प्रश्न : आचार्य जी, हम ज़िन्दगी में कुछ भी प्रयास करते हैं, जो सफलता के लिए होता है, उससे हमेशा डरते क्यों हैं? डर-डर के क्यों करते हैं?
आचार्य प्रशांत : क्योंकि तुम प्रयास पर कम और उसके फल पर ज़्यादा ध्यान दे रहे होते हो। तुम्हें इस बात से तो बहुत कम सरोकार होता है, कि ‘क्या है,’ और क्या हो रहा है। तुम्हारा मन उड़-उड़ के बैठा होता है, कि इसका ‘परिणाम’ क्या होगा। जब परिणाम की इतनी चाहत हो जाती है, जब परिणाम ही सर्वोपरि हो जाता है, तो फिर डर आएगा ही आएगा। क्योंकि परिणाम हमेशा दो तरह का हो सकता है – इच्छा के अनुकूल, और इच्छा के विरुद्ध। जिसे डरना ना हो, वो ये सोचना ही छोड़ दे कि कल क्या होगा।
तुमने मुझसे बेटा एक बात पूछी। अगर मैं सोचना शुरू कर दूँ, कि मैं जो कह रहा हूँ इसका तुम पर परिणाम क्या होना है, तो मैं क्या तुमसे कुछ भी कह पाऊँगा? और जो मैं तुमसे कहूँगा भी, फिर पता है वो क्या होगा? वो मैं, पहले से कहा और समझा हुआ ही कहूँगा। फिर जो मैं आज तक इतने सालों से और लोगों से बोलता आया हूँ, वही मैं तुम पर दोहरा दूँगा। कि तब उन लोगों से बोला था, उनको अच्छा लगा था, बात समझ में आ गयी थी, वही बात मैं तुम्हें दे दूँ। और तुम्हें क्या अच्छा लगेगा अगर मैं इस तरीके से बात करूँ तुमसे? जो भी व्यक्ति “परिणाम” में जिएगा, वो हमेशा कुछ भी करते हुए, अटकेगा, हिचकेगा, झुँझलायेगा।
पर तुम करो क्या? तुम्हारी मजबूरी ये है कि तुम्हें बचपन से ही, घुट्टी ये पिलाई गयी है कि परिणाम अच्छा होना चाहिए।
श्रोता : अंत भला तो सब भला।
आचार्य जी : “अंत भला तो सब भला!”
श्रोता : सब बढ़िया है! (ऑल इज़ वेल)
आचार्य जी : “ऑल इज़ वेल” तो बहुत बढ़िया बात है। पर तुमसे ये नहीं कहा गया, “ऑल इज़ वेल!” “ऑल इज़ वेल” के आगे शर्त लगा दी गई। ऑल इस वेल, इफ? इट एंड्स वेल (सब बढ़िया है, अगर? परिणाम भी बढ़िया है!)
अब ये तो बड़ी दिक्कत हो गई। “ऑल इस वेल” तो बहुत-बहुत शुद्ध बात है, परम सत्य है। कि ग़लत कभी कुछ होता ही नहीं। जो भी है बहुत बढ़िया है, अद्भुत है। पर तुमसे ये नहीं कहा गया। तुमसे कहा गया, सब भला यदि अंत भला। और ये बताओ – अंत कभी आता है? अंत कभी आता नहीं, तो भला भी कभी कुछ होता नहीं।
(छात्र हँसते हैं)
श्रोता: मुक्ति कैसे पाई जा सकती है?
आचार्य जी : कुछ है ना भीतर से जो कह रहा है कि मुक्त होना है? तभी ये सवाल पूछ रहे हो? कुछ है, जो कह रहा है कि फिलहाल कुछ ठीक नहीं है। तभी ये सवाल पूछ रहे हो? कुछ है जो बंधन का, और बीमारी का एहसास करा रहा है, तभी ये सवाल पूछ रहे हो?
वो जो है, वो तुम्हारी मुक्ति ही है। वो मुक्ति ही है, जो मुक्ति को पुकार रही है। तुम, जब बीमार होते हो, तो तुम्हें अच्छा नहीं लगता ना? कौन होता है वो, जो कहता है कि अच्छा नहीं लग रहा? वो स्वास्थ्य होता है। स्वास्थ्य पुकारता है, कि बीमारी हटाओ। तो स्वास्थ्य ही स्वास्थ्य को आवाज़ देता है। बात को समझो। मुर्दा कभी कहेगा कि बीमारी हटाओ? कभी किसी मुर्दे को कहते हुए सुना? कि ‘ये मेरा हाथ ज़रा टेढ़ा पड़ा हुआ है, सीधा कर देना। दर्द सा हो रहा है। या कि ठंड बहुत लग रही है, ए.सी. तो चला दो कम से कम! थोड़ी देर में तो वैसे ही जला दोगे। अभी तो ठंडक देदो।’ कभी किसी मुर्दे को कहते सुना?
तो ये एहसास भी कि मैं बीमार हूँ, मैं अस्वस्थ हूँ, कुछ ठीक नहीं है, बेड़ियाँ है, बंधन है। ये एहसास भी, तुम्हारे प्राणों से उठता है, वही तुम्हारी मुक्ति है। वही बुला रही है। तो ये धारणा बिलकुल छोड़ दो, कि मुक्ति पानी है, क्योंकि मुक्ति तुम्हारे भीतर ही बैठी है, वही इस वक़्त खड़े हो कर के आवाज़ दे रही है। ये जो तुम बोल रहे हो ना, ये तुम्हारी मुक्ति की ही आवाज़ है। समझे?
मुक्ति क्या आवाज़ दे रही है? वो ये नहीं कह रही है कि मुझे पाओ। वो कह रही है, मुझे प्रकट होने दो। मेरे ऊपर ये तुमने इतना धूल-धूसर लाद रखा है, उसको साफ़ करो। मुक्ति पानी नहीं है। मुक्ति भीतर बैठी है। वो लगातार आवाज़ देती है, आनंद पाना नहीं है, मिला ही हुआ है, वो लगातार आवाज़ देता है। प्रेम पाना नहीं है, वो है। वो भी पुकारता है। ये सब पाने की चीज़ें नहीं होती हैं, ये तो तुम्हें उपलब्ध ही हैं। तुम्हें बस वो सब हटा देना है, जो तुमने फ़ालतू ही इक्कठा कर लिया है, कचरा। वही ताक़त जो तुमसे ये सवाल बुलवा रही है ना, वही ताक़त तुम्हें बताएगी, कि तुम्हारी ज़िन्दगी में क्या-क्या है जो तुम्हारा बंधन है? उस सब से मुक्त हो जाओ। जवान हो, होशियार हो, आँखें है तुम्हारे पास, सब दिखेगा तुमको। साफ़-साफ़ दिखाई पड़ेगा कि किन फ़ालतू बंधनों को पाल कर बैठे हुए हो।
बंधन हटाने हैं, मुक्ति पानी नहीं है। मुक्त तो तुम हो ही।
बंधन बस बेहोशी का नतीजा है।
तुम भोले होते हो, तुम्हें ये सूझता भी नहीं कि नासमझ लोग तुम्हारे दिमाग में नासमझी भर रहे हैं। तुम संदेह भी नहीं कर पाते। ये भोलापन है तुम्हारा। और तुम्हारे भोलेपन में, तुम्हारे दिमाग में बहुत सारा कचरा भर दिया जाता है, लगातार भरा ही जा रहा है। ऐसा नहीं कि जो लोग भर रहे हैं उनकी नीयत खराब है। उनकी नीयत नहीं खराब है। वो बस नासमझ हैं। पर तुम नासमझ रहे रहो, ये कोई ज़रूरी नहीं है। तुम गौर से देखो, कि तुमने दिमाग में जो कुछ पाल रखा है, वो क्या है?
और
जो कुछ भी ऐसा पाओ, जो तुम्हें सीमित करता है, तुम्हें छोटा करता है, तुम्हें डराता है, तुरंत उसको छोड़ दो, तुरंत त्याग दो, यही मुक्ति है।
सिर्फ इसलिए कि बहुत सारे लोगों ने, बहुत समय तक, कुछ कहा है, वो बात ठीक नहीं हो जाती। उसको जाँचो, उसको परखो, उसको अपनी मुक्त दृष्टि से देखो। सिर्फ इसलिए, कि परंपरा, समाज, एक प्रकार से चलते रहे हैं, वो बात ठीक नहीं हो जाती। बल्कि, ज़्यादा सम्भावना इसी बात की है, कि बहुत सारे लोग यदि कुछ कर रहे हैं तो वो बात मूर्खता की ही होगी।
तो तुम्हें लकीर का फ़क़ीर हो जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। यही तो बंधन है। कि होता आया है, तो ठीक ही होगा। कि जीवन ऐसा ही तो होता है! नहीं, जीवन ऐसा नहीं होता है।
जीवन वो है, जो तुम उसे अपने होश में जानो। वही जीवन है।
अरे! जिन्होंने बनाये, उन्होंने बनाये, और तुम जब तक उन नियमों पर चले, तुम चले। अब तो तुम्हारे पास एक मात्र नियम होना चाहिए, अपनी चेतना का। वही करूँगा, जो समझूँगा, क्योंकि अब बच्चा नहीं।
श्रोता : पर आचार्य जी कोई अगर दबाव डाले तो?
आचार्य जी : मैंने कहा था ना, कि कोई तुम्हारे ऊपर ताक़त चला नहीं सकता, जब तक तुम्हारे भीतर, या तो डर ना हो, या लालच ना हो? जब भी पाओ, कि कोई तुम पर हावी हो रहा है; तुमने कहा – ज़बरदस्ती, जब भी तुम पाओ कि तुम्हारे ऊपर किसी ताक़त का कब्ज़ा हो रहा है, तो समझ जाना कि तुम लालची हो, या डरे हुए हो। और कोई ज़बरदस्ती तुम पर चल नहीं पाएगी। तुम्हें लड़ने की ज़रुरत नहीं है सामने वाले से, जब सामने वाला आए तुम्हें डराने, तो उससे मत लड़ो, अपने भीतर देखो, कि मेरा लालच कहाँ है। अपना लालच हटा दो, कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
दूसरे तुम्हारा नुकसान नहीं करते। तुम्हारा अपना मन ही तुम्हारा नुकसान करता है।
छात्र : तो क्या हमारे अभिभावक हमारे लिए ‘बंधन’ हैं?
आचार्य जी : बेटा, अगर वो ख़ुद मुक्त हों, तो तुम्हें भी मुक्ति दे पाएँगे। दिये से दूसरा दिया जलता ही जलता है। पर अँधेरा किसी को रौशनी नहीं दे पाएगा। अगर तुम्हें कुछ समझ में आया है तो तुम्हारा दायित्व है कि उनको भी समझाओ। कोई जानबूझ कर किसी और को बंधन में नहीं डालता।
याद रखना, दिया कोशिश भी कर ले, तो भी ‘अँधेरा’ नहीं फैला सकता। सागर कोशिश भी कर ले, तो भी ये नहीं कर पाएगा, कि अब मेरे पास ‘पानी’ नहीं है। बादल , कोशिश भी कर ले, तो भी अपने आप को ‘बरसने’ से रोक नहीं सकता, क्योंकि उसके पास पानी है। बरसेगा! तो अगर, कोई बादल बरस नहीं रहा, अगर कोई नदी तुम्हें पानी दे नहीं पा रही, तो इसका अर्थ जानते हो क्या है? बादल के पास पानी नहीं, नदी के पास पानी नहीं। तुम्हें ये कहने की कोई ज़रुरत नहीं है कि उनकी नियत ख़राब है। उन बेचारों के पास अपना ही कुछ नहीं है। जिसके पास अपना नहीं है, वो किसी दूसरे को कैसे दे पाता? तो वो नहीं दे पाए। नहीं दे पाए तो उन्होंने कोई अपराध नहीं कर दिया, ये मजबूरी है उनकी। अरे! उन्हें ही नहीं मिला, तो तुम्हें कैसे देते?
पर तुममें अगर प्रेम होगा, तो तुम ये शिकायत नहीं करते फिरोगे कि माँ-बाप मुझे कुछ दे नहीं पाए। तुम कहोगे, ठीक! नहीं दे पाए तो क्या हुआ? अब मुझे मिला है, मैं आपको दूँगा। तुम ये नहीं कहोगे, कि अरे! वो तो जीवन भर अँधेरे में रहे हैं, अब मैं उनसे रौशनी की बात करूँगा, तो उन्हें बुरा लगेगा? तुम कहोगे, नहीं… नहीं…! मुझे मिली है ना रौशनी? और मैं जानता हूँ, रौशनी बहुत ख़ूबसूरत होती है। तो मुझे मिली है तो उन तक भी पहुँचनी ही चाहिए।
तुम इस उलझन में नहीं पड़े रहोगे, कि उन्होंने मुझे जो बताया, वो बंधन है कि नहीं है, कि क्या है? अरे! सीमित इंसान है। अपनी सीमा में वो जितना तुम्हें दे सकते थे, उन्होंने दिया ही होगा। अब तुम क्यों शिकायत करते हो, कि इतना ही दे पाए? जितना उन्हें ज्ञान था, उन्होंने तुम्हें दे दिया। जितना उनके पास प्रकाश था, वो दे पाए। जितना उनके पास अँधेरा था, वो अँधेरा भी उन्होंने तुम्हें थमा दिया है। इसमें नियत की खोट नहीं है। इसमें मजबूरी बस है। और मजबूरी पर शिकायत नहीं करते।
मैं तुम्हारे पास आऊँ, कि मुझे कुछ खाना दो, और तुम्हारे पास एक ही रोटी हो, और वो भी सूखी? और तुम उसमें से मुझे आधी दे दो, तो क्या मैं शिकायत करूँ कि मुझे आधी ही रोटी दी, और वो भी सूखी? क्या मैं शिकायत करूँ? अरे! भाई, उसके पास थी ही इतनी!
तो माँ-बाप भी तो साधारण इंसान ही हैं ना? उनको जितनी समझ थी उन्होंने उसके हिसाब से उन्होंने तुम्हारा पालन-पोषण किया। जिस रूप में उन्होंने जीवन को जाना, वही उन्होंने तुम्हें बता दिया। अब शिकायत क्यों करते हो? कह दो, ठीक! वो जितना कर सकते थे, उन्होंने किया। अब हम कुछ कर के दिखाएँगे। तुम्हारा भी रोल, शुरू होगा कि नहीं होगा? या बस लेते ही रहोगे उनसे? कभी देने का भी कार्यक्रम शुरू होगा या नहीं? तो अब वो स्थिति आ गयी है, जब तुम अब दाता बनो।
तुम कहो, ठीक! आपने हमारे लिए बहुत कुछ किया, धन्यवाद! अब हम भी तो कुछ करें! हमें कुछ दिख रहा है, कोई रौशनी मिल रही है, वो हम आप तक ले कर के आएँगे, हमें अनुमति दीजिए। एक दिन आपने हमारी ऊँगली पकड़ी थी, हमें चलना सिखाया था, आज हम आपको रौशनी दिखाएँगे, कि आप चल पाएँ। और ये प्रेम है। यही प्रेम है। ये नहीं प्रेम है कि आप अंधे हैं तो पड़े रहिये, आपको अब अँधा ही रहना चाहिए।
पर बेटा, ये कर पाने के लिए, तुम्हें लालच त्यागना होगा। क्योंकि हो सकता है कि जब तुम ये करो तो वो नाराज़ हो जाएँ। हो सकता है तुम्हारी सुविधाओं में कुछ कमी आ जाए। हो सकता है कि तुम्हें कुछ बातें बर्दाश्त करनी पड़ें। पर अगर प्रेम है तो बर्दाश्त करोगे। क्योंकि प्यार कहता है, कि कोई बात नहीं, तुम्हारे भले के लिए, मैं तकलीफ सहने को तैयार हूँ। मुझे मालूम है कि आज आप मुझसे नाराज़ हो रहे हैं, मुझे मालूम है, कि आपको ये लगता है कि मैं बद्तमीज़ी कर रहा हूँ। पर मैं बद्तमीज़ी नहीं कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ आपको, इस ख़ातिर आपसे ये कुछ बातें कह रहा हूँ।
*प्रेम* कष्ट सहने को भी तैयार हो जाता है। और प्रेम, थोड़ा सा कष्ट देने हो भी तैयार हो जाता है।
माँ, बच्चे को नहलाती है, बच्चा रोता है ज़ोर-ज़ोर से, माँ क्या ये कहे, कि रो रहा है, इसे कैसे नहला दूँ? तुम टीका लगवाने जाते हो, बच्चा रोता है ज़ोर से। तुम क्या ये कहोगे, कि रो रहा है, कैसे टीका लगवा लें? प्रेम में कई बार, कष्ट देना भी पड़ता है, उसके भले के लिए ही। तो तुम कुछ बातेें कहोगे, हो सकता है उससे घरवाले आहत हो जाएँ, पर तुम ये मत सोचना कि अरे! मैं तो बड़ा बेकार आदमी निकला, मैंने घर वालों को आहत कर दिया? तुमने आहत करा है क्योंकि तुम्हें उनसे प्यार है। और यदि प्यार है, तो तुम्हें आहत करना ही पड़ेगा। तुम ये नहीं कह सकते, कि आप अपने अंधेरों में जियो! तुम हाथ पकड़ोगे, और उन्हें ले के आओगे रौशनी की तरफ। हो सकता है वो मना भी करें। प्रतिकार, कर सकते हैं। पर तुम रुक नहीं जाओगे! तुम उन्हें समझाओगे, प्यार से समझाओगे, थोड़ा बहुत हो सकता है बल भी लगाओ।
बात आ रही है समझ में?