहती कि उपनिषदों के अनुसार पुराणों का अर्थ करना है। वो कहते हैं पुराणों के अनुसार उपनिषदों का अर्थ करना है। वो यह नहीं कहती कि भगवद्गीता के अनुसार भागवत पुराण का अर्थ करना है। वो कहते हैं भागवत पुराण के अनुसार भगवद्गीता का अर्थ करना है। बड़ी गड़बड़ हो जाती है। और ये गड़बड़ भारत में हुई है और भारत की दुर्दशा का ये, मैं समझता हूं बड़ा मूल कारण है।
तो अब उसमें से वो निकल आता है। अब जब निकल आता है तो जैसा आपने कहा कि वो जयंत उसको लेकर भागता है। वो देवताओं की तरफ से है। लेकिन वो धरा जाता है। जब धरा जाता है तो बड़ी लड़ाई छिड़ जाती है। देवताओं में और दानवों में। लड़ाई छिड़ जाती है। तो अब भगवान है। भगवान किसके प्रतीक है? उच्चतम सत्य के प्रतीक है। उच्चतम सत्य जो नित्य है जो बदल नहीं सकता। ये सब अपना आते जाते रहते हैं। वो बदल नहीं सकता। वेदांत उसको कहता है आत्मा। जो चीज बदल नहीं सकती उसे आत्मा। आत्मा माने वो नहीं वो भूत प्रेत जीवात्मा नहीं। आत्मा माने वो चीज जो एक है। हमारी आपकी आत्मा अलग नहीं। जो एक अद्वैत उच्चतम बात है उसको कहते हैं आत्मा। तो भगवान उसके प्रतीक हो गए। ठीक है?
तो भगवान कहते हैं कि यह तो ऐसे लड़ाई हो रही है और लड़ाई में कहीं यह ना हो कि देवता फिर से हार जाए। देवता अक्सर हारते रहते थे। तो फिर भगवान कहते हैं कि यह जो दानव लोग हैं इनको तो अमृत से ज्यादा मतलब होता है भोग के लिए। इन्हें तो मौज मस्ती करनी है। इन्हें तो सुख चाहिए। देवता बल्कि बेहतर होते हैं। जिनको सत्य भी चाहिए होता है। तो कहते हैं कि इन दानवों को जब सुख ही चाहिए, माया ही चाहिए तो मैं माया ही इन्हें दिए देता हूं। तो वो माया बनकर माने मोहिनी। मोह माने भ्रम तो वो मोहिनी बनकर चले जाते हैं और लगते हैं इन असुरों को अपने पाश में फांस लेते हैं। तो सब फंस जाते हैं। इतने में इधर रखा हुआ है वो कुंभ और देवता खटाखट खटाखट उसको पी के अमर होने का प्रयास शुरू कर देते हैं।
पर एक होता है उनमें से, दानवों में से। वो कहीं से समझ जाता गड़बड़ हो रही है। ये इधर हमें नचाया जा रहा है मोहिनी के द्वारा और वहां ये सारे जो देवता हैं ये अमृत साफ कर देंगे। तो वो देवता ही बन के आ जाता है, अपना रूप बदल करके और कहता है मैं भी पी लूं। वो पी भी लेता है। अमर हो जाता है। पर पकड़ा जाता है। पकड़ा कैसे जाता है?
तो कथा कहती है सूरज ने और चांद ने उस पर प्रकाश डाल दिया। कहीं कोने में छुप के पी रहा होगा। कोने में छुपकर तो टॉर्च मार दिया। तो वो दिख गया। वो दिख गया तो उसको फिर सब दौड़ा लेते। और जो उसको पीछे पीछे से दौड़ा रहे हैं उसमें देवता भी हैं और दानव भी हैं। क्योंकि अमृत तो दोनों को ही चाहिए। तो उसके हाथ कांपने लगते हैं। इतने बड़े-बड़े लोग और इतने सारे पीछे-पीछे आ रहे हैं। उसके हाथ कांपने लगते हैं। हाथ कांपने लगते हैं तो जो अमृत की बूंदे हैं वो चार जगहों पर गिर जाती हैं। और वही जो चार जगह हैं वो हमारे कुंभ की जगह हैं।
चारों नदियों के किनारे जगह हैं। वहां जाकर आप स्नान करिए। वह कुंभ है। तो यह जो पूरी बात है वह ले दे के अहंकार की प्रकृति, अहंकार की नियति और उस नियति माने मुक्ति की जो प्रक्रिया है, उसके बारे में है। तुम्हारी प्रकृति यह है कि तुम फंसे रहना चाहते हो। जैसे एक जानवर होता है ना, पैदा होता है, खाता है, पीता है और मर जाता है। तो इंसान भी उस हद तक जानवर ही होता है। यह पैदा होगा, खाएगा, पिएगा, भोगेगा, संताने पैदा करेगा और मर जाएगा। अपनी नियति तक नहीं पहुंच पाता।
नियति क्या है? कि तुम मृत्यु के पार निकल जाओ। जीते जी मृत्यु के पार निकल जाओ। माने उन सब चीजों से अपना संबंध देखना समाप्त कर दो जो मरणधर्मा है। उनको उनका काम करने दो, तुम उनके साक्षी हो जाओ। उनको रोको नहीं। ये नहीं कि तुमने शरीर को रोक दिया, बुद्धि को रोक दिया, स्मृति को रोक दिया। ये सब अपना काम करते रहे।
भगवद्गीता इस मामले में बहुत अच्छे तरीके से समझाती है। भगवद्गीता कहती है ये सब अपना काम करते हैं, मैं कुछ नहीं करता। इंद्रियां अपना काम करती है। बुद्धि अपना काम करती है। देह अपना काम करती है। पूरी प्रकृति अपनी गति करती है। मैं साक्षी मात्र हूं। यह अपना कर रहे हैं। मैं ना इनके काम को आगे बढ़ाता हूं। मैं ना इनके काम में बाधा बनता हूं। इनको मैं इनका काम करने देता हूं। भाई, शरीर को अपना काम करना है। उसके लिए बुद्धि है ना। बुद्धि भी प्रकृति है। बुद्धि शरीर को बता देगी क्या काम करना है। तो मैं साक्षी हूं। तो हमारी नियति है वहां तक पहुंचना। पर हम वहां तक पहुंच तो पाते नहीं। क्यों नहीं पहुंच पाते?
