जब मन 'सिक' हो जाता है तो उसे कहते हैं मानसिकता || आचार्य प्रशांत, युवओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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जब मन 'सिक' हो जाता है तो उसे कहते हैं मानसिकता || आचार्य प्रशांत, युवओं के संग (2012)

आचार्य प्रशांत : तुम ये कह रहे हो, कि मेरे दृष्टिकोण से परिणाम पर अंतर पड़ता है के नहीं? ये कह रहे हो? ये जानना चाहते हो?

तो, ये तो तुम सब सोचते ही यही हो ।

श्रोता : आपसे एक सवाल पूछना है …

आचार्य जी : तुम इसका तो सुनो पहले सवाल ! अब ये क्या कर रहे हो देखो, एक सवाल चल रहा है, तुमने वो सवाल सुना भी नहीं । अपने में ही खोए हुए थे ।

हम सब दृष्टिकोण में ही तो ज़िंदा हैं । रवैए का क्या मतलब होता है? ‘मानसिकता’ । मैं मानसिकता को बड़े मज़े तरीके से देखता हूँ । मैं कहता हूँ,

जब मन ‘सिक’ हो जाता है, तो उसे कहते हैं ‘मानसिकता’ ।

दृष्टिकोण का मतलब ये है, कि मैं पहले से ही एक नज़रिया बना के बैठा हूँ । जब मैं पहले से ही एक नज़रिया बना के बैठा हूँ, तो अब क्या मैं जान सकता हूँ, कि हक़ीक़त क्या है?

अगर मेरा किसी भी परिस्थिति या इंसान की तरफ एक नजरिया है , तो क्या ये मेरे लिए सम्भव है जान पाना की वास्तविक रूप से चल क्या रहा है ? पर तुम तो दृष्टिकोण को बहुत क़ीमती चीज़ समझते हो । टी-शर्ट्स चलती हैं, “योर एटीट्यूड डेटरमिन्स योर एल्टीट्यूड (आपका दृष्टिकोण आपकी ऊँचाई निर्धारित करता है)।”

*दृष्टिकोण* अपने आप में बड़ी बेहूदी चीज़ है । *दृष्टिकोण* का मतलब ये है कि मैं पहले ही कुछ पूर्वाग्रही, पक्षपातपूर्ण, तरीके से चल रहा हूँ ।

हाँ?

पाकिस्तान के बारे में हमारा क्या दृष्टिकोण है? एक पाकिस्तानी बैट्समैन कितनी भी अच्छी बैटिंग कर रहा हो, ताली बजायी जाएगी? भले ही उसने ‘क्लासिकल कवर ड्राइव लगाया हो ! दिखाई भी पड़ता है? बड़ा मुश्क़िल हो जाता है । बस यही दिखाई पड़ता है कि यार, जीत ना जाएँ । एक चौका और मार दिया ।

एक बार जब आप कोई रवैया रखते हैं, तो आप पूरी तरह से वास्तविकता से अलग हो जाते हैं । क्योंकि सारी दृष्टि भूत से आती है । अभी रवैए का मतलब है कि मन को एक विशेष आकार में ढाल दिया गया है ।

नहीं आ रही बात समझ में?

अब वो जो एक तरह का ढला हुआ आकार है, वो परिणाम को तो प्रभावित करेगा ही करेगा और वो हमेशा एक घटिया परिणाम होगा ।

श्रोता : अगर हमारी दृष्टि सकारात्मक है तो?

आचार्य जी : सकारात्मक दृष्टि कुछ होती ही नहीं । ये तुम्हें किसने बोला कि ‘सकारात्मक’ और ‘नकारात्मक’ कुछ होता है? ‘दृष्टिकोण ’ अपने आप में ही पूर्णतः निरुपयोगी है ।

‘सकारात्मक’ और ‘नकारात्मक’ दृष्टिकोण क्या होता है? वो वहाँ बोर्ड लगा हो, उस पर कुछ लिखा हो । दो लोग बैठे हैं, दोनों ही ध्यान नहीं दे रहे, दोनों को ही समझ में नहीं आ रहा क्या है? एक ‘सकारात्मक दृष्टि’ वाला है, वो कहता है, पता है उस पर क्या लिखा है? मेरी बीवी बहुत खूबसूरत होगी । एक ‘नकारात्मक दृष्टि ‘ वाला है, वो कहता है, पता है उस पर क्या लिखा है? मेरी बीवी हिडिम्बा होगी ।

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये दोनों ही बेवक़ूफ़ हैं कि नहीं हैं? दोनों ही को पता है क्या कि वास्तविकता क्या है? दोनों को ही पता है क्या, वास्तविकता क्या है? पर जो ‘सकारात्मक दृष्टि’ वाला होगा वो खुश हो जायेगा, ‘कहेगा देखा प्रमाणपत्र मिल गया’ ! फोटो-वोटो खींच लेगा । बहुत बढ़िया । जो ‘नकारात्मक दृष्टि ‘ वाला होगा, वो कहेगा, मैं तो जानता ही था ख़ुदकुशी कर लेनी चाहिए थी कल । कल ही कर ली होती तो आज ये जानने को ना मिलता ।

(श्रोतागण हँसते हैं)

दोनों को ही कुछ भी पता है, कि हक़ीक़त क्या है?

