हिंदुओं की कमज़ोरी के तीन कारण || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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हिंदुओं की कमज़ोरी के तीन कारण || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पिछले बहुत समय से हिंदु जहाँ भी हैं उनके साथ अन्याय और अत्याचार ही हुआ है, भारत देश में भी और दूसरे देशों में भी। चाहे वह पश्चिमी देश हों और चाहे वह एशियाई देश हों, हर जगह हिंदुओं को असम्मान और उत्पीड़न मिलता रहा है और बड़े समय से मिलता रहा है। और अभी हाल के दिनों में पड़ोसी देशों में भी हिंदुओं पर अत्याचार हुए हैं। तो यह सब देखकर मेरा मन बहुत ही दुखी है कि इतने पुराने हैं हिंदु और इतने सारे हैं हिंदु, फिर भी हिंदु धर्म इतना कमज़ोर कैसे हो गया कि हिंदुओं पर जहाँ देखो वहाँ अत्याचार, इत्यादि होते रहते हैं?

आचार्य प्रशांत: देखिए! एकदम जो मूलभूत बात है वहाँ से शुरू करता हूँ। यह संवेदनशील प्रश्न होते हैं, इस पर मैं कोई भड़काऊ, उत्तेजक बात बोल दूँ, बड़ा आसान होगा और आप भी उस बात को बड़ी आसानी से ग्रहण कर लेंगे। क्योंकि हममें से ज़्यादातर लोग उसी तरह की सामग्री की तलाश में रहते हैं जो कि हमारी भावनाओं को और उत्तेजित करे और हमारे भीतर इस ख़्याल को और पुख़्ता करे कि हम शोषित लोग हैं और हमें बदला इत्यादि लेना चाहिए। तो मैं उस तरह की बात नहीं कर रहा हूँ। जो मूल बात है, जो सच्ची बात है, वह मैं आप लोगों के सामने रखना चाहता हूँ।

देखिए! धर्म को पोषण तीन जगहों से मिलता है, कोई भी धर्म हो। और यहाँ पर धर्म से मेरा वह ही मतलब है जो आपका मतलब हिंदु, मुसलमान, इसाई वगैरह से होता है। तो अभी यह बहस-कुतर्क मत करने लग जाइएगा कि देखिए साहब! धर्म और मज़हब में अंतर होता है या रिलिजन और धर्म में अंतर होता है और हिंदु धर्म और सनातन धर्म में अंतर है। वह सब बारीकियाँ मैं समझता हूँ, बहुत अच्छे से समझता हूँ पर अभी जब मैं धर्म शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ तो उसी अर्थ में कर रहा हूँ जिस अर्थ में आपने यहाँ पर कहा है कि हिंदुओं पर अत्याचार हो रहा है। जिस अर्थ में सार्वजनिक तौर से, प्रचलित तौर पर धर्म शब्द का इस्तेमाल होता है, उस तौर पर कह रहा हूँ कि धर्म को ताकत और पोषण तीन जगहों से मिलता है।

तीन जगहें कौनसी हैं? तीन जगहें होती हैं –पहली, धर्मग्रंथ। दूसरी, उस धर्म के महापुरुष, अवतारी पुरुष, पैगंबर आदि। और तीसरी, यह विश्वास, यह आस्था कि धर्म का पालन हमें आनंद तक, सत्य तक, मुक्ति तक, हमारी भलाई तक ले जाएगा; माने धर्म में विश्वास। यह तीन चीज़ें चाहिए होती हैं।

यह बिलकुल एक जानी हुई और शास्त्रीय बात है। ठीक है? धर्म के यह समझ लीजिए तीन स्तंभ हैं, इन पर धर्म की इमारत खड़ी होती है। पहला धर्मग्रंथ, दूसरा धार्मिक पुरुष, अवतार, आदि और तीसरा जनसामान्य में अपने धर्म के प्रति एकनिष्ठ आस्था। बिखरी, छितराई हुई नहीं; एकनिष्ठ आस्था। यह अडिग विश्वास कि अगर धर्म का पालन करेंगे तो हमारे साथ अच्छा होगा। हमारा धर्म मोक्षदायी है, हमारा धर्म आनंददायी है।

