प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सपनों में या ध्यान में किसी भी भगवान के दर्शन हो जाने को बड़ा महत्व दिया गया है, लोगों को ध्यान में शिव दिखते हैं और ऐसी बहुत कहानियाँ और भी प्रचलित हैं, ये सब क्या है कृपया स्पष्ट करें?
आचार्य प्रशांत: और शिव का भी वही संस्करण उसे दिखेगा जो आजकल प्रचलित है।आज से सिर्फ़ कुछ सौ साल पहले की शिव की अगर आप मूर्तियाँ देखेंगे तो शिव की इतनी लम्बी दाढ़ी थी(हाथ से दिखाते हुए)। वो वाले शिव उसे नहीं दिखेंगे। उसे वो वाले शिव दिखेंगे जो आजकल प्रचारित हैं।
श्रोता१: सिक्स पैक।
श्रोता२: आजकल तो शिव एनफील्ड पर आने लग गये हैं।
आचार्य: वो वाले भी दिख सकते हैं। शिव-शक्ति के आजकल जो पोस्टर हैं, वो ऐसे हैं कि सही में सपने में आयें। (श्रोतागण हॅंसते हैं)
शिव को तो बुलाना पड़ेगा, साथ में शक्ति आती हैं। ऐसी-ऐसी शक्ति बनी हुईं है आजकल, आप थोड़ा गूगल तो करिए, ‘शिवशक्ति पोस्टर्स’। देखिए, कैसे-कैसे हैं! इतनी देर से सन्त आपको और क्या समझा रहे हैं कि अन्य लोकों के चक्कर में मत पड़ो। ये जो तुमने सात सड़क बना रखे हैं, छोड़ो इन्हें! ये क्या धुआँ-धुआँ कर रहे हो? अपने रोज़मर्रा के जीवन को देखो। देखो कि पत्नी से क्या रिश्ता है, पति से क्या रिश्ता है? देखो, गाड़ी कैसे चलाते हो? देखो, नौकरी कैसे करते हो? देखो, खाना कैसे खाते हो? देखो कि कोई नयी बात सुनकर कैसे सहम जाते हो? यहाँ सत्य है। वो सात सड़क की बातें छोड़ो कि शिव से मिले और आध्यात्मिक अनुभव हो गया और घंटियाँ बजीं और प्रकाश आ गया। और यहाँ पीछे से फ़ोन बजता है तो उम्म्! (सब हँसते हैं।) कहाँ गया प्रकाश, कहाँ गया प्रकाश?
श्रोता: और एक सीकर (साधक) के स्पिरिचुअल एक्सपीरियंस (आध्यात्मिक अनुभव), उसके रिटर्न्स (लाभ) होते हैं, इन्वेस्टमेंट (निवेश) के।
आचार्य: हाँ, बिलकुल।
श्रोता: रिटर्न्स (लाभ)और चैलेंजेस (चुनौतियाँ) होते हैं।
आचार्य: बिलकुल-बिल्कुल! बन्दे ने पन्द्रह साल साधना करी, तब जाकर उसको ये अनुभव होने शुरू हुए. अब वो आये और कोई ओशो बोल दें कि अनुभव होते ही नहीं, बेवकूफ़ी की बात है, उन्हें भगाना है लोगों को? वो भग जाएगा, वो कहेगा, ‘अरे, बड़ी मुश्किल से तो होने शुरु हुए है, घीस-घीसकर अब कुछ!
मन उपलब्धि का दीवाना होता है। मन हमेशा एक अपूर्णता है, प्यास है। मन को किसी तरीक़े से अचीव (प्राप्त) करना है। देखते नहीं हो, लोग अचीवमेंट (उपलब्धि) के पागल हैं? आपको ज़िन्दगी में कोई अचीवमेंट (उपलब्धि) नहीं हुई तो आप यही अचीवमेंट (उपलब्धि) दिखा देना चाहते हो, क्या? ‘मैं ख़ास हूँ इस रुप में कि इतने लोगों में से माता ने?
श्रोता: मुझे चुना।
आचार्य: मुझे चुना। आपने हज़ार तरीक़े से जीवनभर ख़ास होने की कोशिश करी। करी कि नहीं करी? और कभी आप ख़ास हो नहीं पाये। हर रेस (दौड़) में पिछलग्गू ही रहे। जहाँ दौड़े, वहीं पिछड़े। ज़्यादातर लोगों का तो यहीं है न! सौ दौड़ते हैं, जीतते कितने हैं?
श्रोता: एक।
आचार्य: एक, तो निन्यानवे तो बेचारे पीछे ही रह जाते हैं, उन्हें भी तो लेकिन कहीं-न-कहीं जीतना ही हैं! तो जीतने के तरीक़ों में, एक तरीक़ा ये भी है कि हम आध्यात्मिक रूप से ख़ास हैं। अच्छा, और किसी रेस में दौड़ोगे, तो जीत का निर्णय ज़रा खरा-खरा होगा? ऑब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ) होगा। कोई बाहर बैठा होगा वो बता देगा कि देखो, ये जीता, तुम हारे। यहाँ पर तो तुम ही निर्णेता, तुम ही जज हो। तुम कह दो, मुझे सपने में न शिव जी आते हैं और कहते हैं, ‘तुम ही नम्बर एक’।
अब इसे कौन चुनौती दे सकता है? तुम्हारा सपना और तुम ही बताने वाले, तुम जो चाहे बताओ। ‘मुझे तो जी माता आती है, मुझे तो जी शिव जी मिलते हैं, मुझे तो जी इस तरह के अनुभव होते हैं। मैं ख़ास हो गया’। ज़िन्दगी में कुछ हासिल किया या नहीं किया। ये तो हासिल किया न! उपलब्धि, अचीवमेंट ये वही एम्बिशन (महत्वाकांक्षा) है जो आपको कॉर्पोरेशन्स में दिखती है। ये और कुछ भी नहीं है, सेम एम्बिशन (वही महत्वाकांक्षा), नथिंग एल्स (कुछ और नहीं)।
बुरी इसलिए है क्योंकि जब आप इस तरीक़े के छद्म का सहारा देने लग जाते हो और इसके आधार पर दावा करने लग जाते हो कि जीवन ठीक चल रहा है। जीवन चमका हुआ है, क्योंकि शिव इत्यादि मिलते हैं। तो जीवन की जो वास्तविक बीमारियाँ हैं, वो छुप जाती हैं। दिनभर आप दुर्दुराए जाते होंगे, पूरा दिन आपका जलालत में बीतता होगा, अपमान में बीतता होगा, बन्धन में बीतता होगा। आपको उसकी काट मिल गयी है। अब मुझे दिनभर अपनी जो दासता है, अपनी जो मजबूरियाँ है और अपने जो आँसू हैं, उनके बारे में कुछ नहीं करना है। क्यों, रात में शिव जी मिलेंगे न!
ये आपने एस्केप रूट (बचाव का रास्ता) खोज लिया हैं, अपने दिन के दलदल को नकारने का। अगर आप ईमानदार होते, तो आप कहते, ‘हटाओ रात को, बीमारी दिन में है, उपचार भी दिन में होगा।’ आप अपना दफ़्तर नहीं बदल पाते हैं, आप अपना घर नहीं बदल पाते, आप अपना जीवन नहीं बदल पाते। आप उसका समाधान क्या निकलते हो? आध्यात्मिकता। जीवन घटिया चल रहा है, आप बैठकर आधे घंटे ‘ॐ नमः शिवाय’ कर लेते हो। आप कहते हो, ‘हो गया।’ हिम्मत है तो जीवन बदलो न। हिम्मत है तो अपने लालच के पर जाओ न। क्योंकि तुम्हारे बन्धन का कारण तुम्हारे लालच हैं। तुम अपने लालच को नहीं छोड़ना चाहते, तुम अपने भय को नहीं छोड़ना चाहते। उसकी जगह तुम ये सब नाटक करते हो। शिव माने झूठ होता है क्या? या शिव माने सत्य होता है? जवाब दो?
श्रोता: सत्य।
आचार्य: और तुमने शिव को भी अपने झूठ का अवलम्ब बना लिया! झूठ को बचाने के लिए शिव का सहारा ले रहे हो? सच की एक ही कसौटी है, ज़िन्दगी; जी कैसे रहे हो?” बाक़ी सब बकवास। अपना जीवन दिखाओ, जी कैसे रहे हो? जीवन डरा हुआ, संकुचित है, मजबूर है, तो छी! फिर तुम कर लो जितनी आध्यात्मिक बातें करनी है। फिर चढ़ा लो जितनी माता चढ़ानी हो अपने ऊपर। फिर झूमो (सर हिलाते हुए) ऐसे-ऐसे बाल करके, फिर गाओ ‘ॐ नमः शिवाय’, फिर बैठो ध्यान में, फिर बनो योगी। क्या फ़र्क पड़ता है, जीवन तो सड़ा हुआ ही है न? बड़े मुक्त हैं शिव और बड़ी लाचार है शिव की छवि। शिव तो परम मुक्ति हैं, पर शिव की छवि बड़ी मजबूर है। गॅंजेडी को गाॅंजा मारना है तो सहारा किसका ले लेगा?
श्रोता: शिव का।
आचार्य: गृहिणी को अपने घर की दासता को जायज़ ठहराना है तो सहारा किसका ले लेगी? भोले बाबा। बड़ी मजबूर है शिव की छवि। जो जैसे चाहता है, उसका इस्तेमाल करता है। शिव भी हँसते हैं, कहते हैं “मैं तो हूँ परम मुक्ति और मेरी छवि का इस्तेमाल किया जा रहा है बन्धनों के लिए”। मुझे लगता है, ‘शिव को जो बार-बार तांडव करना पड़ता है, वो और कुछ नहीं, अपनी ही छवि को ध्वस्त करने के लिए करना पड़ता है’। उन्हीं की छवियाँ इतनी फैल गयी हैं कि कहते है, ज़रा तांडव हो कि छवियाँ तो टूटे!
श्रोता: आज से बीस साल पहले इतने लोग कावड़ लेकर नहीं जाते थे जितने अब जाते हैं।
आचार्य: आज से सौ साल पहले कोई वैष्णो देवी भी नहीं जाता था। बल्कि पचास पहले भी।
श्रोता: हाँ, पचास पहले भी।
आचार्य: ये सब जिसको आपने धर्म और आध्यात्मिकता समझ रखा है, ये जलालत है।
प्र: सर, ये जितनी प्रचलित आध्यत्मिक भ्रान्तियाँ है। इसमें तथ्यों को कसौटी किस हद तक बनाया जा सकता हैं क्योंकि ये जितनी एक्सपिरियन्सिग द ट्रुथ (सत्य का अनुभव करना ) वाली ये जो बात है, इसको हम फैक्ट्स (तथ्यों) के तल पर तो हम कभी तौल नहीं सकते या अनुभव की जितनी बातें की जाती हैं। मतलब कोई डिनाय (अस्वीकार) नहीं कर सकता। जैसे कि अगर मैं कह दूँ, मुझे रेनबो दिखता है। तो, मतलब तथ्यों पर नहीं तोली जा सकती बात। क्या ये कसौटी बनायी जा सकती है, ये भ्रान्ति है या नहीं?
आचार्य: नहीं, तो फिर कल्पना जो है उसके सामने दूसरी कल्पना रखो। बोलो, ‘आँख बन्द करके और भी तो कुछ चीज़ें दिखती होंगी?’ किसी भी तर्क की काट, उसकी अपनी अक्षमताएँ होती हैं। कोई बन्दा जब तर्क रख रहा होता है तुम्हारे सामने, तो यही कहता है न कि मेरा तर्क सही है। दीज़ लाइन ऑफ आर्ग्युमेंट इज़ प्रॉपर (तर्क कि यह पंक्ति उचित है )। तुम एक काम करो, तुम उसी लाइन को आगे बढ़ा दो। अगर ये प्रॉपर (उचित) है तो चलो इसी को आगे बढ़ाते हैं, फिर देखते हैं, नतीजा क्या निकलता है।
सत्य अकेला होता है, जिसको कितना भी खींच दो, वो बना रहेगा, बदलेगा नहीं। तर्क, बेचारे की मुसीबत ही यही होती है, उसको आगे-पीछे किया नहीं कि वो गिर जाता है। समझ रहे हो न बात को? कि भई, आप जो कह रहे हैं, वही ठीक है! तो चलिए, उसी बात को आगे बढ़ाते हैं, आपकी ही बात, आपके ही तर्क को पूरे तरीक़े से देखते हैं कि आप क्या कह रहे हैं।
सत्य अकेला होता है, जिसे पूरा देखो कि आधा, वो पूरा ही होता है। उसे कोई आँच नहीं आएगी। झूठ को पूरा देखोगे तो वो गिर जाएगा। झूठ बचता ही तब है, जब उसे की होर्स देखा जाए, ज़रा सा। उसे पूरा देखा नहीं कि वो गिर जाएगा। उसको पूरा देखना ही उसका वास्तविक डिनायल है। पूरा देख लो, वो गिर जाएगा। कोई कठपुतलियाँ नचा रहा हो और आपसे कहे कि ये कठपुतलियाँ नहीं हैं, इंसान हैं, तुम बार-बार बोलो इंसान नहीं हैं, ये नहीं, वो नहीं बात ख़त्म। उससे अच्छा पूरा देख लो प्रक्रिया को। कि वो देखो इंसान ऊपर बैठा है। पूरी चीज़ देख लेते हैं। फिर समझ जाओगे कि क्या है। फिर धागे भी दिख जाऍंगे, रचाने वाला भी दिख जाएगा, सब दिख जाएगा, तर्क गिर जाएगा। हम्म!
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