प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं अपनी दिनचर्या के काम भूल जाती हूँ, सब अधूरा-अधूरा करती हूँ। ऐसा क्यों?
आचार्य प्रशांत: दो बातें हो सकती हैं। पहली तो पूर्णतयाशारीरिक कि इस भूलने का सम्बन्धसीधे-सीधे मस्तिष्क से हो। आपकी जो स्नायु कोशिकाएँ हैं उनके तंत्र से हो। अगर वैसा है तो फिर ये पूरे तरीक़े से एक शारीरिक बात है, एक प्राकृतिक बात है, इसका कोई फिर आध्यात्मिक पक्ष नहीं है। तो वो चीज़ तो कोई शरीर का चिकित्सक ही बता सकता है अगर इसका सम्बन्ध मस्तिष्क से है।
और अगर इसका सम्बन्ध मस्तिष्क से ही है तो फिर तो एक भौतिक चीज़ हुई जिसके लिए भौतिक दवाइयाँ चाहिए। ठीक वैसे कि अगर आपको कोई बुख़ार चढ़े किसी वायरस की वजह से, तो किसी भी आध्यात्मिक प्रक्रिया से बुखार नहीं उतर जाएगा।
हाँ ये ज़रूर हो सकता है कि बुखार के प्रति आपका दृष्टिकोण बहुत स्वस्थ हो जाए बुख़ार को आप मुस्कुराते हुए झेल जाएँ ये तो हो सकता है, लेकिन ऐसा नहीं होगा कि किसी भी प्रकार के ध्यान या भक्ति के फलस्वरूप आपका बुखार उतर ही जाएगा। जो चीज़ें पूरी तरह से शारीरिक हैं उनका निदान और उपचार भी भौतिक ही होगा।
अब आते हैं इस भूलने की बात के मानसिक, आध्यात्मिक पक्ष पर। जीवन तरह-तरह से हमें संदेश देता है। कई बार जो चीज़ आपके लिए वास्तव में अनावश्यक हो चुकी होती है लेकिन फिर भी आप उससे जुड़े होते हैं, लिप्त होते हैं क्योंकि आदत बनी होती है, मन उन चीज़ों को फिर भूलना शुरू कर देता है। उनको भूल-भूलकर मन आपको संदेश दे रहा है कि इनको भूल ही जाओ, ये इस काबिल नहीं हैं कि इनको याद रखो।
आपका जो सतही मन है वो कोशिश कर रहा है याद रखने की क्योंकि वो नैतिकता और कर्त्तव्योंके वशीभूत चलता है। वो कह रहा है कि कर्त्तव्य है कि याद रखो कि चाबी कहाँ रखी थी, कर्तव्य है कि याद रखो कि रसोई में क्या उबल रहा है, कर्त्तव्य है कि याद रखो कि आज किसका जन्मदिन है, उसको बधाई देनी है।
पर ये बातें सतही होती हैं और सतही मन में ही रहती हैं। क्या बातें? यही सब जीवन की घरेलू आम बातें, नैतिकता से जुड़ी हुई बातें। भीतर मन की गहराई में इनको याद रखने की कोई ज़रूरत अब बच नहीं रही होती, मन गहराई से किसी और को याद रखना चाहता है। तो आप फिर फँस जाते हैं।
आप अपने-आपको बता तो रहे हैं कि कुछ बातें बड़ी महत्त्वपूर्णहैं उनको याद रखो उनका खयाल रखो। लेकिन ये याद इत्यादि रखने की सारी प्रेरणा सतही है, भीतर-ही-भीतर आप खुद चाहते हैं कि वो सब बातें अब जीवन से विदा हो जाएँ।
भीतर-ही-भीतर आपकी भी यही इच्छा है कि जो आवश्यक है बस वो याद रहे। लेकिन आप अपने-आपको विवश किए जा रहे हैं, आप अपने-आपसे कहे जा रहे हैं कि नहीं साहब, ये भी याद रखना और वो भी याद रखना और ये भी याद रखना और वो भी याद रखना है। तो वो चीज़ें फिर थोड़ी बहुत याद रखती हैं और फिर लुप्त होती जाती हैं।
दोनों ही पक्षों का ख़्याल कर लीजिए। डॉक्टर को भी दिखा लीजिए और…
प्रश्नकर्ता: नहीं वो तो कल-परसों किया था तो ऐसी कोई है नहीं बात।
आचार्य प्रशांत: अगर नहीं है तो बात फिर दूसरे जहान की है। अब अपना वक़्त आ गया है कि आप छोड़ें दूध का उबलना इत्यादि। और आप अगर नहीं छोड़ेंगी अभी भी दूध और हल्दी और परवल और हींग और जीरा, तो दूध उबल-उबलकर गिर जाएगा, बड़ा नुक़सान होगा।
हर काम को करने की एक अवस्था होती है। कल हम बात कर रहे थे न कि भला हुआ जो पाँचवी कक्षा में पढ़े। पाँचवी कक्षा में पढ़ना आवश्यक था लेकिन पाँचवी में ही मत पढ़ते रह जाना। पाँचवी में पढ़ने का भी एक समय होता है और पाँचवी से आगे निकल जाने का भी एक बिन्दु आता है।
लेकिन हम बड़े मोही लोग होते हैं, हम बड़े आसक्त लोग होते हैं। जिस चीज़ का समय बीत गया होता है जिस चीज़ की उपयोगिता बीत गई होती है हम उससे भी जुड़े ही रहते हैं।
कभी निश्चित रूप से ज़रूरी रहा होगा आपके लिए कि रसोई देखें और घर देखें और बिस्तर देखें और सफ़ाई देखें और पचास काम। कभी उसकी उपयोगिता रही होगी, आज है क्या? जन्म पूरा इन्ही चीज़ों में लगा देना है। ऊपरवाला पूछेगा क्या किया तो क्या बोलेंगी? लौंग, लहसुन, जीरा, हाँ? कौन रैदास, कौन कबीरा? हमारा जीवन तो है लौंग, लहसुन, जीरा। बड़ी दिक्कत हो जाएगी न।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मन तो चाह रहा होता है कि कबीर, बुल्लेशाह की मस्ती में डूब जाएँ लेकिन बन्धन छूटते नहीं, क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: नहीं कोई झटके से नहीं छोड़ देना होता। आप तो स्त्री हैं प्रकृति के सारे हाल जानती हैं, कोई भी नयी चीज़ अचानक से थोड़ी ही जीवन ले लेती है। बालक भी दुनिया में आता है नौ वर्ष तक विकास लेने के बाद। दबा-दबा, छुपा-छुपा विकास लेता है वो किसी को नज़र नहीं आता, है न? और फिर वो एक दिन अचानक प्रकट हो जाता है।
कोई मूर्ख हो तो वो कहेगा अरे! अचानक आ गया अचानक आ गया, जन्मदिन मनाओ। लोग तो यही करते हैं न जन्मदिन मना देते हैं कि अचानक आ गया, आज ही के दिन तो आया है।
पर आप तो जानतीं हैं कि वो एक दिन अनायास नहीं आ गया, उसको बहुत पलनपोषण मिला है, बड़ी सावधानीपूर्वक उसकी रक्षा की गयी है, उसका विकास हुआ है, तब जाकर के वो एक दिन प्रकट हुआ है। तो झटके से थोड़ी ही कुछ कर देना है।
किसी समझाने वाले ने कहा था कि आदमी को परमात्मा को जन्म देना पड़ता है। ये बात अजीब है, हम कहते हैं परमात्मा आदमी को जन्म देता है। पर कोई बड़ा बुज़ुर्ग कह गया है कि नहीं, आदमी को परमात्मा को जन्म देना पड़ता है। और जन्म देना है तो पहले गर्भ में उसका पोषण भी करना पड़ेगा, और फिर एक दिन वो प्रकट हो जाएगा। सहसा नहीं, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, लगी रहिए, धीरे-धीरे जो पुराना है वो छूटता रहेगा।
प्रश्नकर्ता: मन नहीं लगता बिलकुल भी।
आचार्य प्रशांत: धीरे-धीरे, धीरे-धीरे। ये लोग गाते हैं न- ‘धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय॥’
अब वो सौ घड़े व्यर्थ गए क्या? वो सौ घड़े कहाँ गए? कहाँ गए? अरे रे रे रे, अंदर गए, पोषण में गए, जड़ में गए, तब जाकर के तो ऋतु में फल हुआ। पर जो अधीर आदमी है वो कहे कि अरे सौ घड़े तो बेकार गए फल तो तभी पैदा हुआ न जब ऋतु आयी, उससे पहले जितना पानी डाला सब व्यर्थ। ये बात ऐसी नहीं है।
तो धीरे-धीरे, एक-एक करके, दो-दो करके चीज़ें आपको जो दिखाई दें कि अब अनुपयोगी हैं उनका त्याग करते चलिए।
प्रकृति का ही उदाहरण ले लीजिए; किसी भी पेड़ से सब पत्ते एक साथ एक दिन झड़ जाते हैं क्या? पतझड़ में भी पत्ते कैसे झड़तें हैं? एक-एक दो-दो, एक-एक दो-दो, फिर पुराने सब पीले कमज़ोर पत्ते हट जाते हैं और आते हैं नये-नये, नयीं कोपलें फूटतीं हैं, हैं न? और सोचिए किसी दिन आप सुबह उठें और पायें कि पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं तो इसका मतलब है कि कुछ गड़बड़ हुई है। इसका मतलब ये नहीं है कि पेड़ को वैराग़ आ गया है, इसका मतलब है कि कुछ कुकृत्य किया गया है।
तो अगर मामला भौतिक नहीं है, अगर डॉक्टर कह रहा है कि भूलने आदि की बात का मस्तिष्क इत्यादि से कोई सम्बन्ध नहीं है, घटना सहज ही घट रही है; तो उसको सहज घटने दीजिए, उसको अवरुद्ध करने की, बाधित करने की कोशिश मत करिए।
प्रश्नकर्ता: समस्या ये नहीं है कि मुझे कोई पीड़ा नहीं हो रही है उस चीज़ से। मतलब कोई चीज़ हो रही है तो वो सहज ही हो रही है लेकिन परिवार उसमें ये बोल रहा है कि गृहस्ती है और तुम्हारा काम है उसको सम्भालना।
आचार्य प्रशांत: और परिवार ये बोल रहा है तो आपको पीड़ा हो रही है। पीड़ा तो हो ही रही है न।
प्रश्नकर्ता: हाँ, उनके कहने से हो रही है।
आचार्य प्रशांत: सबसे पहले तो मानिए कि पीड़ा हो रही है।
प्रश्नकर्ता: हाँ, पीड़ा हो रही है। उनके कहने से पीड़ा हो रही है कि वो कह रहे हैं कि सही नहीं कर रही हो तुम काम।
आचार्य प्रशांत: पर अगर आप पूरे तरीके से आश्वस्त होतीं कि जो हो रहा है वो शुभ ही है तो उनके कहने से भी आपको पीड़ा नहीं होती। यानि कि पीड़ा वास्तव में आपको इसलिए हो रही है क्योंकि अभी आप खुद सन्देह में हैं कि ये जो हो रहा है वो ठीक हो भी रहा है कि नहीं। क्योंकि अभी आप खुद संशय में हैं इसीलिए जब कोई शक करता है, ऊँगली उठाता है तो आपको भी शक हो जाता है। और शक तो है ही पीड़ा।
आप आश्वस्त रहिए कि अगर ये पत्तों का झड़ना वृक्ष की वयस्कता के कारण हो रहा है तो शुभ है। छोटे पौधों पर पतझड़ नहीं लगता, जानते हो न? छोटे पौधों पर पतझड़ नहीं लगता, पर फिर छोटे पौधों पर फल भी नहीं लगता। फल की सम्भावना भी तभी है जब पत्ते झड़ना जानते हों, जहाँ पत्ते झड़ना नहीं जानते वहाँ फल भी नहीं लगते।
तो ये वयस्कता की बात है कि कुछ पत्ते झड़ने लगे हैं। जो झड़ रहे हैं पत्ते उन्हें झड़ने दीजिए। पुराना नहीं हटेगा तो नया कहाँ से आएगा।
और अपराध भाव तो मन में आने ही मत दीजिए कि ग्लानि और कुंठा आ गयी कि मैं अपने नैतिक कर्त्तव्यों का पालन नहीं कर पायी, नाश्ता बनाकर देना था और भूल गयी। अगर बार-बार दिखे कि नाश्ता बनाना भूल जाती हैं तो नाश्ते को इतिश्री करिए। किसी और को सुपुर्द कर दीजिए ये काम क्योंकि अब आप कोशिश करेंगी भी तो अब चाय-पानी में आपका जी लगने से रहा। कितना ठेलेंगी अपने-आपको। समझ रही हैं न?