एक छोटू, जो सौ खूंखार नक़ाबपोशों पर भारी पड़ा (ज़िन्दगी जीने का मंत्र) || आचार्य प्रशांत, उद्धरण (2023)

Acharya Prashant

21 min
22 reads
एक छोटू, जो सौ खूंखार नक़ाबपोशों पर भारी पड़ा (ज़िन्दगी जीने का मंत्र) || आचार्य प्रशांत, उद्धरण (2023)

आचार्य प्रशांत: दुख कैसे होता है? दुख ऐसे होता है, ये जो अहम् है, ये अकेला तो रह नहीं पता है, तो इसके ऊपर ये जो दुनिया है पूरी, वो क्या करती है? प्रभाव डालती है और ये प्रभाव ही दुख है, प्रभावित हो जाना ही दुख है, संस्कारित हो जाना ही दुख है। अपनेआप को भूल करके दुनिया के साथ तादात्म्य माने आइडेंटिफिकेशन (पहचान), यही दुख हुआ न? ठीक है।

तो ये दुख की स्थिति है जीव की। ये हम भोग रहे हैं, ये पैदा होने का हम दंड भोग रहे हैं, ठीक है न? तो ये हमारी स्थिति होती है। इसको गौर से देखिए (बोर्ड की ओर संकेत करते हुए जो ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग को दर्शा रहा है)। ये हम सबकी स्थिति है। ये स्थिति हमें पसन्द नहीं है, ये बात पहली है। ये स्थिति हमें पसन्द नहीं है, सबसे पहली ये बात है। किसी को दुख की स्थिति पसन्द होती है क्या? कोई भी ऐसी हालत में सहज अनुभव करता है, जहाँ दुनिया उसके ऊपर चढ़ी आ रही हो? कहिएगा।

नहीं न? तो क्यों नहीं हम सहज अनुभव करते? क्यों नही आनन्दित अनुभव करते अगर सब आपके ऊपर चढ़े आ रहे हों तो?

क्योंकि स्वभाव क्या है? बोलिएगा।

श्रोतागण: मुक्ति।

आचार्य: मुक्ति है। और उस मुक्ति से इसको (जीव को) क्या है? प्रेम है। है न? तो चाहे कोई भी मार्ग हो, जहाँ दुख है वहाँ प्रेम है। प्रेम नहीं होता तो दुख नहीं होता। इस बात को थोड़ा अपने भीतर आने दीजिए। अगर आपको दुख का अनुभव हो रहा है तो इसका अर्थ ही यही है कि आपको आनन्द से प्रेम है। अगर आनन्द आपके लिए एक वांछनीय, प्यारी, चीज़ न होती तो आपको फिर प्रभावित हो जाने से आपत्ति क्यों होती?

मुर्दा पड़ा होता है, मुर्दे के हाथ में आप बेड़ियाँ डाल दीजिए, उसे आपत्ति है क्या? क्योंकि उसे मुक्ति से कोई प्रेम अब रहा ही नहीं। तो प्रेम जब होता है तभी तो भीतर से दुख उठना है न? विद्रोह उठना है, यही सब होता है न? बात समझ में आ रही है?

मुझे कुछ अच्छा लगता है, वो मुझे नहीं मिला, तभी तो मुझे बुरा लगेगा न? अगर मुझे कुछ भी भला, प्यारा, लग ही नहीं रहा होता तो मुझे कुछ बुरा लग सकता था क्या? तो प्रेम सबसे पहले आता है।

ये कुछ बच्चें हैं जो स्कूल भेजे गये हैं, तो ये स्कूल में हैं अपने। और स्कूल के जो पुराने धुरन्धर हैं, खिलाड़ी लोग, सीनियर्स (ऊँची कक्षा के छात्र), वो क्या कर रहे हैं इनको? अब परेशान कर रहे हैं, बुली कर रहे हैं, वो इनको परेशान कर रहे हैं। ठीक है? नये-नये स्कूल में भेजे गये हैं, स्कूल क्या है? संसार। ठीक है?

और ये (बुली करना) है संसार की गुंडई, ये बुली किया जा रहा है कि तुम पैदा हुए हो तो तुम्हें हमारे हिसाब से चलना पड़ेगा। है न? संसार, समाज, देह की वृत्तियाँ, ये हमारे साथ क्या करते हैं? गला पकड़ कर गुंडई करते हैं। कहते हैं, ‘तुम यहाँ आए हो न, नये-नये आये हो, फ्रेशर (नौसिखिया) हो, तो अब तुम हमारे हिसाब से चलोगे। तुम क्या हमारे हिसाब से साथ चलोगे? आज तक जितने पैदा हुए हैं, सब हमारे ही हिसाब से चले हैं। हमारा अपना नियम-कायदा है, वैसे ही चलोगे’। तो ये हमारे साथ बुलिइंग करी जा रही है, पैदा होते से ही। ठीक है?

ये (जीव) कहता हैं, ‘तुम मुझपर आक्रमण करोगे, मैं तुमपर आक्रमण करूँगा, आओ। तुम मुझे दुखी करोगे, मैं तुम्हें दुखी करूँगा। और मेरा तुम पर आक्रमण करने का जो तरीका है, उसका नाम है जिज्ञासा। तुम हो कौन?’ ऐसे समझिए कि जैसे जो लोग आपको सताने आ रहे हैं, नकाबपोश सीनियर्स, किससे घिर गये हैं? नकाबपोश सीनियर्स से। और जाड़े का मौसम है, धुन्ध भी है। धुन्ध है और जो इनको दुखी करने आ रहे हैं, ये सब, इन सब ने क्या पहन रखे हैं? मास्क्स (मुखौटा)। ठीक है? और वह इनको दुखी कर रहे हैं। पहले तो वो बड़े-बड़े हैं, मज़बूत, और फिर उन्होंने क्या पहन रखे हैं?

श्रोता: नकाब।

आचार्य: और साथ-ही-साथ मौसम किसका है? जाड़े का, तो क्या छाया हुआ है? कोहरा। ये क्या है (बोर्ड पर बनायी आकृति की ओर संकेत) यहाँ पर नकाब का होना और बाहर कोहरे का होना? ये (नकाब) है आवरण और ये (कोहरा) है विक्षेप। तो उनसे लड़ना बड़ा मुश्किल है। जो आपको मारने आ रहे हैं, पहले तो वो मज़बूत हैं आपसे, दूसरे आप उनकी किसी से शिकायत भी नहीं कर पाओगे।

आप उनका चेहरा ही नहीं देख रहे, आप उन्हें पलटकर वार नहीं कर पाओगे क्योंकि कोहरा इतना है कि वह आपको ठीक से दिखाई नहीं देते। बल्कि एक पेड़ खड़ा होता है, आपको लगने लगता है यही तो वो है, दुश्मन, जो मुझे मारने आया था। आप पेड़ को घुसा मार देते हो, आपके हाथ में चोट लग जाती है।

ये (जीव) कहता है, ‘तुम हो कौन?’ और ये हाथ बढ़ाकर के उनसे लड़ने की कोशिश करता है। ये बहुत छोटू है। पर इसके पास एक ताकत है, उस ताकत नाम है, जिज्ञासा। ये कहता है, ‘तुम हो कौन? मैं तुम्हारा नकाब उतारूँगा’। नकाब उतारने की ही प्रक्रिया को क्या बोलते हैं? जानना। मुझे तुम्हारे नकाब उतारने हैं, तुम हो कौन सचमुच?

