ध्यान पसंद है, तो चौबीस घंटे का ध्यान क्यों नहीं करते? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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ध्यान पसंद है, तो चौबीस घंटे का ध्यान क्यों नहीं करते? || आचार्य प्रशांत (2018)

आचार्य प्रशांत: अरूण कह रहे हैं, 'आचार्य जी, बहुत गुरुओं के पास गया हूँ, काफ़ी ध्यान की विधियाँ भी की हैं, प्रकाश भी महसूस किया है, काफ़ी हद तक परिवर्तन भी आया है, ध्यान करने से अच्छा लगता है, शांति मिलती है।'

यह हुई भूमिका, यह हुई स्थिति। अब इस स्थिति से उभर के सवाल क्या आ रहे हैं।

पहला — ध्यान करने से जो शांति मिलती है क्या वह भी मन का जाल है?

है। वह भी मन का जाल है, पर वह ज़रा झीना जाल है, सूक्ष्म है, ऊँचे तल का जाल है। एक शांति वह होती है जो कुछ करने से मिल जाती है। वो चूँकि कुछ करने से मिल जाती है; इसीलिए वो कुछ करने से या कुछ न करने से चली भी जाती है, उसका होना हमेशा ख़तरे की बात होती है। इस शांति को मैं कहता हूँ 'द्वैतात्मक शांति।'

यह द्वैतात्मक शांति है। क्यों? क्योंकि यह आश्रित रहती है, निर्भर करती है अशांति पर। यह शांति नहीं है, यह राहत है। यह आनंद नहीं है, यह सुख है। यह जेल से रिहाई नहीं है, यह ज़मानत है। पता नहीं वापस कब बुलावा आ जाए। मालिकों से पूछ कर बाहर आए हो, अगर मालिकों से पूछ कर बाहर आए हो, तो मालिकों के बुलावे पर वापस भी जाना पड़ेगा।

तो ध्यान की विधियाँ आपको शांति की झलक उपलब्ध तो कराती हैं, पर वो शांति असली शांति नहीं हो सकती — झलक है, विज्ञापन मात्र, झाँकी है, सावधिक है, टाइम बाउंड (समयबद्ध) है, अपना अंत लिखवा कर आयी है। इसलिए ध्यान की विधियाँ उपयोगी भी हैं और अनुपयोगी भी। उपयोगी इसलिए है कि झलक तो दिखायी, अनुपयोगी इसलिए है कि झलक ही दिखायी।

और जो झलक आपको ध्यान की विधियों से देखने को मिलती है वो आप विधियों को न भी आज़माए तो कभी-कभार तो मिल ही जाती है। प्रश्न यह है कि उस झलक के बाद आप करते क्या हैं? उस झलक के बाद शांति के प्रति आपका रुख़ क्या रहता है? दो रुख़ हो सकते हैं। दो रवैये। पहला यह कि मिल तो जाती है शांति, थोड़ा सा आयोजन करके, विधि का प्रयोग करके। सस्ती चीज़ है। जब ग़लत जीवन जीने के कारण अशांति-ही-अशांति छा रही हो, तो थोड़ी देर के लिए किसी विधि की शरण में चले जाओ।

दिन भर कुकृत्य किए — दिन भर वैसे जिये जैसे नहीं जीना चाहिए था — फल तो मिलेगा ही। फल यह है कि साँझ आते-आते मन खिन्न है, बेचैनी है। कोई बात नहीं, हमारे पास तत्काल राहत उपलब्ध है। क्या? 'ध्यान लगा लो, अनेकों विधियाँ हैं।' मैंने कहा, 'सस्ता उपाय है।' यह पहला रुख़ है, पहला रवैया है। ध्यान लगा लिया, कर्मफल से तात्कालिक निजात मिल गयी। ध्यान लगा लिया, कर्मफल से तात्कालिक, उसी समय की राहत मिल गयी। और उस राहत ने हमें प्रेरित कर दिया वैसे ही जीते रहने को जैसे कि हम जी ही रहे हैं, बल्कि और प्रोत्साहन दे दिया।

तुम बुरी-से-बुरी ज़िन्दगी भी जियोगे तो फल नहीं भुगतना पड़ेगा। जब फल भुगतने का मौका आएगा तब ध्यान लगा लेना। जब फल भुगतने की घड़ी आएगी तो तुम्हारी सुरक्षा कर देगी ध्यान की विधि।

लोग कहते हैं, 'अशांति से बचने के लिए ध्यान चाहिए।' मैं पूछता हूँ, 'अशांति सर्वप्रथम है ही क्यों?' स्वभाव तो नहीं है अशांति! परमात्मा ने अशांत रहने के लिए तो नहीं पैदा किया तुमको! निश्चित रूप से कर्मफल है अशांति। निश्चित रूप से जैसा जीवन हम चुनते हैं उस जीवन का उत्पाद है अशांति। हमारा चुनाव है अशांति। ध्यान की विधियों के साथ बड़े-से-बड़ा ख़तरा यही है कि वो अशांति की रक्षक बन सकती हैं, तुमको सस्ती और तात्कालिक शांति प्रदान करके।

जैसे कोई बच्चा हो जिसका बाप बड़ा आदमी है, उसको पता है कि वह कोई भी शरारत करेगा इधर-उधर बड़े-से-बड़ा नुक़सान भी कर आएगा, तो बाप उसको बचा लेगा। ऐसे बच्चों का अंजाम जानते हो न क्या होता है, उनकी शरारतें दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती हैं।

अधिकांश लोग ध्यान का उपयोग ऐसे ही करते हैं। वह यह प्रश्न ही नहीं पूछना चाहते कि जीवन में अशांति सर्वप्रथम रहे ही क्यों। क्यों उसी दुकान पर बार-बार वापस जा रहे हैं जहाँ तनाव मिलता है! क्यों घर का माहौल ऐसा बना रखा है कि घुटन और बेचैनी है! ये सवाल वे नहीं पूछना चाहते क्योंकि ये सवाल खरे और असली सवाल हैं। इसकी जगह वो आसान, क्विक-फिक्स (जल्द ठीक) राहत खोजते हैं।

समझ रहे है?

कि जैसे कोई ब्रेन कैंसर का इलाज सिरदर्द की गोली खाकर करे। सिर फट रहा है। क्यों? ब्रेन कैंसर है। लेकिन तुमको थोड़ी राहत तो मिल ही जाती है न। किससे? सिरदर्द की गोली खा ली, दो घंटे की राहत तो मिल गयी न। बहुत लोग ध्यान की विधियों का ऐसे दुरुपयोग करते हैं। इसलिए मैंने बहुत कुछ बोला है ऐसे लोगों के ख़िलाफ़। ध्यान की विधियों के ख़िलाफ़ नहीं; ध्यान की विधियों के दुरुपयोग के ख़िलाफ़।

तो सदुपयोग क्या है फिर ध्यान की विधियों का? वो जानना है तो हम आते है दूसरे रवैये पर। हमने कहा था, 'ध्यान की विधियों के प्रति दो रवैये हो सकते हैं।' पहले का ज़िक्र हमने कर लिया और अब दूसरे की बात। एक दूसरा मन होता है जो कहता है कि झलक इतनी प्यारी थी तो पूर्ण कैसा होगा! कुछ मिला थोड़ी देर को तो चित्त शीतल हो गया, उसमें अगर जी ही सकें निरंतर तो जीवन कैसा होगा!

