किसी व्यक्ति का मूल्य कैसे नापें? || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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किसी व्यक्ति का मूल्य कैसे नापें? || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

आचार्य प्रशांत: वो जो है, ठीक है? जो सब उपनिषदों का ध्येय है, प्रतिपाद्य विषय है, वो ऐसा है जैसे दूध में मक्खन और मक्खन का भी शिरोभाग, शिरोबिन्दु। मक्खन के ऊपर रहने वाला सारभाग है वो,ठीक है? छाछ, छाछ पर मक्खन, और मक्खन में भी सबसे ऊपर?

तो पहली बात, वो जगत में ही है। दूसरी बात वो जगत का शीर्ष है। पहली बात, बाहर कहीं नहीं मिलेगा, यहीं मिलेगा। वो जो बिन्दु है, माखन-माखन सन्तों ने खाया, वो भी है तो उसी दूध-छाछ वाले सिस्टम, उसी व्यवस्था के भीतर ही कहीं का। तुम्हें मथनी जैसा होना चाहिए कि तुम दोनों को अलग कर सको। नहीं तो दूध में तो मक्खन छुपा रह जाता है न या हाथ में आ जाता है? कर सकते हो?

तुम्हें कैसा होना है? मथनी जैसा होना है, कि तुम मथ पाओ, तुम अलग कर पाओ। तो वह सूक्ष्म है, सूक्ष्म माने वो सबसे हल्का भी है। सबसे हल्का है, शीर्षस्थ है, और अन्तर्यामी है, बीच में है। ऊपर भी है बीच में। जब ऊपर है तो कह देते हैं, कूटस्थ है, शीर्षस्थ है, कूटस्थ है, अन्तर्यामी है। और इतना ही नहीं है, जगत को सब ओर से घेरकर स्थित है वो। जगत में हैं, माने भीतर है, जगत के ऊपर है। अतिशय सूक्ष्म है और जगत में घेरे हुए भी हैं, चारों ओर से भी है।

ये सारी बातें एक साथ क्यों सही हैं और क्यों कही गई हैं? ये सारी बातें अहंकार के अलग-अलग कुतर्कों को सम्बोधित हैं। ये सारी बातें अहंकार के अलग-अलग कुतर्कों को सम्बोधित हैं। क्योंकि कोई भी बात हमने कहा अपनेआप में तो सही होती नहीं। हर बात किसी एक स्थिति में, किसी एक सम्बोधित इकाई के परिपेक्ष में सही होती है।

तो अहंकार कुतर्क लेकर के आया कि, "दुनिया में साहब सबसे ऊँची चीज़ तो पैसा है।” तो वहाँ पर ऋषि उससे क्या बोलेंगे? नहीं। ये जो पूरा जगत का व्यापार है इसमें जो सबसे ऊपर है देखो वो पैसा नहीं है, वो सत्य हैं। गौर से देखना।

तो ये शीर्षस्थ होने की बात उससे कही गई है जो किसी और वस्तु को, सांसारिक वस्तु को शीर्षस्थ मानता है। तुम जैसे ही किसी और चीज़ को बहुत ऊँचा समझने लगोगे, तो कोई तुम्हें याद आकर दिलाएगा, जिसको तुम बहुत ऊँचा समझ रहे हो न, वो उतना ऊँचा है नहीं। जो सबसे ऊँचा है उसको याद रखो।

या ये नहीं भी याद रखो कि सबसे ऊँचा कौन है? तो इतना तो याद रखो ही कि दुनिया का कुछ भी और कोई भी सबसे ऊँचा नहीं हो सकता। समझ मे आ रही है बात? इसी तरीके से जब तुमको ये लगने लगेगा कि दुनिया में कुछ लोग ऐसे हैं जो खासतौर पर प्रतिभाशाली हैं या जो खास तौर पर चुने गए हैं या जिनमें कोई खास आध्यात्मिक गुण है, तो तुमको क्या याद दिलाया जाएगा?

तुम्हें याद दिलाया जाएगा कि वो दूध की बून्द- बून्द में है। मुझे बताओ, दूध की कौनसी बून्द है जिसमें मक्खन नहीं? फ़र्क नहीं पड़ता कि वो बून्द पात्र के तल से उठाई है तुमने या पात्र की ऊपरी सतह से। और वो बून्द ऐसी भी हो सकती है जो पात्र से छिटककर या छलक कर ज़मीन पर गिर गई। वो ज़मीन पर भी गिर गयी हो, वो मिट्टी में भी समा गयी हो, मक्खन उसमें तब भी था, तब भी है!