तो इसका (ज्ञानी का) जो उत्तर है अपने दुख को, जब इसके साथ गड़बड़ करी जाती है, तो ये है जिज्ञासा। ये (ज्ञानी) कहता है, ‘मुझे तुम सबको जानना है’। अब बात ये है कि ये जो सीमा है और सीमा से जो लोग आ रहे हैं, यह जो पूरा क्षेत्र ही है और उस सीमा से, इस क्षेत्र से जो लोग आ रहे हैं, ये वास्तव में बहुत अलग-अलग नहीं हैं। ये लोग ही हैं जिन्होंने ये सीमा निर्धारित कर रखी है, ठीक है न? तो अब ये इन पर पलटकर के पूछता है ‘तुम बताओ, तुम हो कौन? तुम हो कौन?’ ज्ञानी सर्वप्रथम जिज्ञासा करता है। और जिज्ञासा का अर्थ होता है संघर्ष। यही है।

वो (ज्ञानी) भिड़ जाता है, वो कहता है- ‘कौन है बताओ?’ अब कल्पना करिए एक छोटू की और उससे चार-चार साल बड़े जो, वो मान लीजिए तीसरी क्लास का है और सातवीं क्लास के आठ-दस लड़के आकर के उसकी रैगिंग (शारीरिक, मौखिक या मानसिक दुर्व्यवहार) करना चाहते हैं। लेकिन वो भिड़ गया है और भिड़ ही नहीं गया है, वो उछल-उछलकर उनके मुखोटे उतार रहा है। कह रहा है, ‘तुम हो कौन? अपना मुँह तो दिखाओ। अपना मुँह तो दिखाओ। अपना मुँह तो दिखाओ।’

बड़ा मुश्किल काम है, बहुत मुश्किल काम है तीसरी साल का छोटू और वो क्या करना चाह रहा है? उनके मुखोटे उतरना चाह रहा है। लगभग असम्भव काम है, लेकिन अगर वो अडिग रह गया, वो भिड़ा ही रह गया, वो भिड़ा रह सकता है सिर्फ़ एक वजह से, उस वजह का ये नाम है (प्रेम)। अगर उसमें प्रेम इतना हो कि वो कहे, ‘पीछे तो नहीं हटूँगा, भिड़ा रह जाऊँगा’, तो उसकी जीत हो जाती है।

जीत कैसे होती है? जीत ऐसे होती है कि ये जितने हैं, ये (ज्ञानी) सबसे एकसाथ भिड़ रहा है, ये अभी अकेला हैं, अभी रजनीकांत बना हुआ है बिल्कुल, सौ से एकसाथ भिड़ रहा है। ज्ञानी बेचारे की यही हालत होती है, उसे सौ से एक साथ भिड़ना पड़ता है क्योंकि प्रकृति कैसी है? अनेकान्त है। प्रकृति में इतनी सारी चीज़ें हैं, किस-किससे निपटोगे? ज्ञानी का यही है, वो सबसे निपटता है।

लेकिन उस बेचारे को एक राहत ये मिलती है कि हम देख चुकें हैं कि ये सबके सब क्या हैं? प्रकृति के जितने भी अनेक तत्व हैं, वो सब मूल में क्या होते हैं? एक ही होते हैं। अगर ये छोटू उछलकर के एक का भी मास्क उतार दे, मुखौटा उतार दे, तो वह पाता है कि मुखौटे के पीछे कुछ है ही नहीं, सिर्फ़ मुखौटा मुखौटा है, मुखौटा धारण करने वाला कोई नहीं है, इसी को बुद्ध ने कहा था अनात्मा। कुछ है जो बस भासित होता है, उसके पीछे कुछ नहीं है, प्रतीती भर है, तत्व कुछ नहीं हैं। अजीब बात! प्रतीत होता है, है नहीं। दिखाई पड़ता है, सुनाई पड़ता है, अनुभव में आता है, है नहीं। जिसका मुखौटा उतार दिया छोटू ने, वो… और एक का भी अगर मुखौटा उतार दिया तो पाता है कि पूरा तिलिस्म ढह जाता है, सब एकसाथ गायब हो जाते हैं।

