बोध के लिए अभी कितनी यात्रा बाकी है? || (2019)

Acharya Prashant

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बोध के लिए अभी कितनी यात्रा बाकी है? || (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या यह पता लगाया जा सकता है कि बोध की प्राप्ति में अभी कितनी यात्रा बची है, या किसकी कितनी यात्रा हो चुकी है?

आचार्य प्रशांत: यात्रा लम्बी किसी की नहीं होती है। समझाने वालों ने ऐसा बोला, मैं भी ऐसा ही उदाहरण रख देता हूँ।

तो शायद हमने मन में नमूना, मॉडल, ऐसा बनाया है कि शायद एक बहुत लम्बी यात्रा है जो पूरी करनी है, और मुक्ति आखिर में उसके शिखर पर जाकर होती है, अंत पर जाकर होती है। ऐसा नहीं है। मामला थोड़ा-सा दूसरा है।

मुक्ति तुम्हें दिख भी जाती है, मिल भी जाती है।

पर तुम अपनी मुक्ति का उपयोग करके फिर अमुक्त हो जाते हो – जैसे बच्चा हो कोई छोटा, माँ उसको बिलकुल नहला दे, साफ़ कर दे बिलकुल। पहले उसके शरीर पर धूल लगी हुई थी, बालों में मिट्टी-धूल थी। तो माँ ने पकड़ा और रगड़-रगड़ कर दिया, नहला दिया। वो नहा-धोकर बाहर निकलता है, गीला, और जाकर मिट्टी में लोट आता है। तो पहले मिट्टी ज़्यादा थी, या अब ज़्यादा है? तो हर शिविर में ऐसा होता है कि सब नहा-धो लेते हो, सबका स्नान हो जाता है, लेकिन तुम शिविर के बाद क्या करोगे मैं क्या बताऊँ!

इसी को मैं ऐसे भी कहता हूँ कि जैसे उस पार है मान लो वो देस जहाँ जाना होता है, कबीर साहब जिसको ‘अमरपुर’ कहते हैं, उधर है ‘अमरपुर’। इधर से उधर जाने के लिये एक पुल है। सबके अपने-अपने पुल हैं, क्योंकि सब अलग-अलग व्यक्तित्वों के साथ जी रहे हैं। तो तुम्हारे दोस्त का, या पथ-प्रदर्शक का काम होता है कि तुम्हें पुल पार करा दे। पुल तो पार कर जाते हो, तुमने बहुत बार पुल पार किए हैं, लेकिन उसी पुल का उपयोग करके तुम वापिस आ जाते हो।

ज्ञान के तल पर बड़े-बड़े ऋषि मुनियों को भी उतना ही पता था, जितना तुम्हें पता है। अब ये बात तुम्हें गर्व भी दे सकती है, और तुम्हें डरा भी सकती है। तुम्हें ये बात डरा सकती है कि बड़े-बड़े ऋषि-मनीषी भी जितना जानते थे, हम उनसे कम नहीं जानते। ये बात बहुत खौफ़नाक है, क्योंकि जितना कुछ भी शब्दों के द्वारा, कानों के द्वारा, बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है, वो तुम जान चुके हो। कोई सूत्र नहीं बचा अध्यात्म का जो अब तुम्हारे सामने प्रतिपादित होना बाकी हो। सब खोल दिया गया है।

अंतर बस ये है कि – उन्हें जो पता चला, वो मात्र उसी में जीते थे। तुम्हारे पास और बहुत सारी चीज़ें हैं।

ऋषियों के पास जो है वो तो है तुम्हारे पास, पर तुम्हारे पास मात्र वही नहीं है, जो ऋषियों के पास है। तुम्हारे पास और भी बहुत कुछ है। तुम उस छोर पर तो पहुँच जाते हो, पर तुम्हें याद आता है कि इस छोर पर भी तुम्हारे बहुत काम-धंधे हैं। ऋषियों के पास इस छोर का कुछ नहीं है, तुम्हारे पास बहुत है। तो फिर तुम बार-बार वापिस लौट-लौटकर आते हो। तुम्हारा चक्र नहीं टूट रहा। तुम पुल जला नहीं रहे कि एक बार उधर पहुँच गए, तो अब पुल जला ही दो, कि लौटने की अब संभावना ही नहीं है।

तुम्हें कुछ ख़ास, नया नहीं बताया जा सकता। मैं भी जो बताता हूँ, वो बस पुनरुक्ति होती है।

प्र: तो फिर नया क्यों लगता है?

आचार्य:

नया लगता है जब आपने पुरानी बात को विस्मृत कर दिया होता है। पुरानी बात विस्मृत ना की होती तो दिखाई देता कि जो कुछ बताया का सकता था वो कब का बता दिया। पर आप उस पुरानी बात के ऊपर बहुत सारी व्यक्तिगत बात रख देते हैं, या उस पुरानी सनातन बात को, अपने व्यक्तिगत रंग में रंग देते हैं। तब फिर गुरु की आवश्यकता दोबारा पड़ जाती है, कि बच्चा फिर लौट आया, अब फिर नहलाओ।

स्नान की प्रक्रिया तो वही है जो पिछली बार थी। धूल तुम ज़माने भर से लाते हो, और नए-नए तरीके की लाते हो। काली मिट्टी में आया है इस बार, ताज़ा बिलकुल। इस बार रेत में लोटा है। तो मैं तो हर बार यही पूछता हूँ, जब आते हो, “इस बार कहाँ लोटकर आए हो?”

मेरा काम तो बंधा-बंधाया है – स्नान कराना। तुम्हारा काम विविधतापूर्ण है।

प्र: आचार्य जी, जब से संतों की वाणी सुनी है आपके सान्निध्य में, तब से सामर्थ्य तो जीवन में दिखाई देता है। लेकिन जब भी आघात पड़ते हैं, तो समय घटता जाता है। यह सब उसकी ग्रेस (कृपा) जैसे दिखाई देते हैं। आपका यहाँ होना, आपको सुन पाना, सब उसी की ग्रेस है। और एक अवस्था ऐसी भी आती है, जहाँ पर निर्लिप्तता भी होती है। क्या बस कृपा का इंतज़ार करें कि एक अवस्था ऐसी भी आएगी जहाँ पूर्ण रूप से भी निर्लिप्त हो जाएँगे?

आचार्य: उस माँग को बढ़ने दीजिए।

वो माँग आपको ही तो पूरी करनी है। आप अगर उसको पूरा नहीं कर रहे हैं तो इसका मतलब वो माँग अभी प्रबल नहीं है। भीतर से निर्लिप्तता की माँग उठ रही है अगर, तो उसको पूरा कौन करने वाला है? आपको ही तो करना है। आप उस माँग की जगह किन्हीं अन्य माँगों को अभी पूरा कर रहे होंगे। निर्लिप्तता की माँग ज़ोर पकड़ेगी, नारे लगाएगी, परेशान करेगी। फिर आप उसे पूरा करेंगी।

प्र: क्या लिप्तता की पीड़ाओं के बाद?

आचार्य: लिप्तता की पीड़ाओं के बाद।

प्र: उस माँग को बनाए कैसे रखें?

आचार्य: अभी तो लिप्तताओं में कुछ रस बाकी है, इसीलिए निर्लिप्तता की माँग बहुत सशक्त नहीं हो पा रही। धीरे-धीरे तराज़ू का एक पलड़ा उठता जाएगा, एक बैठता जाएगा।

फिर अपने आप फैसला आ जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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