दादा-दादी की गज़ब समझदारी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

22 min
69 reads
दादा-दादी की गज़ब समझदारी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: मेरा एक बेटा है सोलह साल का, उसको जब हम लोग अध्यात्म की कुछ किताबें देना चाहते हैं — जो हम लोग उस समय नहीं कर पाए, कम-से-कम वो उस समय से शुरू करे — तो हमारे माता-पिता कहते हैं कि अभी तो उम्र इसकी बहुत बाक़ी है, इसे क्यों इस चीज़ में धकेल रहे हो? और हम लोगों के लिए भी यही हो जाता है। उसके समर्थन में यह तर्क देते हैं कि पहले राजा-महाराजा लोग जवानी में राजपाट भोगते थे, उसके बाद वानप्रस्थ को जाते थे।

आचार्य प्रशांत: आप एक काम करिए, जितनी किताबें बाहर हैं वो सारी ले जाइए और अपने पेरेंट्स (माता-पिता) को दीजिए। बोलिए कि 'मेरे बच्चे की तो अभी उम्र नहीं है, आप ही के मुताबिक आपकी तो है। आप ही बता रहे हैं न कि आपका तो लग गया न वानप्रस्थ, आप तो पढ़ो कम-से-कम।' आप पढ़े होते तो आज इस प्रकार की बातें नहीं कर रहे होते। जिन्होंने नहीं पढ़ी होती है गीता, वही कहते हैं कि गीता बुढ़ापे के लिए है।

अर्जुन कितने बूढ़े थे जब उन्हें गीता बतायी गयी, वानप्रस्थ में जा रहे थे? बल्कि वो सही में जाने वाले थे, उनको रोका गया है गीता के माध्यम से। उपनिषदों में जो शिष्य होते हैं वो सब नब्बे-नब्बे साल के होते हैं, मरने को तैयार? और जब बिलकुल बेहोश हैं और आह्ह कर रहे हैं तो उनको आ कर बोला गया 'पूर्णमिद: पूर्णमिदम', अब मर?

अभी झूठे ज्ञान की बात हो रही थी ना, ये है (झूठा ज्ञान) कि 'जब पूरी ज़िन्दगी‎ बर्बाद हो जाए, एकदम ज़िन्दगी‎ ख़त्म कर लो। मौका मिला था जीने का, जन्म को सार्थक करने का, जब वो मौका बिलकुल गँवा दो और नब्बे के हो जाओ, आँख को दिखाई न दे, हाथ ऐसे-ऐसे काँप रहे हैं। कोई बोले दूसरा अध्याय खोलो, खुल रहा है आठवाँ, तब गीता छूना। जब पता ही न चले कि गीता है कि फीता है कि क्या है, तब कहो कि हाँ हाँ। फिर आधा श्लोक पढ़ो, सो जाओ बीच में, बेहोश हो जाओ।'

कोई दोष भी नहीं देगा। कहेगा एक पाँव इनका कब्र में है इनको क्या बोले कि क्या है क्या नहीं है। फिर तो तुम जो भी बोलो वही ठीक है, 'हाँ, बाबाजी ठीक है। बहुत बढ़िया बताया आपने। कृष्ण कह रहे हैं समोसा जलेबी खाओ, प्रभु के गुण गाओ और स्वर्गलोक जाओ। यही, आप बिलकुल ठीक कह रहे हो, यही तो लिखा है गीता में।'

कोई तुक बनता है — आप बता दीजिए — कोई तुक बनता है कि जो सबसे आवश्यक ज्ञान है, उसको पूरा जन्म गँवाने के बाद पाया जाए? कोई तुक बनता है?

तो सोचिए, ये हमारे घर के सब बाप, दादा, बूढ़े लोग कैसे हैं जो इस प्रकार की फ़िज़ूल बातें करते हैं और क्या ये सम्मान के अधिकारी भी हैं, इस तरह के लोग? वो सिर्फ़ अपने पके बालों के दम पर सम्मान पाना चाहते हैं। उन्हें दिया जाना चाहिए? एक वीडियो इन्होंने छाप दिया था, उसका शीर्षक दे दिया — 'गीता जी की नहीं, दादा जी की सुनेंगे।' उसपर दुनिया भर के दादाओं ने यूनियन (समूह) बनाकर के दावें ठोके। बोल रहे हैं, ये देश के बुढ़ापे का अपमान हो रहा है। और तर्क कैसे-कैसे आए, बोल रहे हैं, 'तुझे पैदा कृष्ण ने किया था? जब डेढ़ साल का था, हगता हमारी गोद में था, अब तुझे कृष्ण याद आ रहे हैं। तब कृष्ण आते थे शौचाने।' ये सही में ये लिखित में ये तर्क आया था। ये हमारे देश का सम्मानीय वृद्ध जन है, जो इस प्रकार की बातें करता है। ये अपने लोगों का, अपने ही परिवार जनों का हितैषी हैं या दुश्मन हैं?

और फिर हम शिक़ायत करते हैं कि आजकल की पीढ़ी बिगड़ गयी है, बड़े-बूढ़ों का आदर नहीं करती। कैसे करे आदर? आदर कैसे करे? सिर्फ़ परम्परा के नाते, मान्यता के नाते? कुछ आदरणीय तुममें दिखे भी तो! कुछ तुममें ऐसा पता भी तो चले जिसके सामने सिर अपनेआप झुक जाए!

एक-एक किताब जो बाहर रखी हुई है, किसी भी सोलह साल के लड़के के लिए संजीवनी है। और न किसी मान्यता को, न किसी दादा को, नाना को, एक सोलह वर्षीय और इस ज्ञान के बीच में आने दीजिए।

आज आपके सामने इसीलिए बैठ पाया हूँ क्योंकि मेरे घर में मेरे पिताजी की एक लाइब्रेरी (पुस्तकालय) थी, बहुत बड़ी नहीं पर फिर भी। वो मुझे उपलब्ध हो पायी, इतना मुझपर मेरे पिताजी ने उपकार करा और मेरा उसमें मन लग गया।

ऐसे ही स्टील की अलमारियाँ थीं, एक के बाद एक। उन्हीं में सब किताबें थीं। फिर दूसरी दीवार है ऐसे कर के। मैं वहीं उनके सामने ज़मीन पर बैठ जाता था। ऐसे सोफ़ा था और ये अलमारी थी। सोफ़े और अलमारी के बीच में जगह थी, मैं उस जगह में छुपकर बैठ जाता था। मुझे ऐसा लगता था ये मेरी अपनी गुफा है। मैं उसी गुफा में घुस जाता था, ज़मीन पर। और वहाँ बैठा-बैठा अपना पन्ने पलटता रहता था। पूरा समझ में भी नहीं आता था, लेकिन फिर भी एहसास होने लगा था कि ये बात बहुत काम की है, बहुत ऊँची है। उसमें अंग्रेजी, हिंदी दोनों भाषाओं का साहित्य था और हर तरफ़ का था, सब कुछ। कुछ ये नहीं कि आध्यात्मिक ही था। पचासों, जितनी दिशाएँ हो सकती हैं लेखन की, सब मौजूद थीं। मुझे वो न मिला होता, मैं आज आपके सामने नहीं बैठा होता।

बाप का इससे बड़ा क्या कर्तव्य होगा कि बच्चे के सामने दुनिया की ऊँची-से-ऊँची बात, कि आज तक के जो उच्चतम विचारक हुए हैं, दार्शनिक हुए हैं, कवि हुए हैं, लेखक हुए हैं, ऋषि हुए हैं, उनकी बातों को लाकर के बेटे के सामने रख दे। और बाप अगर ये नहीं कर रहा है तो काहे का बाप है वो!