तो जो ऑड्स (कठिनाइयाँ) हैं, माने जीतने की सम्भावना है, वो इनके प्रतिकूल हैं, द ऑड्स आर अगेंस्ट दिस लिटिल फाइटर (परिस्थितियाँ इस छोटे योद्धा के विरूद्ध हैं) बहुत हैं। लेकिन एक चीज़ से उसको बहुत मदद भी मिलती है कि अगर उसने एक भी तत्व का यथार्थ जान लिया, तो उसने सबका यथार्थ जान लिया। बालू के एक कण की भी सच्चाई अगर उसने जान ली, तो उसने पूरे ब्रह्मांड की सच्चाई जान ली।

किसी ज्ञानी का ये वचन है, ढूँढिएगा, मिल जाएगा, कि अगर आपको धुल के एक कण को भी जानना है सचमुच, तो आपको पूरे ब्रह्मांड को जानना पड़ेगा। देखिएगा, किसका है। बहुत सुन्दर वक्तव्य है। अगर आपको धुल के एक कण को भी सचमुच जानना है तो आपको पूरे ब्रह्मांड को जानना पड़ेगा, पूरे ब्रह्मांड को जाने बिना आप उसको नहीं जान सकते और अगर उसको जान गये तो वाइस-अ-वर्सा (विपरीत)। अगर उसको जान गये तो पूरे ब्रह्मांड को भी जान गये।

तो ज्ञानी एक बार में पाँच सौ से भिड़ रहा है, बड़ा रजनीकांत, एक बार में पाँच सौ से भिड़ रहा है। यहाँ तक कि खुद से भी भिड़ रहा है। ज्ञानी तो पूरी दुनिया से संघर्ष में होता है और स्वयं से भी। लेकिन अगर एक जगह भी वो जीत गया, ऐसा-सा है कि आप अपने घर के छोटू से आप बैडमिंटन खेलें इक्कीस प्वाइंट का, अब वो छोटू तीसरी का और आप जवान आदमी तीस साल के; वो तीसरी का, आप तीस के। तो ऐसे तो यही लगेगा कि आप ही जीतोगे लेकिन खेल का नियम दूसरा हैं। ध्यान से समझिएगा, खेल का नियम ये है कि अगर उसने एक प्वाइंट भी बना लिया तो वो जीत गया। आपको जितने के लिए बनाने होंगे?

श्रोता: इक्कीस।

आचार्य: आपके लिए ज़रूरी ये है कि आप उसे लव (प्रेम) पर हराएँ, लव पर वो हारेगा नहीं क्योंकि लव है उसके पास। आपके लिए ज़रूरी ये है कि आप उसे बिलकुल शून्य पर हराएँ और उसको जीतने के लिए बस ये करना है कि वो एक प्वाइंट बना ले तो वो जीत जाता है। ऐसा खेला होगा बच्चों के साथ, नहीं खेला है? ‘चलो एक बना दो तो तुम जीत गये।’ और जीत भी जाते हैं बच्चे बहुत बार। क्योंकि आपको बनाने हैं इक्कीस, उसको बनाना है एक। तो ज्ञानी को एक प्वाइंट बनाना होता है और वो जीत जाता है। उसे सौ दफ़े लड़ाइयाँ नहीं लड़नी।

एक वस्तु की, एक विषय की, एक सम्बन्ध की, एक व्यक्ति की, एक विचार की अगर वो हकीकत जान गया, तो वो पुरे अस्तित्व को, पुरे जीवन को जान गया। तो इसलिए उसके जीतने की सम्भावना एकदम फिर नगण्य माने एकदम शून्य नहीं होती, वो जीत सकता है, ज्ञान जीते हैं। लेकिन उसके चलने के तरीका, उसकी गति का तरीका, एकदम रक्तरंजित है। उसका रास्ता खून से तरबतर रहता है।