वह भी एक कथा बता देती है। क्या बीच में आ जाता है? मोह बीच में आ जाता है। बहुत तरीके के रत्न बीच में आ जाते हैं। धोखाधड़ी बीच में आ जाती है। और यह सब जब बीच में आ जाता है तो आप जीवन के अमृत से वंचित हो जाते हैं। कुंभ का उत्सव इसलिए है, कुंभ की कथा इसलिए है ताकि आपके जीवन में अमृत उतर पाए।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक आध्यात्मिक पक्ष कुंभ का है। क्या उसकी मीमांसा है। आप कह रहे हैं कि इंसान के भीतर दो तरह की वृत्तियां होती है। एक प्रवृत्ति की, एक निवृत्ति मार्ग। जो प्रवृत्ति की तरफ़ है वो असुर वृत्ति है। जो निवृत्ति की तरफ़ है वो देवताओं की वृत्ति है।
अब जितना आप आत्मचिंतन, आत्म-मंथन करते हैं, आत्म निरीक्षण करते हैं वैसे-वैसे आप अपने भीतर जाते रहते हैं तो जो टॉक्सिक आपके भीतर का है हलाहल पहले मिल जाता है। जब आप लगातार अंदर जाते रहते हैं तो आप कुंभ पाते हैं।
इसका सामाजिक पक्ष मैं देखता हूं। यह जो नदियां हैं। अब नासिक, उज्जैन, हरिद्वार प्रयागराज। यह पूरा विस्तार जो है इसमें हिंदू समाज रहता है। लोगों की जब आवाज आई है तो एक दूसरे से मेलजोल, रहन-सहन और यह जो लगातार चलते रहने की व्यवस्था बनाई गई ताकि ये पूरा हिंदू समाज जो है ना एक दूसरे से मिलता जुलता, समझता बूझता रहे और उसके बीच में संवाद चलता रहे और संगठन बना रहे। इसके सामाजिक जो पक्ष हैं, मैं चाहता हूं कुंभ का, इस पर थोड़ा सा आप विस्तार करें।
आचार्य प्रशांत: देखिए जो कुंभ मेला है ना वो सिर्फ भारत में ही नहीं और सिर्फ धार्मिक क्षेत्र में ही नहीं, वह किसी भी उद्देश्य के लिए विश्व के किसी भी कोने में मनुष्यों का सबसे बड़ा जमावड़ा है। इससे बड़ी सामुदायिकता पूरे विश्व में कभी नहीं होती। कहीं नहीं होती। किसी उद्देश्य के लिए नहीं होती।
इसके लाभ क्या है? इसका लाभ यह है कि जब आप अपने ही छोटे से क्षेत्र में रहते हो तो आप सोचने लग जाते हो कि मैं जो कर रहा हूं, मेरे इलाके में जो हो रहा है, मैं जो सोच रहा हूं, मेरी परंपरा में जो चलता रहता है, मेरे खानदान में चलता रहता है वही आखिरी है वही सत्य है क्योंकि सब लोग वही करते हैं। और जब ये सब परंपराएं बनाई गई थी उस समय तो इंटरनेट भी नहीं था। संचार के इतने साधन नहीं थे। मींस ऑफ कम्युनिकेशन कुछ नहीं था। टीवी नहीं था फोन नहीं था। कुछ आपको पता नहीं चल सकता था कि कहीं और क्या चल रहा है लेकिन जब ये गैदरिंग होती थी तो इधर से भी आ रहे हैं लोग, उधर से भी आ रहे हैं। देश के हर कोने से आ रहे हैं तो उससे क्या होगा फिर उससे विचारों का, संस्कृति का खुला आदान-प्रदान होगा। उससे क्या होगा? एक तरह की उदारता आती है। हमें देखने को मिलता है कि हम जैसे जी रहे हैं आवश्यक नहीं है कि वही एकमात्र तरीका हो जीने का।
ये दूसरा व्यक्ति है और ये बिल्कुल अलग तरीके से जी रहा है। लेकिन ये जैसे जी रहा है उसमें भी एक शान है। मुझे अच्छा लग रहा है इसको देख कर के। क्यों ना मैं जैसा यह है उससे कुछ ग्रहण करूं। पर मैं उससे कुछ ग्रहण नहीं भी करता। तो भी कम से कम मेरा अहंकार इतना तो शिथिल पड़ता है ना कि मैं अपनी ही बात को अंतिम और श्रेष्ठतम ना मानूं।
अन्यथा जो अपने ही गांव में बैठा है ना वो कहता है मेरे गांव में जो हो रहा है उससे अच्छा कुछ नहीं है और उस समय पर तो जैसा हमने कहा संचार के साधन नहीं थे तो कहावत चलती है कि हर डेढ़ कोस पर आहार-विहार, संस्कृति, भाषा, ये सब बदलते रहते थे। तो सोचिए कि कितने भिन्न-भिन्न तरीकों के लोग आपस में आकर के मिलते होंगे और मिल भी एक जगह पर नहीं रहे हैं। हर चार साल में चार अलग जगहों पर मिल रहे हैं।
और उसमें भी जितना आप दक्षिण तक उस समय जा सकते थे उतना आप जा रहे हो आप विंध्य को पार करके उधर जा रहे हो। उतना आप जा रहे हो उत्तर में तो हो ही, मध्य में भी हो और दक्षिण में भी आप जितना जा सकते हो उतना आप जा रहे हो। तो इसका निश्चित रूप से सामाजिक एक पक्ष है जो कि बहुत उपयोगी था और भारत में जो एक सहिष्णुता की भावना रही है, जो वैचारिक खुलापन रहा है, जो उदारवाद रहा है, उसमें इस तरह के सम्मेलनों का, गोष्ठियों का, गैदरिंग का, कमिंग टुगेदर का, एक बड़ा महत्व रहा है।