बात समझ में आ रही है? तो कोई अपनेआप को न हीन समझे, न श्रेष्ठ समझे। हीनता और श्रेष्ठता झूठ नहीं है, पर वो बाहरी सच वे है। आन्तरिक सत्य तो सबका एक ही है क्या? आत्मा। और वो अलग-अलग तो नहीं है या ऊँचा-नीचा तो नहीं है न।

तुम्हारी आत्मा मेरी आत्मा से श्रेष्ठ या हीन कैसे हो सकती है जब आत्मा होती ही एक है? बात समझ में आ रही है? अहंकार ऊँचा या नीचा होता है। और अहंकार के कारण कुछ व्यक्ति सम्मान के पात्र होते हैं और उपेक्षा के दूसरे।

ये दोनों बातें एकसाथ समझनी होंगी। जहाँ तक अहंकार का प्रश्न है, मन का प्रश्न है, कोई व्यक्ति तुम्हें निश्चित रूप से ऐसा मिलेगा जो सम्माननीय है और कोई मिलेगा जो उपेक्षा योग्य है। लेकिन जिसकी उपेक्षा भी कर रहे हो, उसके बारे में याद रखना कि है तो ये भी वही। बस झूठ में जी रहा है, अपनेआप को भुला बैठा है अन्यथा है तो ये भी वही।

अब ये तर्क देकर के ये न करना कि कीचड़ को गले लगा लिया। कि क्या हुआ? रसगुल्ला क्यों झाड आए पाँच-सात? बोले, वो रसगुल्ला भी देखिए है तो वो ही। मैं तो उसकी उपेक्षा करना चाहता था तभी मुझे याद आ गया, है तो ये भी वो ही। बहुत मिठास जमा कर ली है इसने, चाशनी का आवरण पहन लिया है इसने, खोवे को अपनी हकीकत समझने लगा है लेकिन है तो ये भी वही आचार्य जी! बस एक दर्जन झाड़ दिए मैंने क्योंकि है तो ये भी वो ही।

क्या हुआ सत्र को छोड़ करके वो बाहर किसके साथ घूम रहा था तू? आचार्य जी! वैसे तो वो बस कुछ नहीं थी, हाड़-माँस की पुतली है। तो बिलकुल दिख रहा था, अहंकार बहुत है, राजसिकता बहुत है, अज्ञान बहुत है पर तभी मुझे आपकी याद आ गई, और मैं तो आपका काबिल शिष्य हूँ, ‘है तो ये भी वही’।

तो मैंने कहा फिर, ‘जब ये भी परमात्मा ही है तो इसी को क्यों न भोग लूँ?’ तो आपने बढ़िया किया, आज तीन घंटे तक सत्र चलाया आचार्य जी। तीन घंटे भोग आया क्योंकि है तो ये भी वही।

ये सब करना ज़रूरी है, नाटक क्योंकि तुम जीते हो नाटक में। कांटे को काटा निकलता है, तो कई बार नाटक को नाटक निकालता है। समझ मे आ रही है बात? ये बिलकुल तलवार की धार वाली बात है। एक ओर तो ये भूलना ही नहीं है कि है तो सब कुछ वही, और दूसरी और ये भी याद रखना है कि लोग आत्मा में नहीं, अहंकार में जीते है।

तो इसीलिए उनका मूल्यांकन भी आत्मा के आधार पर नहीं, अहंकार के आधार पर होना चाहिए। तुम आत्मा भी हो, अहंकार भी हो। और आत्मा तो अमूल्य है, उसका कौन मूल्यांकन करेगा? तो मुझे अगर तुम्हारा मूल्यांकन, वैल्यूएशन करना है तो मैं आत्मा के आधार पर नहीं करूँगा। आत्मा का कौन मूल्यांकन कर सकता है?

मैं तुम्हारा मूल्यांकन करूँगा अहंकार के आधार पर। तुम्हारे अहंकार की गुणवत्ता कैसी है? तुम्हारा अहंकार अगर उर्ध्वगामी होगा, कोशिश कर रहा होगा आसमान तक पहुँचने की, तुम्हें सम्मान दूँगा, तुम्हारी संगत माँगूँगा। और अगर तुम्हारा अहंकार अधोगामी होगा, कीचड़ में लतपथ होने को व्याकुल, तो तुम अधिक-से-अधिक मेरी करुणा के पात्र हो सकते हो, सम्मान के नहीं। समझ मे आ रही है न बात?

तो इस आधार पर मूल्यांकन नहीं करना है कि सभी ईश्वर ही तो है। नहीं। ये बहुत व्यर्थ बात है। ये ऐसी सी बात है कि कोई शिक्षक सब विद्यार्थियों को सौ में सौ नम्बर देके ये बोलकर कि सबने अपने जवाब साफ़–सफ़ेद कागज़ पर ही तो लिखे थे न। अरे! लिखा कुछ भी हो, कागज़तो देखो बिलकुल निर्मल, स्वच्छ, साफ है न। तो सबको बराबर, क्योंकि कागज़ सबका एक है।

अरे! कागज़ तो एक होगा, पर कागज़ उन्होंने अर्जित नहीं करा है। जिनका तुम मूल्यांकन कर रहे हों, उनका मूल्यांकन कागज़ नहीं, कलम के आधार पर होगा। कागज़ तो देने वाले ने बिलकुल तुमको साफ, धवल, स्वच्छ दिया है पर तुमने अपने अहम् की कलम से उसपर लिखा क्या? हम ये देखेंगे!

और अगर कागज़ से मूल्यांकन करना है तो वो तुम्हारा मूल्यांकन नहीं होगा, वो किसका होगा? वो फिर कागज़ देने वाले का होगा न? वो सौ नम्बर फिर तुमको नहीं मिले हैं। किसको मिले हैं? वो तो फिर उसको मिले हैं जिसकी आत्मा है। आत्मा को सौ नम्बर मिल सकते हैं, तुम आत्मा हो क्या? तुम आत्मा होकर जी रहे हो?

तो फिर आत्मा जिस सम्मान की भागी है, तुम वो सम्मान क्यों माँग रहे हो? तुम्हें नहीं मिलना चाहिए। तुम्हें तो हम काले अक्षर पर तोलेंगे। तुमने अपनी ज़िन्दगी की कहानी कैसी लिखी है, इस आधार पर तुम्हारा मूल्यांकन होगा। समझ मे आ रही है बात?

तो सफ़ेद कागज़ भी याद रखना है, और काली स्याही भी। भूलना दोनों में से किसी को नहीं है। दोनों की अपनी-अपनी जगह है। अगर बिलकुल ही भूल गए कि इस गिरे हुए आदमी में भी परमात्मा है, तो तुम घृणा से भर जाओगे।

और घृणा का अधिकारी तो कोई भी नहीं होता। कोई कितना भी गिरा हुआ हो, एक आखिरी बात ये याद रख लेना कि अन्तिम सम्भावना उसकी भी बहुत ऊँची है, बस वो उस सम्भावना से बहुत दूर है। तो ये बात भूलनी नहीं है।

और न ही ये अनर्थ कर देना है कि सबको बोल दिया कि, “तुम भी परमात्मा, तुम भी सत्य, तुम भी ब्रह्म।” ये महा अनर्थ है। ये भी नहीं कर देना है। ये दोनों बातें एक साथ याद रखना मुश्किल होता है, इन्हे एक साथ याद रखेंगे। समझ मे आ रही है बात?

जगत की एक चीज़ से भाग करके जगत के दूसरे कोने में जा सकते हो पर उससे भागकर कहीं नहीं जा सकते। क्यों नहीं जा सकते? क्योंकि वो तुम्हारे भीतर है। चुआँग ज़ू का याद है ना? एक आदमी था जिसको अपनी पदचाप से डर लगता था। ही वाज़ अफ्रैड ऑफ द साउन्ड ऑफ़ हिज़ फुटस्टेप्स ( उसे अपनी पदचाप से डर लगता था)।

बहुत डरता था। बहुत ज़ोर से भागता था। पागल ही हो गया होता बेचारा। किस्मत अच्छी थी, एक दिन थक कर रुक गया। अचानक कोई बात समझ में आ गई। एक आदमी था जिसको अपने पदचाप से ही डर लगता था। ये क्या है? ये क्यों? आवाज कहाँ से आई? आवाज कहाँ से आई? और आवाज से डर कर वो फिर बहुत ज़ोर से भागता था, फिर और ज़ोर से भागता था, फिर और ज़ोर से भागता था। जितना भागे आवाज़ उतनी बढ़ती थी। बच ही गया बस। न जाने कैसे एक दिन रुक गया, जाने किसी ने जबरदस्ती पकड़ के रोक दिया। रुक! थम! अब सुन! बता! कहाँ है? आ रही है बात समझ में?

कहीं भी भागोगे, इस सच्चाई से दूर नहीं जा पाओगे कि तुम अभी सच्चाई से दूर हो। समझ मे आ रही है बात? झूठ से दूर जा सकते हो, एक झूठ से दूर होकर दूसरे झूठ तक पहुँच जाओगे। पर सच्चाई से अगर तुम दूर हो तो जितने भी झूठों के करीब जाओगे वो तुम्हें और ज़्यादा याद दिलाएएँगे कि तुम सच्चाई से दूर हो।

एक झूठ से दूसरे झूठ तक, इसको हम बोल देते है जीवनयात्रा। तो जो ये सब जानते हैं वो सब बन्धनों से छूट जाते हैं। इन्हीं बातो के विपरीत सोचना ही बन्धन है। जिन तर्कों को काटने के लिए ये बाते कही जा रही है, उन तर्कों का आश्रय लेना ही बन्धन है। समझ मे आ रही है बात?

ये बातें किसलिए कही गई हैं? बन्धन को काटने के लिए। और ये बातें कही गई हैं कुछ तर्कों के विरोध में। तो यह तुरन्त सोच लिया करो कि किन बातों को काटने के लिए ये बातें बोली गई हैं। इन बातों को देखो तो शिष्य के कुतर्कों का तुरन्त ध्यान कर लिया करो।

ये तो गुरु की बाते हैं तुम्हारे सामने हैं न, शिष्य की बात यहाँ लिखी नहीं है पर गुरु ऐसे ही तो कुछ बोलता नहीं। उसके पास कुछ बोलने को होता ही नहीं। तो ऋषि ने ये बात कब बोली होगी? जब शिष्य ने कोई कुतर्क मारा होगा। तो ये भी पूछा करो कि गुरु को ये बात बोलने की ज़रूरत क्या पड़ी? वो कुतर्क कौनसा था जिसके उत्तर में यह श्लोक आया?

अरे! स्कूल में ऐसे आते थे न सवाल? जिसमें प्रश्न के आगे कर दिया जाता था खाली स्थान, ब्लैंक। और उत्तर लिख दिया जाता था। अब तुम्हें उत्तर को देख करके ये समझना पड़ता था कि प्रश्न क्या रहा होगा? नहीं, नहीं करा ऐसा? व्याकरण में, ग्रामर में ऐसा होता था कि आन्सर लिख दिया और क्वेश्चन के सामने क्या कर दिया? ब्लैंक।

तुम आन्सर देखकरअच्छा! तो सवाल ये रहा होगा तभी ये आन्सर आया है न? वैसे ही इन उत्तरों को देख करके ये सोच लिया करो कि शिष्य का कुतर्क क्या रहा होगा। वो शिष्य का कुतर्क नहीं है, वो तुम्हारा कुतर्क है, वो तुम्हारी ज़िन्दगी है क्योंकि तुम उसी कुतर्क पर अपनी ज़िन्दगी चला रहे हो।

तुम्हारी ज़िन्दगी को काटने के लिए ये श्लोक आया है। शिष्य का कुतर्क हम सबका कुतर्क है। उन कुतर्कों को हम क्या बोलते हैं? अपनी सच्चाई। उन कुतर्कों को हम अपना आधार बोलते हैं। हमारी मान्यताएँ, हम इसी पर चलते हैं। हमें तो ऐसा लगता है साहब।

जिन चीजों पर हम चलते हैं, उन्हीं चीजों को काटने के लिए उपनिषदों की रचना हुई, क्योंकि जिन चीजों पर चलते हैं उनपर चलकर हमें दुख मिलता है। स्पष्ट?

प्रश्नकर्ता: सत्य को भी सुरक्षा की ज़रूरत होती है। तो जैसे शायद इसका मतलब ये था कि जगत में जो सत्य की पृथ्वी में है, तो सत्य, जो हमारे लिए जो सत्य तक पहुँचाने वाली चीज़ें होती है वो भी जगत में ही है तो हम लोग कीमती मानते हैं और उसको प्रोटेक्ट (बचाना) करना चाहते हैं । तो, ये मतलब, फिर, पर जगत में जगत के रूल (नियम) भी अप्लाई (लागू) होंगे उसपर तो क्या मतलब ये, थोड़ा सा समझना है कि

आचार्य: ये बात याद रखनी होगी न कि आप जिसकी रक्षा करना चाह रहे हो वो आपके लिए व्यक्तिगत रूप से आवश्यक हो सकता है क्योंकि वो आपके व्यक्तित्व को, इस जीव को जो आप है, सत्य तक पहुँचाएगा। ठीक है?

तो वो आपके लिए एक माध्यम की तरह है। माध्यम तो सत्य नहीं होता। माध्यम की रक्षा ज़रूरी हो सकती है और ये एक समुचित कारण है माध्यम को रक्षा देने का कि ये मुझे सत्य तक पहुँचाएगा। ठीक है? पर वो माध्यम स्वयं सत्य नहीं है न?

तो जब मैं कहता हूँ कि इस जगत में सत्य को रक्षा की ज़रूरत होती है तो वास्तव में उसका अर्थ यही है कि इस जगत में जो माध्यम है आपको सत्य तक ले जाने के, या जो माहौल हैं जिनमें लोगों का मन सच्चाई तक पहुँचता है, ऐसे माहौलों को सुरक्षा देने की ज़रूरत होती है। लेकिन वो माहौल कोई अपने आपमें सत्य नहीं है।

मूल्यवान है, बहुत मूल्यवान है, आपके लिए मूल्यवान है सत्य के लिए मूल्यवान नहीं है। सत्य तो कुछ है ही नहीं उसे क्या फ़र्क पड़ता है? ये पूरी दुनिया नष्ट हो जाए। ये पूरी दुनिया नष्ट हो जाए, इससे सच्चाई पर कौनसी आँच आ जाएगी?

लेकिन इस दुनिया में जो प्रार्थियों के लिए सच के सहारे हैं और सच की ओर जाने वाले रास्ते हैं, वो अगर नष्ट हो गए तो प्रार्थियों पर बहुत आँच आ जाएगी। नहीं समझ रहे हो? सच तक कोई साधक, कोई प्रार्थी, कोई मुमुक्षु न पहुँचे, सच को कोई फ़र्क पड़ता है?

लेकिन अगर कोई वहाँ तक नहीं पहुँचा तो किसको फ़र्क पड़ेगा? जो नहीं पहुँचे उन्हें ज़रुर फ़र्क पड़ जाएगा। तो सच के लिए कुछ भी मूल्यवान नहीं है, सच तो स्वयं अमूल्य है—इन्वैल्यूअबल। तो सच के लिए तो कोई भी चीज़ मूल्यवान नहीं है—वैल्यूएबल नहीं है।

लेकिन तुम अगर सच को अमूल्य कहते हो तो तुम्हें दुनिया में उन सब चीज़ों को मूल्य देना पड़ेगा जो तुम्हें सच की ओर ले जाती हैं। उनकी सुरक्षा करनी पड़ेगी। अपनी खातिर, सच की खातिर नहीं, अपनी खातिर। तो ये मत सोच लेना कि मैंने कह दिया सच को सुरक्षा की ज़रूरत है तो तुम सच पर एहसान कर रहे हो सच को सुरक्षा देकर।

तुम सच पर नहीं एहसान कर रहे, तुम अपनी खातिर उन सब रास्तों की, उन सब ज़रियों और माध्यमों की रक्षा करो जो सच तक जाते हैं, अपनी खातिर।

प्र: और एक और सवाल है आचार्य जी कि जैसे कोड और कम्पाइलर की बात हुई थी तो जो कम्पाइलर, तो जो माध्यम है फिर वो भी कोड और कम्पाइलर वाले के ही पार्ट हैं, तो इसका मतलब है कि कोड में ये भी है कि वो सच का हिंट्स हमको दे रहा है।

आचार्य: बिलकुल, बिलकुल। ये खास तरह के कोड और कम्पाइलर हैं जिनमें ये सम्भावना छुपी हुई है कि तुम इस कोड-कम्पाइलर सिस्टम से बाहर आ सकते हो। इस द्वैत मे ही ये सम्भावना छुपी हुई है कि तुम अद्वैत तक पहुँच सकते हो इस द्वैत का ही सहारा लेकर के।

इसी बात को आगे बढ़ाओ तो यह भी कह सकते हो, “अरे! इस द्वैत के अलावा और है क्या तुम्हारे पास सहारा माँगने के लिए?” तुम्हें और किससे सहारा मिलेगा? इस दुनिया के अलावा तुम कहा जाओगे सहारा पूछने के लिए? तो जो है यही पर है। वही बात यहाँ आगे श्लोक में भी कही गई है—

समस्त प्राणियों में छुपा हुआ है। वो समस्त प्राणियों में छुपा हुआ है—’सर्वभूतेषु गूडह:’।

तुम्हारा सहारा, तुम्हारे इस कचरे के भीतर ही छुपा हुआ है। उस कचरे को तुम मान सकते हो कि इस खाल के भीतर का कचरा। ऐसे भी देख सकते हो खाल के भीतर क्या?—मल, मूत्र, गन्धाता कचरा। उसी कचरे के भीतर एक खास जड़ी छुपी हुई है जो तुम्हारा उपचार करेगी और उसी बात को ऐसे भी देख सकते हो कि ये पूरी दुनिया क्या?—’कचरा ही कचरा’।

लेकिन इसी दुनिया में ऐसे सहारे भी छुपे हुए हैं, ऐसे, ऐसे गुप्त द्वार भी छुपे हुए हैं—गुप्तद्वार क्यों बोलूँ, खुली किताब है जो तुमको इस दुनिया से बाहर निकालते हैं, मुक्ति देते हैं। जैसे भूल-भुलैया से बाहर जाने के रास्ते कहाँ होते हैं?—भूल-भुलैया में ही होते है। तो जगत से जो चीज़ तुमको तार सकती है, उद्धार के वो रास्ते भी जगत में ही मिलेंगे।

वो तुम्हारी अब मर्ज़ी और तुम्हारी कुशलता पर है कि तुम भूल-भुलैया की दीवारों पर सर पटक-पटक कर मार जाते हो या होशियारी से रास्ते-दरवाज़े खोज लेते हो। ज़्यादातर लोगों का क्या होता है? भूल-भुलैया में ऐसा नहीं होता कि तुम्हें कोई रास्ता नहीं मिला। गए हो भूल-भुलैया? गए हो?

वहाँ ऐसा थोड़ी होता है कि रास्ता नहीं मिला, रास्ता नहीं मिला। वहाँ रास्ते सबके पास होते हैं। रास्ते ही रास्ते हैं उसके अंदर, तभी तो वो भूल-भुलैया है। और हर किसी को क्या लग रहा होता है? मुझे मिल गया है रास्ता, सही रास्ता मिल गया। वहा तुम्हें कोई ऐसा नहीं मिलेगा जो सर खुजा रहा हो कि, “अरे! रास्ता नहीं मिल रहा।”

वहाँ हर व्यक्ति तुम्हें चलता ही नज़र आएगा जैसे संसार मे हर कोई गति कर रहा है। वहाँ भी हर आदमी चल रहा होता है, चल ही रहे हैं, सब चल रहे हैं। सबको पूरा भरोसा, मिल गया, इस बार तो मिल गया। छः बार से बेवकूफ़ बन रहे थे, इस बार तो मिल ही गया।

ये भूलभुलैया है, जहाँ दरवाज़े और भरोसा ऐसे हैं जैसे किसी शातिर अपराधी के दो हाथ, वो आपस मे मिलकर के काम करते हैं। दरवाजे माने? वो जो तुम्हें विकल्प दिखाई देते हैं दुनिया में, एक दरवाज़ा, दो दरवाज़ा, तीन दरवाज़ा। भरोसा माने? उन विकल्पों में तुम्हारी वो बुद्धि जो चुनाव करती है कि यही दरवाज़ा तो सही है। तो ये जो हमारा इतना पिटा हुआ अंजाम है, ये दरवाजों और भरोसों की साज़िश का छुपा परिणाम है। एक तरफ़ दरवाज़े धोखा दे रहे हैं बाहर से, और दूसरी तरफ़ हमारा भरोसा धोखा दे रहा है भीतर से। दोनों तरफ़ से धोखा खा गए बच्चू। यही हो रहा है न, भूलभुलैया।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=AJrsMQwokZ4

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