ज्ञानी भी बेईमानी कर सकता है, ज्ञानी क्या बेईमानी कर सकता है? ज्ञानी क्या बेईमानी कर सकता है? ज्ञानी ये बोल दे, ‘मैंने सबको हरा दिया’। करा कुछ नहीं है, खुद जाकर झाड़ में छुप गया है तो सीनियर्स उसको देख नहीं पा रहे हैं। पर चूँकि अभी वो दिखाई नहीं दे रहे हैं तो उसने अपनी ओर से ही एकतरफ़ा घोषणा क्या कर दी? ‘मैंने सबको हरा दिया।’ ज्ञानी भी महा-बेईमान हो सकता है। है अन्दर ही प्रकृति के, है अभी भी बद्ध संसार से ही, लेकिन घोषणा ये क्या कर रहा है कि ‘मैंने तो साहब सबको हरा दिया’, भाई ये अब बेईमान ज्ञानी है। ये अब बेईमान ज्ञानी है। अरे! अभी अगर तुम बचे हुए हो तो ये (संसार) कैसे नहीं बचे? ये तीनों (जीव, संसार और संसार का जीव पर प्रभाव) क्या हैं?

श्रोता: प्रकृति।

आचार्य: तो ये घोषणा तुम कैसे कर सकते हो कि मैंने सबको हरा दिया है और मैं अभी शेष हूँ। अगर तुम शेष हो तो, 'मैं' यदि शेष है तो 'मैं' का जगत भी शेष होगा, अहम् यदि शेष है तो भ्रम भी शेष होगा। क्या ऐसा हो सकता है कि अहम् शेष हो और भ्रम शेष न हो? हो सकता है?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: पर ज्ञानी को बड़ा आनन्द आता है ये घोषणा करने में, ‘मैंने तो (सबको हरा दिया), दिग्विजयी, चक्रवर्ती हो गया, सबको हरा दिया। (दम्भ के साथ बोलने का अभिनय) ‘मैंने।’ किसने? ‘मैं।’ ‘मैं महाज्ञानी हूँ, सबको हरा दिया।’

तो ज्ञानी का रास्ता चूँकि संघर्ष का है, तो उसको अब मालूम है यहाँ पर कि क्या करना पड़ता है? अब उसको करनी पड़ती है सुसाइड बॉम्बिग (आत्मघाती बम विस्फोट)। वो कहता है, ‘मैं यदि अगर शेष हूँ तो सब शेष रह गया, तो इन सबको मारने का एक ही तरीका है (सुसाइड बॉम्बिग)। तो अब वो यहाँ पर करता है धमाका, ‘बुम’, सब खत्म, बस ये बचा अद्वैत। और उस धमाके का नाम होता है “नेति-नेति”।

कुछ नहीं है, मैं ही नहीं हूँ, 'मैं' नहीं हूँ, मैं कुछ नहीं हूँ। जब मैं ही नहीं हूँ तो कौन बचा इससे (संसार) चिपकने को? ये ज्ञान का तरीका है, कुछ नहीं है। एक झटके में सब खल्लास, साफ़ मामला। लेकिन उसके लिए बड़ा जिगर चाहिए, ज्ञानी होने के लिए बहुत-बहुत हिम्मत चाहिए। नहीं कर पाता आम आदमी ये वरना कि.... यही वजह है कि भारत में देखोगे तो निन्यानवे प्रतिशत लोग, अगर वो धार्मिक होंगे तो वो भक्त होंगे। अगर कोई बोलता है कि वो धार्मिक है, तो निन्यानवे प्रतिशत सम्भावना यही है कि वो भक्त है। क्योंकि ज्ञान का मार्ग बहुत, बहुत, बहुत कठिन है। यहाँ (भक्ति) पर समर्पण है या यहाँ (ज्ञान) पर समाप्ति। समर्पण आसान पड़ता है, समाप्ति के लिए दिल नहीं मानता।