हम किसी दूसरे शहर जाते थे तो मुझमें उत्साह, रोमांच इस बात का होता था कि नये शहर जा रहे हैं, यहाँ पर किताबों की नयी दुकान होगी। तो रुद्रपूर में हैं, वहाँ से कभी लखनऊ जा रहे हैं तो वहाँ हसरतगंज में, कपूरथला में तब यूनिवर्सल (किताबों की दुकान) होतीं थी। अब पता नहीं यूनिवर्सल का क्या है। तो पूरी यात्रा का, पूरे कार्यक्रम का ये एक आवश्यक, महत्वपूर्ण हिस्सा होता था कि भाई अब जा रहे हैं किताबें देखने। कि अभी बचा हुआ है। बाक़ी काम हो गया, खाना-पीना हो गया, कपड़े-लत्ते खरीदने थे वो हो गए। किताबें! अब दो घंटा, चार घंटा जाकर के किताबों की दुकानों में बिताना है।

ये मेरे बिलकुल समझ से बाहर है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि घरवाले मना कर दें कि गीता मत पढ़ो क्योंकि अभी सोलह साल के हो। ये क्या बात है? और ये उस देश के बुजुर्ग हैं जहाँ गीताओं में गीता अष्टावक्र गीता, ग्यारह-चौदह साल के एक किशोर ने कही है। जहाँ उम्र को हमने कभी ज्ञान के रास्ते में बाधक माना ही नहीं।

नचिकेता कितने साल का था? वो तो ज्ञान लेने के लिए गीता के भी नहीं, सीधे यमराज के सामने खड़ा हो गया। ज्ञान आप कृष्ण से लें वो तो बात फिर भी थोड़ी मीठी लगती है, कान्हा हैं अपने। वो तो लड़का सीधे जाकर यमराज के सामने खड़ा हो गया, 'ज्ञान बताओ, ज्ञान बताओ'। और यमराज उसको हर तरह के प्रलोभन दे रहे थे। बोले मिठाई ले लो, पैसा ले लो, बताओ क्या-क्या चाहिए। जैसी बातें एक लड़के को कही जाती हैं। बताओ खाने-पीने को चाहिए, बढ़िया वाली चीज़ें। ये ले जाओ, सब ले जाओ। और कोई वरदान माँग लो। वो (नचिकेता) क्या बोल रहा है, 'कुछ नहीं, असली बात बताओ।' और निर्भीक खड़ा है मौत के सामने। कह रहा है, 'तुम मेरा क्या उखाड़ लोगे, मैं तो अपने पाँव चलकर मृत्यु के सामने आया हूँ। अब मुझे काहे का डर या लालच। मुझे कुछ अगर लालच या डर होता तो मेरे पिताजी ख़ुद राजा थे। मैं तो राजा का घर छोड़कर मौत के घर आया हूँ। अब मुझे क्या ललचा रहे हो!'

ऐसे हमारे यहाँ पर बालक हुए हैं। ये भारत का किशोर रहा है। और ऐसे भारत में हमारे माननीय वृद्धवर कहते हैं, 'जब बुड्ढा हो जाए नाती पोता, तब उसको थमाना गीता।'

आचार्य शंकर कितने वर्ष के थे जब गृह त्याग किया था? अब डर गए होंगे। क्यों मैंने बोल दिया गृह त्याग! 'हाँ, इसीलिए तो हम नहीं पढ़ने देना चाहते, गृह त्याग कर देगा।' नहीं गृह त्याग नहीं किया था, प्रस्थान किया था। कितने साल के थे? उनकी माँ को भी आरम्भ में थोड़ी अड़चन थी, फिर समझ गईं। और अनुमति ही नहीं, आशीर्वाद दिया, बोलीं जाओ आज भारत को तुम्हारी ज़रूरत है। और उनकी माताजी ने उनको अनुमति नहीं दी होती तो 'प्रशांत अद्वैत संस्था' में अद्वैत लगा होता आज?

झूठी मान्यताएँ और झूठा ज्ञान भारत पर उस समय पूरी तरह छा चुका था। और इस लड़के ने निकल कर जगह-जगह जाकर दीप जलाये। जो लोग भ्रमित थे, उनसे शास्त्रार्थ करा, उनको अपने साथ लिया। जिनसे शास्त्रार्थ करा उन्हीं में से कई इनके बड़े शिष्य बने और फिर पीठों की स्थापना भी करी।

और गौतम बुद्ध कितने वर्ष के थे जब उनको बात समझ में आयी? और वर्धमान महावीर? और भारत से बाहर जाएँ तो जीसस की क्या आयु थी? दुनिया के सब आवश्यक और बड़े काम जवानी में नहीं करोगे तो कब करोगे? जब हाथ-पाँव थर-थर काँपेंगे, स्मृति लोप होने लगेगा, अल्ज़ाईमर्स (भूलने की बीमारी) होगा तब?

हमें लगता ही रह जाएगा कि हमारा बेटा हमारा बेटा है। आपका बेटा घर में आपका रहेगा और बाप बना लेगा बाज़ार को, अच्छे से समझ लीजिए। और जिनके बच्चे हों दस से पच्चीस साल तक के, वो तत्काल समझ गए होंगे मैंने अभी-अभी क्या कहा। वो ये भी जान गए होंगे कि ऐसा हो चुका है। हम बस काग़ज़ी माँ-बाप हैं। उनका असली बाप कौन बन चुका है? बाज़ार और झूठा ज्ञान। न जाने कितने इन्फ़्लुएन्सर हैं यूट्यूब पर जिनके वीडियोज शुरू ही ऐसे होते हैं — 'आज हम आपको कुछ ऐसा बताने जा रहे हैं जो आपके माँ-बाप आपको कभी नहीं बताएँगे, उन्होंने छुपाया है।' और वो वहाँ पर वो मूरख आदमी, वो बाप बनकर बैठ जाता है।

अरे बाप अगर किसी को बनाना ही है तो कृष्ण को बनाओ न फिर। हमने सत्य को परमपिता बोला है, कोई वजह होगी न! कि या तो पिता घर में होगा, नहीं तो दूसरा पिता सीधे परमात्मा है। ये बीच में बाज़ारू पिता कहाँ से आ गया?

तो आप मत पढ़ाइए बच्चे को गीता, वो आपका बच्चा रहेगा ही नहीं। आपको लगता रहेगा मेरा है, मेरा है। वो गया, वो बाज़ार का हो गया। बाज़ार माने समझ रहे हो न, बाज़ार माने शॉपिंग मॉल ही नहीं, बाज़ार माने ये जो खरीद-फ़रोख्त, लेन-देन का ये जो पूरा जगत में कार्यक्रम चल रहा है, इसको बाज़ार बोल रहा हूँ। फिर वो आपका बच्चा बस इस नाते रहेगा कि आपके मरने के बाद विरासत माँगने आ जाएगा। मैं बेटा हूँ न, बाप मर गए, पैसा सारा मुझे दे दो।

ईमानदारी से पूछिएगा, यहाँ बहुत सारे अभिभावक बैठे हैं। आपके बच्चे वाक़ई आपके बच्चे बचे हैं या आपके बच्चे हो ही चुके हैं किसी और के? और परमपिता के तो हुए नहीं बच्चे, वो हुए होते तो माँ-बाप के लिए बड़े संतोष की बात होती। 'मेरा बेटा अब कृष्ण का बेटा हो गया', वो तो नहीं हुआ है। आपका बेटा किसका बेटा हो चुका है — बेटी भी? बेटियाँ कोई कम हैं!

जीवन के महत्वपूर्ण निर्णयों में वो आपकी सीख नहीं मानने वाला। बाज़ारू उसने दोस्त बना लिये हैं, गाइड (मार्गदर्शक) बना लिये हैं, पथप्रदर्शक बना लिये हैं। जीवन के सब महत्वपूर्ण निर्णय वो उनके प्रभाव में करने वाला है।

अच्छा बताइए, वो कपड़े जैसे पहनता है वो आपने सिखाया? आप सोच नहीं रहे हैं, उसकी जैसी भाषा हो गयी है, वो भाषा उसे आपने सिखायी है? बोलिए। आपको दिख नहीं रहा है कि उसका पूरा व्यक्तित्व आपका दिया हुआ नहीं है। वो अपना सब कुछ कहीं और से उठा कर ला रहा है। उसने जो अब आदर्श बना लिये हैं दुनिया में वो आदर्श उसको आपने सिखाये क्या? वो तो आपका घर कब का छोड़ चुका है। बस उसका शरीर आपके घर में रहता है। और आपको लग रहा है मेरा बच्चा-मेरा बच्चा। आपके घर में भी इसीलिए रहता है क्योंकि पैसे की आपूर्ति आप कर रहे हो। वो जो बाज़ारू बाप बने बैठे हैं, वो पैसा थोड़ी देंगे।

अपने बच्चे को वापस पाना चाहते हों तो आप अपने बच्चे को लेकर के कृष्ण के पास जाएँ। वही एक मात्र जगह है जहाँ आपको कृष्ण भी मिलेंगे, अपना बच्चा भी मिलेगा, तीनों एक साथ हो सकते हैं — आप, आपका बेटा और कृष्ण। वहाँ तीनों एक हो जाएँगे। वहाँ होगा सम्पूर्ण मिलन। नहीं, उल्टा है। ऐसे मूरख अभिभावक हो गए हैं, चौथी-पाँचवी के बच्चों को डाल रहे हैं पब्लिक स्पीकिंग कोर्सेस में। अब यहाँ पर कॉन्फिडेंट स्पीकर (आत्मविश्वासी वक्ता) बनेगा वो। वहाँ उसको क्या सीखा रहे हैं? मुँह खोलो, टट्टी करो; वो और क्या कर रहा है! उसको कहा जा रहा है जो भी तेरे मन में आ रहा है, बक। और बिना ये सोचे बक कि तू कितना बड़ा मूरख है जो ये सब बातें बोल रहा है।

और पूरी एक पीढ़ी ऐसी हुई जा रही है, जो इसी बात में गौरव लेती है कि हम मुँह खोलते हैं और हग देते हैं। आप उनको कभी आत्म संशय में नहीं पाएँगे। आत्म विचार करने की, आत्म दर्शन करने की, आत्म अवलोकन करने की उनमें कोई सामर्थ्य बची ही नहीं। उनकी आँखें बस हमेशा बाहर देखती हैं और उनका भगवान है कॉन्फिडेंस (आत्मविश्वास)। ये करा है माँ-बाप ने। गीता से दूर रखो और उसको बना दो पब्लिक स्पीकर या कि आठवीं क्लास में उसको कोडिंग सिखाना शुरू कर दो; 'कैलिफोर्निया भेजेंगे।' जैसे ही ये पैदा हुआ था दादी ने तत्काल कहा था, 'कितना सुन्दर है देखो, तो सुन्दर (पिचाई) बनाएँगे इसको।'

भूखे लोग हैं न हम, कई पीढ़ियों की भूख है। अकाल, बीमारी और ग़रीबी से त्रस्त रहा है ये देश मेरा। तो अब जैसे ही मौका मिला है, वैसे ही हर आदमी कुत्ते की तरह जीभ लटका कर के पैसा, पैसा, पैसा। और उसमें शोषण किसका किया जा रहा है? वो जो घर का लड़का है और लड़की है, उसका। और इस शोषण में माँ-बाप जितने हैं वो तो हैं, दादा-दादी भी बराबर के भागीदार हैं। वो भी लगे हुए हैं। माँ-बाप कहते हैं, 'चलो जल्दी से इसको कोडिंग सिखा दो' और दादा-दादी कहते हैं, 'हाँ और गीता से दूर रखना।' वाह! ऐसे परिवार में जो बच्चा होगा, क्या फलेगा-फूलेगा! सुविकसित वट वृक्ष बनकर निकलेगा वो बिलकुल!

माँ-बाप ने बोला, जल्दी से इसको दो क्लासेस करवानी हैं। एक तो पब्लिक स्पीकिंग की और दूसरी कोडिंग की। और दादा-दादी ने कहा ठीक और घर में इसको गीता नहीं पढ़ने देना है। कोई कसर नहीं बचनी चाहिए उसको बर्बाद करने में।

इतना बुरा सा लगता है, बच्चों की दुर्दशा देख कर! ख़ासतौर पर जब देखता हूँ ये जो तीन-पाँच साल वाले हैं। बैंगलोर में थे अभी, तो वहाँ पर आईआईटी के मेरे बैचमेट्स (सहपाठी) थे। वो मिले, बोले ज़्यादातर हमारे जो बैच (साथ) के लोग हैं उनके बच्चे हिन्दी बोल ही नहीं पाते या उनकी और भी जो मातृभाषा हो मान लो तमिल हो, मराठी हो, बोल ही नहीं पाते। सिर्फ़ और सिर्फ़ अंग्रेजी।

दस साल पहले ये सुनने को मिलता था कि वो हिन्दी पढ़ नहीं पाते हैं लेकिन सुनकर बोल तो लेते ही हैं। क्योंकि पिक्चरों में सुन ली, घर में सुन ली तो बोल लेते हैं, पढ़ नहीं पाते हैं। इस बार पता चला कि वो अब समझ भी नहीं पाते हैं। उनसे हिंदी में बोलो उन्हें सही में समझ नहीं आता। जैसे कुत्ते को ट्रेन (प्रशिक्षित) किया जाता है न वैसे बच्चों को ट्रेन किया जाता हैं।

इतना बुरा लगता है, जी करता है कई बार कि ये दुनिया भर के जितने बच्चें हैं छोटे, इनको सबको इकठ्ठा करूँ और इनको अपने साथ लेकर के किसी द्वीप पर चला जाऊँ। वो कुछ नहीं जानता, इतना सा है, उसके दिमाग़ में ज़हर डाल रहे हैं ये माँ-बाप, दादा-दादी, समाज पूरा, शिक्षा। एक दुर्बल, असक्त खिलौना मिल गया है, वो भी पागलों को। घर के चार-पाँच पागल, उनको मिल क्या गया है? एक खिलौना मिल गया है। और वो उसको तोड़-मरोड़ रहे हैं, अपने हिसाब से काट-छाँट रहे हैं, दीवार पर फेंक रहे हैं। कभी उसको सजा रहे हैं कि ले आज तू इस तरह के कपड़े पहन ले। हर तरह का दुर्व्यवहार कर रहे हैं उस खिलौने के साथ।

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम! अभी जो कंज्यूमरिज्म (उपवोक्तावाद) पर बात हो रही थी तो उसमें आप कह रहे हैं कि जो शोषक हैं, जो शोषण कर रहे हैं पूरे संसार पर और जो संसाधन इस्तेमाल कर रहे हैं। तो मुझे लगता है कि पूरा ही समाज शोषण नहीं कर रहा है। क्योंकि जिनका शोषण हुआ है या जो शोषण कर रहे हैं वो एक ही हैं। उनके साथ भी वही हुआ था अपने समय में। तो आत्मज्ञान के अभाव में उनको भी वही मिला। तो ऐसा लगता है कि ये एक ज़ोंबी (प्रेत) समाज है जो वायरस (विषाणु) की तरह फैलता जा रहा है। शुरुआत से अगर आत्मज्ञान दे दिया जाए बच्चों को तो इससे बचाया जा सकता है। तो उन्हें भी वो चीज़ नहीं मिली। मान लीजिए, किसी के पास सात हज़ार करोड़ या आठ हज़ार करोड़ है, बस पैसा है उनके पास में, आत्मज्ञान नहीं है। तो जीवन का जो उच्चतम अमृत है, वो उन्हें भी नहीं मिल रहा। तो इस अभाव में वो भी वही बाँट रहे हैं जो उनको मिला। तो इसमें समझ नहीं आ रहा है कि कौन किस पर क्या कर रहा है।

आचार्य: नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है कि इसमें सब निरपराध हैं, सबको क्लीन चिट (दोषमुक्त प्रमाणपत्र) दे देनी है। तुमने कहा कि आज जो शोषक है, कभी उसका शोषण हुआ था। इसीलिए आज वो शोषक है। बात इतनी भी सीधी नहीं है। बात ठीक है तुम्हारी, लेकिन उसमें और भी पहलू हैं। तुम्हारा शोषण हुआ मान लो, तुम्हें ज्ञान से वंचित रखा गया तो तुम जीवन में क्या अनुभव करोगे? दुख अनुभव करोगे, बेचैनी रहेगी, तमाम तरह के बंधन रहेंगे। वो अनुभव तो हो रहे हैं न। उन अनुभवों से तुम्हें समझ आएगा न तुम्हारे साथ कुछ गलत हुआ। तो तुम्हारे साथ जो गलत हुआ वो तुम दूसरे के साथ फिर क्यों करोगे आगे।

पर आज कैसे लोग हैं? उनके साथ जो हुआ वही चीज़ वो दूसरों के साथ कर रहे हैं। तुम्हारे मुताबिक वो यही कर रहे हैं न। उनके साथ शोषण हुआ, वो दूसरों के साथ शोषण कर रहे हैं। पर बीच में चेतना भी तो आती है, चुनाव भी तो आता है। तुम्हारे साथ अगर शोषण हुआ है, उसके फलस्वरूप तुमने दुख भोगा है तो अब तुम्हारे पास विकल्प है न कि जो तुम्हारे साथ हुआ वो दूसरे के साथ न होने दो। ये चुनाव क्यों नहीं किया जा रहा है? उल्टे ऐसा कहा जा रहा है कि मेरे साथ गलत हुआ, जो मेरे साथ हुआ वही मैं दूसरे के साथ करूँगा, रैगिंग जैसा तर्क।

पूछो किसी सेकेण्ड इयर (द्वितीय वर्ष) वाले से रैगिंग बढ़िया चीज़ होती है? 'नहीं, चीज़ तो बढ़िया नहीं होती।' पूछो जब फर्स्ट इयर (प्रथम वर्ष) में आये थे तो अच्छा लगा था, जब रैगिंग हुई थी? बोले, 'अच्छा बिलकुल नहीं लगा था।' तो अब क्यों कर रहे हो तुम रैगिंग ? 'हमारी हुई थी न तो हमें भी तो वसूलना है।' ये कोई तर्क है? कि मेरे साथ गलत हुआ था तो अब जो जूनियर (कनिष्ठ) आ रहा है उसके साथ भी मैं करूँगा। ये तर्क है कोई?

प्र२: आचार्य जी, उनको तो आत्मज्ञान का, वेदान्त का कुछ पता ही नहीं।

आचार्य: आत्मज्ञान का न पता हो, अज्ञान का तो पता चल गया न। कि ये-ये चीज़ें हमने करीं। इनके फलस्वरूप ये-ये हमने भुगता, ये तो जान गये न। तो ये मत पता चले कि सही क्या है, ये तो पता चल गया न कि गलत क्या है। जिसको जान गये हो कि गलत है, वही क्यों दूसरों पर भी थोप रहे हो? और एक बार जान जाओ कि तुम्हारे साथ गलत हुआ, तो फिर ये खोजने भी निकल पड़ते हो कि सही क्या है। एक बार जान जाओ कि तुम्हें किस कारण दुख मिला, फिर ये भी तो तलाश करोगे न, दायित्व बनता है कि नहीं। अगर जान गये कि गलत क्या है तो ये दायित्व बनता है न कि तलाशो कि सही क्या है। तुम्हें शिक्षा में उल्टा-पुल्टा पढ़ा दिया गया है, ये बात समझ में आ रही है। तो अब दायित्व है न कि तलाशो कि सही क्या है, जो बच्चे को पढ़ाया जाना चाहिए।

प्र२: मेरा भांजा है दो साल का वो मोबाइल पर कार्टून देखता रहता है। जब मैं अपनी बहन को बोलता हूँ तो वो कहती है कि फिर उसका मनोरंजन कैसे होगा? तो फिर मुझे भी समझ नहीं आता कि मैं क्या तर्क दूँ?

आचार्य: एक तो इतना लम्बा छक्का मारा है न प्रकृति ने कि ठीक तब जब तुम बिलकुल नासमझ होते हो उसी समय तुम माँ-बाप बन जाते हो। मैं इतनी बार पूछता हूँ, इंसान जब सौ साल जीता है तो ऐसी क्यों व्यवस्था बनी है कि वो बच्चा पैदा करने लायक़ पंद्रह की उम्र में ही हो जाता है। जब सौ साल जीता है तो शरीर भी पचास या कम-से-कम चालीस की उम्र में परिपक्व होना चाहिए था न कि अब संतान पैदा हो। पर प्रकृति ने कहा, इससे पहले कि तुम्हारे भेजे में कुछ अकल आए, तुम तेरह-चौदह साल के हुए नहीं कि खट से बच्चा पैदा करने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। नहीं तो सोचकर देखो, उम्र इतनी लम्बी है और लड़का-लड़की दोनों बारह-चौदह के अभी हुए नहीं कि अभी वो शारीरिक दृष्टि से सक्षम हो जाते हैं कि अब वो संतान कर सकते हैं। ये कार्यक्रम क्यों करा है माया ने!

प्र२: आत्मज्ञान हो जाएगा तो कोई करेगा नहीं।

आचार्य: तो उसने (माया) ने कहा इससे पहले तुम्हें दुनिया की ज़रा सी भी समझ आए बच्चा पैदा करो, जल्दी से करो। और इतना ही नहीं, अगर तुमने एक उम्र तक नहीं बच्चा पैदा करा तो उसके बाद बच्चा होगा भी नहीं और अगर होगा तो उसमें तकलीफ़ आएगी। तो प्रकृति ने उसमें फिर चेतावनी और डर भी डाल दिया है कि कर लो तीस-बत्तीस से पहले-पहले। नहीं तो उसके बाद समस्या होनी है, जल्दी करो-जल्दी करो। कुछ होश आए, कुछ समझ पाओ, उससे पहले हो जाए ये काम। और एक बार हो गया अब पलट तो सकते नहीं। गेम अप (खेल ख़त्म)!

प्र२: आचार्य जी, जैसे आपको माहौल मिला, बचपन से ही। उपनिषद् पास थे, लाइब्रेरी थी। और जब मैं आपको नहीं सुनता तो मैं भी नहीं आता यहाँ। आपको ही सुना है तो आप ही हैं मार्गदर्शक मेरे। तो नहीं मिलता है लोगों को माहौल। लोगों को तो वही माहौल मिलता है जो प्रचलित है, तो मुश्किल है ऐसा माहौल मिलना।

आचार्य: तो फिर मदद करो भाई कि जैसे तुम तक मेरी बात पहुँची वैसे औरों तक भी पहुँचे। इसके अलावा क्या कहूँ। और क्या कर सकते हैं?

प्र२: यही आख़िरी मार्ग है।

आचार्य: आख़िरी यही है, इसके अलावा और कोई विकल्प ही नहीं है कि ये जो बात है इसको जल्दी-से-जल्दी और ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक पहुँचाओ। कुछ और विकल्प होता तो मैं सबसे पहले तैयार हो जाऊँ स्वयं ही, कि मैं जो काम कर रहा हूँ उसको रोको, कोई दूसरा तरीक़ा बेहतर है उसको अपनाते हैं। मुझे ख़ुद कोई दूसरा तरीक़ा नहीं दिखाई पड़ रहा है, यही एकमात्र तरीक़ा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories