करेक्टली नहीं, राइटली जियो (नैतिकता नहीं, धर्म) || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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करेक्टली नहीं, राइटली जियो (नैतिकता नहीं, धर्म) || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

आचार्य प्रशांत : बहुत अच्छा सवाल है। तुम्हारा नाम क्या है?

श्रोता : रोहित।

आचार्य जी : रोहित, रोहित पूछ रहा है कि यथार्थता और औचित्य के बीच अंतर क्या है? और आप में से जो भी लोग आज और कुछ ना समझ पाएं, बस इस सवाल को समझ लें। वे पाएंगे कि वे अभिनय कर रहे हैं, और अधिक बुद्धिमान तरीके से व्यवहार कर रहे हैं।

एक अंधा आदमी है जो यहाँ कहीं बैठा हो अगर उसे यहाँ से बाहर जाना है तो उसके पास एक ही तरीका है कि वो अपने पुराने अनुभव व आधार पर या फिर किसी से पूछ के ये रट ले कि कितने कदम आगे बढ़े और फिर लंबवत-मोड़ लें, फिर बाएँ और फिर कितने कदम चले और फिर दरवाज़ा आ गया। ठीक है? और उसके लिए यह सही तरीका है, और ये करेक्टेडनेस बदल नहीं सकती क्योंकि दरवाजा वहीं पर है, वो भी यहीं पर है और एक ही तरीका हो सकता है। उसके लिए बाहर जाने का, ये जो रटा-रटाया तरीका है कि अगर ये करना है तो ऐसे ही करना होगा, क्योंकि उसके आँख तो है नहीं वो ये नहीं कर सकता कि वो इनके बीच से निकल जाए या कूद के निकल जाए, वो नहीं कर पाएगा या कि पीछे वाले दरवाज़े से निकल जाए। नहीं कर पाएगा। उसके आँख नहीं है तो उसके पास मात्र एक तरीका हो सकता है कि उसे किसी ने बता दिया है। क्या मैं सही हूँ?

श्रोता : जी, आचार्य जी।

आचार्य जी : तो वो तरीका भी उसमें या तो अपने पुराने अनुभव से सीखा है या फिर कोई और बता गया है। किसी भी स्थिति में वो तरीका उसके इस क्षण के समझ से नहीं आ रहा है, कहीं और से आ रहा है। क्या आप इसे समझ रहे हैं?

श्रोता : जी, आचार्य जी।

आचार्य जी : एक दूसरा आदमी है जिसके आँखें हैं। उसे बाहर निकलना है तो वो कैसे निकलेगा? वो अगर देखेगा कि यहाँ भीड़ बहुत है और वो दरवाजा खुला है और वहाँ नहीं है भीड़ तो वो कहाँ से निकलेगा?

श्रोता : पीछे वाले दरवाज़े से।

आचार्य जी : क्या अंधे के पास ये विकल्प है?

श्रोता : नहीं।

आचार्य जी : अंधे के लिए सही सिर्फ एक है, लेकिन जिसके पास आँख है उसके लिए उचित की कोई एक व्याख्या नहीं। उसकी बुद्धिमत्ता के मुताबिक जो कुछ उस समय उचित है, वही सही है। क्या आप इसे समझ रहे हैं?

श्रोता : जी, आचार्य जी।

आचार्य जी : जिस दिन यहाँ पर आग लगी होगी उस दिन जिसके पास आँख है, वो ये भी कर सकता है कि मैं शीशा तोड़कर भाग जाऊँ पर अंधा जानेगा ही नहीं कि यहाँ पर और रास्ते भी हैं। चाहे यहाँ आग लगी हो चाहे ना लगी हो। उसके पास एक ही तरीका है, ऐसे चलने का।

जीवन उसके लिए बस इसी ढर्रे पर चलने का नाम है, क्योंकि उसकी अपनी कोई समझ नहीं है, उसकी अपनी कोई दृष्टि नहीं है। क्या आप इसे समझ रहे हैं?

श्रोता : जी, आचार्य जी।

आचार्य जी : क्योंकि अगर आप नहीं समझ रहे हैं तो मैं बेकार बोल रहा हूँ, क्योंकि मैं अपनी बात तो कर नहीं रहा हूँ। सवाल आपके हैं, जीवन आपका है। सही, इतिहास से आता है। सही, दूसरों से आता है।

ढर्रों पर लगातार चलते रहना अंधेपन का लक्षण है।

‘उचित’ मेरी अपनी समझ से आता है। ‘ढर्रे’ हमेशा एक बंधी-बंधाई चीज़ होती है। उचित कभी बंध नहीं सकता। उचित बहुत अलग-अलग चीज़ें हो सकती है। कभी यहाँ भीड़ है तो वहाँ से निकलना उचित है, कभी ये दोनों ही बंद है, तो बीच वाले दरवाजे पर दस्तक देना उचित हो सकता है। कभी आग लगी है तो इसे तोड़ देना भी उचित है। ‘उचित’ कोई एक चीज़ नहीं हो सकती, ‘उचित’ अनंत है, क्योंकि ‘उचित’ मेरी उस समय की समझ से निकलता है।

ये बात समझ में आ रही है?

श्रोता : जी, आचार्य जी।

आचार्य जी : और ‘सही’ क्या होता है? ‘सही’ वो होता है कि विकल्प ‘अ’ सही है, ‘ब’, ‘स’ की तुलना में हमेशा ग़लत है। सही बस एक चीज़ होती है, बंधी-बंधाई चीज़। नैतिकता की तरह, आज्ञा की तरह कि सदा सत्य बोलो, सदा, हमेशा। ‘सही’ एक बंधी-बंधाई चीज़ होती है और वो अंधों के ही काम की चीज़ होती है। ‘उचित’ पूरी तरह से स्वत्रन्त्र होता है, खुला होता है। ‘उचित’ में अनंत संभावनाएं हैं।

ये बात आ रही है समझ में?

सवाल किसने पूछा था? आ रही है बात समझ में?

जीवन ढर्रों पर जीना चाहते हो या उचित जीना चाहते हो?

श्रोता : उचित।

आचार्य जी : लेकिन ऐसा हो रहा नहीं। हम सब ‘सही’ ढंग के चक्कर में पड़े रहते हैं। हम उचित नहीं जीते। हम सही ढंग से जीना चाहते हैं, और वो सारी यथार्थता बाहर की एक भीड़ हमें बताती है और अगर किसी को सही बताया जा रहा है, तो ये उसका अपमान है, क्यों? क्योंकि सही बताने का अर्थ है कि मैं मान रहा हूँ कि तुम क्या हो? अंधे। अंधे को ही ना बताया जाएगा कि छः कदम सीधे चल फिर चार कदम ऐसे मुड़ जा। जिसके आँख होगी उसको ऐसे बताओगे क्या?

मैं तुमसे पूछूँ बाहर जाने का रास्ता क्या है? तुम क्या बोलोगे? या ये बोलोगे चार कदम यूँ फिर यूँ? पर अगर मैं वास्तव में बुद्धिमान हूँ तो मैं तुमसे पूछूँगा भी नहीं कि बाहर जाने का रास्ता क्या है। क्यों? अरे! दिख रहा है। पूछूँ क्या?

बात आ रही है समझ में?

श्रोता : जी, आचार्य जी।

आचार्य जी : वो सब कुछ जहाँ तुमने ये मान रखा है कि ऐसे ही करना होता है; समझ लो, की तुम अंधे की तरह व्यवहार कर रहे हो। वो सब कुछ जहाँ तुमने मान रखा है कि जीवन ऐसा ही होता है, बस समझ लो कि तुम ‘ढर्रों’ के फेर में फँस गए हो। वो सब कुछ जहाँ तुमने ये मान रखा है कि यही करना ठीक होता है ना, हमें यही सिखाया गया है कि ये सही है, ये गलत है, ये नैतिक है, ये अनैतिक है। बस, समझ लो कि तुम ‘ढर्रों’ के चक्कर में फँसे हुए हो। ठीक है?

श्रोता : जी, आचार्य जी।

आचार्य जी : इसे अपने पास रखो, हाँ।

संवाद सत्संग |

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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