हालाँकि समर्पण से भी समाप्ति हो जाती है, पर सीधी-सीधी समाप्ति के लिए… अब इससे दो सूत्र समझिएगा अच्छे से, रमण महर्षि ज्ञान मार्ग को कहा करते थे, द डायरेक्ट पाथ (सीधा रास्ता)। आप देख पा रहे हैं कि ये छोटा है रास्ता, एकदम सीधा है (ज्ञान का मार्ग)। यहाँ क्या है (संसार में)? एकदम भिड़ जाओ और जब देखो कि उनको हरा नहीं पा रहे हो, जब भिड़ जाओ और देखो कि हरा नहीं पा रहे हो, तो क्या करो? बूम।

और ये नहीं है कि बूम करके पूरी दुनिया उड़ानी है, बूम करके एक को भी उड़ा दिया तो पूरी दुनिया उड़ गयी। बहुत बड़ा बम भी नहीं चाहिए। आप कहो, ‘अरे! पूरी प्रकृति, पूरी कायनात, पूरे ब्रह्मांड को उड़ाने वाला बम कहाँ से लाएँ?’ नहीं, उतना बड़ा बम नहीं चाहिए, बस किसी एक को उड़ा दो अपने साथ, अगर एक भी उड़ गया तो सब उड़ गये। समझ में आ रही है बात?

तो ये डायरेक्ट पाथ (सीधा रास्ता) होता है, शॉर्टेस्ट पाथ (सबसे छोटा रास्ता)। ज्ञान का जो मार्ग है, वो सबसे सीधा, सबसे छोटा, सबसे त्वरित होता है, सबसे त्वरित एकदम सीधा। पर सिर्फ़ उनके लिए जो उसपर पाएँ, जो उसपर चल पाएँ उनके लिए सबसे सीधा मार्ग है। और दूसरी बात, फिर रमन महर्षि के ही शब्दों पर वापस आते हैं, उनको कहा था भक्ति ज्ञान की माता है। प्रेम पहले आता है, मैं बार-बार कहता हूँ, ‘प्रेम पहले आता है, ज्ञान बाद में आता है।’

प्रेम यदि न हो तो ये जो ज्ञानी है, ये संघर्ष नहीं करेगा। प्रेम ही है जो ज्ञानी को जुझा देता है, लड़वा देता है। वो प्रेम ही है, प्रेम की ही ताकत है। और प्रेम का ही बल है जो ज्ञानी को फिर समाप्ति का हौसला देता है। कहता है, ‘मिट भी गये तो कोई बात नहीं, मिटकर ये (अद्वैत) मिलेगा न। हम मिटेंगे, हमारे मिटने का अर्थ होगा ये बस बचा, मिटे नहीं हैं फिर, मिले हैं।

ज्ञानी क्या बोलकर मिटता है? ‘मिटने नहीं जा रहा हूँ, मिलने जा रहा हूँ’। ये ज्ञानी का बहुत बड़ा प्रेम है। विचार करिएगा, इसका प्रेम इतना बड़ा है, इतना बड़ा है कि ये अपने प्रेम की खातिर खुद को ही मिटा देता है, 'मैं' को ही मिटा देता है। तो ज्ञानी होना महा, महाप्रेम कि बात है। अब ये एक अलग मुद्दा है कि ऐतिहासिक रूप से भक्ति मार्ग को प्रेम मार्ग माना गया। ऐतिहासिक रूप से प्रेम मार्ग किसको माना गया है? भक्ति मार्ग को ही तो प्रेम मार्ग कह देते हैं, समानार्थी बोलते हैं। लेकिन मेरे देखे, ज्ञान मार्ग, प्रेम मार्ग है। विचार करिए, ज्यादा प्रेम कहाँ चाहिए?

श्रोता: खुद को मिटाने में।

आचार्य: खुद को मिटाने में, ये स्पष्ट हो रहा है? इसपर कोई जिज्ञासा हो तो बताइए।

प्रश्नकर्ता १: प्रणाम! जो अभी जिज्ञासा कर रहा था, मुखौटे हटा रहा था तो देखा कि पीछे कुछ नहीं है तो वो मुखौटे किस पर थे?

आचार्य: किसी पर भी नहीं थे, वो आपकी आँख का भ्रम थे। तो मुखौटे हटाने का भी इसीलिए तरीका क्या होता है? ‘अपनी आँख साफ़ करो’। कहने को तो ये संघर्ष प्रकृति के तत्वों के विरूद्ध है, पर वास्तव में ये सिर्फ़ अपने विरुद्ध है, इसीलिए ‘आत्मज्ञान’। अरे, दूसरे से क्या भिड़ रहे हो? दूसरा तो आपकी आँख का धोखा है। मेरी आँख में तिनका पड़ गया और मुझे लग रहा है कि यहाँ पर कोई हाथी खड़ा है, मैं हाथी से भिड़ूँ या अपनी आँख साफ़ करूँ?

प्र १: तो, जो याद आता है, ओशो साहब कहा करते थे कि आँख में अगर तिनका पड़ गया तो पर्वत गये।

आचार्य: पर्वत गये, सूरज चला गया पूरा, सबकुछ खत्म वो कर सकता है, इतना-सा धूल का कण सूरज पर भारी पड़ सकता है। एक कविता लिखी थी मैंने,

“रेत का कण विशाल इतना है, उसके आगे समुन्दर चुप जाते”।

गोवा गया हुआ था, वहाँ गया ही इसीलिए था कि किसी तरीके से कुछ दिन के लिए.... पर यही काम सारा वहाँ भी आ गया और वहाँ शिविर भी था, तो जब शिविर होता है तो बहुत सारे काम हो जाते हैं। मुझे बीच (समुद्र का किनारा) पर बैठना पसन्द है, मैंने देखा कि पाँच दिन बीत चुके हैं और मुझे घंटे की मोहलत नहीं मिली कि बीच पर शान्ति से बैठ पाऊँ। तो फिर जब वहाँ पर गया तो वहाँ पर एक कविता लिखी थी और उसकी आखिरी दो पंक्तियाँ यही थीं कि “रेत का कण विशाल इतना है, रेत आगे समुन्दर छुप जाता।”

रेत का कण समझते हो? छोटे-छोटे मुद्दे ज़िन्दगी के लेकिन असंख्य। वो इतने सारे हो गये थे उन्होनें मुझे घेर लिया और मैं समुद्र के पास जा ही नहीं पाया। तो "रेत का कण विशाल इतना है, रेत आगे समुन्दर छुप जाता।”

प्र १: तो आवरण ही अपने पर था, विक्षेप फिर क्या? विक्षेप तो कुछ नहीं हुआ, सामने बस दिख रहा था वो विक्षेप है।

आचार्य: जब आपकी आँख में धूल पड़ी होती है तो दो बातें होती हैं, एक तो ये कि जो है वो दिखाई ही नहीं देता, उसको आवरण बोल दिया और दूसरा ये भी तो होता है न कि हाथी नहीं है और हाथी दिख गया, वो विक्षेप है

प्र १: तो वो भी...

आचार्य: है उसी से, आँख को कण से मोहब्बत हो गयी है, आँख को धूल से मोहब्बत हो गयी है, ये कहें कि ये तो बहुत प्यारी चीज़ है, बहुत प्यारी चीज़ है और सोचो, वो एक ऐसी चीज़ को प्यारा कह रही है जो उससे उसका स्वभाव छीन लेगी। ये हम सबकी दास्तान है। हम उसको प्यारा बोल देते हैं जो हमसे हमारा स्वभाव छीन लेता है। आँख को अगर धूल से प्रेम हो गया है तो इसमें समस्या क्या है? क्या समस्या है? धूल आँख से आँख का स्वभाव छीन लेगी, आँख का क्या स्वभाव है?

श्रोता: देखना।

आचार्य: लेकिन आँख को अगर धूल से ही प्यार हो गया तो धूल आँख से आँख का स्वभाव ही छीन लेगी न। यही हमारे साथ होता है, हमें जिन भी विषयों से मोह होता है, वो वही होते हैं जो हमसे हमारा स्वभाव छीन लेते हैं। और मनुष्य का स्वभाव, आँख का अगर स्वभाव है देखना तो जीव का क्या स्वभाव है? मुक्ति। हम उन्हीं से जाकर के चिपकते हैं जो हमसे हमारी मुक्ति छीन लेते हैं। समझ में आ रही है बात?

प्र १: प्रणाम।

प्र २: नमस्ते आचार्य जी! अभी जैसा कि आपने एक बात कही थी कि अगर धूल का कण आँख में चला जाता है तो आँख का स्वभाव ही चला जाता है। तो उसी से सम्बन्धित महसूस होता है कि जो मोह की बात हो रही है, मोह हम सोचते हैं कि शायद हमारे अन्दर से निकल गया है लेकिन पुत्र के लिए हमेशा ही आ जाता है मोह। तो वाकई वो धूल के कण की तरह चुभता भी है, निकालने की भी कोशिश, लेकिन सफलता नहीं मिलती उसमें।

और वो पुत्र असल में आपके साथ जुड़ा है तो उसके साथ जो मोह है, उसको मैंने निर्मल करके उसको बोल दिया कि अब तू मेरा गुरु है। वो बैठा भी है यहाँ पर है, तो उसको मैं रोज़ बोलती हूँ कि तूने मुझे ये सारा गीता सब...

आचार्य: दोनों (प्रेम मार्ग या भक्ति मार्ग) में से कौनसा चाहिए आपको, बताइए? उसी के अनुसार आपको समाधान दूँगा।

प्र २: ज्ञान।

आचार्य: ज्ञान वाला मुश्किल पड़ेगा, निन्यानवे प्रतिशत लोग ज्ञान के नाम से ही भागते हैं, वो मुश्किल पड़ेगा।

प्र २: मुश्किल वाला ही करेंगे, चलो।

आचार्य: मुश्किल तो फिर यही है कि देह का पुत्र है, मेरा है ही नहीं, संयोगों का पुत्र है। ‘एक संयोग हुआ था कि मैं स्त्री पैदा हुई।’ स्त्री न होतीं आप तो आपके बेटा होता क्या? एक संयोग ही तो था। सबसे पहले से शुरूआत करिए, आप महिला न पैदा तो आप गर्भ कहाँ से करतीं? तो पुत्र कहाँ से आता?

तो सारी बात ही संयोग से शुरू हो रही है तो वो बेटा भी किसका है फिर? संयोग का बेटा है आपका है ही नहीं। आप पैदा हुईं, यही संयोग की बात है, बेटा पैदा हुआ ये भी संयोग की बात है वो बेटी भी तो हो सकता था। ये भी हो सकता था कि नहीं पैदा होता, कुछ भी हो सकता था। तो वो जो कुछ भी है, संयोग मात्रा का है और संयोग के लिए ही दूसरा नाम क्या है? प्रकृति।

आपका नहीं है प्रकृति का है। आपका नहीं है। कि जैसे ये ज्ञान मार्ग है। बात बन गयी हो तो बता दीजिए, ज्ञान तो इतना सीधा होता है, मतलब ऐज़ सिंपल ऐज़ सुसाइड बॉम्बिग (आत्मघाती बम विस्फोट जितना सरल)। एक सेकंड में खेल खत्म।

प्र २: और ये सुनते ही दुख होना शुरू हो गया।

आचार्य: इसका (अहम्, संसार का) जो रास्ता होता है वो क्या कहता है? इसका कहता है, ‘बेटा मुझे प्यारा है, बेटे से ज़्यादा मुझे कुछ और प्यारा है, जो सबसे प्यारा है उसको बेटा समर्पित किये देती हूँ।‘

प्र २: ये ठीक है। (श्रोतागण हँसते हैं)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories