प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने सही चीज़ों के लिए कष्ट उठाने की बात करी थी कल। पर जब हम गलत चीज़ से सही चीज़ तक पहुँचते हैं तब एक ताकत सी अनुभव होती है। लेकिन उसी समय एक तनाव भी रहता है। तो इसमें एक सहजता नहीं आती। क्या मेरा अहंकार बोल सकते हैं उसे?
आचार्य प्रशांत: उस तनाव से गुज़रना होगा। सहजता इतनी सस्ती चीज़ नहीं है कि ऐसे बैठे-बैठे मिल जाए। ये माँग भी मत करो, तनाव से गुज़रना होगा। तनाव से गुज़रे बिना तो यहाँ जो जड़ पदार्थ चीज़ें हैं, वो भी तुम्हारे पास नहीं आ पातीं।
ये (माइक की तरफ इशारा करके) ऐसा बनने के लिए कितने तनाव से गुज़रा है, सोच सकते हो? जिन लोगों ने मैन्युफ़ैक्चरिंग (निर्माण) पढ़ी है, वो जानते होंगे क्या बोल रहा हूँ मैं। ऐसा हो पाने के लिए कितने तनाव से गुज़रा है कल्पना करो। ये जो कपड़ा भी तुमने पहन रखा है, वो कितने तनाव से गुज़र कर आया है तुम तक — एक-एक रेशा, एक-एक फाइबर , तनाव से, ताप से — कभी किसी फैक्ट्री में जाकर के देखना।
तो तनाव नहीं झेलेंगे ये माँग ही व्यर्थ है। हमें तो प्रार्थना करनी चाहिए दम की, कि और ज़्यादा तनाव ले सकें और ज़्यादा तनाव झेल सकें। उसके बिना बनेंगे कैसे, उसके बिना सुधरेंगे कैसे? प्रार्थना ये नहीं करो कि तनाव न मिले, प्रार्थना ये करो कितना भी मिले मैं टूटू नहीं।
ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। एक में तुम कह रहे हो कि मुझे परीक्षाएँ नहीं चाहिए और दूसरे में तुम कह रहे हो मुझे बल चाहिए। ये न कहो कि कोई तुम्हारी परीक्षा न ले, ये कहो कि बल रहे परीक्षाओं से गुज़र जाने का।
मुझे मालूम है अध्यात्म में ज़्यादातर यही बात चलती है किस तरह से बिना तनाव के जिया जाए, वो बात बहुत झूठी है। बिना तनाव से जीने की आशा में आप बस इतना कर देते हो कि तनाव को छुपा ले जाते हो। तनाव को अपने ही अचेतन मन में दफन कर देते हो। पर वो लाश उठेगी, वो भूत घूमेंगे भीतर-ही-भीतर। इंसान पैदा हुए हो और इंसान पैदा होने का दंड है तनाव झेलना।
हाँ, तुम इतना जरूर कर सकते हो कि सही तनाव झेलो और ज़रा पुरुषार्थ के साथ झेलो। इंसान पैदा होकर भी कोई अगर माँगे कि मुझे साहब ज़िन्दगी में ज़रा भी तनाव न रहे, तो वो फिज़ूल और अनअधिकारी माँग कर रहा है। तुम ऐसा माँग रहे हो जो असम्भव है कि तनाव न मिले।
तो पहली बात — सही तनाव झेलो, व्यर्थ चीज़ों की माँग ही मत करो तो तनाव नहीं आएगा, तनाव तो हमेशा संघर्ष से आता है न? जब एक चीज चाहिए और वो मिल नहीं रही है तब तनाव होता है। व्यर्थ चीजें माँगो ही मत तो उस तरह के तनावों से बच जाओगे, लेकिन जो तुम सार्थक भी माँगोगे वो मिलने का नहीं आसानी से, तनाव उसमें भी होगा। उस तनाव को तो झेलो, उससे गुजरो, उसको जीतो।
समझ में आ रही है बात?
