प्रश्नकर्ता: कोई भी जैसे सार्थक काम है या राम का काम या कोई ऐसा काम जो मुक्ति में सहायक है, वो कैसे करें? मतलब अपनी कॉलिंग (पेशा) को कैसे पहचाने? लाइक कोई जैसे कोई एक डॉक्टर है तो सपोज़ दैट (मान लो कि) अपना काम करता है या अपना ऐसा क्लिनिक (चिकित्सालय) खोल लेता है जो असहाय या गरीबों के लिए है या वो जिस किसी भी जितना बन पाता है वो क्लिनिक में ट्रीटमेंट (इलाज) के बाद उसे दे देता है। तो मे बी (शायद) भी उसके लिए वो राम का काम हो सकता है क्योंकि उससे वो अपना आजीवन चला रहा है। मतलब अपनी जीविका के लिए उसको यूज़ (इस्तेमाल) कर रहा है।
कोई टीचर ( शिक्षक) है, ऐसे ही असहाय ग़रिबों को पढ़ा रहा है। जो भी उससे बन पड़ता है किसी से उसको देता है। उसका अपना जीवन चल रहा है तो ये हो सकता है। पर कोई जैसे एंप्लॉयी (कर्मचारी) है और ऐसा काम नहीं कर पा रहा है। लाइक जो दूसरों के लिए है, अपने लिए ही कमा रहा है और तो अपनी कॉलिंग को कैसे पहचाने वो या जो काम कर रहा है। उसी को अच्छे तरह से करना ही सार्थक होगा या अपनी कॉलिंग को कैसे जानेगा वो?
आचार्य प्रशांत: तुम शुरू में ही सारा खेल ख़त्म किये दे रहे हो फिर मुझसे पूछ रहे हो जीतें कैसे तो मैं क्या बताऊँ? तुम्हारा ऐसा है कि पूछ रहे हो कि आचार्य जी, फ़ॉलो ऑन (अनुसरण) था, चार-सौ रन से पीछे थे और दूसरी पारी में भी अस्सी रन पर नौ विकेट गिर गये हैं। अब बताइए जीते कैसे? मैं कहूँ, ‘ये सब हुआ क्यों है?’ तो कहो, ‘नहीं, नहीं वो तो होगा इस बार भी हुआ है, अगली बार भी होगा। बस आप ये बता दीजिए कि एक विकेट बचा है। तीन-सौ-बीस बनाने हैं और, तो जीता कैसे करें?
अब ऐसा कभी एकाध बार हो तो उसका कुछ शायद उपाय हो भी सकता है। पर तुम कह रहे हो कि तुम्हें हर मैच में ये नौबत तो आवश्यक रूप से, अनिवार्य रूप से पैदा करनी ही है। पहले फ़ॉलो ऑन करोगे, घटिया बॉलिंग (गेंदबाज़ी) करोगे, फिर घटिया बैटिंग (बल्लेबाज़ी) करोगे। सब वो काम करोगे जो नहीं करने चाहिए और फिर जब एकदम एक क़दम दूर होओगे हारने से तो कहोगे— आचार्य जी, अब क्या करें?
तुम कह रहे हो, ‘कोई आदमी है जो एंप्लॉयी है और वो काम करे ही जा रहा है और वो।‘ क्यों है भाई एंप्लॉयी वो, क्यों करे ही जा रहा है? तुमने पहले ही ये सारी बातें बाँध दी, सुनिश्चित कर दी। अब मेरे बोलने को क्या बचा? मैं भी कभी एंप्लॉयी था। मैं भी यही कह देता— ‘भैया, इतनी मेहनत करी है, ये परीक्षा, वो परीक्षा, ये सब करा है। अब ज़रा वसूलने के दिन आये हैं, मोटा पैसा मिल रहा है। विदेश में जाकर के बैठ जाएँगे, सेटल-वेटल हो जाएँगे।‘ तो फिर? तो मेरे सामने जब कोई इस तरह की बातें लेकर के आता है कि अगर कोई एंप्लॉयी जो दिनभर सिर्फ़ काम करता है और सैलरी कमाता है तो अब वो आध्यात्मिक मुक्ति कैसे हासिल करे?
तो मैं कहूँगा, ‘तुझे चाहिए क्यों आध्यात्मिक मुक्ति?’ तूने तो पहले ही तय कर लिया है कि तुझे दिनभर अपनी चुनिंदा नौकरी करनी है, कमाना है, खाना है, जो भी करना है। अब इसके बाद आचार्य जी के बचाने के लिए क्या बचा? इतनी सस्ती चीज़ थोड़े ही है, सच्चाई या मुक्ति कि तुम मज़्जा मा नौकरी भी करते रहोगे। कम्पनी का ब्राण्ड भी उठाये रहोगे, बीवी के घरवालों को भी ये बताये रहोगे कि देखिए, लड़का बड़ी कम्पनी में काम करता है। गुड़गाँव की एमएनसी (बहुराष्ट्रीय कम्पनी) है और भीतर-ही-भीतर चुपके-चुपके तुम्हें कृष्णफल की प्राप्ति भी होती रहेगी।
तुम तो दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हो। एक में लड्डू, दूसरे में बर्फी रखना चाहते हो। ऐसे थोड़े ही होता है कि आचार्य जी मेरी ज़िन्दगी जैसी चल रही है, वैसी चलती भी रहे और साथ-ही-साथ मुझे आध्यात्मिक आनन्द भी प्राप्त हो जाए, ऐसे कैसे हो जाएगा, भाई। अध्यात्म चोरी-छुपे किसी को कोई चीज़ दे देने का विज्ञान थोड़े ही है? अध्यात्म का तो मतलब ही होता है, पूरा जीवन बदले।
तुम कह रहे हो—‘नहीं, पूरा जीवन न बदले, बस जो अन्तिम फल है, वो धीरे से चुपके से प्राप्त हो जाए।‘ तो परीक्षा में नकल करने जैसी बात हो गयी कि पूरे साल पढ़ाई भी नहीं करेंगे, मौज मारेंगे और अन्त में छियानवे प्रतिशत भी आना चाहिए। कोई नकल करा दे, कैसे करा दे, अध्यात्म में होती ही नहीं। थोड़ी ठोकरें तो खानी पड़ेंगी न, मेहनत तो करनी पड़ेगी न। अब मैं असंवेदनशील नहीं हूँ मैं समझता हूँ नौकरी का मुद्दा नाज़ुक होता है। तुम्हें अपना पेट भी पालना है, कई बार तुम पर आश्रित लोग होतें हैं उनका भी पालना है।
लेकिन देखो, फिर कोई अनिवार्यता तो है नहीं कि तुम आध्यात्मिक मुक्ति की बात करो। तुम्हें अगर यही लग रहा है कि पेट पालना ही ज़रूरी है तो तुम पेट पाले जाओ न। फिर तुम इस तरह के सवाल ही क्यों उठाते हो कि मुझे जी, परमात्मा को पाना है, ये करना है, वो करना है। काहे को पाना है परमात्मा को? पगार पा तो रहे हो और ये बात मैं तुम्हें अपमानित करने के लिए नहीं बोल रहा हूँ।
ये मैं इसलिए थोड़े बोल रहा हूँ कि अध्यात्म कोई शौक़ थोड़े ही है, कोई हॉबी थोड़े ही है। कि वो असल में अभी थोड़ा समय बच जाता है। शुक्रवार तक तो नौकरी में ही जुझे रहते हैं। रविवार को कपड़े-वपड़े धोते हैं अगले हफ्ते की तैयारी के लिए और सो जाते हैं कि सोमवार को फिर से पिलना है। शनिवार की शाम को क़रीब दो-ढाई घंटे बच जाते हैं। तो ये बताइए आचार्य जी, कि उसमें समाधि कैसे पाऊँगा मैं, ढाई घंटे क़रीब होते हैं मेरे पास हफ्ते में, समाधि बता दीजिए।
तुम्हें करना क्या है समाधि का? जाओ पिक्चर देखकर आओ ढाई घंटे। तो कोई अनिवार्यता थोड़े ही है कि फ़ैशन है कि सब पाये जा रहे हैं, कुछ तो हमें भी पाना है। कोई ज़रूरी नहीं है, जैसे आम आदमी ज़िन्दगी गुज़र कर रहा है, तुम भी गुज़ारो। मज़े करो न, खाओ-पिओ, पिक्चर देखो, जाओ पेरिस घूमकर आओ और अगर तुम्हारे भीतर वास्तव में, ईमानदारी से अब लौ लग ही रही है तो फिर ये मत कहो कि नौकरी तो जैसी चल रही है वैसी ही चलेगी। फिर थोड़ा सा या हो सकता है ज़्यादा संघर्ष करने को तैयार रहो।
नौकरियाँ बदलनी पड़ती हैं, आमदनी के वैकल्पिक रास्ते तलाशने पड़ते हैं। हो सकता है, अभी तुम पचास हज़ार कमा रहे हो। हो सकता है, ऐसी नौकरी पकड़नी पड़े जिसमें बीस ही हज़ार मिलता हो। तो कुछ पैसा भी क़ुर्बान करना पड़ता है और वो क़ुर्बानी मैं फिर कह रहा हूँ, कोई जबरन तुमसे नहीं वसूल सकता कि क़ुर्बान कर, कोई तुम्हारी गर्दन पकड़कर क़ुर्बानी थोड़े वसूलेगा! वो क़ुर्बानी तो स्वेच्छा से की जाती है, वो क़ुर्बानी वास्तव में क़ुर्बानी है ही नहीं, वो तो भुगतान है।
किस चीज़ का भुगतान है? किसी ऐसी बहुत बड़ी चीज़ का बहुत छोटा भुगतान है जिससे तुम्हें प्यार हो गया है। एक बहुत बड़ी चीज़ है जिससे तुम्हें प्यार हो गया है और उसके लिए तुम्हें बहुत छोटा सा भुगतान कर रहे हो कि तुमने अपनी पगार में कटौती स्वीकार कर ली।
बात समझ में आ रही है?
जैसे करोड़ों-अरबों की चीज़ है और उसके लिए तुम्हें एक छोटी सी क़ीमत ये चुका रहे हो कि चलो उस अरबों की चीज़ को पाने के लिए, मैं अपनी तनख्वाह आधी करने को तैयार हूँ। और मेरी बात से ये मत समझ लेना कि अध्यात्म का मतलब होता है कि तनख्वाह आधी हो ही जाएगी निश्चित रूप से, ये कोई नियम नहीं है। आधी क्या, चौथाई भी हो सकती है और ये भी हो सकता है कि दूनी हो जाए। ऐसा कोई श्लोक कहीं नहीं वर्णित है कि, हे अर्जुन! तुझे अपनी पगार में अस्सी प्रतिशत की कटौती करनी पड़ेगी।
लेकिन इतना तो हर जगह वर्णित है कि मामला जैसा चल रहा है, ज़िन्दगी जैसी चल रही है, तुम उसे भी सुरक्षित रखना चाहते हो और साथ-ही-साथ सच्चाई भी पाना चाहते हो, आज़ादी भी पाना चाहते हो तो भैया, ऐसा तो नहीं होगा। तुमने पूछा, कॉलिंग का कैसे पता करें? कॉलिंग कोई चीज़ होती नहीं है।
तुम जिस काम में फँसे हो, उससे छूटने के लिए जो दूसरा काम करना पड़ता है वो कॉलिंग कहलाता है। अन्यथा जो उच्चतम अवस्था है, जहाँ तुम्हें अन्ततः पहुँचना है, जो मंज़िल है। उस जगह पर कोई काम थोड़े शेष बचता है। काम तो सारे करे जाते हैं उस मंज़िल तक पहुँचने के लिए। येकॉलिंग क्या चीज़ है? कॉलिंग से तुम लोगों का कुछ रोमांटिक (रूमानी) सा आशय होता है कि वो काम जिसको करने में मैं बिलकुल एकदम खो जाऊँ, लीन हो जाऊँ, भीतर से तराना उठने लगे, उसको बोलते हो कॉलिंग। ये कोई आध्यात्मिक सिद्धान्त है ही नहीं कॉलिंग।
‘जो चीज़ तुम्हारा बन्धन है, उसको काटने के लिए जो काम करना पड़े, वो कालिंग है तुम्हारी।‘
बात समझ में आयी?
तो पहले क्या देखोगे कॉलिंग या अपना बन्धन? ये देखो कि किस चीज़ ने तुमको जकड़ रखा है। जिस चीज़ ने तुमको जकड़ रखा है उससे आज़ाद होने के लिए कुछ और करना पड़ेगा न। ये दुनिया है, भाई, यहाँ कर्म करना पड़ता है तो जिस भी चीज़ ने तुमको पकड़-जकड़ रखा है। उससे छूटने के लिए कुछ कर्म करना पड़ेगा, है न?
जो कर्म तुम्हें मुक्ति दिला दे उसे कहते हैं कॉलिंग। जो कर्म तुम्हें मुक्ति दिला दे। इसीलिए वो सबके लिए अलग-अलग होगा, क्योंकि कोई कहीं फँसा हुआ है, कोई कहीं फँसा हुआ है।
किसी की ज़ंजीर लाल है, किसी की काली है। किसी की ज़ंजीर हो सकता है यज्ञोपवीत हो। किसी की ज़ंजीर कोई अंगूठी हो सकती है। सबकी ज़ंजीरें अलग-अलग होती हैं न कि नहीं? वो तुम देख लो तुम्हारी ज़ंजीर क्या है। क्या पता तुम्हारे सोने की घड़ी ही ज़ंजीर हो तुम्हारी! उस ज़ंजीर को काटने के लिए जो काम तुम करोगे उसको कहोगे कॉलिंग।
और जब ज़ंजीर कट जाएगी तो कॉलिंग का भी कोई महत्व बचेगा नहीं, इसीलिए कॉलिंग कोई आख़िरी चीज़ नहीं है। कॉलिंग का भी महत्व सिर्फ़ तब तक है जब तक काम शेष है। काम जब पूरा हो गया तो न काम बचता है, न काम करने वाला बचता है, न कॉलिंग बचती है।