प्रश्नकर्ता: लोग बोलते हैं, “मैंने साधना की तो तत्व ज्ञान मिला, उससे परम शान्ति प्राप्त हो गयी”। वो कहते हैं कि, "तत्व ज्ञान मिला,” लेकिन आप कह रहे हैं कि मिलता कुछ नहीं है, तो ये भी एक गलत वक्तव्य है कि, "तत्व ज्ञान मिला”? और उसके बाद कहते हैं, "परम शान्ति को मैं प्राप्त हो गया”। मतलब तत्व ज्ञान के पहले 'मैं' जो था, उसी को परम शान्ति मिली है, मतलब – "मैं अभी भी हूँ"। ये तो पूरा-का-पूरा वक्तव्य ही गलत है। पूरा गलत है? कृपया सहायता करें।
आचार्य: (मुस्कुराते हुए) हाँ।
प्र: मैं बहुत बड़ी गलतफहमी में था। इसे हटाना है।
आचार्य: हटाना जिसको है उसको हटाने में बाधा ये है कि तुम उसके साथ बहुत जुड़े हुए हो। उसी को तुमने ‘मैं’ का नाम दे दिया है। अगर ये कहा जाए कि कमरे में गन्दगी है, मान लो तुम किसी कमरे में खड़े हो और उसमें से खूब बदबू उठती है, उस कमरे में खूब बदबू आ रही है और तुम कह रहे हो – "बड़ी बदबू आती है, कैसे साफ़ करें?”
कोई बताए कमरे में गन्दगी है तो तुम्हारे लिए आसान होगा, तुम गन्दगी साफ कर दोगे। पर किसी दिन ऐसा हो गया कि तुमने ईमानदारी से जानना चाहा कि ये बदबू आती क्यों है, और तुम्हें पता चला कि तुम्हीं से आती है, तो बड़ी दिक्कत हो जाती है। क्योंकि अब यदि बदबू हटेगी तो बदबू हटने के बाद जो सफ़ाई है उसका अनुभव लेने वाला अनुभोक्ता भी नहीं बचेगा।
आध्यात्मिक शोधन में साधक की यही मूल अड़चन रहती है कि – जिसकी सफ़ाई करनी है, वो मैं ही हूँ। कचरा मुझसे बाहर नहीं है, मैं स्वयं ही कचरा हूँ। अगर बदबू बाहर कहीं से आ रही हो और तुम हटा दो तो उसके बाद स्वच्छता के आनंद का अनुभव लेने के लिए तुम बच जाओगे। बच जाओगे न? यदि तुमसे बाहर कहीं कचरे से दुर्गन्ध उठती हो तो तुम उस कचरे को हटा सकते हो और फिर तुम शेष रह जाओगे निर्मल हवा का अनुभव करने के लिए।
पर यदि तुम स्वयं ही बदबू हो, तो अपने-आपको ही हटाना पड़ेगा। अब अनुभव लेने के लिए कोई बचा नहीं। तो ये अड़चन आती है। पर हटा दो, थोड़ा यकीन रखो, थोड़ी ताकत रखो, हटा दो। क्या पता कुछ बच ही जाए, हो सकता है मामला उतना भी नाउम्मीदी का न हो। क्या पता थोड़ा खोकर ज़्यादा मिल जाए।
प्र: हटाने में एक दिक्कत ये आती है कि पहले का प्रारब्ध बना हुआ है। मान लीजिए मुझे ये पता है कि क्रोध नहीं करना है, अब अचानक से क्रोध आ गया तो फिर अपने-आपको मैं कोसने लगता हूँ, फिर पहले से भी कमज़ोर हो जाता हूँ। मेरी ही ऊर्जा बँट जाती है मेरे ख़िलाफ। उस समय सौ में से निन्यानवे बार हार जाता हूँ। ऐसे में ख़ुद को छिन्न-भिन्न होता हुआ इंसान महसूस करता हूँ।
आचार्य: क्रोध हो या कामना हो, ये हो कि वो हो, कुछ भी उन विषयों, वस्तुओं या व्यक्तियों के बिना नहीं होता जिनसे तुम जुड़ गए हो किसी भी तरीके से, आसक्ति से चाहे द्वेश से, जैसे भी जुड़ गए हो।
ये भी मन की एक बड़ी गहरी चाल रहती है, मन कहेगा कि, “कामना से मुक्ति चाहिए या क्रोध से मुक्ति चाहिए, मूर्छा से मुक्ति चाहिए”। पर ये क्या हैं? ये तो सिर्फ मन के माहौल हैं, स्थितियाँ हैं। ये जिन विषयों से आते हैं उनसे मुक्ति नहीं चाहिए, क्योंकि उनसे हमारी पहचान जुड़ी हुई है। ये ऐसी-सी बात है कि नशे से मुक्ति चाहिए पर शराब से नहीं। कोई आए और कहे कि नशा छुड़वा दीजिए पर शराब नहीं छोड़ेंगे। अब नशा क्या है? शराब से आसक्ति के बाद मन का जो हाल होता है उसको कहते हैं नशा। क्रोध यूँ ही थोड़े ही आ जाता है, कोई वस्तु या व्यक्ति ज़िम्मेदार है। उससे चिपके हुए हो, उसको छोड़ने को राज़ी नहीं और कहते हो क्रोध छोड़ना है, डर छोड़ना है। अँधेरी सड़क पर जेब में लाखों लेकर घूम रहे हो तो डर तो लगेगा न। कैसे कह दोगे कि डर छोड़ना है? डर छोड़ना है, रईसी नहीं छोड़नी। कैसे संभव होगा?
डर जब ख़ूब ही परेशान कर लेगा तब ईमानदारी से तत्काल छोड़ ही दोगे। जानते तो हो ही कि डर आता कहाँ से है, बिना किसी विषय के डर खड़ा नहीं रह सकता। डर को कोई विषय चाहिए। और विषय को इसलिए नहीं छोड़ पाते क्योंकि उससे तुमने अपनी पहचान बना रखी है – "यही तो मैं हूँ, इसको छोड़ कैसे दूँ?”
डर तुमसे बाहर थोड़े ही है कुछ; न क्रोध, न कामना, न संचय। अपने-आपको जो मानते हो, वही है।
प्र: अपने-आपको जो मानते हैं वो भी तो एकदम से नहीं आता, उसको भी समय लगता है क्योंकि बाहर से आता है। तो ये चीज़ कैसे पहचानी जाए कि ये सब बाहर से ही मिल रहा है?
आचार्य: पहचानने की ज़रूरत क्या है? सब कुछ ही बाहर का है। किसी और के घर में घुसे हुए हो, वहाँ पहचानोगे क्या कि मेरा क्या-क्या है? किसी और का ही है क्योंकि किसी और के घर में हो। सोते से जग गए, उसके बाद पहचानोगे क्या कि सपने में जो कुछ देखा उसमें असली क्या था और नकली क्या था? सब कुछ ही नकली था, सपना ही तो था। पहचानना क्या है?
सवाल क्यों पूछा? सवाल इसलिए पूछा क्योंकि कुछ तो अपना होगा, वो बचा लें किसी तरीके से। देखो मन को। इसलिए कहता हूँ सारे प्रश्न उठते ही इसलिए हैं कि किसी तरीके से अहंकार बचा रहे। पहचानें कैसे? पहचानने का अर्थ है कि भेद कैसे करें कि इसमें से बचाने लायक क्या-क्या है।
कौन तय करेगा कि बचाने लायक क्या-क्या है? तुम। और तुम क्या हो? वही सब जो तुमने इकट्ठा कर रखा है। शाबाश! चोर ही निर्णय करेगा कि चोरी हुई या नहीं हुई। वही वहाँ बैठेगा और न्याय करेगा।
बहुत पुरानी बात है, क्यों निराश हो रहे हो?
“जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि हैं तब मैं नाहि” – यह तो बहुत जानी हुई बात है। तुम नहीं पाओगे हरि को। हरि हैं तो फिर हरि ही हैं, तुम कहीं बचोगे नहीं, तुम दिखाई ही नहीं दोगे।
प्र: ध्यान भी हम लोग करते हैं तो ये सोचते हैं कि कुछ कचरा हट जाए और फिर हम बचे रहें। तो ध्यान भी गलत हो गया?
आचार्य: बिलकुल। तमाम लोग तुम्हें मिल जाएँगे जो तुम्हें आश्वासन देंगे कि ध्यान करो, ध्यान करने से बड़े फाएदे हैं। वो ये बताते भी नहीं हैं और न ही तुम पूछते हो कि, "फायदा किसको?" फायदा और नुकसान मैं जिसको मानता था, उसी के विसर्जन का नाम ही तो ध्यान है! ध्यान से कोई फायदा हो कहाँ सकता है?
प्र: यह तो घाटा हो रहा है।
आचार्य: ध्यान से कोई फायदा हो कहाँ सकता है? नफ़ा-नुकसान की तो भाषा बाज़ार की है, आध्यात्म की थोड़े ही है।
प्र: अध्यात्म बाज़ार में जितना है, उसमें नब्बे प्रतिशत तो यही सब है। फिर तो सारे लोग फँस गए हैं बहुत बुरी तरह।
आचार्य: अपना ख्याल करो। सारे लोग फँसे हैं कि नहीं फँसे हैं, क्या पता! सपना देख रहे हो, उसमें देखा कि दस लोग आग में फँसे हुए हैं और जब जग गए तो फिर क्या पूछते हो कि उन दस लोगों में से कौन बचा, कौन नहीं बचा? जब जग जाते हो तो क्या यह प्रश्न किसी महत्त्व का रहता है कि कौन बचा उनमें से और कौन नहीं? तो अभी ये ख्याल मत करो कि दस लोग आग में फँसे हुए हैं। अभी ये देखो कि तुम जग रहे हो या सो रहे हो।
देखो, अगर दुकान बढ़ानी हो, धंधा फैलाना हो तो ये भाषा खूब काम की है – "आओ आओ, शान्ति हम देंगे! आओ आओ, खूब फ़ाएदा होगा! बोलो किस आकार का परमात्मा चाहिए? छोटा परमात्मा दो महीने में, मध्यम परमात्मा छह महीने में, बड़े वाले के लिए लाँग-टर्म कोर्स (लंबा कोर्स) करना होगा।"
अपने-आपको बहलाना ही हो तो किसी भी तरह का मनोरंजन कर लो। इसमें आध्यात्मिक मनोरंजन भी शामिल है – कूद लो, फाँद लो, नाच लो, गा लो, कुछ सुन लो, कुछ विधियाँ-पद्धतियाँ पा लो। पर तुम, जो व्यथित रहते हो, तुम तो तुम ही रह गए न। बीमारी को सजा देने से, उसका रंग-रोगन कर देने से बीमारी दूर तो नहीं हो जाती न? या फिर हो जाती है?
इस दीवार को देखिएगा, उन चित्रों के नीचे कहीं-कहीं पर आपको कुछ सीलन दिखाई देगी। दिख रही है? इस पर अभी पेंट हुआ है। ये सीलन पेंट होने से पहले भी थी। पेंट हुआ तो मेरे ख्याल से दो या चार दिन छुपी रही, फिर आ गई। रंग-रोगन कर देने से उसकी गहराई में जो द्रव्य छुपा हुआ है वो मिट नहीं जाएगा। मिट जाएगा क्या? उसका इलाज तो गहरे जाकर ही होगा। उसका तो कुछ बड़ा मौलिक इलाज करना पड़ेगा। उसकी जड़ों तक जाना पड़ेगा। जब सीने में दर्द हो रहा होता है तो नई शर्ट पहन लेते हो क्या? सर में दर्द हो रहा होता है तो नई टोपी लगा लेते हो क्या? बाल मुंडाने से भी नहीं होगा। जब खोपड़ा ही खराब है तो बाल रखो या गंजे हो जाओ, क्या फर्क पड़ता है!
“बार-बार के मूंडते भेड़ न बैकुंठ जाए।"
क्या होगा बार-बार मुंडाने से? भेड़ तो भेड़ ही रह गई। ये हो सकता है कि भेड़ गाय बन जाए? कल्पना यही रहती है, क्या पता ऐसा हो जाए!
प्र: एक कहावत है, सर, वो कहते हैं, “आत्मा में परमात्मा ऐसे समाई हुई है जैसे दूध में घी”। उसकी एक विधि होती है। उसके बारे में कुछ कहने की कृपा करें। वो किस विधि के बारे में बताना चाहते हैं?