वो बिक जाता है। वो कहता है, 'थोड़ी सी आँख खुली है, लेकिन जो दिखा उस पर फ़िदा हो गए, लुट गए, बिक गए। जो नज़ारा दिखा, उसकी ओर बढ़ना है, लौटकर वापस नहीं जाना है। हम थोड़े में नहीं मान जाएँगे, हम सस्ते से ही संतुष्ट नहीं हो जाएँगे' — यह दूसरा मन है। इस दूसरे मन की सहायता के लिए विधियों को ईजाद किया गया था, लेकिन खेद की बात यह है कि उन विधियों पर कब्ज़ा कर लिया है पहले तरीक़े के मन ने, पहले रवैये ने।

मन वह चाहिए जिसे जब ध्यान में ज़रा अपने झंझटों से छुटकारा मिले, तो वह कहे कि यह इतना प्यारा है ध्यान कि इससे कभी उठना नहीं चाहेंगे।

लोग कहते हैं कि ध्यान में अपूर्व शांति मिलती है। तो मैं पूछता हूँ, 'तो फिर उठ क्यों जाते हो? ध्यान इतना अगर मीठा और प्यारा है तुमको, तो फिर ध्यान तोड़कर उठ क्यों जाते हो?' तो कहते हैं, 'ज़िम्मेदारियाँ भी तो हैं, दिन भर बैठे ही थोड़े रहेंगे पालथी मारे, काम भी तो करने हैं!' यानी कि काम ज़्यादा ज़रूरी हुआ ध्यान से न।

यही चोरी है, यही झूठ है। और इसी मजबूरी का सामना उसे करना पड़ता है जो ध्यान की विधियों से सत्य की, शांति की, मौन की, झलक पाता है और कहता है कि यह चीज़ मीठी है, हमें छोड़नी नहीं। उसे दिखायी देता है कि चीज़ प्यारी है, पर मिली मुझे कैसे? विधि से।

तो कहता है, 'ऐसे नहीं चलेगा। विधि तो मध्यस्थ बन गयी, विधि तो एक तरह की दलाल बन गयी। हमें जो चाहिए वह हम मध्यस्थ को बीच में रखकर, माध्यम बनाकर क्यों पाएँ; सीधे-सीधे क्यों नहीं पा सकते। हमें जो चाहिए वह हम किसी क्रिया-प्रक्रिया के माध्यम से क्यों पाएँ, सीधे ही क्यों न पा लें। हमें जो चाहिए वह हम दिन के किसी ख़ास घंटे में, किसी ख़ास जगह बैठ कर या कुछ विशेष करके क्यों पाएँ, निरंतर क्यों नहीं हम उसके आगोश में रह सकते हैं।'

तब वो कहता है कि जो मैं माँग रहा हूँ वह किसी विधि से तो मिलेगा नहीं, क्योंकि हर विधि शर्तें लगाती है। कोई विधि कहती है, 'इस समय बैठना।' कोई विधि कहती है, 'ऐसा आसन करना।' कोई विधि कहती है, 'फ़लानी चीज़ पढ़ना।' कोई विधि कहती है, 'फ़लानी जगह जाना।' हर विधि कुछ-न-कुछ शर्त रखती है और शर्त माने सीमा। हर विधि कहती है कि ऐसा-ऐसा जब होगा तब और मात्र तब लगेगा ध्यान। ठीक? और उस विधि की जो शर्तें हैं वो तुम पूरी न करो, तो क्या ध्यान लगता है? फिर तो नहीं लगता।

यह जितने ध्यानी, योगी, घूम रहे हैं इन सब की सारी साधना ही यही है कि जो प्रक्रिया है उसको मैं पूरा-पूरा साध लूँ। जो प्रक्रिया है मैं उसका एक परिष्कृत उपभोक्ता बन जाऊँ। ठीक वैसे जैसे करना चाहिए बिलकुल वैसे ही करूँ। आसन लगाते वक्त अगर दोनों पाँवों के बीच में इतने अंश का कोण बनना चाहिए, तो ठीक उतने ही अंश का कोण बने।

यह परमात्मा को नहीं साधा जा रहा, यह तो मध्यस्थ को साधा जा रहा है। यह अंत को नहीं साधा जा रहा, यह मार्ग को साधा जा रहा है। यह मंज़िल को नहीं, दलाल को साधा जा रहा है। और उसमें भी कोई ग़लती नहीं थी अगर एक बार तुमको मध्यस्थ के माध्यम से दर्शन हो जाने के बाद इतनी तीव्र उत्कंठा उठती कि तुम कहते कि अब मध्यस्थ को तो मुझे विदा करना पड़ेगा, हटाना पड़ेगा; कब तक यह बीच वाले को बीच में बैठाएँ।

आ रही है बात समझ में?

ज्यों ही दिखता है कि हर विधि दर्शन तो दिलाती है, लेकिन शर्तों पर आधारित होने के कारण वह दर्शन समयबद्ध होता है, अवधिबद्ध होता है, तो आदमी फिर कहता है कि विधियों से आगे जाना है। ऐसा ध्यान चाहिए जिसके लिए किसी विधि की कोई ज़रूरत न पड़े — मैं उस ध्यान की बात करता हूँ। आप पूछ रहे हैं, 'क्या विधियाँ उपयोगी हैं।' हाँ, यदि विधियाँ तुम्हें प्रेरित कर सकें विधियों से आगे जाने के लिए। और न, अगर विधियों को तुम बहाना बना लो विधियों में ही लिप्त रह जाने का — यह उत्तर है मेरा।

वस्तु स्थिति क्या है? ध्यानियों का तथ्य क्या है? तुमने देखे हैं ऐसे ध्यानी जो विधियों को पार कर जाएँ और फिर वो स्वतंत्र ध्यान में जियें? कि जैसे कबीर साहब बता गए कि उठते-बैठते परिक्रमा हमारी चलती है, हमें परिक्रमा अलग से नहीं करनी पड़ती। सो रहे है, जग रहे हैं, खा रहे हैं, पी रहे हैं, ध्यानस्त हैं; अलग से ध्यान नहीं लगना पड़ता। ऐसे तो दो-चार ही होते हैं।

अधिकांश लोगों ने ध्यान की विधियों का दुरुपयोग ही किया है। उन्हें झलक तो मिली है — बड़ा भला हुआ — लेकिन वो झलक पर ही जाकर रुक जाते हैं। और जो झलक पर रुक गया उसके जीवन में कभी आमूलचूल परिवर्तन नहीं आएगा। उसका जीवन तक़रीबन वैसा ही चलता रहेगा जैसा सदा चला है। बल्कि यह भी हो सकता है कि उसके जीवन का और पतन भी हो जाए, क्योंकि उसको एक सस्ता सहारा मिला हुआ है।

बात समझ रहे हो?

अगर कोई मुझसे कहेगा कि वह तीस साल से विधियाँ ही आज़मा रहा है, तो मैं कहूँगा बेईमान आदमी है। जिन्हें सीधे ही शुरू करने में अड़चन आती हो, तकलीफ़ आती हो वो विधियों का इस्तेमाल कर लें — आरंभ मात्र के लिए। शुरू करने के लिए कोई विधि पकड़ लो; पर जितनी जल्दी हो सके विधि को त्यागो। विधि का उल्लंघन करो, विधि से आगे बढ़ जाओ।

बात समझ में आ रही है?

बात तो तुम्हारी और तुम्हारे प्यारे की है, यह बीच में बिचौलिया कहाँ से बैठा लिया तुमने? क्यों भाई कि जब यह आएगा बीच में दलाल सिर्फ़ तभी प्रेमी से मिलन होगा। यह स्थिति किसको-किसको सुहा रही है? जल्दी बताओ। कि पंडित को सुहाग की सेज तक ले आएँ, ठीक है भाई, तूने आरंभ करा दिया, अब दक्षिणा ले और घर जा। या पंडित को सेज तक लेकर आना है, किस-किस को स्वीकार है?

जितनी जल्दी हो सके विधियों का समुचित उपयोग करके उनसे आगे बढ़ो, अतिक्रमण करो। और मैं कह रहा हूँ उनका समुचित उपयोग संभव है। मैं विधियों के ख़िलाफ़ नहीं हूँ। ध्यान की विधियों को लेकर एक बात और समझने लायक़ है। तुम्हें पता कैसे चलेगा कि तुम्हारे लिए कौनसी विधि अनुकूल है? सैकड़ों विधियाँ हैं, तुम्हें कैसे पता चलेगा कि तुम्हारे लिए कौनसी विधि सही-सही है?

अपने संशय का कारण ज़ाहिर कर देता हूँ। तुम कोई एक तो हो नहीं — पहली बात — तो लोग बहुत सारे हैं। दूसरी बात — जो एक इंसान दिखाई देता है वो भी दिन भर में छत्तीस बार बदलता है। अभी वैसे ही हो जैसे दोपहर में थे? कितने लोग अभी शांत हैं? कितने लोगों ने आज दिन में कभी-न-कभी किसी पर क्रोध किया? तो तुम वैसे ही हो क्या, जैसे सुबह थे? तो सुबह वाले पर जो विधि चलती थी, शाम वाले पर कैसे चल जाएगी? कैसे चल जाएगी?

इसीलिए तो सैकड़ों विधियाँ हैं न फिर, क्योंकि मन के सैकड़ों रंग हैं। एक होता मन तो उस पर एक विधि सफल हो जाती। अब क्रोध में हो तुम और यह वह समय है जब तुम्हें लगता है कि काश कोई विधि मिल जाए, ठीक, और क्रोध ही वह समय है जब विवेक नष्ट हो जाता है; विवेक नष्ट हो गया तो चुनने की क्षमता क्षीण हो गयी, अब तुम चुनोगे कैसे कि सही विधि क्या लगाऊँ।

और क्रोध भी पचास तरह के हैं: छिपा क्रोध, प्रकट क्रोध, ईर्ष्या वाला क्रोध, दुख वाला क्रोध, हार का क्रोध, अपमान का क्रोध। तुम्हें ही कोई दो बार एक-सा क्रोध नहीं आता। और कितनी बार तो तुम अपने क्रोध को क्रोध का नाम भी नहीं देते, कुछ और ही बोल देते हो।

कैसे पता करोगे कि अभी विधि कौनसी लगानी है? तो अब एक विचित्र स्थिति आ गयी। ध्यान की उचित विधि चुनने के लिए सर्वप्रथम तुम्हें ध्यान में होना पड़ेगा। जो ध्यानी है उसी को पता चलेगा कि ध्यान की सही विधि क्या है मेरे लिए।

समझ रहे हो बात?

तो पहले फिर ध्यान की विधि नहीं आयी; पहले क्या आया? ध्यान आया। यह तो बात ही उलट गयी, अपोज़िट हो गयी। हम सोचते हैं कि ध्यान की विधि का पालन करेंगे तो ध्यान लग जाएगा। और मेरे देखे खेल दूसरा है। ध्यान होगा तब न पता चलेगा कि ध्यान की विधि लगाओ और कौनसी लगाओ।

क्रोध में तुम्हें ध्यान बचता है? कौन-कौन है जो क्रोध में भी ध्यानस् है? जब क्रोध में ध्यान ही नहीं बचा, तो ध्यान की उचित विधि का तुम्हें क्या पता! उचित विधि भी छोड़ दो, जब क्रोध में ध्यान ही नहीं बचा, तो ध्यान की विधि लगानी है यह ख़्याल भी कहाँ आएगा! वो तो जब तूफ़ान गुज़र जाएगा और कूड़ा-कचड़ा और टूटे दरख़्त और सारा विनाश सामने होगा, तो तुम्हें याद आएगा 'अरे! थम!' अब थम के क्या होगा, चिड़िया चुग गयी खेत। जीवन के प्रत्येक पल को एक अलग विधि चाहिए, क्योंकि जीवन का प्रत्येक पल दूसरे पल से अलग है। और कौनसी विधि चाहिए तुमको यह तुम्हें ध्यान में ही पता चल सकता है ।

कहना मेरा यह है कि निरंतर ध्यान के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। निरंतर ध्यान का ही अर्थ होता है पूर्ण समर्पण — उसकी कोई विधि नहीं हो सकती — अपूर्ण समर्पण की हज़ारों विधियाँ हो सकती हैं। पूर्ण समर्पण की कोई विधि नहीं होती!

जो अधूरे से राज़ी हो, वो विधियों की शरण चले जाए, उन्हें भी कुछ तो मिलेगा। वहाँ मामला इतना व्यापक है कि आधा-अधूरा भी तुम्हें कुछ मिल गया, तो तुम थोड़ी देर को प्रसन्न हो लोगे। पर कुछ होते हैं ऐसे दिलदार जो कहते हैं, 'साहब! आधे-अधूरे से हमारा काम नहीं चलता।' जिन्हें पूरा चाहिए हो, वो विधियों से आगे जाएँ। जिन्हें थोड़ा-बहुत चाहिए हो, उनके लिए विधि है।

बात समझे?

जीवन ऐसा जियो कि जीवन ही विधि बन जाए ध्यान की। ध्यान इतना गहरा हो कि ध्यान जब टूटने लगे, तो ध्यान का टूटना ही ध्यान की विधि बन जाए।

उदाहरण देता हूँ, समझना। नींद गहरी है, तुम सो रहे हो, अलार्म बज उठा। अब अगर तुम्हे नींद की रक्षा करनी है — नींद तुम्हें प्यारी है — तो तुम क्या करोगे? अलार्म बंद कर दोगे। तो नींद को बचाने की विधि क्या है? स्वयं नींद। जब नींद गहरी होती है, जब नींद से प्रेम गहरा होता है, तो उसका टूटना ही तुम्हें ख़बरदार कर जाता है। तुम कहते हो प्यारी चीज़ छिन रही है। नींद मुझे प्यारी है और नींद मुझसे छिन रही है, छिनने नहीं दूँगा। अलार्म बंद और तुम वापस विश्राम में। तो ध्यान इतना गहरा हो कि ध्यान की गहराई ही ध्यान की विधि बन जाए।

बात समझ में आ रही है?

बाक़ी सब विधियाँ इस विधि के आगे पानी भरती हैं। इसके अतिरिक्त कोई विधि नहीं। प्यार इतना गहरा हो कि दूरी ही प्यारे को वापस पाने की विधि बन जाए। दूरी ज़रा बढ़ी नहीं कि तुम्हें तीर-सा बिंध गया। तुमने कहा कुछ बहुत ग़लत हो रहा है, कुछ बहुत ग़लत हो रहा है। क्या हो रहा है? कोई दूर जा रहा है। बस यही विधि बन गयी उसको वापस लाने की। दूरी ही निकटता की विधि बन गई, इसके अतिरिक्त कोई विधि नहीं है।

“अधिक सनेही माछरी, बाकी अलप स्नेह ज्यों ही जल से बिछड़े, त्यों ही छाड़े देह।"

~ कबीर साहब

मछली को याद नहीं रखना है कि सागर में ही रहना है। जब वो सागर में रहती है, तो क्या कुछ याद रखती है? कुछ याद नहीं रखना है। मछली के पास एक ही विधि है, सागर से बाहर निकालोगे मैं तड़प जाऊँगी। जबतक सागर में हूँ, न विधि है, न स्मृति है, न आयोजन है — कोई अध्यात्म नहीं चाहिए जबतक सागर में हूँ।

सागर माने परमात्मा, सागर माने वो जो मछली को अंदर-बाहर सब तरफ़ से घेरे हुए है। जबतक उसके साथ हूँ, तबतक हटाओ क्या भजन, क्या कीर्तन मौज है। लेकिन ज़रा-सा बिछड़ी, तड़प जाऊँगी; तड़प ही नहीं जाऊँगी, जान दे दूँगी — तो यह ध्यान की विधि है।

ध्यान तुम्हें शांति को ही तो उपलब्ध कराता है न, शांति से प्रेम होना चाहिए। समझौता परस्त आदमी के लिए नहीं है 'ध्यान'। जो शांति को बेच खाने को तैयार हो, उनके लिए नहीं है 'ध्यान'। जो कहते हों, 'हाँ साहब, हम शांति पर समझौता कर सकते हैं, पर बात देखिए पाँच करोड़ से शुरू होनी चाहिए' — उनके लिए नहीं है 'ध्यान'। ध्यान उनके लिए है जिनमें अनन्यता हो, जिनसे दूरी, अन्यता बर्दाश्त ही न होती हो।

बात समझ रहे हो?

तुम दिखाओ कि तुम्हें प्रेम है, आगे का काम राम जानेगा। मैंने देखा था रेलवे स्टेशन पर, एक आदमी ट्रेन में चढ़ रहा है, उसका छोटा बच्चा है, बार-बार जाकर उसकी टाँग से चिपक जाए। 'नहीं, तुम मत जाओ, नहीं जाने दूँगा। उसे कहीं जाना है, बच्चा उसे जाने नहीं दे रहा है। जितनी बार वह उसको दूर करके आता है, ट्रेन पर चढ़ता है, वो बच्चा फिर सूँघ लेता है, वो भागते हुए आता है फिर उसकी टाँग पकड़ लेता है — 'नहीं, नहीं जाने दूँगा।'

ज़ाहिर-सी बात है, योजना यही थी कि वो व्यक्ति जो शायद पिता था — या कुछ और रहा होगा चाचा, ताऊ, दादा कुछ भी या यूँही कोई अजनबी — अकेला जाने वाला था वो। योजना यही रही होगी कि वो बैठेगा ट्रेन पर और अकेला चला जाएगा। बच्चे का तो टिकट ही नहीं है। पर बच्चे ने कुछ इतना ऊधम मचाया, ऐसा शोर और ऐसी ज़िद की कि थोड़ी देर बाद बच्चा जिस व्यक्ति की गोद में था उसने कहा 'तो अच्छा चल तू भी।'

अब टिकट कटाने का झंझट बच्चे का नहीं है। बच्चे के पास कोई विधि नहीं है प्रेम के अतिरिक्त। टिकट कैसे कटेगा, यह बाप जाने। हमें तो एक बात पता है, हमें साथ जाना है। टिकट कैसे कटेगा, तुम जानो, हमें तो यह पता है हमें तुम्हारे साथ जाना है। जिसमें ऐसी अकारण ज़िद न हो उनके लिए नहीं है 'ध्यान'। जिसमें ऐसी मूर्ख बेपरवाही न हो उसके लिए नहीं है 'ध्यान'।

बुद्धिमानों और चतुरजनों के लिए नहीं है 'ध्यान'। उनके लिए विधियाँ हैं। एक-से-एक चतुराई भरी विधियाँ हैं। चतुराई की इन्तहा तब हो गयी जब लोगों ने नशे के इंजेक्शन लेने शुरू कर दिए ध्यान के लिए — साइकेडेलिक ड्रग्स — यह भी चलता है। मैं कह रहा हूँ जो बाक़ी समान्य विधियाँ हैं, उनमें और नशे की विधि में कोई मूल अंतर नहीं है। क्योंकि विधि तो विधि ही है। विधि में उस बच्चे जैसी निर्मलता नहीं, विधि में उस बच्चे जैसी सरलता नहीं।

चतुराई तो तुमने कर ही डाली, फिर थोड़ी करो या ज़्यादा करो। बच्चा चतुराई नहीं जानता, वह सिर्फ़ प्रेम जानता है। यही किया करो, जाकर चिपक जाओ। 'हमें नहीं छोड़ना है तुम्हें। क्या होगा, कैसे होगा, तुम जानो। कारण तो हमें बताओ मत, हम कारण नहीं जानते, हम तो प्रेम जानते हैं।'

शांति से प्रेम, सरलता से प्रेम, सच्चाई से प्रेम है। इनका दामन छूटना नहीं चाहिए — यही ध्यान है।

किसी खुफ़िया होशियारी का नाम नहीं है 'ध्यान'। अमावस की रात को मरघट में हम बिल्ली का बाल, कुतिया की पूँछ। कितने तरह के आयोजन हो सकते हैं! अभी यह जो आयोजन बताया मैंने सुनने में लगा घटिया। लेकिन तुम जो अपने घरों में आयोजन करते हो — शर्मा जी अभी ध्यान पर बैठे, आधे घंटे बाद उठेंगे — वो बिल्ली के बाल और कुतिया की पूँछ से कुछ अलग है क्या? कर तो वही रहे हो न, चतुराई?

उस छोटू की तरह तो हो नहीं कि जाकर के पकड़ लिया कि हम न छोड़ेंगे। कुछ होशियारी लगा रहे हो। मेरी बात सुनने में बड़ी मोहक, करने में बड़ी घातक। क्यों? क्योंकि जो मैं बोल रहा हूँ उसमें माँग है निरंतरता की। और निरंतरता का मतलब समझते हो? चौबीस घंटे। अब कहीं छुप तो सकते नहीं तुम। चौबीस घंटे का मतलब सब कुछ ही खुल गया, व्यक्तिगत एक पल भी नहीं बचा, जब हैं ध्यान में ही हैं।

अब, जब हो तब ध्यान में ही हो, तो फिर वो बाक़ी वाले काम कब करोगे, उनका भी तो होना ज़रूरी है न। तो आदमी फिर ध्यान के लिए कोना आरक्षित करता है। आदमी कहता है, 'नहीं ध्यान बहुत ऊँची चीज़ है। परमात्मा को तो पाना है, दो बजकर पाँच मिनट से चार बजकर सत्रह मिनट तक। चार बज के बीस मिनट में मेरे जानू की शिफ्ट छूटती है।'

अंग्रेज़ी में मुहावरा चलता है "मैन ऑफ मैनी हैट्स"। हम टोपी बदल देते हैं जल्दी से। निरंतर ध्यान में टोपे बदलना सम्भव ही नहीं है। मुंडी ही नहीं, टोपा कहाँ पहनोगे? तो बहुत समय तक जो लोग ध्यान की विधियों में ही लिप्त रह जाते हैं उनका वहाँ सच्चे दरबार में बड़ा अनादर हो जाता है।

तुम किसी दुकान में पहले दिन जाओ। अब बोलो, 'फ़लाना माल खरीदना है ज़रा दिखाइए।' तो तुमको तुरन्त कुर्सी पर बैठाएगा, हो सकता है चाय-वाय भी पिला दे। कौनसा माल बताओ, कोई उदाहरण दो।

श्रोता: शर्ट।

आचार्य: अब तुम पहले दिन गये हो, कह रहे हो शर्ट चाहिए, पूर्ण शर्ट चाहिए, ऊँची-से-ऊँची, बढ़िया वाली। वो तुमको बैठाएगा। 'आइए-आइए, ये देखिए, ये देखिए। अरे छक्कन, बाबू जी के लिए चाय लाना।' बाबूजी के लिए चाय भी आ गयी। फिर तुम कहोगे ठीक है, ठीक है यह सब, यह भी बढ़िया थी, यह भी बढ़िया थी, बहुत बढ़िया। और तुम देख-दाखकर चले गये। और उसको बोल के गये हो कि आएँगे, फिर आएँगे। वो बेताबी से इंतज़ार करेगा। कहेगा उन्होंने बहुत कुछ देखा और लग रहा है कि ये लम्बा सौदा करेंगे।

और दूसरे दिन तुम आते हो, फिर तुम यही हरक़त करते हो। अब जितना उसका लालच बढ़ रहा है, दुकानदार का, उतनी उसको अब शंका भी बढ़ रही है, कुछ क्रोध भी बढ़ रहा है। 'वक़्त बहुत लगवा दिया, दाम एक नहीं दिया।' तीसरे दिन तुम आते हो तो ज़रा तुम पर नज़र रखता है, देखता है कि तुम ट्रायल रूम (प्रसाधन कक्ष) में सेल्फी ले रहे हो, शर्ट पहन-पहन कर। एक पहनी, सेल्फी ली, जल्दी तुरन्त उसी समय इंस्टाग्राम पर डाल दी थी। 'कैसा लग रहा हूँ दोस्तों।' फिर दूसरी पहनी उसे भी लेकर डाल दी।

वो पकड़ लेता है। 'घटिया काम, घटिया दुकान, ट्रायल रूम में भी सीसीटीवी लगवाए थे।' क्या सोचते हो, ग्राहक ही घटिया हो सकता है? अब बड़ी बेइज्ज़ती होने वाली है, क्योंकि तुम्हारा आज़माने का तो बहुत इरादा है और तुम आज़मा-आज़मा के ही सुख लिए जा रहे हो। तुम्हारा मोल चुकाने का इरादा नहीं है।

तो जो लोग ध्यान की विधियों पर ही रुके रह जाते हैं उनकी परमात्मा के दरबार में बड़ी बेइज्ज़ती होती है। तुम आज़मा तो रहे हो, स्वाद तो चख ले रहे हो, झाँकी तो देख ले रहे हो, लेकिन सत्य में पूर्ण प्रवेश का तुम्हारा इरादा नहीं है। बड़ी बेइज्ज़ती होती है। शर्ट पहन लो, आज़मा लो और फिर दाम भी चुकाओ, नहीं तो चोरी कहलाती है।

बंदों को ही चोरी नापसंद है, ख़ुदा को पसंद आएगी क्या? और यहाँ तो कुछ दिन चल भी जाती है, ज़रूरी नहीं है सीसीटीवी लगा हो। उसके दरबार में सीसीटीवी हर जगह है। सब कुछ दिख रहा है वहाँ।

थोड़ा सा जिसको मिले, यह उसके लिए प्रसाद भी है और अभाग भी है। इसीलिए कई दफ़े बेहतर होता है कि किसी को कुछ भी न मिले। जिसको थोड़ी सी झलक मिल गयी उसकी, उसके लिए प्रसाद है, अगर वो प्रेरित होकर पूरे की तरफ़ बढ़ जाए। और बहुत बड़ा अभाग है कि तुम्हें झाँकी दिखायी गयी, तुम्हें झलक दिखाई गयी, तुम्हें रास्ता दिखा दिया गया, उसके बाद भी तुम मंज़िल तक नहीं पहुँचे; तुम तो रास्ते पर ही अटक कर रह गए। ऐसों की, मैं कह रहा हूँ, बड़ी बेइज्ज़ती होती है।

समझ रहे हो?

जिनको शांति का स्पर्श मिल गया हो, जिनको प्रेम की सुगंध मिल गयी हो, जिन्हें सत्य के दर्शन हो गए हों, जो मौन में एक दफ़े को डूब गए हो, जिन्हें गुरु ने मार्ग बता दिया हो, हो सकता है कि वो बड़े अभागे भी हों, क्योंकि अब तुम्हारे साथ वो सबकुछ हो गया जो विधि कर सकती थी; जो प्रारब्ध कर सकता था, जो ऊँचे-से-ऊँचा तुमको दिया जा सकता था ‘जीवन द्वारा’ वो जीवन ने तुमको दे दिया।

लेकिन तुम ऐसे निक्कमे निकले कि इतना बड़ा अवसर दिये जाने पर भी भुना नहीं पाए। मंज़िल सामने है, रास्ता बता दिया गया है और तमसा इतनी गहरी कि तुम सोते ही रह गये। तुम से भला तो फिर वो है जिसको रास्ता अभी सूझा ही नहीं, जिसको मार्गदर्शक कोई मिला ही नहीं, जिसको झलक अभी दिखी ही नहीं।

अब मैं कह रहा हूँ ऐसों की बड़ी फज़ीहत है वहाँ पर, क्योंकि अब तुम दोष किसको दोगे? अब तो तुम यह भी नहीं कह पाओगे उससे कि हम निर्दोष हैं, नन्हे-मुन्ने हैं। देखिए, हमें कोई सहारा, कोई समर्थन, कोई इशारा, कोई रोशनी मिली ही नहीं। वो कहेगा सब मिला, खोट तुम्हारी ही थी।

शुरू जबतक नहीं हुई तुम्हारी यात्रा, कोई बात नहीं; शुरू हो गयी फिर रुक मत जाना। इन रुकने वालों को क्षमा नहीं मिलती। जो बाहर घूम रहे हैं सड़क पर उनका कोई दोष, कोई घात, कोई पाप नहीं। जो यहाँ भीतर बैठे हैं, सज़ा उनको मिलेगी। तुम्हारे पास बहाना क्या बचा है, क्या बोलोगे, अपनी सफ़ाई में क्या दलील दोगे?

जो बाहर बैठा है वो तो बोल देगा — 'किसी ने बताया नहीं, इशारा ही नहीं मिला, ख़बर ही नहीं हुई। कभी परदा थोड़ा भी उठा ही नहीं। हमें क्या पता!'

तुम क्या बोलोगे? तुम्हारे सामने तो पर्दा बार-बार उठा, चाहे ध्यान के सत्रों में उठा हो, चाहे सत्संग में उठा हो, चाहे भजन में उठा हो। तुम्हें तो बार-बार उस अनुपम सौंदर्य की झलक मिली। उसके बाद भी तुम्हारा दिल नहीं पसीजा, तुम देखे को अनदेखा करते आए। अब मिलेगी माफ़ी?

प्रश्नकर्ता: जब मैं सफ़र कर रहा होता हूँ, तो अक़्सर मेरा दिमाग बहुत ही गहरी सोच में चला जाता है और उस समय में, मैं कई चीज़ों के बारे में सोचता हूँ। तो क्या यह भी ध्यान की विधि से है?

आचार्य: यह आयोजित विधि नहीं है, यह जीवन स्वयं कोशिश कर रहा है तुम्हें थोड़ी सी झलक दिखाने की। किसी ने विधियाँ आज़माई हों चाहे नहीं, ऐसा कोई नहीं होता जो कभी-न-कभी ठहर न गया हो, जो कभी-न-कभी भौंचक्का न रह गया हो — वो कभी भी हो सकता है।

तुम माँ हो, बाप हो, सुबह उठे, बच्चा सो रहा है, उसकी शक्ल देखी, अचानक समय रुक जाता है, दो पल को ही सही। प्रकृति के सानिध्य में ख़ूब होता है ऐसा। इसीलिए तो लोग प्रकृति की तरफ़ भागते हैं। पहाड़ों से उतरता कोई निर्झर, सूर्यास्त, सूर्योदय, भेडें चल रही हैं, दूर शिखर पर ख़ूब होता है। अन्य तरीक़ो से भी होता है। तुम किसी प्रिय काम में गहरे डूब जाओ, समय थम जाता है।

वैज्ञानिक के लिए प्रयोगशाला में हो सकता है ऐसा। चित्रकार के लिए उसके चित्र के समक्ष। तैराक के लिए पानी में हो सकता है। तुम खिलाड़ियों से पूछोगे, वो गवाही देंगे। उसको बोलते हैं, 'अभी मैं इन द ज़ोन था, अभी मैं ज़ोन में था।' उस वक़्त उन्हें कुछ नहीं पता होता आगे क्या है, पीछे क्या है। शरीर से खून बह रहा होता है, उन्हें पता नहीं चलता।

यह ध्यान की एक विधि ही है। पर यह विधि मात्र है। क्योंकि तुम खेल के मैदान पर सदा नहीं रह सकते। तुम्हें कुछ ऐसा चाहिए जो निरंतर हो, शाश्वत, जो टूटे नहीं। क्योंकि टूट गया तो फिर टूट गया। टूट गया तो उसमें अन्नयता कैसी, अद्वैत कैसा?

परमात्मा अटूट है तो टूटने वाली चीज़ उस तक कैसे ले जाएगी! झलक हज़ारों तरीक़ों से मिलती है।

गणित का कोई सवाल है तुम हल कर दो उसको, उसके बाद अपने ही हल के सौंदर्य को देखो, तुम अवाक खड़े रह जाओगे — कभी-कभी, मैं नहीं कहता सदा। जी-तोड़ मेहनत करो, जी-तोड़, शरीर बिलकुल टूटने लगे, तुम पाओगे वही वो क्षण है जब तुम शरीर से ज़रा अलहदा खड़े हो गए।

बात अजीब है!

इतनी मेहनत करिए, इतनी मेहनत करिए, शरीर ऐसा टूट रहा है कि हमें लग रहा है कि अब हमारे पास शरीर है नहीं। लो हो गए साक्षित्व के दर्शन तुमको। पर यह साक्षित्व अमर नहीं है, यह बचेगा नहीं, थोड़ी देर को मिला है। थोड़ी देर को इसलिए मिला है, ताकि तुम्हें आकृष्ट कर सके, ललचा सके। और मैं कह रहा हूँ जब तुमको वो ललचाए, तो तुम खिंचे चले जाना यही धर्म है तुम्हारा।

यह नहीं तुम्हारा धर्म है कि वो ललचा रहा है, वो बुला रहा है, वो पुकार रहा है और तुम तने खड़े हो कि साहब! हम भी कुछ हैं, इतनी आसानी से थोड़ी मान जाएँगे। अभी हमें रिझाओ, हमारी सेवा करो, अभी हम रूठे हुए हैं। उसने बड़ी कृपा की कि वो झुककर तुमको आमंत्रित करने आया, तुमको लुभाने आया, तुम्हें खींचने आया। अब तुम चुप-चाप खिंचे चले जाओ।

आयी बात समझ में?

शर्तें नहीं रखते। हम बड़ी-से-बड़ी भूल कर देते हैं कि जब वो महत् हमें पुकारता है, तो भी हम उसके सामने शर्तें रख देते हैं; शर्तें नहीं रखना है। असल में शर्त भी मौलिक भूल नहीं है। शर्त तुम इसलिए रख देते हो, क्योंकि तुम उसे महत् मानते ही नहीं। महत् तुम इसलिए नहीं मानते, क्योंकि अभी तुम्हें अपनी क्षुद्रता का अंदाज़ा नहीं है। अपनी क्षुद्रता का अंदाज़ा इसलिए नहीं, क्योंकि हम तथ्यों में नहीं जीते, हम कल्पनाओं में जीते हैं। और कल्पनाओं में तो तुम अपनेआप को कितना भी बड़ा बना सकते हो।

ज़मीन पर हक़ीक़त क्या है इसपर हम जीते ही नहीं है, आँकड़ों में नहीं जीते, घटनाओं में नहीं जीते — हम अनुभवों में और स्मृतियों में जीते हैं। हमें घटना से कम मतलब होता है। हमें घटना के अनुभव से ज़्यादा सरोकार होता है। और इन दोनों बातों में बहुत अंतर है। घटना कुछ और होगी, तुम उसकी ओर देखना ही नहीं चाहते। तुम्हारा सारा प्रयोजन इससे है कि‌ तुम्हें उस घटना का अनुभव क्या हुआ।

और अनुभव भी पीछे छूट जाता है। अंततः तुम्हारे साथ बचती है तुम्हारी व्यक्तिगत स्मृतियाँ। घटना जिससे तुम्हें मतलब नहीं। तुम्हें हुआ उस घटना का सापेक्ष अनुभव। और अनुभव भी पूरा तुम्हारे साथ बचता नहीं। तुम्हारे पास बचती हैं कुछ भ्रष्ट स्मृतियाँ, भ्रष्ट, मिश्रित, सीमित, पूर्वाग्रह ग्रस्त स्मृतियाँ, झूठी स्मृतियाँ। और उन स्मृतियों में तुम कभी न मलिन होते हो न दोषी होते हो। उन स्मृतियों में तुम कभी हीन और क्षुद्र होते ही नहीं, उन स्मृतियों में सदा अहंकार कुछ होता है। 'मैं कुछ तो हूँ, कुछ हूँ।'

उन स्मृतियों में तुम भले यह भी बोल दो कि मैं बहुत छोटा हूँ। लेकिन फिर भी कह तो यही रहे हो और इस बात को बड़े ज़ोर से कह रहे हो, बड़े विश्वास के साथ कह रहे हो कि मैं कुछ हूँ। तो तुम बड़े ज़ोर के साथ कह रहे हो कि मैं छोटा हूँ। अब अपनी नज़र में तुम छोटे हुए कि बड़े? जल्दी बोलो।

श्रोतागण: बड़े हुए।

आचार्य: हम इतने क्षुद्र कभी होते ही नहीं कि महत् को महत् कह पाएँ। हमें महत् भी अपने ही जैसा लगता है। जब अपने ही जैसा लगता है, तो उसके सामने फिर शर्तें रख देते हैं। ऐसा लगता है खेल बराबरी का है। फिर यह नहीं लगता कि उसके पाँव छुएँ, फिर यह लगता है आओ ज़रा मेज़ में आमने-सामने बैठकर बात करते हैं। परमात्मा से हममें से ज़्यादा लोगों का यही रिश्ता है। हम उससे कहते हैं, 'आओ ज़रा आमने-सामने बैठकर बात करते हैं।'

श्रोता: जब कुछ माँगना होता है तभी उनको बड़ा बनाते हैं।

आचार्य: तब भी हम रिश्ता बराबरी का ही रखते हैं। ग़ौर करना इस बात पर। जब तुम कुछ माँगने जाते हो आँचल पसार कर, हाथ जोड़कर तब ऐसा लगता है तुमने मान लिया कि वह बड़ा है। नहीं, तब भी कहाँ माना कि बड़ा है। क्योंकि तब भी तुम्हारे मन में धोखा देने की चाह तो होती ही है। तब भी तुम्हारे मन में लेन-देन तो चल ही रहा होता है। धोखा क्या किसी बहुत बड़े को दे सकते हो?

अगर उसे बहुत बड़ा माना होता, तो तुम्हारे मन में कपट कैसे होता! और कभी ऐसा हुआ है कि तुम प्रार्थना में खड़े हुए हो और तुम्हारे मन में कपट नहीं है? कभी ऐसा हुआ है कि तुमने मंदिर में हाथ जोड़े हैं और लेन-देन का विचार नहीं है? अगर सतह पर नही होगा विचार, तो सूक्ष्म होगा, भीतर-ही-भीतर होगा।

अरे! और सब हटाओ, कभी ऐसा हुआ है कि तुम्हें कुछ चाहिए नहीं और यूँही खिंचे चले गए हो। कि बाँसुरी बज रही है, इसलिए मंदिर जा रहे हैं? जिसको आदमी बहुत बड़ा मानेगा उसके साथ ये चालें थोड़े ही चलेगा! तुम जब माँग भी रहे होते हो उससे, तो भी उसे मान बराबरी वाला ही रहे होते हो।

फिर शर्तें रख दीं। फिर मुरली बजती ही रह जाती है। तुम कहते हो अभी कुकर की दो सीटी बाक़ी है, तेरी मुरली तेरी होगी, मेरे घर में भी तो मुरला है। यह तो भला हुआ गोपियों के पास कुकर नहीं थे, नहीं तो भागवतम तो रास्ते में ही अटक जाता। अब गोपी चली आ रही है, उसे वस्त्र की भी कोई सुध नहीं, पीछे-पीछे गाय, बछड़े चले आ रहे हैं, तभी कुकर की सीटी बोली — रास होता ही नहीं, रस्म रह जाती।

अभी देखना यहाँ भी ग्यारह बजते ही कितने कानों में सीटियाँ बजने लगेंगी। पिछली बार सत्र हो रहा था, आप लोगों के फ़ोन तो वहाँ बाहर रहते हैं। फ़ोन का जवाब फिर कभी अनमोल देता है, कभी कुंदन देते हैं। फ़ोन यही आ रहे होते हैं — दाल कब की तैयार है, यह बंद कब होगा सत्संग। शर्तें हैं, इतनी मूर्खतापूर्ण शर्तें हैं, पर हैं तो हैं। कि जैसे कोई तुम्हें बुलाये कि आओ, ठीक अभी मिलती है मुक्ति और तुम कहो अभी ज़रा घर को ताला तो लगा दें।

मछली जैसा प्यार होना चाहिए मुक्ति से। मछली की मुक्ति आसमान में उड़ान भरने में नहीं है, मछली की मुक्ति सागर में डूबे रहने में है। कोई तुम्हें कैसे बताएगा कि अशांति से हटने की विधि क्या है। बड़ी-से-बड़ी दिक्क़त है। दिक्क़त यह है कि तुम अशांति को अशांति मानते ही नहीं।

ध्यान की विधि का यही मतलब होता है न कि अशांति चल रही है दिमाग में, ख़ूब हलचल है, विचारों का तूफ़ान है उसको शांत करना है। इसीलिए होती है न ध्यान की विधि? जब तुम अशांति को अशांति मानते ही नहीं, तो उसको हटाने की विधि तुम्हें कोई क्या बताएगा? तुम सिर्फ़ वो अशांति हटाना चाहते हो जो तुम्हें अप्रिय है। लेकिन पचासों तरह की अशांतियाँ तुम्हें बहुत प्रिय हैं।

और अशांति ऐसे तो हटती नहीं कि अप्रिय वाली हट गयी और प्रिय वाली बची रह गयी। चुपचाप बैठे हो तुम, मौन हो, शनिवार की रात है, अपनी छत पर बैठ गए हो, हल्की बारिश है। देख रहे हो बादल है, चाँद है और चार तुम्हारे लफ़ंगे यार आ गये और बोल रहे हैं — बियर। शनिवार की रात हो और बियर न हो, कैसे हो सकता है। तुम वैसे ही चहक जाते हो जैसे अनमोल (श्रोताओं में से कोई) चहक गया। यह अशांति तुमको बड़ी प्रिय है। अब बताओ कौनसी ध्यान की विधि काम करेगी?

जब अशांति ही तुमको प्रिय है कि ये तो मेरे यार आ गए और अभी मुझे दारू पिलाएँगे, तो अब कौनसी विधि तुमको शांत रख सकती है? चुपचाप बैठे थे, उधर जानू का फ़ोन आ गया। भले जानू चार गाली सुनाए तुमको, लेकिन तुम कहते हो तन्हाई से तो अच्छा तेरी गाली मिली। जब अशांति से इतना तुम्हें प्यार है कि वही जानेमन है, तो कौन तुमको शांति दिलाएगा? किस विधि का प्रयोग करोगे?

हज़ार विधियाँ दे दी जाएँ, तुम प्रयोग करोगे ही नहीं, क्योंकि तुमने इस अशांति को अशांति माना ही नहीं है। 'हे ईश्वर, मेरी वो सब मुसीबतें हटा दे जो मुझे नापसंद है।' तुम कभी यह नहीं कहते हो ईश्वर मेरी मुसीबतें हटा दे। तुम कहते हो, 'हे! ईश्वर मेरी वो सब मुसीबतें हटा दे जो मुझे नापसंद है।' और जितनी तुम्हें नापसंद है उनमें से कुछ तो मुसीबतें हैं भी नहीं। जो असली मुसीबतें हैं तुम्हारी, वो सब तुमको बहुत पसंद हैं, अब कौन बचाएगा?

श्रोता: लालच भी होता है।

आचार्य: जैसे कोई नशा उतारने की गोली व्हिस्की में घोल कर पीता हो — 'देखो शांति तो बहुत पसंद है, पर व्हिस्की हटाने की बात मत करना।' इसलिए तो लोग मेरे पास आते नहीं और आते हैं तो ठहरते नहीं। मैं कहता हूँ चौबीस घंटे। दुनिया में हर चीज़ का समय तय है — सत्संग एक घंटे होना चाहिए, अध्यात्म चलो दो-चार घंटे चलेगा — यह तो पूरी ज़िन्दगी पर ही हाथ मार देते हैं, आठ पहर!

लेने-देने की बात करो बस! बंदे का कुछ व्यक्तिगत समय भी तो होना चाहिए न, प्राइवेट टाइम। सब परमात्मा को दे दिया, तो फिर हम जीव कैसे रहें! थोड़ी देर के लिए परमात्मा से पिंड छुड़ाना ज़रूरी है। लगातार वही रहा आएगा तो फिर काम कैसे चलेगा!