हम मिलते हैं और हम मिलते सिर्फ एक जगह नहीं हैं। हम मिलते सिर्फ एक उद्देश्य से नहीं है। और हम मिलते इसलिए नहीं है कि हमें दूसरे को दबा देना है। हम मिलते हैं तो हम बात करते हैं। कोई हमें ऐसा मिल जाता है जिसकी बात से हम सहमत नहीं है तो हम उसे गाली नहीं देते। हम उसका गला नहीं काटते। हम कहते हैं शास्त्रार्थ करेंगे। इतना ही नहीं है। हम एकरस होना जानते हैं। दूसरे की बात अगर हमें अच्छी लगी तो हम कहते हैं दूसरे की बात नहीं है। हमारी बात है। हमें दूसरे की बात में अपनी बात दिखाई देने लग जाती है और यह कोई कृत्रिम एक मिलन नहीं है। सच्चाई अगर है मेरी बात में और सच्चाई है अगर दूसरे की बात में तो मुझे क्यों ना अपनी और दूसरे की बात एक सी लगे।
इस चीज ने भारत को बहुत आगे बढ़ाया कि मिलो, बात करो, जानो, समझो, कथाएं भी रखो तो कथाएं भी ऐसी हो कि इंसान की जिंदगी में गहराई पैदा करें और बस यही है मुक्ति की तरफ बढ़ते रहो। जीवन रहते मुक्त हो जाओ। यही जीवन है।
प्रश्नकर्ता: अब २०२५ साल की शुरुआत ही महाकुंभ से है और अगर आप देखें तो ये सूचना क्रांति का युग है, एआई का युग है और संचार और आवागमन के साधन ऐसे हो गए, आधुनिक के अत्याधुनिक हो गए हैं कि कुंभ का जो पुराना एक उद्देश्य था, उससे हम बहुत आगे आ गए हैं। अब आज की तारीख में जब यह समागम होता है, यह जो कहते हैं कि सबसे बड़ा यह एक तरीके से जमावड़ा है दुनिया का। तो अब इस कुंभ को नए समय में किस लिहाज से देखा जाए?
आचार्य प्रशांत: कितना आपने सुंदर मुद्दा उठाया।
प्रश्नकर्ता: इसको कैसे यहां से आगे कोई रास्ता निकाल?
आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया। बहुत सुंदर, बहुत सुंदर। देखिए, सबसे पहले तो हमें अपनी नदियों को थोड़ा सा सम्मान देना पड़ेगा। थोड़ी उन पर दया करनी पड़ेगी। बस क्लाइमेट चेंज हो, इंडस्ट्रियल वेस्ट हो, ह्यूमन वेस्ट हो, नदियां हमारी सब वैसे ही बहुत खतरे में है और बहुत दुर्दशा में है भारत की नदियां। इस वक्त पर हम नहीं चाहते कि धार्मिक कारणों से या किन्हीं भी कारणों से हम अपनी नदियों को और परेशान करें। अगर नदियां सचमुच हमारी माता है तो अस्वस्थ माता को कष्ट देना संतानों को शोभा तो नहीं देता ना?
तो क्या होना चाहिए? सांकेतिक रूप से आप जाकर के वहां पर जल के कुछ छींटे मार लें अपने ऊपर। मेरी आवाज बहुतों को बहुत विवादास्पद लगेगी। विरोध हो सकता है, निंदा हो सकती है। कोई दिक्कत नहीं है। मुझे हमारी नदियों से ज़्यादा सरोकार है। मुझे धर्म के वास्तविक अर्थ से ज़्यादा सरोकार है। कुंभ का वास्तविक अर्थ ध्यान में रखते हुए जिन स्थानों पर कुंभ आयोजित होते हैं; कुंभ के दिनों पर वहां पर आप वैचारिक आदानप्रदान के कार्यक्रम रखिए। वहां पर आप अध्यात्म को आगे बढ़ाने वाले कार्यक्रम रखिए। पुराणों की जो कथाएं, लोक संस्कृति, लोक धर्म में प्रचलित हैं उनके गहरे वेदांतिक अर्थ क्या हैं; ये समझाने के कार्यक्रम रखिए। आज कुंभ का ये रूप होना चाहिए। हमारे भीतर जितने भी तरीके की चीजें हैं जो मृत्यु की ओर ले जाती हैं हमें। मृत्यु माने डर। मृत्यु किसी ने नहीं देखी। पर मृत्यु से सब डर कर रहते हैं। तो मृत्यु डर का ही दूसरा नाम है। तो हमारे भीतर वो सब कुछ बैठा है जो हमें डरा रखता है। उसको कैसे हटा सकते हैं? इसके प्रयासों का केंद्र होना चाहिए कुंभस्थल।
तो हमें बीतते समय के साथ अपने उत्सव और त्यौहारों को नए और गहरे अर्थ देने पड़ेंगे। अन्यथा सब कुछ विकृत हो जाएगा। जैसे हो रहा है। अर्थहीन और वेस्टफुल जिसमें सिर्फ अपव्यय होगा। ऊर्जा का, अवसर का और धर्म की भी साख घटती है फिर बस।
प्रश्नकर्ता: अभी जो धर्म गुरु हैं या धर्माचार्य हैं। आप एक व्हाटस-ऐप करते हैं और देश भर के भीतर चर्चा में आ जाते हैं। कई जगह पर फसाद हो जाते हैं। और मैं सिर्फ ये हिंदू धर्म गुरुओं और धर्माचार्यों की बात नहीं कर रहा हूं। मैं दूसरे धर्म गुरु, धर्माचार्यों की बात कर रहा हूं।
धर्म जो है वो ऐसा हो गया कुछ ठेकेदारियां हो गई हैं और अपनी गौरवशाली परंपरा, इतिहास इन दोनों को बचाए रखने के लिए, लोगों को उकसाने भड़काने का एक रास्ता निकाला जा रहा है। कुंभ के माध्यम से, इस पर नए सिरे से सोचने यानि हिंदू समाज अपने आप को एक सहिष्णु समाज, एक उदात्व, उत्तम समाज, मानवता के सबसे निकट समाज जैसे जाना जाता है। उस पर किसी सिरे से चर्चा हो सकती है। कोई गुंजाइश ऐसी बन सकती है कि इस तरह की जो व्यवस्था जो हिंदू दर्शन मानता रहा है, उस तरह की यहां बहाल हो सके।
आचार्य प्रशांत: देखिए, इस तरह की चर्चाओं में ना एक सौंदर्य होता है। व्यवस्था तो बना सकते हैं आप। लेकिन, सौंदर्य के साथ एक बड़ी बात यह होती है कि वह बिना व्यवस्था के भी अपना काम कर जाता है। अब एक चर्चा है जो एक स्तर पर आप और मैं कर रहे हैं। यह चर्चा अगर कुछ अपने आप में अर्थ और सौंदर्य रखती है तो चार लोग और होंगे जो आपस में बातचीत करने को प्रेरित हो जाएंगे। सौंदर्य संक्रामक होता है उस अर्थ में।
अगर यहां कुछ अच्छा है तो लोग कहेंगे ये अच्छा है हम भी करना चाहते हैं। वो भी करेंगे। तो वो चीज होती है फिर जो आपको अपने अंदर के जीवन में भी आगे बढ़ाती है और दुनिया में भी आगे बढ़ाती है। अपने ही भीतर जो व्यक्ति कैद है और कह रहा है मेरा ही सब कुछ सर्वश्रेष्ठ है। जिसको मैं अपनी परंपरा कहता हूं वही सर्वश्रेष्ठ है। जिसको मैं अपना विचार कहता हूं, अपनी भावना कहता हूं, अपना मत, अपना ओपिनियन कहता हूं; वही सब कुछ मेरा ही श्रेष्ठ है। उस आदमी से गया गुजरा कोई नहीं होता।
बात आगे तो बातचीत से ही बढ़ती है। बात आगे तो बात से ही बढ़ती है। तो धर्म को आगे बढ़ाने में भी ये जो वार्ताएं होती हैं, चर्चाएं, गोष्ठियां, उच्चतम अर्थ में शास्त्रार्थ, इनका बड़ा महत्व होता है। इसके बिना तो फिर हर आदमी बस अपनी नज़रों में परमात्मा है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ मैं ही आखिरी हूं। मैंने जो सोच रखा है वही आखिरी है। मेरी परंपरा ठीक है। मेरा विचार ठीक है। मेरे जीवन का उद्देश्य ठीक है। मेरी कामनाएं सब शुद्ध है और शुभ हैं। सबको यही लगता रहता है।जब तक दूसरे से जाकर के मिलोगे नहीं, उससे बात नहीं करोगे, यात्राएं नहीं करोगे। हमारे जो गुरु हुए हैं। उन्होंने कितनी यात्राएं करी हैं? आप शंकराचार्य को लीजिए, आप गुरु नानक को लीजिए, आप महात्मा बुद्ध को लीजिए, आप भगवान महावीर को लीजिए। यात्राएं-यात्राएं ही करते रहते थे।
यात्राओं का मतलब क्या होता है? मैं अपने में फंस कर नहीं रहूंगा। वरना जो अपने में फंस कर रह गया उससे ज्यादा दुर्दशा किसी की नहीं होती।
प्रश्नकर्ता: एक जो मेरा आखिरी प्रश्न है क्योंकि कभी आपने मेरे साथ बातचीत में कहा था कि जो समाज, जो व्यक्ति, अपने अस्तित्व के लिए युद्ध नहीं कर सकता है, उससे बड़ा अधर्मी कोई नहीं है। और आपने फिर इजराइल के यहूदियों का उसमें उदाहरण दिया था।
हिंदू समाज आज की तारीख में यह मानता है कि बांग्लादेश, पाकिस्तान भारत के भीतर मुस्लिम समुदाय की संख्या जिस तरीके से बढ़ती चली जा रही है, वो आक्रामक होता चला जा रहा है। उसका रेडिक्लाइजेशन होता जा रहा है और वह पश्चिम की तरफ से लगातार एक अलग तरह का युद्ध छेड़े हुए हैं। तो एक ना एक दिन वह खतरा इस समाज के ऊपर आएगा। तो पहले से आप अपने आप को तैयार करके रखिए और वह आक्रामकता अपने को बचाने के लिए खुद पर भरोसा करने की क्षमता और समय को पहचान करके, समाज को जागरूक करने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
इससे आपकी सहमति।
आचार्य प्रशांत: नहीं। समस्या जितनी गंभीर हो समाधान के लिए उतनी ही त्वरा से प्रयास करा जाता है ना। यह बिल्कुल ऐसा हो सकता है कि मरीज डॉक्टर के पास जाकर के बोले कि मेरी एक बहुत गंभीर समस्या है और इसके लिए आप बिल्कुल सर्जरी ही कर डालिए, चीर-फार कर डालिए, रक्तपात कर डालिए। पर यह तो डॉक्टर बताएगा ना सबसे पहले कि आपके शरीर का तथ्य क्या है? और तथ्य कैसे पता करता है?
कहता है जाओ यह अपना तुम एनालिसिस करा के आओ और रिपोर्ट में हमें आंकड़े दिखाओ। वह पहले आंकड़े देखता है। उसके बाद रक्तपात की सलाह देता है अगर ज़रूरी हो। वह आंकड़े क्या बोलते हैं? आंकड़े क्या सचमुच यह बोल रहे हैं कि अभी भी भारत में, मैं पाकिस्तान की और बांग्लादेश की थोड़ी देर के लिए नहीं बात कर रहा हूं। भारत के अंदर क्या अभी भी मुस्लिमों का जो अनुपात है जो प्रतिशत है जनसंख्या में, वो बढ़ रहा है और बड़ी तेजी से बढ़ रहा है कि आंकड़े ऐसा कहते हैं?
अब २०११ दो हज़ार ग्यारह में आखिरी जनगणना हुई थी। २०२१, दो हज़ार इक्कीस में होनी चाहिए थी। नहीं हुई। २०२२ दो हज़ार बाईस में होती। ये जनगणना अगर हो जाए तो बहुत सारी बातों से हमको छुटकारा मिल जाएगा। जिनमें से एक बात यह भी है कि हिंदू आबादी सिकुड़ती, सिमटती जा रही है। क्योंकि जो ग्राफ है, जो ट्रेंड है वो इस ओर इशारा कर रहा है कि जो मुस्लिम ग्रोथ रेट ऑफ पॉपुलेशन था और जो हिंदू ग्रोथ रेट ऑफ पॉपुलेशन है, ये दोनों अब कन्वर्ज कर रहे हैं। हम और इनमें अब जो जनगणना होगी आप पाएंगे कि जितना अंतर २०११ (दो हज़ार ग्यारह) में था, उससे बहुत कम अंतर रह गया है।
प्रश्नकर्ता: ग्रोथ का।
आचार्य प्रशांत: ग्रोथ रेट का। तो अगर इतने प्रतिशत से हिंदू आगे बढ़ रहा है मान लीजिए दो दसंलव दो (२.२%) से। ऐसे ही आंकड़ा दे दिया। तो आप मुसलमान का पाएंगे कि दो दसंलव चार (२.४) है तो अंतर कितने का? शून्य दसंलव दो प्रतिशत का (0.२%) का।
दो हज़ार ग्यारह (२०११) में अंतर कितने का था? शून्य दसंलव चार प्रतिशत (0.४%) का।
दो हज़ार एक (२००१) में कितने का था? शून्य दसंलव सात प्रतिशत (0.७%) का। तो वो जो पापुलेशन ग्रोथ रेट है वो कन्वर्ज कर रहे हैं कर्व्स आपस में। तो समस्या अगर कभी थी तो वह थी पचास के दशक में, साठ के दशक में, सत्तर के दशक में और तब समस्या मैं मान सकता हूं कि थी। मैं मान सकता हूं।
क्योंकि बिल्कुल ये कहा जा सकता है कि देखिए एक लोकतांत्रिक देश में तो सत्ता किसके पास रहेगी? इसी से तय हो जाता है कि उस समुदाय की संख्या कितनी है। खासकर अगर कुछ लोग ऐसे हों जो बिल्कुल अपने समुदाय का ही जत्था बनाकर वोट देते हों। वो कहते हो कि साहब हम नागरिकों की तरह वोट नहीं देंगे। हम तो फलाने…..
प्रश्नकर्ता: भीड़ की तरह देंगे।
आचार्य प्रशांत: हां, फलाने धर्मावलंबियों की भीड़ बनकर वोट देंगे। तो फिर यह सोचना जरूरी रहता है कि तादाद उसकी कितनी है और हमारी कितनी है? तो मैं उस बात से सहमत हूं कि हां, ये कोई, ये कोई बिल्कुल एक काल्पनिक समस्या नहीं है कि उसकी संख्या कितनी, हमारी संख्या कितनी है।
जो लोग संख्याओं से परेशान रहते हैं और चिंतित हैं। मैं उनकी बात समझ सकता हूं। वो यह ना सोचे कि मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है कि हम यह मुद्दा बार-बार उठाते क्यों हैं कि किसकी जनसंख्या कितनी है? किसकी जनसंख्या कितनी है? मैं बात समझ सकता हूं। मैं यह भी समझ सकता हूं कि जहां पर यह जो अनुपात है जनसंख्या का इसमें असंतुलन आने लग जाता है, वहां पर गड़बड़ शुरू हो जाती है।
हमने देखा है कि कश्मीर में क्या होता है। हमने देखा है कि बात होती है बंगाल और केरल के इलाकों की। ये सब बातें हमने देखी हैं। हमने उत्तर पूर्व का भी मंजर देखा है। मैं ये सब बातें समझता हूं। पर मैं यह भी जानता हूं कि समस्या का जो सबसे उग्र दौर था वो पचास से लेकर के नब्बे के दशक तक था। वो समय था कि जब सैतालिस (१९४७) में जब हम आज़ाद हुए और उसके बाद जो पहली जनगणना हुई तो मुस्लिम जनसंख्या लगभग दस प्रतिशत (१०%) के आसपास थी। और वो बढ़ते-बढ़ते, बढ़ते बढ़ते सोलह- सत्रह प्रतिशत (१६-१७%) हो गई। अभी हाल तक। दस प्रतिशत (१०%) से बढ़कर सोलह- सत्रह प्रतिशत (१६-१७%) हो गई। अभी अभी आप करेंगे तो सत्रह कुछ ऐसे आना चाहिए। अनुमान है।
अब नहीं बढ़ रहा अनुपात। अब वह जरा जहां पर है उसे जरा सा और बढ़के स्टेबलाइज कर जाना है। बढ़ा है पर जब बढ़ा तब तो हमने कुछ किया नहीं। जब बढ़ रहा था, ये सारा शोर तब मचना चाहिए था। अब नहीं। अब शोर मचाना काउंटर प्रोडक्टिव है।
अब शोर मचाना इस राष्ट्र के लिए अच्छी बात नहीं है। क्योंकि हम एक ऐसे मुद्दे पर शोर मचा रहे हैं जिस मुद्दे पर अब आप कुछ कर नहीं सकते। हम एक ऐसी समस्या पर शोर मचा रहे हैं। जो समस्या विभीषण थी पीछे अब उतनी भीषण है नहीं। अगर उसको आप एक नुकसान भी मानते हैं, लोग कहते हैं बड़ा नुकसान हो गया, एक वर्ग की आबादी बढ़ गई। चलो ठीक है। आप उसको नुकसान भी अगर मानते हो तो नुकसान जितना होना था वो हो चुका है अब उसमें एडिशनल अतिरिक्त नुकसान अब नहीं हो रहा है अब शोर मचाने से क्या फायदा? क्यों शोर मचा रहे हो?
तो मैं उनसे यह कहूंगा कि भाई, इस मुद्दे को छोड़ दो। दूसरे सकारात्मक मुद्दों पर, रचनात्मक मुद्दों पर, अपना ध्यान केंद्रित करो। आंकड़ों से ना आप लड़ सकते ना मैं लड़ सकता। अभी सेंसस होगा और आंकड़े हमारे सामने आ जाएंगे।
डॉक्टर आपकी रिपोर्ट देखेगा पैथोलॉजी की और कहेगा काहे के लिए परेशान हो रहे हो?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी कह रहे हैं कि कुंभ में हिंदू समाज के अस्तित्व पर संकट को लेकर चिंता है। वह बेईमानी है। चिंतन इस बात पर होनी चाहिए कि हिंदू समाज और हिंदुस्तान के विकास और बेहतरी के लिए आगे कैसे बढ़ा जाए और सोचा जाए।
आचार्य प्रशांत: हम एक सौ बीस (१२०) करोड़ हैं। अगर हमें अभी भी ये डर लग रहा है कि हाय, हाय हमारा क्या होगा? तो कितना? हम पांच सौ (५००) करोड़ होंगे तब हम सिक्योर अनुभव करेंगे। हम एक सौ बीस (१२०) करोड़ हैं। आप यहूदियों की बात करते हो, बीच में आपने इजराइल का उल्लेख करा था। भारत से बाहर जितने हिंदू रह रहे हैं।
सिर्फ आप उनको ले लें तो वो दुनिया भर की यहूदी जनसंख्या से ज्यादा है। भारत से बाहर बाहर जितने हिंदू रह रहे हैं जो हमारा डायस्पोरा है, हिंदुओं का। वो भी दुनिया भर की यहूदी जनसंख्या से ज्यादा है या उसके लगभग बराबर है। आंकड़े आप एक बार चेक कर लीजिएगा।
ठीक है। हम इतने ज्यादा हैं। हम एक सौ बीस (१२०) करोड़ हैं। तो यह बात अब हास्यास्पद जैसी है कि एक सौ बीस (१२०) करोड़ लोगों का एक समुदाय कह रहा है हाय, हाय हम आबादी में कहीं कम ना पड़ जाएं। कहीं हम छोटे ना रह जाएं। कितने हो जाओगे तो चैन मानोगे। सबसे ज्यादा तो मच्छर होते हैं और दुनिया भर में जितनी प्रजातियां है ना और जितने जीव है। जानते हो सबसे ज्यादा क्या है? इंसेक्ट्स सबसे ज्यादा जो तादाद है वो इंसेक्ट्स की है। इंसेक्ट हो के जीना है क्या? अरे शान से जीना है। रुतबे से जीना है।
प्रश्नकर्ता: एक सवाल, कई बार कुछ मेरे मित्र हैं। उन्होंने ऐसे मुझसे पूछा था तो मैंने कहा था ठीक है आचार्य जी से बात होगी तो मैं पूछूंगा। कहते हैं कि जैसे ओआईसी है। आर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कंट्रीज। उस तरीके से भारत है, नेपाल है, मॉरिशस है, फीजी है, जहां हिंदू आबादी में है, बड़ी आबादी में है। इन तरह के देशों का कोई संगठन होना चाहिए या नहीं होना चाहिए। मतलब आप एक धर्म विशेषज्ञ होने के नाते किसी मंच के जरिए आपस में जुड़ सकते हैं या नहीं जुड़ सकते?
आचार्य प्रशांत: हां, बिल्कुल हो सकता है। बिल्कुल हो सकता है। उसमें किसी तरह की कोई बुराई नहीं है। अच्छी बात है। दुनिया में जहां कहीं भी वो लोग हैं जो वेदों को अपना मानते हैं, उपनिषदों को अपना मानते हैं। गीता को अपना मानते हैं। वो लोग आपस में अगर संवाद कर रहे हैं। वो वहां पर आकर के अपनी समस्याएं, अपने संकोच बता रहे हैं। अपने भ्रम बता रहे हैं। यहां वाले वहां जा रहे हैं। तो नए नजरिए मिलते हैं देखने के। क्योंकि एक भारत का हिंदू है। एक कनाडा का हिंदू है। एक फिजी का हिंदू है। एक मॉरिशस का हिंदू है। एक सूरिनाम का हिंदू है। ये सब एक तरीके के नहीं होते। आप सोचते रहोगे कि वो हिंदू है। पर उसका बिल्कुल अलग तरीके का होगा। आप रोहन कनहाई से मिलोगे या शिव नारायण चंद्रपाल है। ये कैरेबियन हिंदू है।
आप उनसे जाकर के बात करोगे तो आप कहोगे ये तो कोई और ही है। बिल्कुल तो आपको फिर हिंदू होने के और नए अर्थ भी पता चलेंगे कि ऐसा भी हुआ जा सकता है। तो यहां तक कि नेपाली हिंदू भी है ना। आप उससे भी मिलने जाओगे तो वहां भी आपको नए अर्थ पता चलते हैं।
जब कोई दक्षिण का व्यक्ति जाकर के बंगाली हिंदू से मिलता है तो या असमिया से मिलता है तो वहां भी उसको नई बातें पता चलती हैं। तो ये तो अच्छा ही है कि आपस में संगठन मिले आदान-प्रदान हो विचारों का। आपस में बेहतर हो करके उठने में मदद मिलती है।
चलिए मैं आपको थोड़ा सा इसको अर्थमेटिक के माध्यम से समझाता हूं इसी बात को। अगर हम कहें कि अभी वर्तमान में हिंदुओं की आबादी की वृद्धि दर एक दसंलव दो प्रतिशत (१.२%) प्रतिवर्ष है। ठीक है? और मुस्लिमों की एक दसंलव आठ प्रतिशत (१.८%) प्रतिवर्ष है। ठीक है? यह लगभग एक्यूरेट आंकड़े हैं। अभी इतना लगभग होगा और इसकी पुष्टि अभी जब सेंसस होगा उससे हो जाएगी। तो हिंदुओं की जो आबादी है वो प्रतिवर्ष कितनी बढ़ रही है? एक दसंलव दो प्रतिशत तो उसमें और जोड़ दीजिए और मुस्लिमों की प्रतिवर्ष कितनी बढ़ रही है उसमें एक दसंलव आठ प्रतिशत (१.८%) और जोड़ दीजिए। ये बढ़ रही है।
तो आप कहोगे अच्छा हिंदुओं की बढ़ रही है, जैसे मुसलमानों की बढ़ रही है। तो हिंदू अगर आप ये मान लें कि इसी दर से बढ़ते रहे हर साल, इस दर से हालांकि बढ़ेंगे नहीं। उनकी जो वृद्धि दर है वो कम होगी और आप मुसलमानों को भी मान लें इसी दर से बढ़ते रहे हर साल, वो भी इतना नहीं बढ़ेंगे। उनकी भी लगातार कम हो रही है। पर नहीं कम होती। मान लिया कि ऐसे ही बढ़ रहे हैं तो आप थोड़ा सा गेस करिए कि हिंदू एक दसंलव दो प्रतिशत (१.२%) से बढ़ रहा है जो अभी बढ़ रहा है मुस्लिम एक दसंलव आठ प्रतिशत (१.८%) से बढ़ रहा है जो ये बढ़ रहा है। तो हिंदू मुसलमान की भारत में आबादी एक बराबर होने में माने फिफ्टी-फिफ्टी होने में कि आधे अब हिंदू हो गए भारत में आधे मुसलमान हो गए। बताइए कितने साल लगेंगे?
प्रश्नकर्ता: एक अनुमान है कि एक सौ दस करोड़ हिंदू हैं। पचीस करोड़ के आसपास मुसलमान हैं। तो पचीस करोड़ को एक सौ दस करोड़ जितना आगे जाएगा उतना पहुंच के बराबर होने में।
आचार्य प्रशांत: हां। पर उसमें जितना समय लगना है वो है दो सौ बहत्तर (२७२) साल।
प्रश्नकर्ता: अच्छा! दो सौ बहत्तर (२७२) साल…..
आचार्य प्रशांत: दो सौ बहत्तर (२७२) साल लगेंगे मुसलमान को वर्तमान वृद्धि दर पर चलते हुए हिंदुओं जितनी अपनी जनसंख्या करने में। दो सौ बहत्तर (२७२) साल। हम क्यों इतना चिंतित हैं? क्यों इतना परेशान हो रहे हैं? क्या है ये? किस बात पे हम अपनी पूरी ऊर्जा लगाए दे रहे हैं और एकदम तनाव में आ गए हैं। क्या जरूरत है? दूसरे और बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। हमें उन पर ध्यान देना चाहिए।
इतना ही नहीं। हमने ये तो कह दिया दो सौ बहत्तर (२७२) साल लगेंगे इसमें। वो दो सौ बहत्तर (२७२) साल, अगर मुसलमानों की आबादी ऐसे ही बढ़ती रही और हिंदुओं की वैसे ही बढ़ती रही जैसे अभी बढ़ रही है। तो बताइए दो सौ बहत्तर (२७२) साल बाद और अभी जब ये पब्लिश होगा ना तो इसका पूरा कैलकुलेशन जो है वो क्योंकि लोग मानेंगे नहीं वरना। वो स्क्रीन पर ये पूरा कैलकुलेशन दिखेगा तभी मानेंगे।
तो वो दो सौ बहत्तर (२७२) साल बाद हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी होगी कितनी भारत में? अगर इतनी बढ़ती रही तो। जानते हैं कितनी होगी? अठाईस-अठाईस (२८-२८) बिलियन और एक बिलियन होता है सौ करोड़।
मुसलमान अगर हिंदू बराबर हो गए भारत में तो हिंदू और मुसलमान दोनों होंगे अठाईस बिलियन।
प्रश्नकर्ता: चौदह सौ-चौदह सौ (१४००-१४००) करोड़ हो जाएंगे।
आचार्य प्रशांत: चौदह सौ-चौदह सौ नहीं। छप्पन (५६) बिलियन।
प्रश्नकर्ता: अच्छा।दोनों बराबर-बराबर।
आचार्य प्रशांत: हां। दोनों बराबर-बराबर। वो भी अठाईस बिलियन, ये भी अठाईस बिलियन। एक बिलियन सौ करोड़। तो अठाईस सौ करोड़ यानि छप्पन सौ करोड़ होगी। अभी हम एक सौ चालीस करोड़ हैं और संभल नहीं रहा और छप्पन सौ करोड़ होगी भारत की आबादी, जब हिंदू और मुसलमान एक बराबर हो जाएंगे।
कभी होने वाला है ऐसा?
प्रश्नकर्ता: आज की दुनिया की जो आबादी है उसका दो तिहाई हो जाएगा अकेले हिंदुस्तान। नहीं हो सकता।
आचार्य प्रशांत: नहीं नहीं दो तिहाई नहीं हो जाएगा। दुनिया की जो कुल आबादी है, आज वो आठ सौ करोड़ की है और…
प्रश्नकर्ता: अच्छा पांच हज़ार छह सौ (५६००) करोड़।
आचार्य प्रशांत: आठ सौ करोड़ की कुल दुनिया की आबादी है। हमें दुनिया की आबादी के सात गुना होना पड़ेगा तब जाके हिंदुस्तान में मुसलमान हिंदू के बराबर पहुंचेगा। तो हम क्यों इतना परेशान हो रहे हैं? हां, परेशान होना चाहिए पर परेशान होने के दूसरे मुद्दे हैं। जो दूसरे मुद्दे हैं, जो असली मुद्दे हैं हमें उनकी कोई खबर नहीं है।
हम उनकी बात नहीं कर रहे। हम एक व्यर्थ के मुद्दे पर बहुत ऊर्जा लगा रहे हैं। क्यों? क्योंकि हम बेसिक अर्थमैटिक नहीं कर सकते। और क्यों? इसलिए कि थोड़ा सा वजह यह भी है कि हमें सेंसस का ताजा डेटा उपलब्ध नहीं है। चलो तुम्हें ताजा डेटा नहीं उपलब्ध है। तो तुम दो सौ ग्यारह के ही डाटा को एक्स्ट्रापोलेट करके कैलकुलेशंस कर लो ना। हम वो भी नहीं करते। हम बस हवा हवाई फायर करे जा रहे हैं और ऐसे हो रहे हैं जैसे यही सबसे बड़ी चिंता आ गई आज भारत के सामने।
भारत के सामने निससंदेह बहुत बड़ी-बड़ी चिंताएं हैं। एक अच्छा नागरिक होने के नाते, भारत से प्रेम करने के नाते, राष्ट्रवादी होने के नाते, हमें वास्तविक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए। मसलन क्लाइमेट चेंज, बेरोजगारी, शिक्षा का स्तर; ये सब है हमारी असली समस्याएं। अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन देना पड़ रहा है। इसका मतलब क्या है? युवा सारा चीप डेटा का इस्तेमाल करके बस अपने आप को मनोरंजन में और नशे में डाले हुए हैं। यह है असली समस्याएं।
पर्यावरण हमारा इतना खराब है कि दिल्ली में जो आम आदमी रह रहा है उसकी उम्र से सात साल सीधे घट गए। डिडक्ट हो गए। ये हैं समस्याएं। हमारी नदियों में पीने का पानी विषाक्त हो चुका है। हमारा जो क्रॉप पैटर्न है वह इतनी बुरी तरह बर्बाद होने वाला है कि भारत से जनसंख्या को मास माइग्रेशन करना पड़ेगा ऐसी जगहों पर जहां कम से कम खाने को मिल जाए। हम उन चीजों की बात ही नहीं कर रहे। जो आने वाली ग्लोबल पूरी कैलेमिटी है उसका जिन देशों पर सबसे ज्यादा असर पड़ेगा उसमें भारत नंबर एक पर है। पर भारतीय उसकी चर्चा कर ही नहीं रहा है।
शिक्षा के नाम पर हमारा बिल्कुल बंटाधार है। जो एचडीआई है ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स, उसमें हमारी जगह पीछे से शुरू होती है। हम उसकी नहीं बात कर रहे हैं। आज भी, इस समय पर भी भारत में भ्रूण हत्याएं इतनी हो रही हैं कि हमारा जो सेक्स रेशियो एट बर्थ है वो सुधरने का नाम नहीं ले रहा। हम उसकी नहीं बात कर रहे। हम किस चीज की बात कर रहे हैं?
