प्रश्नकर्ता: सर, डर नहीं तो प्रतियोगिता नहीं, कम्पटीशन नहीं, और कम्पटीशन नहीं तो प्रगति नहीं। ऐसे में तो हम जहाँ हैं वहीं रह जाएँगे।
आचार्य प्रशांत: अब मुझे ये बताओ, किस से प्रतियोगिता कर रहे हो ये सवाल पूछकर? अभी जब ये सवाल पूछा तो किस से प्रतियोगिता करते हुए पूछा गया?
"अब उसने पूछ लिया तो मैं भी पूछ ही लूँ, या कोई और पूछे, उससे पहले मेरा नंबर लगना चाहिए।"
प्र: नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है।
आचार्य: पर तुमने कहा कि अगर प्रतियोगिता नहीं तो जीवन में जहाँ खड़े हैं, खड़े रह जाएँगे, कुछ होगा ही नहीं।
हो रहा है न अभी बिना प्रतियोगिता के? तुम जो करने आए हो, वो हो रहा है न बिना प्रतियोगिता के ही? ठीक अभी सवाल पूछ रहे हो, तुम्हारे पूछने के कारण ही ये सत्र आगे बढ़ रहा है। क्या तुम किसी से तुलना करके सवाल पूछ रहे हो? प्रतियोगिता का मतलब होता है – 'तुलना’। यही मतलब होता है न – "उसकी तुलना में मैं आगे हूँ या पीछे”? क्या तुम अभी किसी से तुलना करके सवाल पूछ रहे हो? क्या तुम इस कारण सवाल पूछ रहे हो कि, "अभी जल्दी ही दो-चार लोग और सवाल पूछेंगे, उनसे पहले मैं ही पूछ लूँ"?
सब हो रहा है बिना प्रतियोगिता के। बल्कि जो लोग प्रतियोगिता कर रहे होंगे, वो कभी भी नहीं पूछ पाएँगे, क्योंकि उनके मन में हमेशा ये खटका बंधा रहेगा कि, "उसकी तुलना में मेरा सवाल कहीं हल्का तो नहीं?" पूछ बस वही पाएगा जो निडर होगा। तुम अभी डरे हुए नहीं हो इसीलिए पूछ पा रहे हो। जो डरा है, वो तो छुपकर बैठा है, वो कहाँ पूछ पाएगा!
तो तुम डर का समर्थन तो कर रहे हो अपने शब्दों से, पर अपने आचरण से यही दिखा रहे हो कि तुम बड़े निडर हो। निडर न होते तो कैसे खड़े होते ऐसे? यहाँ बैठे हैं दो-सौ लोग, प्रतियोगिता कर रहे होते तो कैसे खड़े होते ऐसे? बहुत सारे प्रतियोगी यहाँ बैठे हैं, वो नहीं खड़े हो पा रहे।
तुम्हारी बात मैं समझ रहा हूँ। आज तक तुमने जो करा वो डर की वजह से ही करा, वो दूसरों की तुलना में ही करा, तो तुम्हें लगता है कि अगर तुलना हट गई, अगर डर हट गया तो करना भी हट जाएगा। ज़िन्दगी बिलकुल ठहर जाएगी, शिथिल हो जाएगी। यही लग रहा है न? ऐसा होगा नहीं! सच तो ये है कि डर तुम्हारे पाँव जकड़ लेता है, तुम्हारी आवाज़ पर ताला लगा देता है।
जब डर हटेगा तब वास्तविक गति आएगी जीवन में। डरा हुआ आदमी तो सुन्न पड़ जाता है। वो हिल ही नहीं पाता। और हिलता भी है तो पागलों की तरह, फिर वो अंधी दौड़ लगाता है। या तो वो बिलकुल सकपका के पत्थर बन जाता है, गति कर पाने की उसकी क्षमता ही खत्म हो जाती है, या फिर वो अंधों की तरह भागना शुरू कर देता है बिना देखे समझे और जाकर कहीं गिर पड़ता है।
एक सहज बहाव, एक मीठी गति, जैसे संगीत हो, वो निडरता में होती है।
तुम्हें कैसा लगेगा अगर अभी मैं तुमसे डर-डरकर बोलूँ? दो-चार बातें बोलूँ ओर यहाँ नीचे छुप जाऊँ कि, "डर गया!" कोई फिर ग्लूकॉन-डी लेकर आए इतना बड़ा, और मैं पूरा पी जाऊँ, कि, "हाँ, सब दुश्मन बैठे हुए हैं, उनका सामना कर रहा हूँ भाई! युद्ध का माहौल है, कुरुक्षेत्र है ये। इतने सारे खड़े हुए हैं कौरव।" कैसा लगेगा अगर मैं डर में तुमसे बात करूँ?
सब जवान लोग हो, तुम्हें कैसा लगेगा अगर तुम किसी से मिलने जाते हो, और वो बिलकुल डरा हुआ या डरी हुई है, और तुम कह रहे हो कि, "ज़रा सामने तो आकर बैठ जाओ", वो वहाँ उधर छुपकर के कोने में ऐसे डरा बैठा है।
"भाई, जहाँ डर है, वहीं प्रगति है।" यही तो तुमने अभी-अभी गणित दिया है कि डर के बिना प्रगति ही नहीं है। तो डरो! और डरो! अब घर जाना आज तो बिलकुल भयभीत रहना। और पूछेंगे लोग कि, "क्या हो गया?” तो कहना, "प्रगति कर रहे हैं! अरे, तरक्की इसी में है! डर के बिना तरक्की कैसी?”
डर से सिर्फ पागलपन निकलता है, कोई तरक्की नहीं निकलती।
आदमी ने इतिहास में जो भी कुछ करा है, जो बात करने लायक है, जिसकी चर्चा की जा सकती है, वो डर में नहीं करा है, वो मौज में करा है। ध्यान रखो, किसमें? डर में नहीं करा है, वो मौज में करा है।
वैज्ञानिक डरकर के प्रयोग करेगा तो क्या निकलेगा उसमें से? कुछ नहीं। लेखक डर-डरकर लिखेगा तो क्या सच्चाई बयान कर पाएगा? पेंटर डर-डरकर ब्रश चलाएगा तो कैसी पेंटिंग बनेगी? और सोचो, कि तुम नाच रहे हो। कैसे? डर-डरकर। वो कैसा नाच होगा? काफी खौफनाक नाच होगा! पर तुम्हारा पूरा विश्वास है कि उसी से प्रगति है। सोचो, सहमे हुए नाच से प्रगति हो रही है! हो सकती है?
मत करो वकालत ऐसी चीज़ की जो तुम्हारे लिए ज़हर के समान है। डर ज़हरीला है! उसको पोषण मत दो। हवाएँ तो वैसे ही तुम तक डर ले करके आ रही हैं, तुम और क्यों उसको बल देते हो? डर के हज़ार कारक तुम्हारे आस-पास वैसे ही बैठे हुए हैं, तुम और क्यों उनके पक्ष में खड़े होते हो?
(व्यंग करते हुए) एक डरी हुई चुप्पी, एक खौफनाक स्पीकर ! और सहमे हुए नन्हें-मुन्ने बच्चे, जो कोई दो साल का है, कोई पाँच साल का है। अरे, ये जवानों का इंजीनियरिंग कॉलेज थोड़े ही है, ये तो छोटे-छोटे, नन्हें-नन्हें बच्चे हैं, जिन्हें डरा हुआ ही होना चाहिए!
(श्रोतागण हँसते हैं)
हँसो मत, डरना चाहिए! इतना हँसोगे तो कोई ख़तरा आ जाएगा।
प्र: सर, एक आम आदमी का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक डर की एक अटूट कहानी है। कृपया इसे समझाएँ।
आचार्य: सही कहा तुमने, साँस-साँस में डर बैठा हुआ है।
मैं तुमसे सवाल कर रहा हूँ – तुम्हें वही कहानी दोहरानी है या एक नई कहानी लिखनी है? बात तुमने बिलकुल ठीक कही कि दुनिया बीमार है। मैं तुमसे कह रहा हूँ, क्या तुम्हें भी बीमार होना है या स्वास्थ में जीना है?
प्र: पर उसके बिना तो जीवन नहीं।
आचार्य: तुमसे किसने कह दिया कि डर के बिना जीवन नहीं है? मैं तुमसे दूसरा सवाल कर रहा हूँ कि – क्या डर के साथ जीवन है?
प्र: सर, साथ भी नहीं है तो बिना भी नहीं है।
आचार्य: बिना डर के जीवन को तो तुम जानते ही नहीं। अभी तक डर में ही जिये हो, डर की ही वकालत कर रहे हो। दीवारों के बाहर क्या है, वो तो तुम जानते ही नहीं। तो उसकी बात मत करो कि डर के बिना जीवन नहीं है, अभी इसकी बात करो कि – क्या डर के साथ है जीवन? डर के साथ जीवन है या मात्र घुटन है? डर के बिना क्या है, उसकी बात करने के तो अभी हम अधिकारी ही नहीं हैं क्योंकि उसको हमने जाना नहीं है।
डर किसे अच्छा लगता है? डर किसको भाता है? कौन है जो डर में बड़ा आनंद अनुभव करता है? हमें अपने आपसे दुश्मनी है क्या जो हम कहें कि, "नहीं, डर चाहिए”?
"सर, जब तक मैं डरा हुआ नहीं हूँ तब तक खाना पचता नहीं। सर, कब्ज़ रहती है, खुलती ही तभी है जब डरा दो।"
डर की सार्थकता, कोई उपयोगिता? बड़ा अच्छा अनुभव करते हो? चेहरा बिलकुल ओजमय हो जाता है, खिल जाता है फूल की तरह जब डरे हुए होते हो? वो सड़क किनारे गन्ने का रस देने वाले बैठे होते हैं, तो वो गन्ना लेते हैं और मशीन में डालते हैं, और फिर वो बाहर निकलता है। और फिर उसको लेते हैं और दोहरा करके डालते हैं, और कतई चुस जाता है। वैसी ही तो हमारी शकल हो गई है डर-डर के।
हाँ, अब थोड़ी खिली, अच्छे लग रहे हो। ऐसे ही रहो।
चुसा हुआ गन्ना, जूस दूसरे पी रहे हैं!
(व्यंग करते हुए) ये कई लोगों ने हँसना-वँसना शुरू कर दिया। ये खतरनाक है, बता रहा हूँ, डर के रहो, हँसना मना है! कोई भोर-विभोर नहीं है यहाँ पर, सब काली रात है। डरो, जीवन एक हॉरर मूवी है। राज़-३, ४, ५, १०, १५, २०! जीवन एक दहशत है! जीवन कब्रिस्तान है! डरो!
तुम मुस्कुरा रहे हो, ये गलत कर रहे हो! अपने ही सवाल से तुम बेवफाई कर रहे हो। अगर तुम्हारा सवाल सच्चा है तो मुस्कुराओ मत।
प्र: सर, हमारी ज़िन्दगी में हम कुछ बनना चाहते हैं, तो अगर हम इंटरव्यू के लिए जा रहे हैं, तो हम सोचते हैं कि हमें सिलेक्ट (चयनित) हो जाना चाहिए, पर डर यह रहता है कि अगर सिलेक्ट नहीं हो पाए तो कुछ गलत हो जाएगा। यह तो हमें किसी ने बताया नहीं था। ये तो अपने आप आ रहा है।
आचार्य: हर डर सिखाया हुआ है, हर डर पढ़ाया हुआ है। जब राहुल (प्रश्नकर्ता) चार महीने का था, उस समय फर्क नहीं पड़ता था कि उसको दुनिया के सबसे बड़े देश का राष्ट्रपति अपनी गोद में उठा ले। अगर राहुल को उसकी शकल नहीं सुहा रही, और अगर उसने तब भी ज़्यादा राहुल को परेशान किया, उठाए ही रहा—छोटे-छोटे बच्चों के साथ लोग खेलना शुरू कर देते हैं—तो राहुल कहेगा, "अच्छा, पाँच-हज़ार डॉलर का कोट है ये! लो अब बताते हैं, हम क्या कर सकते हैं इस कोट के साथ!”
कहाँ था डर? डर लेकर नहीं पैदा हुए थे। तुम में से कौन ऐसा है जो पैदा होते ही ऐसा बोला था, "बड़ी भयानक जगह है। कहाँ आ गया!” डर तुम में डाला जाता है, धीरे-धीरे उसकी खुराक दी जाती है।
तुमने बेरोज़गारी के डर की बात करी अभी—नहीं होता है, बहुत लम्बे समय तक नहीं होता है। उसके बाद तुम अखबार पढ़ते हो, "बेरोज़गार युवक ने फाँसी लगा कर आत्महत्या की!" और उसमें नीचे पूरा विस्तारपूर्वक बताया जाता है कि कैसे लाश लटक रही थी, कितने-कितने दिनों से वो बेरोज़गार था। और तुम मूवी देखते हो, एक हीरो है जो अपनी फाइल ले करके दफ्तरों की ठोकरें खा रहा है, और तुम कहते हो, "हैं?”
तुम्हारे कानों में आवाज़ें पड़ती हैं, फलाने की बड़ी अच्छी नौकरी लग गई है, अब उसको खाने पर बुलाओ घर पर तो तुम्हारे मन में एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है कि जहाँ नौकरी है वहीं इज्ज़त है। और तुम जो ये पढ़ाई करते हो—चार साल, दस साल—तुम्हें लगातार ये बताया जाता है कि पूरी पढ़ाई का प्रयोजन ही यही है कि नौकरी लग जाए। अब ताज्जुब क्या है कि उस इंटरव्यू के समय तुम्हारे पाँव काँपते हैं? और पाँव ही नहीं काँपते, पूरी व्यवस्था काँपती है।
इंटरव्यू जो है, बड़ी मज़ेदार चीज़ होती है। जिसका मूड खराब हो, उसे इंटरव्यू लेना शुरू कर देना चाहिए। एक-से-एक धुरन्धर घुसते हैं, और पूरा काँप ही रहे होते हैं वो। बैठेंगे, और ए.सी. चल रहा होगा, अट्ठारह डिग्री उसमें तापमान सेट होगा—और ये पसीना पट, पट, पट, पट, पट! "सर, माई नेम इज़ वीर बहादुर सिंह एंड आई एम वैरी करेजियस (सर, मेरा नाम वीर बहादुर सिंह है और मैं बहुत बहादुर हूँ)।" ये वीर बहादुर सिंह हैं, कहाँ वीर, कहाँ बहादुर, कहाँ सिंह? सियार की तरह काँप रहे हैं, नाम है सिंह!
ये सब इसलिए है क्योंकि पट्टी पढ़ ली है कि जीवन नौकरी के बिना कुछ नहीं। एक मूवी आएगी जिसमें एक डायलॉग होगा जिसको तुम दस बार फेसबुक पर डालोगे। अभी-अभी आई थी कि, “गली की छोकरियों का प्यार तो डॉक्टर, इंजिनियर लेकर चले जाते हैं”। नाम तुम्हें भी पता है, मुझे भी पता है। और तुमने तुरंत क्या सन्देश पकड़ लिया? कि छोकरी भी तभी मिलेगी जब… अब तुम काँपोगे नहीं तो करोगे क्या? सब कुछ काँपेगा, एक-एक अंग! ये सारे सन्देश तुम्हारे दिमाग में बाहर से भरे जा रहे हैं।
और तुमने एक फिल्म देखी जिसमें हीरो की जो बूढ़ी माँ है वो मर रही है। क्यों मर रही है? क्योंकि दवाई नहीं है। दवाई क्यों नहीं है? क्योंकि हीरो बेरोज़गार है। और तुम कहोगे, "हैं? ऐसा?”
तुम पत्रिकाएँ पढ़ोगे, और उसमें जो कवर-पेज होगा, उस पर किसकी फोटो छपी होगी? जिसने सिविल सर्विसेज़ टॉप करा है। और बाकी जो दो लाख, चार लाख लोग हैं, उनकी कोई कीमत नहीं है। तुम कहोगे, "ठीक, प्रसिद्धि उसको ही मिलती है जिसको बड़ी नौकरी मिलती है।" और तुम देखोगे कि घर में बड़े भैया की शादी हुई, और छोटे भैया की भी शादी हुई। बड़े भैया की बड़ी नौकरी और बड़ा दहेज, और छोटे भैया की छोटी-सी नौकरी और छोटा-सा दहेज। तुम कहोगे, "अच्छा, ये भी है! ऐसा भी होता है!” अब काँपोगे नहीं तो करोगे क्या जब ये सारे सन्देश सोखते जा रहे हो, सोखते जा रहे हो?
सब बाहर से आया है, बेटा। जिस इंटरव्यू की तुम बात कर रहे हो कि, "वहाँ हमें बहुत डर लगता है", वो बड़ी छोटी-सी घटना है, दो लोगों की एक साधारण-सी बातचीत है। उस साधारण बातचीत को डर बना देते हैं तुम्हारे दिमाग में घुसे हुए ये साँप-बिच्छू। नहीं तो है क्या?
और तुम्हें अन्दर की बात बताता हूँ, जो एच.आर. मेनेजर इंटरव्यू लेते हैं, उनके लिए आमतौर पर इंटरव्यू लेना भी, खासतौर पर नए लड़कों का, बड़ा बोरिंग अनुभव हो जाता है, क्योंकि सब ऐसे ही आते हैं, "भगवान के नाम पर थोड़ा-सा ऑफर लैटर दे दो!” उन्हें कोई ऐसा मिलता ही नहीं जो स्वस्थ हो, निडर हो, सहज होकर के बस बात करे कि आओ दस-पंद्रह मिनट बात करनी है। ऐसे ही कर लेते हैं, बात ही तो है। न तुम मुझे खाने जा रहे हो न मैं तुम्हें खाने जा रहा हूँ, काहे का डर है?
और मुझे ये बताओ, डर-डरकर नौकरी पा जाते हो क्या? इंटरव्यू में कौन सफल भी रहेगा? जो डरा हुआ है या जो सहज है? पर तुम तो वकालत कर रहे हो बेटा डर की, कि, "होता है!” हाँ, होता है! पर क्यों रखे हो उसको ऐसा? ज़रुरत क्या है? चेहरा ऐसा बता रहा है कि ये तो कोई नई बात है, मानने का ही मन नहीं कर रहा।
"दुनिया धोखा है, दुनिया दहशत है!”
"ये आदमी कुछ फसाने की कोशिश कर रहा है हमको। कह रहा है खुले आसमान में उड़ो। ये कुछ शिकारी किस्म का आदमी है। पहले उड़ाएगा, फिर पकड़ ले जाएगा। ये हमें हमारे बिलों से बाहर निकालना चाह रहा है ताकि हमें फिर पकड़ ले। कुछ स्वार्थ होगा इसका। मामला क्या है ज़रा खोजबीन करो! ये अद्वैत वाले वैसे भी हमेशा कुछ उल्टी-पुल्टी ही बातें करते हैं। एक वो आते हैं रोहित सर, पता नहीं क्या! और ये आज आ गए हैं, कह रहे हैं डर गड़बड़ है। डर कैसे गड़बड़ हो सकता है? डर तो ज़िन्दगी है!"
गाना है – 'तेरे दर पर सनम चले आए'। गलत गाना है! 'तेरे डर से सनम चले आए' होना चाहिए। कोई तो गड़बड़ है।
प्र: सर, पर डर से कई काम भी तो हो जाते हैं।
आचार्य: डर ज़रूरी है उन लोगों के लिए जो सिर्फ डर पर चलना जानते हैं। थोड़ी देर पहले भी कुछ हुआ था तो मैंने कहा था, डर की उपयोगिता निश्चित रूप से है, क्योंकि हम ऐसे हो गए हैं जो मात्र डर पर ही चलना जानते हैं। ये त्रासदी है। ये दुर्घटना है जो घट गई है हमारे साथ।
ट्रैफिक-लाइट तुम्हें ये संकेत देने के लिए है कि अभी दूसरे पक्ष को निकल जाने दो। वो डराने के लिए नहीं है। वो एक व्यवस्था है कि देखो, रुको, अभी वो निकल जाए फिर तुम निकल जाना। उसमें डर कहाँ है? डर है। डर ऐसे है कि हम वो लाइट तोड़ देंगे अगर पुलिस वाला मौजूद न हो। अब डर आ गया। लाइट में डर नहीं है, हम उसे तोड़ देंगे अगर पुलिसवाला मौजूद न हो। हम उसे क्यों तोड़ देंगे? हम उसे तोड़ इसलिए देंगे क्योंकि हम कुछ समझते ही नहीं, दबे हुए हैं हम भीतर से।
जब एक आदमी सदा दबाया जाता है न तो उसमें बड़ी इच्छा आ जाती है हिंसा की, विध्वंस की, नियम-कानून तोड़ने की।
तुम अक्सर पढ़ते होगे कि जवान लोगों ने कहीं स्ट्राइक कर दी, कहीं किसी दफ्तर में गए तो वहाँ पर शीशे दरवाज़े तोड़ दिए, कॉलेज में भी कई बार होता है। ये सब क्यों होता है? कुर्सियाँ जला रहे हैं, हडतालें कर रहे हैं। ये सब क्या है? क्यों है? ये सब इसी कारण है कि मन किसी का भी हो, डर में, दबाव में जीना चाहता नहीं है। जब उसको बहुत लम्बे समय तक दबाव में रखा जाता है तो एक दिन वो विस्फोट करता है।
ये जो हम ट्रैफिक-लाइट्स तोड़ते हैं, ये हमारा छोटा-सा विस्फोट है। हम कहते हैं, "देखो, हमने तोड़ दिया, तुम हमें डरा नहीं पाए!" जो डरा होता है, उसी को इस तरह का विद्रोह करने की ज़रुरत पड़ती है। जो आदमी सहज है, स्वस्थ है, वो कहेगा, "रुक ही जाता हूँ चालीस सेकंड तक, मेरा नंबर आ जाएगा, निकल जाऊँगा।" पर जो एक अस्वस्थ मन है, जो लगातार डर में जिया है, बात को समझना, जो डरा हुआ है, वही व्यवस्था को तोड़ने की भी कोशिश करता है। जो डरा नहीं है, उसकी व्यवस्था उसके भीतर से ही निकलती है, उसे बाहरी व्यवस्था चाहिए ही नहीं।
अभी यहाँ पर दो तरह के लोग होंगे, एक वो जो स्वयं शांत हैं, जिन्हें कोई नहीं चाहिए शांत करने के लिए, बिलकुल ध्यान में सुन रहे हैं, और दूसरे वो जिनको चाहिए एक हवलदार, चुप कराने के लिए। अंतर देख रहे हो? डर की ज़रुरत उसी को है, डर काम भी सिर्फ उस पर करेगा जिसके पास अपनी समझ की आंतरिक व्यवस्था नहीं है। जिसके पास अपनी समझ है, अपनी रौशनी है, उसको न डर की ज़रुरत नहीं है, और उसको डराओगे भी तो डर उसके ऊपर काम करेगा नहीं।
डर हमारे ऊपर काम कर जाता है क्योंकि हमारा अपना कुछ है ही नही। डर उपयोगी हो गया है क्योंकि हम ऐसे हैं। हम ऐसे न रहें तो डर की उपयोगिता भी न रहे। और याद रखो, जिस दिन तुम बदल जाओगे, जिस दिन तुम्हारा मन मुक्त रहेगा, उस दिन दुनिया का कोई डर तुम पर प्रभावी हो ही नहीं पाएगा। लोग डराते रहेंगे, तुम हँसते रहोगे, डरोगे नहीं।