ध्यान क्या है? कुण्डलिनी का क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशान्त (2016)

Acharya Prashant

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ध्यान क्या है? कुण्डलिनी का क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशान्त (2016)

प्रश्नकर्ता: जब मैं ध्यान नहीं करता था तो सब जानता था। लेकिन अब लगता है कि जो कर रहा हूँ वो ध्यान है भी क्या? मुझे कैसे पता लगे कि मैं सही कर रहा हूँ?

आचार्य प्रशांत: अब आप ध्यान करते हैं?

प्र: जी।

आचार्य: जो कुछ भी करा जाए वो ध्यान नहीं है, वो कर्म है। जो करा गया, वो सीधी सी बात है, क्या है? कर्म है। ध्यान करा नहीं जाता, ध्यान में हुआ जाता है। और इन दो बातों में बहुत अंतर है।

आप कहेंगे, 'ठीक है, हम ध्यान में हो लेंगे।' फिर तो वो कर्म हो गया। फिर से कर्म हो गया, कोई अंतर ही नहीं रहा। ध्यान किसी क्रिया का नाम नहीं है कि आप कर डालेंगे। 'आओ, इस-इस विधि से ध्यान को कर डालें!' ध्यान कोई प्रक्रिया है? ध्यान कोई चीज़ है? ध्यान कोई गतिविधि है? कोई रास्ता है? कोई भूल-भुलैया है कि आप उससे गुज़र जाएँगे? कि कर डालेंगे, कि हासिल कर लेंगे, कि पार कर लेंगे?

ध्यान का अर्थ समझिएगा।

मन कहीं-न-कहीं तो हमेशा जाकर अटका ही रहता है मन की प्रकृति है कि किसी-न-किसी विषय के साथ वो संलग्न ही रहता है, ठीक! रहता है कि नहीं? मन कभी खाली होता है क्या? मन यदि खाली है तो आपको मन का पता ही नहीं चलेगा। कभी-कभार होता होगा ऐसा; अन्यथा रोज़मर्रा के जीवन में मन के पास कुछ-न-कुछ विषय तो होता ही है — स्थूल, सूक्ष्म, छोटा, बड़ा, अच्छा, बुरा, जैसा भी मन उसको नाम देना चाहे। होता है कि नहीं?

ध्यान का अर्थ है कि मन का प्रथम विषय सत्य होगा। यही ध्यान का अर्थ है। बाक़ी सारे विषय सत्य के बाद के हैं। सत्य को आप और ठोस नाम देना चाहते हो तो शांति कह लीजिए, कि मन की पहली प्राथमिकता होगी शांति, बाक़ी सब उसके नीचे की हैं। ध्यान का अर्थ है कि मन किधर को भी चलेगा, ऊँचे-से-ऊँचा स्थान वो शांति को देगा।

'कुछ भी करने जा रहा हूँ, उसमें शांति है या नहीं? शांति में बैठकर कर रहा हूँ या नहीं?'

इस नाते ध्यान में और समर्पण में कोई अंतर नहीं है। इस नाते ज्ञान में और भक्ति में कोई अंतर नहीं है। दोनों का अर्थ एक ही है कि जो ऊँचे-से-ऊँचा है उसको ऊँचे-से-ऊँचा मानना। जिसको पहले रखना चाहिए, उसी को पहले रखना।

मैं और कुछ देखने से पहले ये देखूँगा कि जो होने जा रहा है, जो हो रहा है, जो चल रहा है, वो शांति से उद्भूत है कि नहीं और शांति की ही तरफ़ जा रहा है या नहीं। यही ध्यान है। और ये ध्यान निरंतर बने रहने वाली बात है। ये कोई करने की चीज़ नहीं है, ये कोई क्रिया नहीं है। इसीलिए ख़तरनाक है।

जो ध्यान क्रिया है वो तो अच्छा मनोरंजन है, मन बहलाव है। सुबह-शाम कर ली और फुर्सत हो गये। जिस ध्यान की मैं बात कर रहा हूँ वो वास्तविक ध्यान है, उससे कोई फुर्सत नहीं मिल सकती, उससे कोई अवकाश नहीं मिल सकता। वो तो चलता रहेगा न। लगातार जी रहे हैं तो लगातार मन के पास विषय हैं, तो लगातार मन को समर्पित रहना है। बीच में कड़ी टूटने नहीं देनी है। ये ध्यान है।

प्र: शांति को शून्यता भी कह सकते हैं?

आचार्य: हाँ, कह सकते हैं। शांति का अर्थ है विक्षेपों से खाली होना, विक्षेपाें से शून्य होना। विक्षेप माने तरह-तरह के विषय, विकार, शोर, बोझ — यही विक्षेप हैं। जो कुछ भी आपको परेशान करे, उसे विक्षेप मानिए।

यही शांति का अर्थ है — परेशानी की ओर नहीं बढ़ना। परेशान होकर के जीवन नहीं जीना। कितना भी आकर्षक लगे लेकिन ऐसा कोई निर्णय नहीं लेना जो मेरी उलझन से जनित हो। क्योंकि जो उलझन से उठा है वो उलझन को ही और बढ़ाएगा। जो दुख से उठा है वो दुख को ही और बढ़ाएगा। जो चिंता से उठा है वो चिंता को ही बढ़ाएगा।

ये हमारा बड़ा भ्रम रहता है कि चिंतायुक्त होकर जो काम करेंगे वो चिंतामुक्त कर देगा। और आपको सबसे ज़्यादा चिंता ही इसी बात की रहती है कि चिंता हटाएँ कैसे। चिंतित होकर आप जो काम करेंगे, वो आपको चिंतित ही रखेगा। आनंद में जो काम करेंगे, उससे आपका आनंद और गहराएगा। प्रेम में जो करोगे उससे प्रेम और गहराएगा। बैर में जो करोगे उससे बैर और गहराएगा।

ध्यान का अर्थ है — अशांति में नहीं करना। क्योंकि जो अशांति में किया वो अशांति की ओर ही ले जाएगा। न अशांति में करना है, न अशांति की तरफ़ बढ़ना है; और जितनी भी मेरी गणित है, मैं कर लूँगा। और गणितों में गणित मैं ये करूँगा कि ये बताओ इसमें शांति है या नहीं। बाक़ी नफ़ा-नुक़सान तुमने बता दिया कि ये करोगे तो ये मिलेगा, इधर बढ़ोगे तो ये पा जाओगे, अब एक ये आख़िरी गणना भी बताओ कि शांति का क्या है इसमें।

ध्यान का अर्थ है — सबसे ऊपर, सर्वोच्च ‘उसको’ रखना है, ‘उसका’ ध्यान रखना है। जो भी कर रहे हैं ज़मीन पर, ध्यान आसमान का है; ये ध्यान है। जीना तो ज़मीन पर ही है। जीना ज़मीन पर ही है पर ध्यान लगातार आसमान का रहेगा।

ध्यान सोच नहीं है कि चल ज़मीन पर रहे हैं, सोच आसमान की रहे हैं। फिर तो ठोकर खाकर गिरोगे। मैंने कहा — चल ज़मीन पर रहे हो, पर दिल में आसमान को लिए चलो। वो छूटना नहीं चाहिए। वो पहला रहना चाहिए कि ज़मीन पर जो होगा सो बाद में होगा, पहले दिल में आसमान रहे, पहले दिल में ऊपर वाला रहे। ये ध्यान है।

और मैं फिर कह रहा हूँ आपसे — दिन में आधे-एक घंटे ध्यान करके निवृत मत हो जाइएगा। ये अपने साथ जालसाज़ी है, ये मत करिएगा। बड़ा पाखंड है ये। क्योंकि बहुत आसान है दिन से आधा घंटा निकाल देना। दिन के टुकड़े कर दो, आधा घंटा निकाल दो, बाक़ी साढ़े तेईस घंटे तुम्हारे! किसके? तुम्हारे। अब जो करना है करो। ध्यान ऐसी चीज़ नहीं है कि आधे घंटे करी तो उसका असर साढ़े तेईस घंटे चलेगा। ध्यान में तो प्रतिपल होना पड़ता है। और जिस भी क्षण ध्यान उचटा, खेल ख़राब हुआ।

गाड़ी चलाते हैं सड़क पर और चौबीस घंटे की यात्रा है। तो पहले आधे घंटे ध्यान में रहते हैं, फिर साढ़े तेईस घंटे क्या सोये रहते हैं? पहुँच जाएँगे? अरे प्रतिपल ध्यान में रहना है न! तो समझ लीजिए गाड़ी चलाने की तरह जीवन है और जो सतर्कता आप रखते हैं, वो हुई ध्यान; लगातार बनी रहे।

प्र२: सर, कहते हैं कि ध्यान से कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाती है। ये होती है या ये सिर्फ़ एक अज़म्प्शन (मान्यता) है?

आचार्य: कुण्डलिनी प्रतीक है, अज़म्प्शन नहीं है। इशारा है, एक तरह की कहानी है जो कुछ संदेश देती है।

प्र२: लेकिन ये अज़म्प्शन ही हुआ न कि कोई इस लेवल (स्तर) तक पहुँच गया है।

आचार्य: नहीं अज़म्प्शन नहीं है, होता है। पर जो नाम हैं उसके और उसमें जो आपसे कहा जाता है, वो आपको कहीं भौतिक रूप में नहीं मिल जाएँगे। ईड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, ये कहीं हैं नहीं कि आप शरीर को खोलेंगे तो आपको, 'ये देखो ये मिल गयी।' कोई इस तरह की आपको नाड़ियाँ मिल नहीं जानी हैं। न यहाँ (सिर के ऊपर इशारा करते हुए) आपको कोई ब्रह्मरंद्र मिल जाना है, न यहाँ कोई कमल खिल जाना है। न यहाँ पर कोई चक्र बैठे हुए हैं।

प्र: ऐसे कोई चक्र नहीं हैं?

आचार्य: हैं, पर ऐसे नहीं हैं! ये प्रतीक हैं। जब मैं आपसे कहता हूँ — तुम्हारा दिमाग़ आसमान पर चढ़ गया है, तो इसका मतलब ये थोड़ी होता है कि तुम्हारा दिमाग़ निकलकर आसमान पर पहुँच गया है। प्रतीक होता है न, कहने का एक तरीक़ा है। एक मुहावरा है। ऐसे ही ये (कुण्डलिनी चक्र) है।

प्र: तो इसमें क्या होता है? मतलब ब्रेन लेवल (दिमाग़ का स्तर) थोड़ा क्या ऊपर तक पहुँच जाता है?

आचार्य: इतना ही इसका अर्थ होता है कि जीने के तल होते हैं। तो वो जो जीने के तल होते हैं, वो सबसे नीचे से, मूल से, मूलाधार से शुरू होकर के ऊँचे-से-ऊँचे तक के होते हैं। सबसे निचला तल ये बताया गया है कि तुम पूरे तरीक़े से डर में जियो। जब डर में जियोगे तो लगातार जीवन किसी तरीक़े से भौतिक रूप में आगे बढ़ता रहे, इसी की फ़िक्र में लगे रहोगे। उसका जो प्रतीक होते हैं वो होते हैं जन्ननांग। कि आप बस ये चाहते हो कि ज़िंदगी आगे बढ़ती रहे। वो जीवन को आगे बढ़ाने के काम आते हैं न? तो वो उसको उनका चिह्न ही बना दिया गया है।

तो जो सबसे निचला तल होता है जीने का, वो ये होता है कि बस शरीर चलता रहे। कि भाई हम किसलिए जीते हैं? पेट के लिए जीते हैं, शरीर के लिए जीते हैं, सेक्स के लिए जीते हैं, शरीर चलता रहे। ये जीने का सबसे निचला तल है।

फिर ऐसे ही उठते -उठते, उठते-उठते सबसे ऊँचे वाले तल पर आते हैं और सबसे ऊँचे वाला जो तल होता है वो ये होता है कि मानस कमल ऐसा खिला कि शरीर को ही पार कर गया। उसको फिर कहते हैं: कुण्डलिनी का जागृत होना। उसको स्थूल रूप में नहीं ले लेना चाहिए।

रीढ़ में कोई नलियाँ नहीं डली हुई हैं। और पेट में, सीने में, कंठ में और मस्तिष्क में कोई चक्र नहीं डले हुए हैं। लेकिन ये किसी महत्वपूर्ण चीज़ की ओर इशारा करते हैं। जिधर की ओर इशारा करते हैं उसको समझिए, बात समझने की है। बात क्रिया की नहीं है कि कुण्डलिनी जागृत करने की क्रिया में तत्पर हो गये। वो मूर्खता होगी।

कुण्डलिनी भी जागृत बस एक तरीक़े से होती है, वो है सही जीवन जीने से। जब आप जानेंगे कि आप कैसे जी रहे हैं तब न आपको पता चलेगा कि जीना किस तल पर चल रहा है। उसके लिए श्रद्धा के साथ, निडरता के साथ जीवन को देखना पड़ेगा। जीवन को जितना देखते जाएँगे उतना ज़्यादा वो सब पाते जाएँगे जो आपके स्वभाव से मेल नहीं खाता। और जो भी कुछ आपके स्वभाव से मेल नहीं खाता वो अपनेआप गिरता जाता है क्योंकि वो स्वभाव को स्वीकार्य होता ही नहीं। वो बचा ही तब तक रहता है जब तक अंधेरा रहता है। उसपर रोशनी डालते ही वो हट जाता है।

प्र: सर, उसका आपको भी आभास हुआ? आप तो इसमें ही हैं न।

आचार्य: आप गाड़ी चलाते हैं, उसमें क्या आभास होगा? आप लगातार सजग हैं न, उसमें कोई ख़ास एहसास थोड़े ही होता है। मैने कहा जीवन वैसा ही है कि लगातार, प्रतिपल जगे हुए हो, जान रहे हो कि क्या हो रहा है। उसमें कोई ख़ास एहसास थोड़ी होगा। ख़ास एहसास तो तब होता है जब भिड़ जाती है।

प्र: जैसे हम लोग तो नॉर्मल (साधारण) हैं, आप तो . . .

आचार्य: मैंने कहा, कुण्डलिनी सजगता है, कुण्डलिनी सहजता है। उसमें कोई विशेष अनुभव नहीं होते। हाँ, मन विशेष अनुभवों का बहुत लालची होता है। तो अगर कोई आपको कुछ बेचना चाहेगा तो विशेष अनुभवों का वादा कर लेगा। और मैं भी आपसे वादा कर रहा हूँ कि जब भी आपको विशेष अनुभव हों, तो समझ लीजिए उसमें मन और पोषण पा रहा है।

आध्यात्मिकता विशेष अनुभवों का नाम थोड़े ही है। विशेष अनुभव तो आपको होते ही रहते हैं। आप जाएँ, आप कोई बहुत ज़बरदस्त तरीक़े का व्यंजन खा लें, हो गया विशेष अनुभव।

प्र: देट मींस हंड्रेड परसेंट प्योरिटी ऑफ सोल (इसका मतलब है आत्मा की सौ प्रतिशत शुद्धता), ये चीज़ आ जाती है?

आचार्य: माइंड (मन), मन का साफ़ होना ही कुण्डलिनी का जागरण है, और कुछ नहीं है। और मन की सफ़ाई है मन को जानना। और कुछ नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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