जब हम कहते हैं कि तनाव मत लो, तो हम वास्तव में कह रहे हैं, बेकार का तनाव मत लो। बेकार की बातों पर झंझट करने से, लड़ाई- झगड़े से कोई फ़ायदा नहीं, उन तनावों को दूर रखो। लेकिन ज़िन्दगी में सही तनाव का चयन भी करना पड़ता है। कोई नहीं हुआ है आज तक महापुरुष, जो घोर आन्तरिक द्वन्द्व और संघर्ष से न गुज़रा हो। ऐसे तनावों से गुज़रे हैं वो, जिन्होंने उन्हें अन्दर से फाड़ दिया है बिलकुल, मार ही दिया है अन्दर से। फिर पुनर्जन्म होता है, आंतरिक पुनर्जन्म।
लेकिन मुझे गलत मत समझना मैं वकालत नहीं कर रहा हूँ व्यर्थ के तनाव को आमंत्रित करने की। जब मैं कह रहा हूँ, ‘तनाव झेलो।‘ उसके साथ मैं ये भी कह रहा हूँ, ‘सिर्फ़ सही दिशा में तनाव झेलो, सिर्फ सही मुद्दे पर तनाव झेलो। बेकार की छोटी-मोटी चीज़ों पर उपेक्षा का भाव रखो।‘
समोसा मैं खाऊँगा कि समोसा तू खाएगा, तू ही खाले, इस बात पर कौन तनाव ले? ले खा ले समोसा। तो ये स्पष्ट होना चाहिए कि कौन सी चीज़ों की उपेक्षा कर देनी है और कौन सी चीज़ों पर डट जाना है? डिग जाना है? कि इस मुद्दे पर तो कोई समझौता नहीं होगा। समोसा-कचौड़ी, ले जा, नहीं चाहिए, मतलब चाहिए था, पर अब तू माँग रहा है तो ले जा। (मुस्कुराते हुए)
प्र: भगवानश्री, मैं अपना अवलोकन देख रहा था, तो मेरा भ्रम था कि आध्यात्मिक होना, मतलब तनावरहित होना या किसी तरह का कोई तनाव नहीं लेना है। जैसे कोई काम से सम्बन्धित आधिकारिक वीडियो बैठक आ गयी तो परेशान हो जाना है या कोई काम से सम्बन्धित तनाव आ गया, अरे! ये क्या है, ‘मैं तनाव नहीं लेना चाहता हूँ। तो इससे दिखा कि सही तनाव लेना है और असम्बन्धित की उपेक्षा करनी है। तो सही तनाव तो वही हुआ कि जो मेरे अहम् को काटे।
आचार्य: बहुत बढ़िया! बहुत बढ़िया! और उसमें तनाव आता है। आप ये नहीं चाह सकते कि स्वयं को काट भी दें और कोई दर्द, तनाव, ये सब भी न हो, ये तो होगा। यही तो परीक्षा है, यही तो साधना है। करेंगे सिरदर्द होगा, सबकुछ होगा। दुर्गति हो जानी है, लेकिन उसके बाद भी लगे रहना है, डटे रहना है।
बस ये निश्चित कर लेना है कि ये जो आप लड़ाई कर रहे हो वो अहंकार को घटाने के लिए है, बढ़ाने के लिए नहीं। ज़्यादातर जो हम तनाव झेलते हैं, वो अहंकार को बढ़ाने के लिए होता है, घटाने के लिए नहीं।
प्र: अभी बीच-बीच में और जैसा आता है अन्दर से ही जैसे कि इस तरह का वर्क (काम) है कि पॉलिटिकल इंटरवेंशन (राजनैतिक हस्तक्षेप) ज़्यादा आता है, तो ये होता है अन्दर से टेंडेंसी (झुकाव) उठती है कि भिड़ जाओ। जबकि वो यूज़लेस (बेकार) है, वो दिखता है कि अहंकार को ये फँसेंगे, तो अभी तक तो रोके हुए थे कि उपेक्षा, तो इससे क्लैरिटी (स्पष्टता) मिली।
एक आचार्य जी आपने अभी ये जो बोला डीप स्लीप(गहरी नींद) में अहम् प्योर (शुद्ध) अहम् वृत्ति रही और ड्रीम (सपनों) से टेंडेंसी (झुकाव) पता चलेगी वो ड्रीम में जो कुछ आ रहा है उससे हमें पता लगेगा कि मेरे सबकॉन्सियस (अचेतन) में क्या है जो चैतन्य में नहीं है?
