ईर्ष्या और द्वेष के विचार क्यों आते हैं? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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ईर्ष्या और द्वेष के विचार क्यों आते हैं? || आचार्य प्रशांत (2018)

आचार्य प्रशांत: (लिखित प्रश्न पढ़ते हुए) हर्ष हैं मुंबई से। कैसे हो हर्ष? आचार्य जी प्रणाम, आशीर्वाद। ईर्ष्या और द्वेष के विचार मन में क्यों आते हैं? क्योंकि ईर्ष्या और द्वेष ही मन है, हर्ष! मन जब बना था न और मन जब बनता रहता है, तो उसको बनाने की सामग्री ही यही है ईर्ष्या और द्वेष।

वो इन्हीं चीज़ों से निर्मित है और इन्हीं चीज़ों को आकृष्ट करता है। जब पूछते हो कि ईर्ष्या और द्वेष मन में क्यों आते हैं तो ऐसा लगता है जैसे तुम्हारी मान्यता हो कि मन तो अपनेआप में बहुत साफ़ और पवित्र ज़गह है जहाँ पर बाहर से ईर्ष्या और द्वेष नामक गन्दी चीज़ें यूँही दुर्घटनावश, संयोग बस आ जाती हैं।

मन अपनेआप में कोई साफ़ सुथरी ज़गह नहीं और ईर्ष्या और द्वेष कोई बाहर से आने वाली चीज़ें नहीं और ईर्ष्या और द्वेष का मन में पाया जाना न कोई दुर्घटना है न कोई संयोग है। मन माने ‘ईर्ष्या’ मन माने ‘द्वेष’। वो तो वहाँ होंगे ही।

बात समझ रहे हो?

तुम्हारा सवाल ऐसे ही है जैसे कोई पूछे शरीर में खून क्यों पाया जाता है। अरे! भाई, शरीर माने खून। खून नहीं तो कैसा शरीर? ईर्ष्या और द्वेष मन की सामग्री है। कहीं से आ नहीं गयी है। इन्हीं के साथ पैदा हुए थे तुम।

तो सबसे पहले तो ये देखना है कि ये भीतर ही मौज़ूद है। हाँ बाहर से जब कोई इशारा नहीं मिलता, बाहर से जब कोई उत्तेजना नहीं मिलती, तो ये ईर्ष्या और द्वेष सोये पड़े रहते हैं। जब ये सोये पड़े रहते हैं तो तुम्हें लगता है कि अभी मुझमें ईर्ष्या नहीं है द्वेष नहीं है।

लेकिन बारूद है भरा हुआ है भीतर, बाहर से एक छोटी भी चिंगारी अगर आ गयी तो फिर आग लगती है, धमाका होता है। इसमें दोष चिंगारी का थोड़े ही है। कितनी चिंगारियों को रोकोगे?

कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं, कभी इधर से नहीं तो कभी उधर से चिंगारी आ ही जायेगी। तो फिर एक ही तरीक़ा है, तुम पूछो अपनेआप से कि अगर मन ऐसा ही है संरचना ही उसकी ऐसी है तो मुझे उसको साथ लेकर चलना है क्या।

मन ने तो तय कर रखा है कि वो गन्दा ही रहेगा, ईर्ष्या भी रहेगी, द्वेष भी रहेगा, मद, माया, मोह, सब रहेंगे उसमें। मन ने तो तय कर रखा है कि वो नहीं बदलेगा, अपनी ही चाल चलेगा। जब वो अपनी ही चाल चल रहा है, तो मेरे लिए क्या आवश्यक है कि मैं उसके पीछे-पीछे चलूँ।

जब वो मेरी नहीं सुनता तो मेरे लिए आवश्यक है क्या कि मैं उसकी सुनूँ। वो मेरा अनुगमन नहीं करता मैं उसका अनुगामी क्यों बनूँ। जिसने देख लिया कि मन तो अपनी ही चाल चलता है, वो फिर मन की संगति करना छोड़ देता है।

