गुरु तुम्हें वो याद दिलाता है जो तुम जानते ही हो || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

7 min
76 reads
गुरु तुम्हें वो याद दिलाता है जो तुम जानते ही हो || आचार्य प्रशांत (2013)

प्रश्न: मुझे मेरा लग रहा है कि मेरा कर्म जो है, वो सहजता से आ रहा है पर असल में हो रहा है मेरे अहंकार द्वारा ही। तो क्या मेरा ये पूछना भी उसी अहंकार से है?

वक्ता: अहंकार भी तुरंत ही जवाब देती है। पंखा भी तुरंत ही चलता है। इसका कोई बाहरी उत्तर नहीं हो सकता कि जो किया है वो रिएक्शन है या रिस्पोंस है। वो तो आत्म बल से ही पता चलता है। कोई भी काम जब तुम अहंकार से करोगे, तो उसमें बहुत ज़्यादा आत्म बल डाल नहीं पाओगे।

एक बात साफ़-साफ़ समझो। अगर तुम खुद नहीं जानते, तो कोई तुमको जनवा नहीं सकता।टीचिंग की सारी उम्मीद इसी बात में होती है कि आप उस समझ को प्रोवोक कर सकते हो। पता तो उसे खुद ही है, आप थोड़े ही उसे जनवा पाओगे।

श्रोता: सेंस्टिविटी डाली नहीं जा सकती।

वक्ता: तो अगर वो शिष्य एकदम इस स्तर पर आकर सवाल करने लगे न कि, ‘’ मैं कुछ नहीं जानता, मैं कैसे जानूँ?’’ तो या तो फिर वो समझ ही नहीं रहा बात को, या फिर वो मक्कारी कर रहा है क्योंकि ऐसा कोई होता ही नहीं है, जो जानता नहीं। ये हमारा जीवन है, ये हमारे सम्बन्ध हैं, ये हमारा मन है, और कौन जानेगा? हम जानते हैं। तो थोड़े ऊपर-ऊपर के सवाल हैं, वो फिर भी वाजिब हैं, पर कोई एकदम मूलभूत सवाल कर दे कि, ‘’मैं कैसे जानूँ कि ये अहंकार है या प्रेम है?’’ तो उसका कोई उत्तर नहीं है। उसका यही उत्तर है कि तुम जानते हो।

बाकी तुम्हें हर चीज़ पता है। तुम दन्त मंजन लेने जाते हो, तो तुम्हें पता है कौन सा लेना है, तुम्हें दुनिया के सारे काम पता हैं। अभी तुम्हें कोई दो बातें बोल देता है, तो तुम्हें पता है कि कब आहत होना है और कब नहीं होना है। तुम्हें दुनिया की हर बात पता है, बस यहाँ पर तुम पूछते हो कि कैसे पता चले कि, ये असली चीज़ है या नहीं? ये बस एक बहाना बनाना चाहते हो कि, ‘‘देखिये मुझे स्पष्टता नहीं थी, इसलिए मैंने उस विचार को कार्यान्वित नहीं किया। मुझे स्पष्टता नहीं थी कि ये अहंकार है या प्रेम है इसीलिए मैंने एक्शन नहीं लिया।’’

दुविधा भी अहंकार का बहुत बड़ा हथियार है। आप सिर्फ़ कह दो कि, ‘’मैं दुविधा में हूँ, मुझे और समय चाहिए।’’ ऐसे सुना होगा न आपने कि, ‘’मुझे थोड़ा वक़्त चाहिए अपना मन बनाने के लिए।’’ क्या मन बनाना है? एक बड़ी मज़ेदार ट्वीट है: ‘*अ सेंटेंस इस नॉट अंडरस्टुड, इफ़ इट इज़ नॉट अंडरस्टुड, इफ़ इट इज़ नॉट अंडरस्टुड बिफोर इट इज़ कम्पलीट।’*’ जहाँ समय लग रहा है समझने में, वहाँ पर क्या है? वहाँ पर तो विचार आ गए बीच में।

विचार भी आपको समझ तक तभी ले जा सकते हैं, जब कोई और चारा ना बचे। तब है कि चलिए विचार ऐसा हो कि ‘अस्तोमा ज्योतिर्गामे।’

श्रोता: पर हम तो जीते ही विचारों में है न?

वक्ता: उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। अभी हैं क्या विचार? आप जब किसी से बात कर रहे हो और वो बार-बार बोल रहा हो कि, ‘विचार ये, विचार वो’, तो उससे पूछिएगा कि क्या आप अभी विचार रहे हैं?

श्रोता: ये न अहंकार के लिए बहुत अच्छा रहता है कि विचार हों क्यूँकी अगर सहजता से होगा, तो सहजता परवाह नहीं करेगी कि कौन है सामने।

वक्ता: वो न परवाह करेगी और न बेपरवाह होगी क्यूँकी परवाह भी एक विचार है।

श्रोता: सर, कार्य तत्क्षण होना, तो वृत्तियों से भी हो सकता है न?

वक्ता: वो जब होगा तो आप में मजबूरी का भाव होगा। उदाहरण के लिए कोई आप गुदगुदी करे, आपकी हँसी छूट जाए। कई लोग होते हैं, बड़े भी हो जाते हैं, तब भी। आप हँस भी रहे होगे पर मजबूर भी अनुभव कर रहे होगे। कल्पना ही कर लो: है कोई चालीस साल का आदमी। आप जाओ और उसे गुदगुदी करो और उसकी हँसी छूट जाए। अब वो हँस भी रहा है और सोच भी रहा है कि, ‘’यार कैसा आदमी हूँ मैं कि कोई मुझे ज़रा सी गुदगुदी करता है, और मैं हँसने लग जाता हूँ’’’ ये भी तत्क्षण है। पेट पर हाथ लगा नहीं कि मुँह खुला नहीं लेकिन यहाँ पर मजबूरी का भाव आ जाएगा। हँस भी रहे हो लेकिन दिमाग जन जाएगा कि, ‘’मैं मजबूर हूँ।’’

वो जो सहजता होती है उसमें मजबूरी का भाव नहीं रहता, उसमें आत्म बल होता है। अब मैं और क्या बोलूं इससे ज़्यादा?

श्रोता: वो किसी जीत-हार के लिए नहीं होगा।

वक्ता: और उसमें बहुत ताकत होती है।

श्रोता: क्यूँकी आप खुद कोई ताकत लगा नहीं रहे।

वक्ता: क्यूँकी आपको कुछ चाहिए नहीं उससे। देखिये एक चीज़ होती है श्योरनेस , और एक चीज़ होती है *ऐडमेंसी*। श्योरनेस आपका स्वभाव है पर एडामेंट होना बीमारी पर देखने में दोनों एक जैसे लगते हैं। आप जिस चीज़ के बारे में आज एडामेंट हो, कल उस चीज़ की हवा निकल जानी है। और आप जिस बारे में श्योर हो, उस बारे में आप दावा भी नहीं करोगे कि आप श्योर हो, तो हवा निकलेगी कहाँ से?

आप जब एडामेंट होते हो, तो आपको एसर्ट करना पड़ता है खुद को। वो एसर्ट करना ही दिखाता है कि आप डरे हुए हो। आपको पता है कि ये जो बात है, ये बात मज़बूत है नहीं इसीलिए आपको अपनेआप को एसर्ट करना पड़ रहा है। जब आप पूरे श्योर होते हो, तो आप एसर्ट भी नहीं करते। अब आप किसी क्लास रूम में बैठे हो और किसी बच्चे की बात आपको एक्साइट कर दे रही है, तो इसका मतलब यही है कि डर गए हो कि यार, कौन जीतेगा इस विवाद को। और जो श्योरनेस होती है, वो कहती है कि यह विवाद हारा नहीं जा सकता। भले ही प्रतीत भी होता हो कि हार गए हैं, पर फिर भी यह विवाद हरा नहीं जा सकता। मैं चाहे पीछे भी हट जाऊँ, पर फिर भी यह विवाद नहीं हारा जा सकता।

‘’तो अब मेरे करने योग्य क्या है? तू सिद्ध भी कर लेगा अपनी बात, तो भी तू जीत नहीं सकता।’’ समझ रहे हो? श्रद्धा में और जिद्द में यही अंतर है। जिद्द घबराएगी, परेशान हो जाएगी और उसके ऊपर ज़्यादा दबाव डालोगे, तो टूट भी जाएगी। और श्रद्धा को तुम तोड़ नहीं सकते क्यूँकी वो है ही नहीं। तुम उसमें कुछ एसर्ट नहीं कर सकते। तो आप उसको तोड़ नहीं सकते। वो तो हारने को भी तैयार हो जाएगी। वो तब भी जीत जाएगी।

क्यूँकी कुछ क्लेम करने को नहीं है न ख़ास। कुछ सिद्ध करने को है नहीं। वो सारे रास्ते ले लेगी। वो बहते पानी की तरह है, वो इधर भी चल लेगी, वो उधर भी चल लेगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories