प्रश्नकर्ता: कभी-कभी हमें इन्ट्यूशन्स (अन्तर्ज्ञान) होती है जो चीज़ें होनी होती हैं या हो जाती हैं वैसी। या किसी इंसान से मिलते हैं तो लगता है कि इसको कहीं पहले देखा है या मिले हैं। या कोई घटना हो रही होती है तो लगता है कि घटना पहले घट चुकी है और ऐसा-ऐसा ही हुआ। ऐसा क्यों होता है?
आचार्य प्रशांत: देखो एक तल पर कोई भी घटना नयी नहीं होती है। तो हर घटना जो आज घट रही है वो पहले अनन्त दफ़े घट चुकी है। तो ये बात बिलकुल ठीक है।
तुम आज किसी स्त्री के प्रति आकर्षित हो जाते हो, ये पहली बार हो रहा है? अनन्त दफ़े तुम ही किसी औरत की ओर आकर्षित हो चुके हो। आज से लाख साल पहले भी, करोड़ साल पहले भी, कल भी, परसों भी, यहाँ भी और वहाँ भी। हर जगह तुम-ही-तुम तो हो और वही खेल चल रहा है।
आज तुमको क्रोध आ जाता है, ये तुम्हें पहली बार आ रहा है? नहीं, पहली बार नहीं आ रहा। आज से हज़ार साल पहले भी तुम्हीं तो थे, जो क्रोधित हो रहे थे और आज से लाख वर्ष बाद तुम्हीं होओगे जो क्रोधित हो रहे होगे।
तो एक दृष्टि से देखो तुम यदि, तो कोई घटना नयी तो होती ही नहीं है। तो उसमें अगर तुम्हें लग रहा है कि ये घटना पहले भी घट चुकी है, तो खास क्या लग रहा है। ये तो घट ही चुकी है।
हाँ, तुम यदि ये कहोगे कि इस घटना के जो विवरण हैं वो भी तुम्हें पहले से पता थे, तो ये तुम अपनेआप को भ्रम दे रहे हो। सिद्धान्त रूप में जो हो रहा है, वो पुराना है, वो पहले भी कई दफ़े हो चुका है। लेकिन जितनी बार वो होता है, उतनी बार वो अलग-अलग नाम, रूप, स्थिति, स्थान और संयोग लेकर होता है और उनका पता कोई नहीं लगा सकता। उनका पता नहीं लगाया जा सकता।
परमात्मा ने प्रकृति को पूरी छूट दे दी है कि अब वो अपनी ही व्यवस्था, अपने ही नियमों के अनुसार चलेगी। उसका अपना एक अनन्त तन्त्र है और उसमें विधाता भी हस्तक्षेप नहीं करता। जानना माने स्वामी हो जाना।
तुम पूछोगे कि क्या परमात्मा को भी पता है कि कल क्या होगा? नहीं, उसको भी नहीं पता है। क्योंकि अगर उसे पता चल गया तो वो फिर नियन्त्रण भी कर सकता है। है न? जिस चीज़ का तुम्हें ज्ञान हो गया, तुम उसका नियन्त्रण भी कर सकते हो, तुम उसको बदल भी सकते हो।
प्रकृति और संसार की जो ये पूरी व्यवस्था चल रही है, इसका कोई पूर्वानुमान सम्भव नहीं है। हाँ, इसके जो बुनियादी सिद्धान्त हैं, उनको तुम भली-भाँति जान सकते हो और उनको जान जाओगे तो साफ़ दिखाई देगा कि कुछ नया हो ही नहीं रहा। मैंने दोनों बातें बोली हैं, समझ रहे हो न?
जो कुछ हो रहा है वो सिद्धान्त रूप में पुनरावृत्ति मात्र है। पहले भी सौ बार हो चुका है। मैं आज तुमसे कोई पहली बार नहीं बोल रहा हूँ, मैं तुमसे करोड़, दस करोड़ दफ़े बोल चुका हूँ और तुम मुझे पहली बार नहीं सुन रहे हो। जितनी बार मैंने बोला उतनी बार तुमने सुना भी है।
तो एक तल पर तो वो बात है कि यहाँ जो हो रहा है, वो नया नहीं है। और दूसरे तल पर ये भी बात सही है कि अभी जो हो रहा है, वो पहली बार हो रहा है। आज का दिन पहले नहीं आया था। आज जो बात कही गयी, वो पहले नहीं कही गयी थी। और तुम दोपहर में ही अनुमान नहीं लगा पाते कि आज मैं क्या बोलने जा रहा हूँ शाम को।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हमारे साथ एक या दो साल पहले जो हुआ था क्या वो हमें ज्ञात रहता है?
आचार्य प्रशांत: विवरण के तल पर ये ज्ञात नहीं रह सकता क्योंकि अनन्त बार हुआ है न। तुम्हारी इतनी बड़ी स्मृति ही नहीं कि अनन्त घटनाओं को याद रख सके। पर सिद्धान्त के तल पर अच्छे से ये समझ लो कि यहाँ कुछ भी नया नहीं हो रहा। प्रकृति के तीन गुण हैं, घूम-फिरकर के उन्हीं का खेल बार-बार चल रहा है। एक ही पहिया है जो बार-बार घूम रहा है। उस पहिये में तीन तीलियाँ है। एक पहिया है जिसमें तीन तीलियाँ है। क्या है उन तीलियों के नाम?
प्रश्नकर्ता: सत,रजस,तमस।
आचार्य प्रशांत: बस तो वहीं तीन तीलियों वाला पहिया घूम रहा है अनादिकाल से। कभी पहिया यहाँ पहुँचता है, कभी वहाँ पहुँचता है, पर घूम वही पहिया रहा है। जगहें बदल जाती हैं, नाम बदल जाते हैं, विवरण, वृतान्त बदल जाते हैं, पर मूल चीज़ वही पुरानी है।
प्रश्नकर्ता: एक किताब है ओशो की “आत्मपूजा उपनिषद्।“ उसमें वो बार-बार कहते हैं कि जो निश्चित है, वही नित्य है। जो नाचने वाला है, वही नाच है। जो इंसान है, वही भगवान है। इन दोनों बातों का अन्तर नहीं समझ पाया मैं।
आचार्य प्रशांत: किन दोनों बातों का?
प्रश्नकर्ता: उन्होंने कहा कि नृत्य करने वाला ही नित्य है और इंसान ही भगवान है।
आचार्य प्रशांत: अभी थोड़ी ही देर पहले ही तो बात कर रहे थे हम कि कितने भी तुम झूठ बोल रहे हो उनके नीचे तुम्हारी एक आधारभूत सच्चाई बैठी हुई है। उसी सच्चाई को भगवत्ता कहते हैं। इंसान भगवान तो है; अब आगे की बात बता रहा हूँ, इंसान भगवान तो है लेकिन इंसान भगवान मात्र नहीं है। तुम भगवान से आगे के कुछ हो। तुम भगवान के अलावा भी कुछ हो। भगवान बेचारा बहुत सीधी-सादी शय है। भगवान सिर्फ़ भगवान है और तुम भगवान और शैतान हो।
भगवान दुबला-पतला है, क्योंकि वो सिर्फ़ भगवान है और तुम बहुत मोटे हो क्योंकि तुम भगवान तो हो ही और भगवान के अलावा तुम शैतान भी हो। तो अगर तुमसे कोई कहे कि तुम भगवान हो तो वो गलत नहीं कह रहा, पर बात अधूरी कह रहा है। तुम भगवान भी हो और शैतान भी, तुम दोनों हो।
तो ये बात बस दिल को बहलाने का और खुश करने का बहाना बन जाती है कि साहब हम तो ब्रह्म हैं। मैं कहता हूँ, ‘ठीक कह रहे हो ब्रह्म तो तुम हो, पर तुम ब्रह्म मात्र नहीं हो। तुम ब्रह्म और माया दोनों हो।’ और अध्यात्म का उद्देश्य ये है कि तुम ब्रह्म मात्र रह जाओ। ब्रह्म से तो कभी तुम छुटकारा पा नहीं सकते। वो तो केन्द्र है तुम्हारा, वो तो सच्चाई है तुम्हारी। पर तुमने अपने जीवन में बहुत कुछ ऐसा भर लिया है, जिससे छुटकारा पाया जा सकता है। जिस दिन तुमने उससे छुटकारा पा लिया, उस दिन तुम सिर्फ़ ब्रह्म बचोगे। सिर्फ़ ब्रह्म रह जाने को कहते हैं मुक्ति।
ब्रह्म तुम अभी भी हो लेकिन तुम्हारा ब्रह्मत्व माया तले आच्छादित है, छुपा हुआ है। माया हटा दो, फिर सिर्फ़ ब्रह्म बचेगा। इसीलिए मैं कहता हूँ, ‘कम हो जाओ।‘ एक ही आध्यात्मिक सलाह है, क्या? ‘कम हो जाओ, 'रिड्यूस'।‘ ये परम् ब्रह्म वाक्य है, क्या?
प्रश्नकर्ता: कम हो जाना।
आचार्य प्रशांत: 'रिड्यूस'। टी शर्ट बनवा लो उसपर लिख लो बस रिड्यूस हो गया और यही याद रखो दिनभर ‘कम होना है।’ कम होते जाओ, होते जाओ, होते जाओ जब तक कि वहाँ न पहुँच जाओ जिससे कम हुआ नहीं जा सकता। जितना छोड़ सकते हो, छोड़ते जाओ, छोड़ते जाओ, छोड़ते जाओ जब तक कि वही भर न बचे जिसे छोड़ा नहीं जा सकता। यही अध्यात्म है रिड्यूस।
तो तुमने कहा, ‘आदमी भगवान है।‘ मैंने कहा, ‘आदमी भगवान तो है, पर भगवान मात्र नहीं है, शैतान भी है।‘ और अब उसके आगे की ओर एक बात कहता हूँ, ‘तुम भगवान भी हो, शैतान भी हो, लेकिन ताल्लुक तुम्हारा ज़्यादा शैतान से है।‘
हो तुम भगवान भी और हो तुम शैतान भी, लेकिन शैतान और भगवान को तुमने दर्ज़ा बराबरी का नहीं दिया है। तुम्हारे भीतर दोनों हैं, लेकिन जगह ज़्यादा घेर रखी है शैतान ने। तो अब ले-देकर बात ये आयी कि पहले तुम कह रहे थे, ‘मैं शत-प्रतिशत भगवान हूँ।’ मैंने कहा, ‘नहीं साहब, आप भगवान ही नहीं, शैतान भी हैं।’ और अब मैं कह रहा हूँ कि पलड़ा थोड़ा शैतान का ही भारी है।
तो शुरू इससे हुए थे कि हम भगवान हैं और अन्त अब इस पर कर लो कि हम शैतान ही ज़्यादा हैं। सिद्धान्त से शुरू किया था, यथार्थ पर खत्म कर लो। सिद्धान्त कहता है कि तुम भगवान हो और यथार्थ दिखाता है कि तुम शैतान हो।
प्रश्नकर्ता: हम झूठ क्यों बोलते हैं आचार्य जी?
आचार्य प्रशांत: लीला है भाई, जब तक बोलना हो बोलो और इतने ही झूठे होते तुम, तो मैं इस सवाल का जवाब भी कैसे देता। कैसे मानता कि सवाल सच्चा है? तुम कह रहे हो, ‘तुम झूठ क्यों बोलते हो’ और मुझे तुममें सच दिखाई दे रहा है। तुम्हारे हर सवाल के नीचे की सच्चाई को ही तो जवाब देता हूँ। नहीं तो मेरे लिए भी सम्भव है तुम कहो कि तुम झूठे हो। मैं कहूँ, ‘तो ये सवाल भी झूठा होगा, ये वक्तव्य, ये दावा भी झूठा होगा, मैं जवाब ही नहीं दूँगा।’
पर जब तुम झूठ भी बोल रहे हो तो मैं तुम्हारी सच्चाई देख पा रहा हूँ, वो है। और चूँकि वो है और बहुत पक्की है, इसीलिए तुम ज़रा बिगड़ गये हो।
बिगड़े बच्चे देखे हैं, कैसे होते हैं? उनको लाड़ ज़्यादा मिल जाता है। उनको पता होता है कुछ भी करें, स्नेह मिलता रहेगा, सुविधाएँ कायम रहेंगी। उन्होंने ताड़ लिया है, क्या? कि माँ-बाप प्यार बहुत करते हैं हमको। हम कुछ भी कर लें, हमें त्यागेंगे नहीं। तो फिर वो तरह-तरह के झंझट करते हैं, परेशानियाँ करते हैं, उट-पटांग, उपद्रव। ऐसे ही होते हैं न बिगड़े बच्चे? तो वैसे ही हो।
ताड़ गये हो कि सच्चाई तो हमें छोड़ने वाली नहीं, वो तो भीतर कहीं बहुत जमकर बैठी है, तो अब फिर ऊपर-ऊपर झूठ का, फ़रेब का, तमाम तरह की माया का खूब स्वांग करते हो। तुम ये सब नहीं कर सकते थे अगर तुम्हें पक्का भरोसा नहीं होता सच पर।
अगर कोई बच्चा घर में बहुत उपद्रव करता हो, तो ये जान लेना कि एक मामले में वो बड़ा विश्वासी है। क्या विश्वास है उसको?
प्रश्नकर्ता: स्नेह मिलता रहेगा।
आचार्य प्रशांत: कुछ भी करूँगा, स्नेह तो मिलता रहेगा। वैसे ही तुम्हें भी पता है कितना भी झूठ बोल लें, कुछ भी कर लें, सच्चाई तो कायम रहेगी ही। तो तुम बिगड़ैल बने घूम रहे हो। कोई बात नहीं, कुछ दिनों में बड़े हो जाओगे। फिर नहीं बोलोगे झूठ।