कहता है, ‘मन को जो करना हो सो करे, हम अपने हिसाब से चलेंगे। हमारा मालिक मन नहीं है। हमारा मालिक कोई और है। हमारा हिसाब-किताब मन नहीं तय करेगा कोई और तय करेगा।’

और जब तुम मन की संगति त्यागकर के किसी और के साथ रहना, बसना, चलना, उठना-बैठना शुरु कर देते हो तो एक अप्रत्याशित घटना घटती है।

मन की चंचलता, मन के उद्वेग अपनेआप शान्त हो जाते हैं, शिथिल पड़ जाते हैं क्योंकि मन की चंचलता को, सब राग-द्वेष को, ऊर्जा तो तुम्हारी संगति से ही मिल रही थी। समझना, राग और द्वेष तो वृत्ति रूप में मन में सदा से ही बैठे रहते हैं; पर वृत्ति के पास अपनी कोई बहुत ऊर्जा नहीं होती है।

वृत्ति एक बार को उबाल मार सकती है वृत्ति एक लहर उठा सकती है। वृत्ति क्रोध का, कामना का एक भभका मार सकती है, लेकिन उसको सतत बनाने के लिए, उसको दीर्घजीवी बनाने के लिए वृत्ति के पास ऊर्जा नहीं होती है।

वृत्ति के पास इरादे तो होते हैं, उन इरादों को पूरा करने के लिए ऊर्जा नहीं होती है। तो वृत्ति के फिर काले इरादों को पूरा करने के लिए कहाँ से मिलती है उसको ऊर्जा? उसको ऊर्जा मिलती है तुम्हारी संगति से।

एक विचार आया तुम उस विचार के समर्थन में खड़े हो गये, तुम उससे लिप्त हो गये। अब तुम उस विचार को आगे बढ़ा रहे हो। तुम सोचे ही जा रहे हो, तुम सोचने में रस ले रहे हो। कैसे? एक घटना घटी वो तो घट के बीत भी जाती, पर तुम उस घटना से चिपक ही गये।

और अब तुम बात को तूल दे रहे हो, बात का बतंगड़ बना रहे हो। चिंगारी को पूरी ज्वाला बनाये दे रहे हो, सबकुछ उससे जलेगा। ये सब कुछ तुम्हारी संगति से होता है।

तो तुम पाते हो कि जब तुमने मन से संगति रखना छोड़ दिया तो मन की वृत्तियाँ अपनेआप शीतल होने लग जाती हैं। मर नहीं जाती बस ऊर्जाहीन हो जाती हैं।

हाँ, तुम दोबारा जाकर के उनको साथ दोगे ऊर्जा दोगे तो वो दोबारा खड़ी हो जायेंगी, पर तुम क्यों जाओगे दोबारा उनके पास, जिसको मन के आगे का कुछ मिल गया। वो क्यों जाएगा लौटकर मन के पास?

जिसको विशुद्ध अमृत मिलने लग गया वो क्यों जाएगा लौटकर कीचड़ के पास। पर उस अमृत की भी आदत डालनी पड़ती है। उसके साथ समय बिताना पड़ता है।

अमृत तुम्हारे जीवन में हो भी लेकिन तुम बार-बार लौटकर अगर कीचड़ के पास जाओगे तो तुम्हें अमृत की आदत नहीं पड़ेगी। तुम्हें अमृत के साथ इतना जुड़ जाना पड़ता है कि कीचड़ तुम्हें अजनबी सा लगने लगे, अपरिचित, तुम कहो तुम कौन हो? हम तुम्हारे साथ अब कैसे आयें? हम तुम्हारी संगति कैसे करें? हम कुछ नहीं जानते तुम्हारे बारे में।

अब वृत्तियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, करीब-करीब मृत। अब राग-द्वेष बचेंगे भी तो बिल्कुल अपने बीज रूप में और जिसके साथ तुम हो उसकी अगर कृपा रही तो कौन जानें कभी वो बीज भी नष्ट हो जाए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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