अब आप देखिए कि हिंदु धर्म के साथ क्या हुआ है इन तीनों ही पैमानों पर, इन तीनों ही आयामों पर। हिंदु धर्म के इन तीनों स्तंभों का क्या हुआ है, तो आप समझ जाएँगे कि हिंदु धर्म कमज़ोर कैसे हो गया। अगर किसी भी धर्म के यह तीन स्तंभ होते हैं तो हिंदु धर्म के इन तीनों स्तंभों का क्या हुआ है? पहला स्तंभ क्या है? धर्मग्रंथ। मैं उपनिषदों पर इतना ज़ोर देता हूँ और उपनिषद् केंद्रीय हैं बिलकुल हिंदु धर्म में।

हिंदु धर्म वैदिक धर्म है न? इतना तो जानते होंगे, बचपन में पढ़ाया होगा कि हिंदु धर्म के प्रमुख ग्रंथ हैं वेद। और वेदों का सार, वेदों का अमृत, वेदों का शिखर, वेदों का शीर्ष होता है वेदांत। और मैं वेदांत पर बहुत ज़ोर देता हूँ, तो हमें इस तरह की जिज्ञासाएँ आती हैं कि आचार्य जी, यह उपनिषद् होते क्या हैं? या आचार्य जी, हम उपनिषद् पढ़ना चाहते हैं, कहीं मिल नहीं रहे हैं। बताइए, कहाँ से मिलेंगे? और यह मूर्खतापूर्ण जिज्ञासाएँ नहीं हैं, वाकई उपनिषद् उपलब्ध नहीं हैं। आप बाज़ार निकल जाइए, आपके लिए कोई भी सड़ी-गली, दो टके की किताब पाना आसान है, उपनिषद् पाना आसान नहीं है। मैं नहीं कह रहा हूँ कि मिल ही नहीं सकते, मिल सकते हैं। बाहर हैं ऐसी दुकानें भी जहाँ मिलते हैं, ऑनलाइन भी मिल जाएँगे। लेकिन आप कोई छिछोरी किताब पढ़नी चाहें, एकदम घटिया-सी बेस्ट सेलर कोई, वह आपको तुरंत मिल जाएगी; उपनिषद् नही मिलेंगे। यह तो बड़ी अजीब बात है।

भाई! उपनिषद् भी एक किताब है, वह किताब कहीं पर बिकनी है। उस किताब के बिकने से किसी को दो रूपये का मुनाफ़ा ही होता होगा और अगर मुनाफ़ा होता है किसी को दो रूपये का तो एक-सौ-दस करोड़ हिंदुओं की किताब है उपनिषद्, तो यह किताब तो हर जगह पाई जानी चाहिए थी क्योंकि एक-सौ-दस करोड़ लोग हैं उसे खरीदने वाले, माँग बहुत होती—और अर्थशास्त्र का, इकोनॉमिक्स का मूलभूत नियम होता है कि अगर डिमांड है तो सप्लाई भी होगी पर सप्लाई तो दिख ही नहीं रही, उपनिषद् पाए ही नहीं जा रहे। आप किसी साधारण पुस्तक विक्रेता के पास जाकर के उपनिषद् बोलिए, उसे ही नहीं पता होगा कि उपनिषद् क्या होता है। सप्लाई वास्तव में नहीं है, लोग हमसे फिर कहते हैं कि उपनिषद् कहाँ मिलेंगे, कहाँ मिलेंगे? फिर घर-घर उपनिषद् हमने कार्यक्रम शुरू करा है। एक जनवरी से उससे आपके घरों में उपनिषद् पहुँचने भी आरंभ हो जाएँगे।

अगर उपनिषद् कही नहीं मिल रहे हैं तो इसका मतलब क्या है? यह एक-सौ-दस करोड़ हिंदु उपनिषद पढ़ना ही नहीं चाह रहे। यह हुआ है भारत में धर्मग्रंथों के साथ। आप हमसे पूछ रहे हैं हिंदु कमज़ोर कैसे हुआ है? क्योंकि धर्म का जो पहला ही स्तंभ होता है, ‘धर्मग्रंथ’, हमने तोड़ डाला हैं उसको, तोड़ डाला।

पहले भी वेदांत को जानने वाले बहुत कम थे और आज की जो पीढ़ी है यह तो रामायण-महाभारत ही नहीं जानती, वेदांत तो बहुत दूर की बात है। हिंदु धर्म! कौनसा धर्म? यह जो पीढ़ी खड़ी हुई है यह आपको किस दृष्टी से हिंदु लगती है, बताइए तो? जिस धर्म के पास कोई ग्रंथ नहीं, वह धर्म कहाँ हैं? यह सब जो नये-नये निकल रहे हैं, यह जो इंटरनेशनल स्कूलों में जा रहे हैं, यह जो लिबरल यूनिवर्सिटीज में पढ़ाई कर रहे हैं, यह बच्चे, यह लड़के-लडकियाँ, यह किस दृष्टी से हिंदु बचे हैं, बताइए तो? इन्हें राम का 'र' नहीं पता, कृष्णा जानते हैं यह। इनसे कह दो अगर लिख दो कृष्ण तो लिख नहीं पाएँगे।

भगवद्गीता के नाम पर इतना उपद्रव, इतनी असभ्यता, इतनी अशालीनता फैली हुई है। पूरी-की-पूरी वेबसाइटस हैं, यूटयूब चैनेल्स ही हैं जिसमें कृष्ण का नाम लेकर के न जाने क्या-क्या बका जा रहा है। उसमें एक चरित्र बना दिया गया है, वह आता है कृष्ण जैसी वेशभूषा करके, मुकुट डाल करके और वह समझाता है कि पड़ोसी के साथ संबंध कैसे अच्छे रखने चाहिए, बॉस के साथ कैसे अच्छे रखें, पत्नी को प्रसन्न कैसे रखें। वह बताता है कि यह सबकुछ गीता में दिया गया है। यह करा है हमनें अपने धर्मग्रंथों के साथ।

कोई भी धर्म अपने ग्रंथों का मख़ौल उड़ाना बर्दाश्त नहीं करेगा, हिंदु धर्म के अलावा। अरे! तुम्हें मज़ाक़ करना है, बहुत चीज़ें मिल जाएँगी; तुम्हें गीता मिली है मज़ाक़ बनाने के लिए? क्या है यह? आप किसी साधारण मध्यम वर्गीय घर में चले जाइए, आप मुझे बताइए वहाँ कौन-सा धर्मग्रंथ मिल गया आपको? और अगर भूले-भटके मिल भी गया तो उसका पाठ कब हो रहा है? कौन पढ़ रहा है? ढह गया पहला यह स्तंभ?

और बुरे-से-बुरे बात यह हुई है कि चूँकि हिंदु को अपने ग्रंथों का ज्ञान नहीं है इसीलिए उसे ग्रंथों के नाम पर कुछ भी घुट्टी पिला दी जाती है। लोग राम-सीता को काल्पनिक चरित्र बनाकर के नोवेल्स लिख रहे हैं और बेस्ट सेलर हुए जा रहे हैं। महाभारत को लेकर के कोई कुछ लिख रहा है और वह बहुत लोकप्रिय हो रहा है। यह लोकप्रियता सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि लोगों को महाभारत पता ही नहीं। कुछ समझ में आ रही है बात?

और आपके मन पर कोई ग्लानि भी न रह जाए कि आपको अपनी ही पुस्तकों, अपने ही ग्रंथों, अपनी ही किताबों, अपने ही धर्मशास्त्रों का ज्ञान नहीं है, इसके लिए अब गुरु लोग पैदा हो गए हैं जो कह रहे हैं, ‘अजी साहब! छोड़ो न, ग्रंथ की क्या ज़रूरत है, ग्रंथ तो बेकार की बात है।’ और यह जो पूरा कल्ट है, यह अभी पिछले पचास-सत्तर साल में ही आया है कि ग्रंथ तो पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं। ग्रंथ तो पहले भी नहीं पढ़ते थे, अब तो गुरु जी ने भी आकर बोल दिया है कि ग्रंथ की क्या ज़रूरत है। और यह कल्ट आया ही इसीलिए है क्योंकि अगर आपने ग्रंथ पढ़ लिए तो आप गुरु जी की बात कभी सुनोगे ही नहीं, यह गुरूजी इतनी मूर्खतापूर्ण बात कर रहे हैं। बाबाजी आपको चटनी चटाना चाहते हैं, वह चटनी आप क्यों चाटोगे अगर आपने उपनिषद् पढ़ रखे हैं तो?

पर यह बाबाओं और गुरुओं और स्वामियों ने धर्मग्रंथों का ऐसा अपमान किया है — मैं सबकी बात नहीं कर रहा पर सच्चे गुरु मुट्ठीभर ही होंगे अगर कही होंगे तो। अधिकांश तो वही हैं जिन्होंने धर्मग्रंथों को ही कहीं का नहीं छोड़ा। और उनसे कहो कि बाबा! ग्रंथ की तो कुछ बताइए? तो कहते हैं, ‘नहीं, गुरु तो जीवित ग्रंथ होता है, तुम ग्रंथ का क्या करोगे, हम हैं न। हम जो बता दें वही ग्रंथ है।’

और मैं इतनी बार बोल चुका कि ऐसा कोई बाबा, इत्यादि मिल जाए जो बोले, ‘गुरु ही ग्रंथ होता है, हमारे पास बैठ जाओ, बच्चा! हमारी बात सुनो, हम तुम्हें बता रहे न।’ उपनिषद् नहीं पढ़ो, हम किताब निकालते रहते हैं हर साल एक, वह पढ़ो! ऐसे से एकदम झट से दूर भागना और भागते-भागते हो सके तो एक चप्पल मारकर भागना। दूसरी भी मार देना, एक चप्पल पहनकर क्या करोगे खाली? पहले एक मारो, बढ़िया मजा आए तो फिर दूसरी भी मार दो और भाग जाओ। नई चप्पल हम स्पोंसर कर देंगे।

ग्रंथ के बिना धर्म नहीं हो सकता। तुम मुझे बताओ, दुनिया में कोई भी बड़ा धर्म बता दो जो बिना ग्रंथ का है? और बीच-बीच में ऐसी कई छोटी-मोटी धार्मिक धाराएँ निकली हैं इतिहास में जिनके पास कोई ग्रंथ नहीं था, वह सब धाराएँ मिट गई। आज जितने भी बड़े धर्म हैं, वह बड़े इसीलिए हो पाए क्योंकि उन्होंने अपने ग्रंथ को सम्मान दिया है, अपने ग्रंथ को केंद्र में रखा है।

हिंदु अकेले अजब कहानी सुना रहे हैं। कह रहे हैं, ‘अरे! क्या ज़रूरत है? ग्रंथ वगैरह तो पुराने हो गए, हम तो अपने मुक्त विचार पर चलते हैं।’ तुम चल लो अपने मुक्त विचार पर, तुम बचोगे, तुम्हारा विचार बचेगा; हिंदु धर्म नहीं बचेगा। ग्रंथ के बिना धर्म नहीं होता, नहीं होता।

तुम धम्मपद के बिना बुद्धों की कल्पना कर सकते हो? तुम श्रीगुरुग्रंथसाहिब के बिना सिक्खों की कल्पना कर सकते हो? बोलो? तुम कुरान के बिना मुसलमानों की कल्पना कर सकते हो? हिंदु ही अनूठे निकले हैं जिनको वेद-वेदांत कुछ पता नहीं और कहते हैं, ‘हम हिंदु हैं।’ और फिर तुम्हें ताज़्जुब होता हैं कि हिंदु इतना कमज़ोर क्यों है। काहे का ताज़्जुब?

मैंने दूसरा क्या स्तंभ बोला था? महापुरुष, अवतार। आज तुम जितने भी सशक्त और प्रचलित धर्मों को देखोगे, उनमें सबमें पाओगे कि महापुरुष मौजूद हैं और उस धर्म के अनुयायी अपने महापुरुषों के प्रति बड़े आदरभाव से भरे होते हैं। देखो! सिक्खों का आदर गुरुओं के प्रति। देखो! जैनों का आदर तीर्थंकरों के प्रति। देखो! इसाईयों का जीजस से रिश्ता। देखो! मुसलमानों की मोहम्मद में निष्ठा। और हिंदुओं ने क्या करा है? हिंदुओं ने अपने राम और कृष्ण को उपहास बना लिया है।

अभी कुछ ही दिन पहले वह वीडियो वायरल हुआ है, देश के सबसे बड़े मेडिकल संस्थान का। वहाँ के छात्र रामायण के पात्रों का भद्दा मज़ाक़ बना रहे हैं। और यह आज से नहीं हो रहा, बहुत पहले से हो रहा है। फिल्मों में हो रहा है, स्कूलों में, कॉलेजों में हो रहा है। कलियुग की रामायण, कलियुग की महाभारत के नाम से रामायण-महाभारत के मज़े उड़ाए जा रहे हैं। राम के चरित्र की धज्जियाँ उड़ाना, कृष्ण को व्यभिचारी बोलना, हिंदुओं को ऐसा लगता हैं कि बड़ी आधुनिकता और उदारवाद के लक्षण हैं कि देखिए साहब! हम बिगोटेड (कट्टर) नहीं हैं, हम कट्टरपंथी नहीं हैं; हम बहुत लिबरल हैं, हम बहुत उदार हैं। हम क्यों उदार हैं? क्योंकि हम तो देखिए, कृष्ण की आलोचना करते हैं!

तुम सिक्खों के सामने गुरुओं की आलोचना करके दिखा दो! इसीलिए सिक्खों में इतना तेज है, इतना बल है। मुट्ठीभर हैं लेकिन उनकी शान देखो, उनका बल देखो, उनका धन देखो, उनकी सफलताएँ देखो, उनकी समृद्धि देखो, क्योंकि उनमें गुरुओं के प्रति निष्ठा है। कम-से-कम तुममें राम और कृष्ण के प्रति जितनी निष्ठा है उससे कहीं ज़्यादा निष्ठा सिक्खों में गुरुओं के प्रति है। यही बात जैनों पर भी लागू होती है। सिक्खों के साथ-साथ देश का जो दूसरा सबसे समृद्ध समुदाय है, वह है जैनों का। और जैन बहुत धार्मिक होते हैं। हिंदु जितने धार्मिक होते हैं उनसे कहीं-कहीं ज़्यादा धार्मिक होते हैं जैन। उनका आज बल देखो न, उनका सत्ताबल देखो, उनका धन बल देखो।

हिंदु ही सबसे ज़्यादा होशियार है। 'अरे! राम तो ग़लत आदमी था। अरे! कृष्ण तो व्यभिचारी था, सोला हज़ार शादियाँ करके बैठा हुआ था। हम हिंदु हैं न!' हिंदु हैं इसका मतलब है हम अपने ही धर्म का उपहास करेंगे, तभी तो हम हिंदु साबित होंगे। तुम राम और कृष्ण का मज़ाक़ उड़ा लो लेकिन जैसे ही तुमने राम और कृष्ण का अनादर करा, तुमने धर्म का दूसरा स्तंभ भी ढहा दिया। अब शक्ति कहाँ से पाओगे? तुम्हारी इमारत तो कमज़ोर होगी न। और बात उपहास करने की नहीं है। मैं जानता हूँ, अधिकांश लोग उपहास नहीं करते, बड़ी धृष्टता की बात है उपहास। उपहास नहीं भी करते होंगे, तो भी आदर कौनसा करते हैं?

क्या वाकई आप अपने बच्चों में राम के संस्कार डाल रहे हैं? क्या वाकई आप अपने बच्चों को निष्काम कर्म का पाठ पढ़ा रहे हैं? न आप अपने बच्चों में राम के संस्कार डाल रहे हैं, न आप अपने बच्चों को कृष्ण की गीता पढ़ा रहे हैं। तो यह राम और कृष्ण के प्रति अनादर भले न हो, उदासीनता तो है ही, उदासीनता माने *इंडिफरन्स*। और जहाँ बात आती है अवतारों की, वहाँ उदासीनता अनादर से कम नहीं होती। फिर आपको बड़ी चोट लग जाती है, हैरानी होती है कि अरे! दुनियाभर में हिंदु कमज़ोर क्यों है? हिंदु के भीतर आत्मबल क्यों नहीं है? क्योंकि आत्मबल जहाँ से आता है, आपने उस स्त्रोत को ही बाधित कर दिया है। आत्मबल आता है ग्रंथ से, आत्मबल आता है महापुरुषों के चरित्र से, उनके चरित्र का अनुगमन करने से। आपने तो उनके चरित्र पर ही लाँछन लगा दिए हैं, आप उनका अनुगमन क्या करेंगे? समझ में आ रही है बात?

कही मैं पढ़ रहा था, एक सर्वे (सर्वेक्षण) था कि आज से बीस साल पहले, फिर आज से चालीस साल पहले, आज से साठ साल पहले जो बच्चें पैदा हुए, जिनका नाम रखा गया है, उनमें से कितने प्रतिशत नामों में ‘राम’ मौजूद था। राम दो तरीक़े से मौजूद होता है। या तो नाम होगा, ‘राम स्नेही’ तो आरंभ में ही। या फिर नाम होगा, ‘स्नेही राम’। और उसमें यह पाया गया कि जितने बच्चों के नाम में ‘राम’ मौजूद होता था, वह लगातार बहुत तेजी से गिरा है। और दो हज़ार बीस के बाद जो बच्चें पैदा हुए हैं, उनके नाम में तो ‘राम’ अब नगण्य है, न के बराबर। और आज से साठ साल पहले हिंदु बच्चों के एक बड़े अनुपात का नाम ‘राम’ के नाम पर ही रखा जाता था। हमारे नामों से ही राम विलुप्त हो गए हैं, हमारे जीवन में कहाँ बचेंगे?

