प्रश्नकर्ता: प्रणाम गुरुजी। मैं पुलिस ही हूँ और थाना एस.एच.ओ. (थाना प्रभारी) भी हूँ, तो मुझे एक दिक्कत आ गई है– आपके काम से मैं बहुत प्रभावित हुआ और थाना मैं ये सब करने लगा, अच्छा लगा; पहले तो बहुत टेंशन में आया, जब पहले आया तो नौकरी छोड़ने का मन था; अभी ऐसा हो गया बहुत अच्छा माहौल बन गया है लेकिन अभी ये ही सवाल है कि आप श्रेष्ठ हैं लेकिन मैं जो हूँ, क्या मुझे आप ये एडवाइस करेंगे (परामर्श देंगे) कि मुझे नौकरी छोड़ना चाहिए? और आपकी राह पर चलना चाहिए? क्योंकि आपने तो नौकरी नहीं की, आप तो बहुत ऊँचे पोस्ट में रह सकते थे।
आचार्य प्रशांत: देखो यह सवाल बाद में आता है कि इसको छोड़ दें क्या। इस सवाल से पहले या इस सवाल के साथ यह भी तो पूछना चाहिए न कि इससे बेहतर मैं कहाँ को जा रहा हूँ। मैंने एकदम ही कोई अंधा निर्णय नहीं ले लिया था नौकरियाँ वगैरह छोड़ने का। मुझे एक तरफ़, किसी तरफ़ रोशनी दिख रही थी थोड़ी, धुंधली थी लेकिन इतना पता चल रहा था कि उस तरफ़ जाना है। उधर क्या है यह नहीं पता चल रहा था, लेकिन ऐसा नहीं है कि मैंने अंधा निर्णय ले लिया था।
तो आप कोई भी काम कर रहे हो, वह आप जन्म भर के लिए तो कर नहीं रहे होते। आप जो कुछ भी कर रहे हो, हमेंशा संभव होता है उससे कुछ बेहतर कर पाना। अभी आप एस.एच.ओ. (थाना प्रभारी ) हो, उससे बेहतर ज़रूर कुछ-न-कुछ और हो सकता है; पर कुछ तलाश तो लो या कुछ निर्मित तो कर लो उससे बेहतर, फिर ज़रूर छोड़ देना। यह तो हम सब का अधिकार है बल्कि अपने प्रति दायित्व है कि जो कुछ कर रहे हैं उससे आगे का, उससे बेहतर अपने लिए बनाते चलें या तलाशते चलें; यह तो करना ही चाहिए।
ज़िन्दगी एक ही जगह पर अटक कर रह जाने के लिए तो निश्चित रूप से नहीं है। जीवन तो है ही इसीलिए कि आप लगातार प्रगति करते चलें; आंतरिक तौर पर। वहीं लोग जब आंतरिक तौर पर प्रगति नहीं कर रहे होते तो वो सोचते हैं कि बाहरी तरक्की कर लें। एक तरीक़े से वो चीज़ तो वही चाह रहे हैं ‘तरक्की, प्रगति, उत्थान, उठना।’ बस उनको यह नहीं समझ में आ रहा कि भीतर उठना होता है, तरक्की बिलकुल चाहिए और बाहर की तरक्की भी बढ़िया चीज़ है, अगर बाहर की तरक्की के माध्यम से भीतर की तरक्की हो रही हो तो बिलकुल।
मैं तो कहता हूँ कि कोई ऐसा व्यक्ति है जिसको लगता है या जिसके साथ यह हकीकत है कि वह अपना पैसा बढ़ाता है अपना तो उसका आंतरिक स्तर भी बढ़ जाता है तो उसको तो करोड़ों-अरबों कमाने चाहियें क्योंकि आप बाहर जितनी तरक्की कर रहे हो, आपको विश्वास है कि उसके माध्यम से भीतर भी उतनी ही तरक्की हो रही है; लेकिन ऐसा होता कम ही है न। हमने खूब देखा है कि बाहर आप खूब जमा कर लो उससे भीतर कोई फ़र्क पड़ता नहीं है बल्कि कई बार तो भीतर आप गिर जाते हो और।
तो ज़िन्दगी का उद्देश्य आंतरिक तरक्की है। वो आंतरिक तरक्की किसी बेहतर काम के माध्यम से हो रही है तो आप उसमें ज़रूर जाइए लेकिन यह एक गंभीर निर्णय होता है न। इसको हम यूँही खिलवाड़ में नहीं ले सकते क्योंकि ये ज़िन्दगी का सवाल है। आप एक काम कर रहे हो आप यूँही कूद करके किसी दूसरी चीज़ में नहीं जा सकते। तो इसलिए मैंने पहले भी आपको सुझाव दिया था कि जो दूसरा काम आप करना चाहते हो उसको थोड़ा आज़मा लो और उसको थोड़ा जमा भी लो और निश्चत कर लो कि यह दूसरा काम आपके लिए अंदरूनी तौर पर ज़्यादा मुनासिब है और फिर उस दूसरे काम में पूरे तरीके से चले जाना। यह नहीं होना चाहिए कि “माया मिली न राम” समझ रहे हो न?
क्योंकि आध्यात्मिक उत्साह भी दूसरे कई उत्साहों की तरह कई बार घातक हो जाता है, आदमी को लगता है बस हो गया अब तो सीधे ‘ऑपरेशन ब्रह्म’। इस बार तो बच्चु को गिरा ही देंगे। वहाँ आसमान में कहीं बैठा हुआ है, निकाली सर्विस रिवॉल्वर, (रिवॉल्वर चलाने का अभिनय करते हुए) ‘थाना प्रभारी हैं भाई कुछ भी कर सकते हैं’ और आध्यात्मिक उत्साह में नौकरी छोड़ दी या व्यापार छोड़ दिया या घर छोड़ दिया, ये कर दिया, वो कर दिया; और साल-दो-साल बाद हाय! हाय! हाय! ऐसे नहीं करना है। यह भी माया होती है, यह माया का तरीका होता है आपको यह दिखाने का कि बेटा ज़्यादा उछलो मत। अगर उछलोगे तो हाथ में जो है वह भी खो दोगे।
‘जिन्हें जितना ऊँचा उछलना हो उन्हें उतनी तैयारी करनी होती है।’ आपका एरोप्लेन होता है, वह थोड़ा ऊँचा उछलता है; तीस-चालीस हज़ार फुट की ऊँचाई तक जाता है वो, तो भी दो घंटे पहले आप पहुँचते हो एअरपोर्ट। इतनी तैयारी करनी पड़ती है।
और बस होती है राज्य-परिवहन की, उसमें कितने घंटे पहले पहुँचते हो। वह तो चल भी रही होती है तो ऐसे हाथ दे करके! और प्लेन रन-वे पर, उसे भी हाथ देकर चढ़ जाना! चढ़ जाओगे? जिसे जितना ऊँचा उछलना हो उसे उतनी तैयारी करनी है। एस्ट्रोनाट्स होते हैं,(अंतरिक्ष यात्री) स्पेस शेटल्स जा रही हैं, वो कितने पहले से तैयारी करते हैं, वो महीनों पहले से तैयारी करते हैं, सालों पहले से तैयारी करते हैं।
तो इसी तरह आप भी अपनी आंतरिक उन्नति के लिए जो कदम लेने जा रहे हो, उसकी जरा छः महीने, साल भर अच्छे से तैयारी करो ताकि जब अपनेआप को लॉन्च करो तो बहार ही निकल जाओ एस्केप विलोस्टी से, यह न हो ‘ऐसे गए और भड़ाम से नीचे, गिरे धम से’ और फिर ज़िन्दगी भर दोबारा कोई कोशिश ही नहीं की उठने की, कि अब तो हो गया, समझ में आ गया कि हमें नहीं करना चाहिए था।
यह समझ में आ रही है बात?
इस बात पर हम अक्सर बहुत ध्यान देते नहीं हैं। अध्यात्मिक उत्साह का अतिरेक कर देते हैं बिलकुल। ‘बस अब तो राम हमारी परवाह करेगा।’ ये बिलकुल इस्तीफ़ा फैंक कर मारा और बोले ‘राम परवाह करेगा हमारी।’
अरे भाई! राम आपके भीतर बैठा है बुद्धि बनकर, थोड़ा वो भी चला लेते। बुद्धि भी तो राम की ही दी हुई है न, वह काहे के लिए थी? तो जो जितना गंभीर हो जीवन में ज़बरदस्त निर्णय करने के बारे में, वो उतनी ही गंभीरता से तैयारी भी करे, हालांकि पूरी तैयारी आप कभी नहीं कर पाओगे, अब यह मत कहना कि बस नई चीज़ करनी है लेकिन सिर्फ अभी अट्ठाईस साल से तैयारी कर रहे हैं। तो मेरी बात को उस अति तक मत खींच ले जाना कि आपने ही तो कहा था कि जल्दबाज़ी मत दिखाना, तो हम अभी ठहर-ठहरकर अहिस्ता-अहिस्ता अट्ठाईस साल से तैयारी कर रहे हैं। मैं यह भी नहीं कह रहा हूँ, दोनों ही चीजों से बचना है; हड़बड़ी से जल्दबाज़ी से भी बचना और यह भी नहीं करना है कि अब अगला काम रिटायरमेंट के बाद ही देखेंगे।
प्र: एस्केप, जैसे अर्जुन श्रीकृष्ण भगवान को बोल रहे थे कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तो उसी तरह जब मैं थाने में बैठता हूँ तब बड़ा टेंशन आता है तब मुझे लगता है कि यह सब छोड़ देना चाहिए और गुरुजी के मार्ग पर चलना चाहिए। यह बात भी मुझे याद आती है कि कृष्ण ने तो अर्जुन को बोला था युद्ध करने के लिए तो क्या मैं आपके एजेंट कि तरह थाने में नहीं बैठ सकता, मैं युद्ध करूँ क्योंकि मेरे ऊपर तो बहुत टेंशन होता है।
आचार्य: नहीं, कर सकते हैं, बिलकुल कर सकते हैं। यहाँ राह बंद नहीं हो गई है, बस बात इतनी सी है कि युद्ध करने के लिए आपको हमेंशा सही जगह पर होना पड़ता है। श्रीकृष्ण मालूम है क्या कर रहे हैं, वो अर्जुन के सारथी बनकर बैठे हैं। सारथी का क्या मतलब होता है, वो अर्जुन को हमेंशा सही जगह पर ले जाएँगे जहाँ से वो युद्ध कर सके। भई आप यह भी तो कह सकते हैं कि अर्जुन को क्या करना है, हाथ में गाण्डीव है, पीछे तरकस है, तीर निकालो, चलाओ। ‘मारा जाएगा।’ अगर सही जगह पर जा करके युद्ध नहीं कर रहा है तो मारा जाएगा या तो घेर लिया जाएगा या कुछ और ऐसा हो जाएगा।
इसीलिए सारथी बहुत आवश्यक होता है। कर्ण-अर्जुन जब संग्राम चल रहा था तो उन क्षणों में कर्ण को एक यह बात समझ में आई थी कि उधर श्रीकृष्ण हैं, इधर शल्य हैं, और बड़ा अंतर हो जा रहा है इस बात से। वहाँ जब अर्जुन का होंसला टूटने लगता है, तो श्रीकृष्ण उसे उठा देते हैं, जब तीर अर्जुन की गर्दन की ओर जाने लगता है, तो श्रीकृष्ण रथ को दबा देते हैं और यहाँ ये आगे बैठे हुए हैं शल्य, जब मैं जीतने लगता हूँ तो ये बोलते हैं– अरे क्यों इतना तू गुरूर कर रहा है, अभी हारेगा, अभी मरेगा,और मुझे दो-चार बाण लग जाते हैं तो यह हँसने लग जाता है, बोलता है मैंने तो बोला ही था, तेरे बस की नहीं है जीतना। बात समझ में आ रही है?
तो लड़ना तो है ही लेकिन यह भी देखो कि लड़ने के लिए सबसे सही जगह कौन सी है। अगर वो सबसे सही जगह आपका थाना है, तो आप बेशक थाने में बैठकर लड़िये और यह बिलकुल संभव है कि थाने में बैठकर आप एक अध्यात्मिक लड़ाई लड़ लें; ऐसा हो सकता है, लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है, यह आपको जाँचना है, वो मैं नहीं जाँच पाऊँगा।
आपके थाने में, आपके जिले में स्थितियाँ क्या हैं? ठीक है? आपके प्रदेश में कानून व्यवस्था कैसी है? आपके सीनियर्स कैसे हैं? आपके ऊपर एसपी (पुलिस अधीक्षक) बैठे हैं उनकी क्या हालत है? और ऊपर आईजी साहब (पुलिस महानिरीक्षक), उनका क्या है? ये सब बातें अर्थ रखती हैं, राजनैतिक दखलअंदाज़ी कितनी चल रही है? छुटभईये नेता लोग थाने में आकर कितनी धौंसपट्टी कर रहे हैं? ये सब बातें आपको देखनी हैं, ये मैं यहाँ से क्या बताऊँ, मैं नहीं जानता।
तो अगर आपको लगता है कि आपका थाना ही सही जगह है आपकी आध्यात्मिक उन्नति के लिए, एक धार्मिक लड़ाई लड़ने लिए ,तो मैं कहूँगा थाने में बिलकुल डट कर बैठ जाइए एकदम, और जब तक वहाँ से आप कुछ अच्छा काम कर पा रहे हैं, ज़रूर करते रहिए लेकिन जब दिखाई देने लग जाए साफ़-साफ़ कि अब यहाँ से अच्छा काम हो नहीं सकता तो फिर आगे बढ़िए।