आचार्य: यहाँ पर 'आत्मा' से आशय 'मन' है और 'परमात्मा' से आशय 'आत्मा' है। ये भाषा ही ज़रा भ्रमित करने वाली है। जब आप कहते हो आत्मा और परम-आत्मा तो आपने आत्मा को सीमित कर दिया। आपने कह दिया, “आत्मा से बड़ा भी कुछ है। आत्मा छोटी है, उसके आगे कोई परम आत्मा है।” जब कहा जाता है “आत्मा और परमात्मा”, वहाँ आत्मा को 'मन' पढ़ना और परमात्मा को 'आत्मा' पढ़ना।
आत्माएँ कई नहीं होतीं। ये जो आम जनमानस में छवि प्रचलित है कि कई आत्माएँ हैं जो अंततः जाकर किसी परमात्मा में मिल जाती हैं, ऐसा नहीं है। एक ही आत्मा है। सारे भेद, सारी विविधताएँ और नानत्व मन में होते है, आत्मा में नहीं होते। लेकिन मन का अहंकार ऐसा रहता है कि वो अपने-आपको ही आत्मा बोलना शुरू कर देता है। इसी कारण फिर बुद्ध को कहना पड़ा था कि, “जिसको तुम आत्मा समझते हो, वो अनात्मा है”। जब मन अपने-आपको आत्मा बोलता है तो फिर आत्मा कहने के लिए उसे परमात्मा शब्द गढ़ना पड़ता है।
परमात्मा कुछ होता ही नहीं, मात्र आत्मा है।
तुम पढ़ो अष्टावक्र को, वो आत्मा ही बोलेंगे। वो जब परमात्मा भी बोलेंगे तो मात्र आत्मा की स्तुति में, मात्र आत्मा की श्लाघा में बोलेंगे। आत्मा ही परम है, इस कारण परमात्मा कहेंगे। तुम कृष्ण को पढ़ो, वो भी यही कहेंगे। उपनिषदिक महावाक्यों को देखो – 'अहम् ब्रह्मास्मि' ही तो कहते हैं; 'अहम् परम-परम ब्रह्मास्मि' तो नहीं कहते। पर देखो कैसे प्रचलित है ‘परम-ब्रह्म’। परम-ब्रह्म क्या होता है? हमें तो उपनिषद् के ऋषियों ने ब्रह्म ही सिखाया है, ये परम-ब्रह्म क्या होता है? 'प्रज्ञानं ब्रह्म'; 'प्रज्ञानं परम-ब्रह्म' तो नहीं। पर 'ब्रह्म' और 'परम-ब्रह्म' बोलकर के तुम व्यर्थ मिथ्या 'दो' का निर्माण कर रहे हो जहाँ एक भी नहीं है!
'अयम् आत्मा ब्रह्म' – यह आत्मा ही ब्रह्म है। परमात्मा ब्रह्म है, ऐसा तो कहीं नहीं कहा गया। हाँ, कहीं-कहीं है, परमात्मा शब्द भी है, पर मूल शब्द मात्र आत्मा है और आत्मा ही है। उसको और विस्तार देने की ज़रूरत नहीं क्योंकि पहले ही उसका विस्तार असीमित है। अब उसको और क्या बढ़ाओगे, परम-आत्मा का क्या करोगे?
'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो:’। जितनी भी सुन्दर-से-सुन्दर बातें कही गई हैं, उच्च-से-उच्चतम् बातें कही गई हैं, सब आत्मा मात्र के लिए हैं। वही आख़िरी और एक मात्र सत्य है।
सत्य एक ही है न या पाँच-सात हैं? एक सत्य का नाम आत्मा, दूसरे का नाम परमात्मा, ऐसा है क्या?
एक ही सत्य, उसका एक ही नाम—या कई नाम भी दो तो फिर उन नामों में भेद न मानो कम-से-कम। दे लो जितने नाम देने हैं, मर्ज़ी है, पर फिर यह न कहो कि आत्मा-परमात्मा अलग हैं और आत्मा जाकर कहीं मिलेगी परमात्मा से। बात बहुत ज़ाहिर है, जहाँ कहीं भी इस भाषा में कुछ पढ़ो, जहाँ आत्मा का परमात्मा से मिलन हो, उसमें 'आत्मा' को 'मन' पढ़ना और 'परमात्मा' को 'आत्मा' पढ़ना।
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