प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। हर प्रश्न का जवाब आपके वीडियोज़ के माध्यम से यूट्यूब पर मुझे उपलब्ध है, पर तब भी एक जिज्ञासा बनी हुई है उत्तर जानने की। बिना प्रश्न के हूँ, लेकिन फिर भी उत्तर जानने की इच्छा समाप्त नहीं हो रही है। आचार्य जी, कृपया बताएँ कि यह क्या है और इस बला का क्या समाधान है।
आचार्य प्रशांत: जो प्रश्न बनकर प्रकट होता है, वही मूलभूत प्रश्न है। समझना! जो प्रश्न बनकर प्रकट होता है, जो भाँति-भाँति के प्रश्नों का रूप लेकर प्रकट होता है, वो ही मूलभूत प्रश्न है। हम सत्य से एक आयाम भर दूर नहीं हैं; हमारी दूरी दो-तली है, दोहरी है, दो आयामों की है।
पहली दूरी है आत्मा और अहम् के बीच की, और दूसरी दूरी है अहम् और संसार के बीच की। तुम अहम् बन बैठे, यही अच्छी ख़ासी दूरी बना ली तुमने आत्मा से। और फिर तुम संसार से लिप्त हो गये — ये दोगुनी और दोहरी दूरी हो गयी।
प्रश्न हमारे किससे सम्बन्धित होते हैं? कहिए, आप बोलिए! किससे सम्बन्धित होते हैं? संसार से; और बैठना कहाँ है हमें जाकर अन्ततः? आत्मा में; और आत्मा से हम कितने तलों की दूरी पर हैं? दो तल की। पहला तल ये कि आत्मा से छिटके अहम् बन गये और — एक तो करेला, दूजा नीम चढ़ा — अहम् को भी अपनी कुछ सुधि नहीं। अहम् भी अहम् मात्र बनकर सन्तुष्ट नहीं, वो जाकर लिपट जाता है संसार से। और सारे सवाल जो तुम करते हो वो होते हैं संसार सम्बन्धित।
अब बात ये है कि संसार सम्बन्धित तुम्हारे सारे सवालों के उत्तर दे दिये जाएँ, समाधान भी कर दिये जाएँ तो भी अधिक-से-अधिक एक तल ही तो काटा मैंने — “संसार से गिरे, अहम् में अटके”। मत कहना, “आसमान से गिरे, खजूर में अटके” — “संसार से गिरे, अहम् में अटके।”
संसार से तो छूट जाते हो किसी तरीक़े से। संसार सम्बन्धित जिज्ञासाओं के तुमको बौद्धिक, तार्किक उत्तर मिल गये; अब तुम्हारे पास कोई माल-मसाला बचा नहीं कि संसार को लेकर और जिज्ञासा करो। पता है और जिज्ञासा करेंगे तो गुरूदेव कुछ-न-कुछ बोल ही देंगे, काट ही देंगे, तो संसार छूटा। लेकिन संसार से सम्बन्धित तुम्हारी जिज्ञासाएँ शान्त हो गयीं, इसका मतलब ये नहीं है कि तुम आत्मा में स्थापित हो गये हो। इसका अर्थ ये है कि अब तुम मूल अहम् में छुपकर बैठ जाओगे, जैसे कि कछुए ने अपने सारे अंगो को अपने खोल में समेट लिया हो।
संसार से वापस खींच लिया तुमने अपनेआप को, लेकिन अभी तुम मिटे नहीं, अदृश्य नहीं हो गये, विलोप नहीं हो गया तुम्हारा। तुमने सबकुछ वापस अपनी सुरक्षित ढाल में छुपा लिया है। कछुए ने अपनेआप को खोल में छुपा लिया है। अब वो संसार को तो नहीं उपलब्ध है, संसार सम्बन्धित कोई बात नहीं कर रहा, लेकिन वजूद उसका पूरा-का-पूरा है, मिट नहीं गया।
अहम् — मूल अहम् — अभी बचा हुआ है, आत्मा में नहीं चला गया और मौक़ा मिलते ही ये जो मूल अहम् है, फिर से भागेगा। किसकी ओर? संसार की ओर, जैसे कि कछुआ मौक़ा मिलते ही फिर अपना सिर निकालेगा, दोनों पाँव निकालेगा, दोनों हाथ निकालेगा। सबकुछ बाहर आ गया, पूरा बाहर आ गया, पूँछ भी बाहर आ गयीं, छः की छः।
ये जो कछुए का सिर, पूँछ और दो उसके आगे के पाँव, दो उसके पीछे के पाँव हैं, ये छः क्या हैं? ये समझ लो जैसे तुम्हारी छः इन्द्रियाँ हैं — पाँच इन्द्रियाँ, एक मन (छठी इन्द्रिय)।
इनको तुम कभी-कभी वापस खींच लेते हो। वापस कब खींचते हो? ज़रूरी नहीं है कि वापस तुम तभी खींचो जब तुम्हारी जिज्ञासाओं का समाधान हो गया हो। तुम इन्हें वापस तब भी खींच लेते हो, जब संसार से चोट पड़ती है। ये छहों बाहर निकलकर किसकी ओर भागी थीं? संसार की ओर। भागी संसार की ओर, संसार से पड़ी चोट — पट्ट! तो ये वापस आकर के छुप गयीं और थोड़ी देर को तुमको ऐसा लगता है जैसे तुम पर विरक्ति छा गयी हो।
तुम कहते हो — संसार से हमें कुछ लेना-देना नहीं; ये दुनिया, ये महफ़िल किसी काम की नहीं। कछुआ अपने खोल में घुस गया वापस, पर थोड़ी देर को घुसा है। जैसे ही स्थितियाँ फिर से अनुकूल दिखेंगी, वो फिर से पाँव पसारेगा। ये शान्ति झूठी है, ये मौन थोड़ी देर का है, ये स्थिरता क्षणिक है। तुम्हें अगर लगता है कि तुमको आत्मपद की प्राप्ति हो गयी, तो तुम अपनेआप को धोखा दे रहे हो। वो तो तभी होगा जब अहम् जाकर के स्थापित ही हो जाए आत्मा में। वो बिना प्रेम के नहीं होता।
गुरू से प्रश्नों के उत्तर पा-पाकर, पा-पाकर तुम अधिक-से-अधिक संसार से कट जाओगे, अपनेआप से नहीं कटोगे, अपने खोल से नहीं कटोगे, अहम् से नहीं कटोगे। अपनेआप से कटना है तो प्रेम चाहिए। जो गुरू के उत्तरों से सन्तुष्ट हो गये, उनका संसार तो कट जाएगा, पर उनका मूल अहम् नहीं कटेगा। मूल अहम् तो उसी का कटता है जो प्रेम में पड़ गया हो। प्रेम नहीं है तुम्हारे जीवन में, तो फिर छोड़ो! फिर तो संसार से छूटे, अहम् में अटके। मूल अहम्-वृत्ति बची रह जाएगी। वही हाल होगा जो अभी तुम्हारा हो रहा है कि पूछने को कोई सवाल तो नहीं पर एक बेकली भीतर बनी हुई है।
पहले तो फिर भी इस बात का चैन था कि ये पता है कि बेचैनी क्यों है। पहले पता था कि बेचैनी सवालों की वजह से है और अब हाल कुछ ऐसा कि तुम्हें पता भी नहीं होगा कि बेचैनी क्यों है। सवाल तो सारे चले गये, शान्ति तब भी नहीं मिली।
शान्ति सवालों के जाने से नहीं, प्रेम के आने से मिलती है।
गुरू से अगर तुमने सवाल के उत्तर ही लिए सिर्फ़, तो क्या लिया! कुछ भी नहीं। प्रेम ले लो तो कुछ मिला। पर प्रेम ख़तरनाक है, सवालों के उत्तर ठीक हैं। तुम यहाँ मेरे सामने बैठ जाओ, मैं तुम्हारे सवालों के उत्तर देता रहूँगा। तुम यूट्यूब पर मुझे देख रहे हो, सवालों के उत्तर मैं दिये जा रहा हूँ। प्रेम बिलकुल दूसरी बात है। उसमें दूरी नहीं चलती। ख़तरनाक चीज़ है!
आग तापना बहुतों को भला लगता है; आग में ख़ाक हो जाना — ये या तो सूरमाओं का काम है या आशिक़ों का। ऐसे आशिक़ ही फिर आलिम भी कहलाते हैं। ज्ञान भी यही है।