श्रोता: एक बात मन में आती है कि जब अवेयरनैस (जागरुकता) है, तब अवेयरनैस है, आप नहीं हैं। तो जब तक इस शरीर में हैं, तब तक मस्तिष्क भी है, स्मृति भी है। जब अवेयरनैस है, तो स्मृति का क्या होता है? क्या वो कार्य नहीं करती?
वक्ता: नहीं, रहती है।
श्रोता: सर, स्मृति होगी, तो मैं तो रहूँगी ही।
वक्ता: नहीं, यह ज़रूरी नहीं है।
श्रोता: यह बात बिलकुल समझ नहीं आ रही।
वक्ता: देखिये जब मन के पूरे विस्तार का कोई केंद्र होता है, तो उस केंद्र का नाम होता है- अहंकार, अहंता। जिसको हम आम तौर पर दूसरा केंद्र कहते हैं- ‘द रियल सेंटर’ , वो वास्तव में केंद्र हीन केंद्र है। हम कहते हैं कि अहंकार नकली केंद्र है और एक कोई असली केंद्र होता है। वास्तव में एक ही केंद्र होता है- ‘नकली’। जो असली है, वो केंद्र नहीं है। वहाँ पर मन होता है, उसका कोई केंद्र नहीं होता।
जैसे अनंत विस्तार का कोई केंद्र नहीं हो सकता न। कुछ सीमित है, तो उसका केंद्र बना सकते हो। अनंतता का, इन्फिनिटी का कोई केंद्र नहीं हो सकता। तो यह संभव है कि मन रहे पर मन का कोई केंद्र न रहे। यह बिलकुल संभव है। तब स्मृतियाँ रहेंगी, यादें रहेंगी पर कोई केंद्र नहीं होगा जहाँ से याद कर रहे हो।
समझो इस बात को। हम यह हमेशा बोलते आए हैं- *‘द रियल सेंटर एंड द फॉल्स सेंटर’*। लेकिन सेंटर जब भी होगा, वो फॉल्स ही होगा। “द रियल सेंटर इज़ सेंटर लैसनैस। ”ज़ेन में उसको एक दफ़ा कहा गया था- *‘द गेट लैस गेट’*। वैसे ही मैं कह रह हूँ- *‘द सेंटर लैस सेंटर’*। वहाँ, कोई केंद्र होता ही नहीं।
जब भी लगे कि आप किसी केंद्र से बंधे हुए हैं, समझ जाना कि नकली केंद्र है क्यूँकी असली केंद्र कोई होता नहीं।
असली तो सिर्फ आकाश का अनंत विस्तार होता है। वहाँ कोई केंद्र नहीं है। बताओ आकाश का केंद्र कहाँ पर है? बताओ? है कोई केंद्र? हाँ? पर आकाश तो है। उसमें धुआँ भी है, पक्षी भी हैं पर कोई केंद्र नहीं है। तो वैसे ही अतीत की यादें भी रहेंगी, इधर-उधर की बातें भी रहेंगी पर अनंतता रहेगी। अनंतता के सामने वो सब बातें बड़ी छोटी हैं। जैसे आसमान में कितना भी धुआँ भर लो, आसमान गन्दा नहीं होता। मैं पृथ्वी के वातावरण की बात नहीं कर रहा, उसमें धुआँ मत भरना, वो गन्दा हो जाता है। मैं अनंत ब्रह्माण्ड की बात कर रहा हूँ, वो नहीं गन्दा होता।
यह संभव है। यह बात कोई किताब ही भर नहीं है कि सब याद है आपको लेकिन फिर भी आप उन यादों से सम्प्रक्त नहीं हैं। यह हो सकता है। ऐसा नहीं है कि नहीं हो सकता। कोई यह न सोचे कि बोध के क्षण में, कि समाधि के क्षण में यादें विलुप्त हो जाती हैं। नहीं। कैसे विलुप्त हो जाएँगी? मूर्खता की बात है। सब रहेगा और सब रहते हुए भी नहीं रहेगा।
तुम नदी के भीतर नहा रहे होगे लेकिन गीले नहीं हो रहे होगे। सारी यादें है पर हम वो नहीं हैं, जो उन यादों में हैं। यादों में तुम्हारा ही पुराना चेहरा है पर तुम वो हो ही नहीं।
यादों में यादों से अछूते रहोगे। भावनाओं में भावनाओं से अछूते रहोगे। क्रोध में क्रोध से अछूते रहोगे। क्रोध तो होगा, क्रोधित नहीं होगा। भावनाएँ तो होंगी, भावुक कोई नहीं होगा। आ रही है बात समझ में?
‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।