पुराने समय में जब संयुक्त परिवार होते थे। घर में आठ-दस लोग हैं, बहू आती थी, तो इतना बड़ा परिवार है नात-रिश्तेदार हैं, पति और पत्नी को साथ समय ही न मिले। तो फिर खेल रचे जाते थे। ऐसी स्थिति पैदा की जाती थी कि पति-पत्नी इकट्ठे कहीं बाहर जा पाएँ। हनीमून का तो प्रचलन था नहीं। तो कुछ इधर-उधर की कोई स्थिति, यूँही झूठ-मूठ आयोजित की जाती थी कि अरे! तुम दोनों जाओ ज़रा वहाँ पर फ़लाना बुला रहा है, बहुत बीमार है। तुम्हीं दोनों को बुलाया है, जाओ। या कुछ और करा जाता था।

या बाक़ी पूरा घर कहता था हम पिक्चर देखने जा रहे हैं। और बारह जने हैं परिवार में, टिकट दस ही मिले, जाना तो बारहों लोगों को चाहिए था, पर टिकट दस ही मिले, दो नहीं मिले। 'तो ऐसा करो चुन्ना और चुन्ना की दुलहिन तुम दोनों रुक जाओ, बाक़ी पूरा परिवार पिक्चर देखने जाएगा।' भारत के करोड़ो बच्चे ऐसी पिक्चरों की पैदाइश हैं।

तो वैसे ही हम होते हैं कि थोड़ा तो व्यक्तिगत समय मिलना चाहिए न। हर समय बाप-दादा के सामने रहेंगे क्या, फिर असली काम का क्या होगा? तुम झुन्नाते रहो, चलता रहेगा चक्कर; मुक्ति नहीं मिलेगी।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी थोड़ा समझाइए कि कैसे न रखें भगवान से प्राइवेसी (गुप्तता)?

आचार्य: यह मत पूछो कि कैसे न रखे उससे प्राइवेसी। उससे प्रेम इतना रखो कि दादाजी जब तुमको अकेला छोड़कर के बाहर जाने लगे, तुम जाकर चिपक जाओ।

तुम कहो, 'न! तुम इस मेहरिया के लिए हमको छोड़कर चले जा रहे हो न! हम इसके साथ रहते हैं, लेकिन तुम्हारी उपस्थिति में। तुम रहो और तुमसे रिश्ता हमारा इतना बेधड़क है, इतना अंतरंग है, इतना आत्मीय है कि तुम से कुछ छिपाने की ज़रूरत नहीं। पत्नी के साथ अगर हमें समय गुज़ारना है, तो उसके लिए हमें यह ज़रूरी नहीं है कि तुमसे दूरी बनायी जाए। तुम्हारे तो साथ सदा रहेंगे, वो चीज़ बेशर्त है। दूसरे आते-जाते रहते हैं, तुमसे दूरी बर्दाश्त नहीं है।'

इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरों से निकटता नहीं बनाएँगे। दूसरों से निकटता बनाएँगे, लेकिन दूसरों से निकटता कभी हमारे प्राथमिक सम्बन्ध की क़ीमत पर नहीं होगी। प्राथमिक सम्बन्ध एक से है, पहला रिश्ता एक से। बाक़ी सभी खेल-खिलौने हैं, आते-जाते रहते हैं।

समझे?

जिसका पहला रिश्ता उसके साथ होता है, उसके बाक़ी सारे रिश्ते सुचारू चलते हैं। और हमारी त्रासदी ही यही है कि हमारे हज़ार रिश्ते हैं, बस केंद्रीय रिश्ता नहीं है। जैसे कि रेलगाड़ी में पहिये तो हों एक हज़ार, ईंजन न हो। सब कुछ है वो नहीं है जिससे गाड़ी चलेगी। पहिये भी हैं, सवार भी हैं, यात्री भी है, चौकीदार भी है; इंजन नहीं है, अब चला लो गाड़ी!

कौन-कौन रहता है घर में? हम, वो और चुन्नू। और वो (भगवान)? वो तो मंदिर में, उनका पता अलग है। 'उधर जाइएगा, ऐसे मुड़िएगा फिर वैसे जाइएगा, वहाँ रहते हैं।' तो तुम रहते हो, तुम्हारी वो रहती हैं और चुन्नू रहता है। आफ़त यह गुज़रती है कि तुम्हारी वो अगर राम को घर में ले आए, तो तुम्हें ईर्ष्या और आपत्ति है। और तुम अगर राम को घर में ले आओ, तो तुम्हारी उनको जलन और दिक्क़त है।

ऐसा साथ ही मिलना मुश्किल है कि दोनों जन हाथ-में-हाथ डालकर कहें कि राम को घर लेकर आना है। हम रहे-न-रहे, राम को घर में रहना चाहिए। पहली बात तो यही मुश्किल से होता है कि दोनों में से किसी एक की भी इच्छा बने राम को घर लाने की। और कभी-कभार इच्छा बनती भी है, तो दोनों में से किसी एक की बनती है। और फिर पूछो मत, कैसी डाह, कैसी ज्वाला उठती है!

अपने को छोटा तो हम मानते ही नहीं न! राम भी हमें प्रतिस्पर्धी लगते हैं। 'मेरी बीवी का प्यार बँट रहा है।' किससे प्रतियोगिता कर रहा है तू? किससे प्रतियोगिता कर रहा है?

प्र: यदि भाव अच्छा है, भाव भगवान वाला है तो दूसरा तो सहमत हो जाता है न उससे?

आचार्य: हो जाए तो भली बात है। होना मुश्किल है क्योंकि हमारे रिश्ते तो होते ही कब्ज़े की नीयत से हैं न। 'तू मेरी है किसी और की मत हो जाना। मेरी है दूसरे की मत होना कभी।' भले उस दूसरे का नाम चाहे राम हो, चाहे कृष्ण हो,‌ चाहे क्राइस्ट हो। देखते नहीं हैं जिसके साथ रिश्ता बन गया अगर वो किसी और की ओर खींचने लगे, तो दिल में कैसी वेदना, कैसी आग उठती है। क्योंकि हमारे यहाँ तो रिश्तों का मतलब ही यही है — धरदबोचो।

कोई अद्भुत, बिलकुल अनूठी न्यारी स्त्री होती है, तो वह बोलती है जो तुलसीदास से बोला गया था। पिछली बार जब मैंने उद्धृत किया था, तो जितेंदर ने पूरा किया था। क्या बोला था?

"अस्थि चर्ममय देह मम, तामे ऐसी प्रीति। तैसी हो श्री राम मह, होत न तब भव भीति।"

ऐसी बीवियाँ मिलती हैं? मिलती हैं? न ऐसी बीवियाँ हैं, न ऐसे शौहर हैं। करोड़ों में कोई एक होती है। करोड़ों में कोई बीवी होगी जो पति से कहे कि क्यों मेरी देह की ओर देख रहे हो। जितनी प्रीति तुम इस अस्थि चर्ममय देह से कर रहे हो, इतनी प्रीति श्रीराम से करो, मेरी देह से प्रीति मत करो। किसी स्त्री से जाकर बोल दीजिए कि तू क्या है, अस्थि चर्ममय देह है बस। फिर देखिए क्या होता है।

आचार्य: पहले को पहला रखो, यही ध्यान है।

कुछ ऐसा होना चाहिए जो जान से क़ीमती हो, यही ध्यान है। कुछ ऐसा होना चाहिए जो सम्मान से क़ीमती हो, यही ध्यान है। हमारे लिए दो ही चीज़ें होती हैं — जान और मान। जान माने शरीर का बना रहना और मान माने मन का बना रहना। कुछ ऐसा होना चाहिए जो जान और मान दोनों से ज़्यादा क़ीमती है, यही ध्यान है।

YouTube Link: https://youtu.be/xBrceQ00CME

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