*दृष्टि* का मतलब ये है कि मैं कभी भी वास्तविकता नहीं जान पाऊँगा । मैं अपनी ही दृष्टि में जिए जा रहा हूँ । मेरा वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं है । वास्तव में किसी भी के साथ वास्तविकता को जानना असम्भव है ।

श्रोता : परन्तु, अगर आभासी जीवन से बहुत संतुष्टि मिल रही हो तो वास्तविकता जानने की ज़रुरत है क्या?

आचार्य जी : आभासी जीवन कभी भी पूर्णतः संतुष्टि नहीं दे सकता । क्योंकि वास्तविकता किसी ना किसी ज़रिये से अपने आप को महसूस करवाएगी ही ।

आप एक बुलबुले में रह सकते हैं, पर एक ना एक दिन वो बुलबुला फटेगा ही । वो आभासी जीवन कभी न कभी चकनाचूर होगा ही होगा । आप सदैव एक बुलबुले में नहीं रह सकते । उदाहरण के लिए, कोई सामने दरवाज़े से आये, और आप एक आभासी दुनिया में जी रहे हों; आप सोच रहे हैं कि ये मेरा मित्र है । जैसे कि मानसिकताएँ भूत से आती हैं, उसी भूत को नींव बना के आप कह रहे हैं, ये मेरा मित्र है । आपकी उसके प्रति एक मानसिकता है । सही? पर वो व्यक्ति तो वही है, जो है । क्या वो भी आपकी मानसिकता के आकार के अनुकूल होगा? वो आएगा, तुम अपनी कल्पनाओं में खोए रहो, कि मेरा तो दोस्त है । पर जब वो आएगा, तुमसे मिलेगा, तो वो हक़ीक़त तो स्पष्ट हो ही जानी है ना? फिर आएगी पीड़ा । वो आभासी जीवन, वो बुलबुला, फटेगा और पीड़ा देगा । क्योंकि मनुष्य की नियति ही है, कि आगे या पीछे, वास्तविकता से मिलन होना ही है ।

हमने क्या कहा, हमारा तत्व क्या है? हमारी?

श्रोतागण : बुद्धिमत्ता ।

आचार्य जी : तुम उसको कितना भी चादरों से दबा दो, वो बुद्धिमत्ता अपने आप को व्यक्त करेगी । उसी का नाम वास्तविकता है । और तुम को पता तो चल ही जाएगा कि असलियत क्या है । और फिर तुम्हें दुःख होगा, बहुत अफ़सोस होगा । अगर तुम कल्पनाओं में जी रहे हो, तो एक दिन जब वास्तविकता अपने आप को व्यक्त करेगी, तो फिर तुम्हें बहुत अफ़सोस होता है ।

मेरी कक्षा में मुझे सब ने बोला है कि मैं गणित में बहुत अच्छा हूँ ! तुम्हारी तो जे.ई.ई. एंट्रेंस की परीक्षा में टॉप १०० में रैंक आनी ही आनी है । और मेरे कस्बे में मैं ही सबसे महारथी हूँ । जिस कोचिंग केंद्र में पढ़ने जाता हूँ, वहाँ सबसे पहले मैं ही हल करता हूँ, कैलकुलस के सारे सवाल, और ये मेरा आभासी संसार है । मेरे छोटे से, जितना मुझे दूसरों ने बता दिया, एक संकुचित कुछ । और फिर जे. ई. ई. का परिणाम आता है । और मेरी पूरे भारत में रैंक आयी है तीस हज़ार । अब क्या होगा? बुलबुला तो फूटा ही ना? और उसमें कब तक खुश रह लोगे? वो टूटेगा, वो फटेगा । और जब फटेगा तो क्या होगा? जिस दिन परिणाम निकलेगा कि तीस हज़ार रैंक आयी है, तो उस दिन क्या होगा? और वो तीस हज़ार रैंक आयी ही क्यों है? क्योंकि तुम आभासी संसार में रह रहे थे । अगर तुम आभासी संसार में नहीं होते तो क्या तुम्हारा इतना बुरा हाल होता?

बहुत लोगों को यहाँ भी ताज्जुब हुआ होगा ना, जब रैंक आयी थी? कितने लोगों को हुआ था? और आज तक अफ़सोस है ! कितने लोगों को लगता है, गलत जगह फँस गए? मैं तो किसी बहुत अच्छी जगह के लायक था ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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