ऐसी चीज की जो हो नहीं सकती कभी। दो सौ बहत्तर साल, छप्पन (५६) बिलियन। और यह तब जब हम एक सौ बीस करोड़ लोग हैं। हमें एक सौ बीस करोड़ शेर बनाने हैं। हम भेड़ों जैसी बात क्यों कर रहे हैं? वेद हमसे कहते हैं तुम अमृत की संतान हो। ‘अमृतस्य पुत्राः‘। हम ऐसी भेड़ों जैसी बातें क्यों कर रहे हैं?
हमें तो वह होना चाहिए ना कि एक भी, ऐसी चेतना का और ऐसे साहस का है कि हर तरीके से दस पर भारी पड़े। हम ऐसे हो रहे हैं कि बाप रे बाप हम डरे हुए हैं। हम डरे हुए, डरे, क्यों इतना डरे हुए हो? अगर वास्तव में आपके हृदय में धर्म है तो फिर जीवन आपको कैसे परास्त कर देगा?
तो हमें वास्तविक अध्यात्म चाहिए। ये एक भी एक बड़ी समस्या है कि भारत में धर्म तो बहुत है पर सब नकली धर्म है। हमें वास्तविक अध्यात्म चाहिए। ये वो समस्याएं जिन पर हम ध्यान डालें? अब मालूम है, भारत में ऐसे लोग जिनको हम कह सके कि इनके शरीर को वो सब तत्व मिल रहे हैं जितना स्वस्थ रहने के लिए चाहिए। बताइए ऐसे कितने प्रतिशत होंगे?
कल नीरज चोपड़ा यहां पर आए थे। उनसे बात हो रही थी तो उस बातचीत में मैंने ये आंकड़ा दिया। मैंने कहा कि तुम गोल्ड लाने तो चले हो पर भारत से कैसे और गोल्ड आएंगे, जब भारत में वेल फेड लोगों की ही संख्या बस इतनी ही; बताइए कितनी होगी?
प्रश्नकर्ता: एक फीसदी के आसपास होगी।
आचार्य प्रशांत: नहीं, नहीं। उतनी भी कम नहीं है। सोलह फीसदी।
प्रश्नकर्ता: सोलह फीसदी।
आचार्य प्रशांत: सोलह फीसदी। सिर्फ सोलह फीसदी ऐसे लोग हैं जिनके शरीर में जो जो पोषक तत्व हैं उनकी कमी नहीं है। चीन में ऐसे कितने प्रतिशत लोग हैं?
प्रश्नकर्ता: वहां ज्यादा होगी।
आचार्य प्रशांत: अस्सी प्रतिशत। अस्सी प्रतिशत। हमारी पछत्तर प्रतिशत (७५%) आबादी ऐसी है जो किसी ना किसी तरीके से ऐसे भोजन पर जी रही है जो उसको गंभीर बीमारियों में डालने वाला है। चीन में ऐसे लोगों का प्रतिशत कितना है? दो प्रतिशत (२%)।
ये वास्तविक समस्याएं हैं। हम गंदा खा रहे हैं। हम गलत हवा में सांस ले रहे हैं। हमारे पानी में हेवी मेटल्स घुले हुए हैं। हम इनकी नहीं बात करना चाहते। हमारे युवाओं के पास रोज़गार नहीं है। हमारी सड़कें टूटी हुई हैं। हम इनकी नहीं बात करना चाहते। हमारी शिक्षा व्यवस्था एकदम खस्ता हाल है। हमारी यूनिवर्सिटीज टॉप रैंकिंग्स में आ नहीं रही है। हम उसकी भी नहीं बात कर रहे हैं। हमारे यहां अभी भी प्राइमरी सेकेंडरी में ड्रॉप आउट जबरदस्त हो रहा है बच्चों का। हम उसकी नहीं बात कर रहे हैं। हम ऐसे मुद्दों की बात कर रहे हैं जिसका ना कोई तुक है ना तर्क है।
प्रश्नकर्ता: तो कुंभ पर तो सही मायने में ऐसे ही मसलों पर चर्चा होनी चाहिए। कुंभ मुझे लगता है कि यही है।
आचार्य प्रशांत: हां, ये कुंभ है। यह कुंभ है कि वहां लोग बैठे और एक दूसरे की गलतफहमियां दूर करें। अगर मेरे मन में कुछ संशय है तो आप दूर करें। आप कहे तो मैं उसमें सहायता कर पाऊं। यह कुंभ है वास्तविक। इसी से मृत्यु कटती है। इसी में अमृत है।