आज आप किसी बच्चे का नाम राम रख दो, उसकी खिल्ली उड़ाई जाएगी। किसी लडकी का नाम सीता रख दो तो कहेगी, ‘सो अनकूल! सीता, यह कोई नाम होता है?’ आख़िरी बार आपको कब कोई बच्ची मिली थी छोटी जिसका नाम उसकी माँ ने 'सीता' रखा हो? कब कोई बच्चा आपको मिला था जिसका नाम उसके बाप ने बड़े प्यार से 'राम' रखा हो? कोई छोटा बच्चा आज मिलता है जिसका नाम 'गोपाल' रखा हो उसके माँ-बाप ने? मिलते भी होंगे तो यदाकदा, इधर-उधर। और गोपाल बड़ा प्रचलित नाम था कभी, अब कहाँ रखते हैं? अब नाम क्या होते हैं? हनहना, रूहाना, जिहाना, आहाना, आहा, उंहु, उंहूं। शब्द भी नहीं होते, ध्वनियाँ होती हैं। 'अह', यह नाम है। नाम निश्चित रूप से ऐसा होना चाहिए जिसका वैदिक कोई अर्थ ही न हो। फिर पूछते हो हिंदु आज कमज़ोर क्यों हो गया? धर्म है कहाँ? होली-दीवाली मना लेते हो इससे तुम हिंदु हो गए? धर्म कहाँ है?

और धर्म का जो तीसरा स्तंभ होता है, शक्तिस्त्रोत, वह होती है यह अटूट, एकनिष्ठ आस्था कि यह जो धर्म है मेरा, यह मुझे सत्य तक ले जाएगा। पालन करो बस, तुम सत्य तक पहुँचोगे। इस तीसरे स्तंभ को लिबरल्स ने, उदारवाद ने ढहा दिया। वह कह रहे हैं, कोई एक सत्य होता ही नहीं। टू इच हिस ओन , सबके अपने-अपने ट्रूथ (सत्य) होते हैं। *देअर आर मेनी ट्रूथस, यू हैव यूअर ट्रूथ, आय हैव माय ट्रूथ*। द ट्रूथ, द एब्सोल्युट जैसा कुछ होता ही नहीं। और जब एब्सोल्युट जैसा कुछ नहीं होता तो जो कुछ, जो भी करे वह सब चलेगा। क्योंकि अपने-अपने परिपेक्ष में तो हर कोई सही काम ही कर रहा है न।

उन्होंने कह दिया, सबकुछ तुलनात्मक होता है, कुछ भी एब्सोल्युट माने पूर्ण नहीं होता। तो अब क्या ज़रूरत है धर्म पर आस्था रखने की कि धर्म मुझे आनंद तक पहुँचाएगा। धर्म क्यों आनंद तक पहुँचाए, जैसा मुझे ठीक लगता है, मेरा विचार ही मुझे आनंद तक पहुँचा देगा। अब सबको छूट है अपने हिसाब से चलने की। जब सबको अपने हिसाब से चलना है, तो धर्म का क्या करना है? और यह बात अब सब बड़े ठसक से बोलते हैं, देखिए साहब! अपनी-अपनी सोच होती है।

धर्म का मतलब होता है यह जो अपनी सोच है, इसको डालो कूड़ेदान में। क्योंकि यह जो तुम्हारी अपनी सोच है, यह तुम्हारे दूषित अहंकार से निकलती है। अपनी सोच को इतना आदर मत दो, धर्म का यही मतलब होता है।

तो फिर किसको आदर देना है, दूसरे की सोच को? नहीं, किसी की सोच को आदर नहीं देना है। ध्यान को आदर देना है, समझ को, बोध को आदर देना है; न अपनी सोच को, न दूसरे की सोच को। और धर्मग्रंथ इस तरह से रचे गए हैं कि वह बोध को जगाते हैं हमारे भीतर। लेकिन क्या करना है?

आज आप किसी से पूछने जाएँ कि यह बताओ तुम्हें आनंद कैसे मिलेगा? तो कोई नहीं बोलेगा, धर्म पर चलकर के। कोई बोलेगा, अच्छी नौकरी मिल जाए तो आनंद मिलेगा। कोई बोलेगा, मेरे अरमान और हैं, वह पूरे हो जाएँ तो आनंद मिलेगा। कोई बोलेगा, शादी हो जाए, पैसा मिल जाए, कुछ और जो भी लोगों की अपनी तमन्नाएँ होती हैं, प्रसिद्धी मिल जाए तो आनंद मिलेगा। कोई नहीं बोलेगा कि बस सही आध्यात्मिक जीवन जिऊँगा तो आनंद है। यह कोई नहीं बोलेगा। इस आस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया उदारवादी विचार ने। वह कहते हैं, जो तुम्हारा अहंकार कहे वही करो। इगो को, अहंकार को पूरी आज़ादी होनी चाहिए अपने अनुसार जीवन जीने की। यही परम सुख है। तो धर्म का यह तीसरा स्तंभ भी ढहा दिया गया। तो अब बताओ, धर्म को ताकत कहाँ से मिलेगी?

मुझे तो यही आश्चर्य है कि अभी भी इतने लोग अपने आपको हिंदु बोल कैसे लेते हैं? ऐसे ही पुरानी आदत है, तो अपनेआप को हिंदु बोले जा रहे हैं। कुछ दिनों में यह जो नई पीढ़ी है, यह कहेगी कि इतना संकोच भी काहे को करना, सीधे ही बता दो न कि हम किसी धर्म को नहीं मानते। यह अपनेआप को हिंदु बोलना भी बंद कर देंगे; हैं तो वैसे भी नहीं, बोलना भी बंद कर देंगे। हिंदु तो इस पीढ़ी के माँ-बाप भी नहीं थे, शायद उनके माँ-बाप भी नहीं थे। जिस दिन आपने अपने ग्रंथ से अपना संबंध तोड़ लिया था, उस दिन आप हिंदु नहीं रह गए थे।

जिस दिन आपने धर्म का मतलब रीतिरिवाज, प्रथा, परंपरा, अंधविश्वास, बाबाजी की बूटी, यह लगा लिया था उसी दिन आपका हिंदु होना समाप्त हो गया था। लेकिन आप नाम के हिंदु बने रहे। जब जनसंख्या गणना हो रही थी तो उसमें पूछा गया, हाँ जी! आपका धर्म? आपने लिखवा दिया, हिंदु इत्यादि। कुछ दिनों में वह सब भी बंद हो जाएगा, सीधे कह देंगे, मेरा कोई धर्म नहीं है। यह नई पीढ़ी है, यह अपना बोल देती है खुले में, ‘काहे, कोई धर्म-वर्म कुछ नहीं।’

न हम मन से हिंदु हैं, न तन से हिंदु हैं, न काम से हिंदु हैं तो फिर हम नाम से भी हिंदु क्यों रहे? होगा नाम सावित्री, रख दिया था हमारी दादी जी ने। ‘अरे! वह दकियानूसी दादी थी, मेरा नाम रख दिया सावित्री। मैं सैवी हूँ सैवी, सेक्सी सैवी। काहे का हिंदु धर्म, मैं तो सेक्सी सैवी हूँ, वैरी लिबरल(उदारवादी) एंड वैरी लिबरेटेड(मुक्त) !’

प्र२: आचार्य जी, जैसे अभी बात हुई कि हिंदु धर्म का मज़ाक़ बनाया जाता है और हिंदु धर्म के महापुरुषों का भी। तो इससे बाकी धर्म भी त्याग की बात करते ही हैं तो हिंदु धर्म को ही ख़ासकर के इस तरीक़े से क्यों टारगेट (निशाना लगाना) किया जा रहा है? ख़ासकर लिबरल मीडिया के द्वारा?

आचार्य: नहीं, वह जो लिबरल मिडिया है, वह भी सब हिंदु ही हैं न। आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे हिंदु एक तरफ़ और लिबरल मिडिया दूसरी तरफ़। वहाँ भी तो सब हिंदु ही बैठे हैं।

देखिए! बात बहुत सीधी है। बहुत लंबी ग़ुलामी के कारण भीतर बड़ी-बड़ी हीन भावना भर गई है। विश्वास एकदम जमकर के बैठ गया है कि हममें ज़रूर कोई कमी है। और यह विश्वास बैठ गया है कि जिन्होंने हमें हराया, कुचला, दबाया, वह श्रेष्ठ हैं। तो हमें अगर आगे बढ़ना है, तो हमें उन्हीं के पदचिन्हों पर चलना चाहिए। हम गए-गुजरे हैं, दूसरे श्रेष्ठ हैं। और जब हम गए-गुजरे हैं तो अपनी निंदा करनी तो ठीक ही हुई न, कि हम तो हैं ही गए-गुजरे तभी तो हम पिटे हैं इतना। तो जिनमें जितनी ज़्यादा हीन भावना होती है वह उतना ज़्यादा बड़े आलोचक बन जाते हैं धर्म के ही। और वह अपनेआप को उतना उदारवादी, लिबरल बोलने लग जाते हैं। यह कुछ नहीं है, यह उनके भीतर की हीन भावना है।

वह चाहते हैं कि उनको जो ऊँचे लोग हैं, उनके बीच में स्वीकृति मिले। और ऊँचे लोगों के बीच स्वीकृति पाने का वह यह तरीका समझते है कि यह जो निचले लोग हैं, इनको लात मारो। क्योंकि तुम उन ऊँचे लोगों के सामने खड़े होगे और कहोगे, मैं उन्हीं नीचे लोगों के बीच का हूँ। तो वह तुमको स्वीकार नहीं करेंगे न, एक्सेप्टन्स नहीं मिलेगी। तो वह जो ऊँचे लोग हैं, उनके बीच में जाकर बोलना होता है, देखो! वह सब जो हिंदु वगैरह हैं न, उनको तो मैं लात मारके आया हूँ। तो फिर वह लोग कहते हैं, ‘हाँ, तो फिर ठीक है, आ जाओ। तुम हमारे दल में शामिल हो सकते हो हमारे सेवक बनकर के। आओ, हमारी सेवा करो।’ यह चल रहा है।

तो वह जो इतना लंबा ग़ुलामी का काल रहा है, उससे उभरने की अभी प्रक्रिया में है हिंदु धर्म। वह प्रक्रिया अभी चलेगी पचास-सौ साल। क्योंकि जो दमन हज़ार साल तक चला है उससे उभरने में भी सौ-दोसौ साल लगेंगे न। बीमारी अगर दस महीने चली हो तो ठीक होने में भी फिर कम-से-कम एकाध-दो महिना तो लगेगा न, तुरंत तो नहीं ठीक हो जाते। तो अभी हिंदु धर्म बीमारी के बाद धीरे-धीरे उभर रहा है, स्वास्थ्य की ओर बढ़ रहा है।

प्र२: एक चीज़ हिंदुओं में देखने को मिलती है कि एक सेंट्रल जो प्राइड (गर्व) होता है, वह नहीं है। जब हम लोग बोलते हैं कि हम हिंदु हैं, तो हम लोग जैसे दूसरे धर्मों के साथ एक शत्रुता स्थापित करने की कोशिश करते हैं। अपना प्राइड जो है एक सेंट्रल, वह हमारा मिसिंग (लुप्त) रहता है। कुछ ऐसा नहीं महसूस करते जिसके ऊपर हम लोग प्राइड करें।

आचार्य: हाँ, वह वही बात है न। अपना जो प्राइड होता है, वह तो अपना ग्रंथ ही होता है और अपने महापुरुष ही होते हैं और अपनी आस्था ही होती है। आज जब हिंदु जगता भी है यह कहने के लिए कि हम हिंदु हैं तो प्रतिक्रियास्वरूप जगता है, कि बगल के मौहल्ले के सब लोग मुसलमान हैं और वह अल्लाह-हु-अकबर कर रहे हैं तो उसकी प्रतिक्रिया में मैं जय श्रीराम करूँगा; प्रतिक्रिया में।

वह प्रतिक्रिया हमेशा एक बाहरी चीज़ होती है, बाहर से कुछ हुआ तो उसकी प्रतिक्रिया में हमनें भी कह दिया, ‘जय श्रीराम'। लेकिन भीतर से हिंदु में कोई प्रेरणा नहीं उठती है, कोई राम के प्रति आंतरिक प्रेम नहीं उठता है। हिंदु राम को तब याद करता है जब दूसरी ओर से उसे अल्लाह-हु-अकबर का नारा सुनाई देता है। तब उसके अहंकार पर, आत्मसम्मान पर चोट लगती है। वह कहता है, ‘अरे! उधर कुछ और हो रहा है तो हमारा भी तो कुछ होना चाहिए न।’ तो फिर वह बोल देता है, ‘जय श्रीराम।’ लेकिन 'राम' वास्तव में उसके हृदय में नहीं बैठे हैं। 'राम' उसकी रग-रग में नहीं बह रहे हैं। 'राम' उसके जीवन को संचालित नहीं कर रहे हैं।

अगर दुनिया हिंदु को कचोटे नहीं तो हिंदु 'राम' को याद भी न करे। उसका काम मज़े में चल रहा है राम के बिना ही। इसीलिए फिर हिंदु दुर्बल है। जिसका काम राम के बिना चलेगा उसमें बल कहाँ से आएगा।

सत्य के अलावा बल का कोई स्त्रोत नहीं होता। और धर्म वह माध्यम है जो आपको सत्य की ओर ले जाता है। माने धर्म से ही बल है, जहाँ धर्म नहीं होगा वहाँ बल नहीं होगा।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=mPR0-FGSjaE

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