आचार्य जी, आपने बोला, ‘गहरी नींद में शुद्ध अहम् वृत्ति रहती है और सपनों से प्रवृत्ति पता चलेगी। और वो ड्रीम में जो कुछ आ रहा है, उससे हमें पता लगेगा कि अचेतन में क्या है, जो चैतन्य में नहीं है?’
आचार्य: चैतन्य में आता है पर वो बाद में आता है।
प्र: अगर सपना नहीं आ रहा है, जैसे कम आते हैं, तो इसका मतलब है कि मैं पकड़ नहीं पा रहा हूँ या है नहीं?
आचार्य: नहीं, सिर्फ़ सपने ही तरीका नहीं होते हैं अचेतन मन को पकड़ने का। वास्तव में अगर आप की दृष्टि पैनी है, तो अपने कर्मों और विचारों को देखकर के भी वृत्तियों का पता चल जाता है।
सपनों का अवलोकन करो — ये बात सिद्धान्त या खोज तो मुश्किल से अभी सौ-सवा सौ साल पुरानी है। पहले ऐसा नहीं कहा गया था कि सपनों का ही आपको अवलोकन करना है। सीधी-सी बात थी कि चल क्या रहा है दुनिया में और उसके प्रति हमारा सम्बन्ध और हमारी प्रतिक्रिया क्या रहती है इसी को देख लो तो वृत्तियाँ पता चल जाएँगी।
जिसको सपने आते हों, वो सपनों को देख ले, जिसको सपने नहीं आते, वो अपनी हरकतों को देख ले, पता तो दोनों तरीकों से चल जाएगा।
मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूँगा, ‘क्यों इतनी मेहनत करनी है सपने-वपने याद रखने की? याददाश्त धोखा देती है।‘ सपने, पहली बात तो आयें — ज़रूरी नहीं — फिर आयें तो याद रह आयें, जरूरी नहीं। फिर जो याद रह गया वो वही हो, जो आया था सपने में, ये जरूरी नहीं। सपने में न जाने क्या आया था और आपको याद न जाने क्या रह गया, आप विश्लेषण क्या कर बैठेंगे फिर?
उससे कहीं बेहतर है कि ये सब जो अपना काम चल रहा है रोज़ाना का, उसी में अपनी प्रतिक्रियाओं को देख लें, अपने रुझानों को देख लें, अपने डरों को देख लें — यही जो हमारा सब हिसाब रहता है — उससे सब राज़ खुल जाते हैं।
बस ये अपने भीतर भाव मत रखिएगा कि मुझे पता है कि मैं कुछ क्यों कर रहा हूँ। कुछ सोचें तो ये मत देखिए कि मैंने ऐसा सोचा, ये पूछा करिए, ‘अच्छा, मैं पचास चीज़ें और भी तो सोच सकता था, मैंने यही बात क्यों सोची?’ ऐसे फ़िर वृत्ति पकड़ में आती है। ‘यही विचार क्यों आया?
ये सब नहीं कि विचार क्यों आ रहे हैं, विचार आने ही नहीं चाहिए, वो आ रहे हैं तो आ रहे हैं। ये पूछिए, मेरा इसी विचार पर इतना क्यों दिल आया हुआ है? तब पता चलेगा कि हम कौन हैं। नहीं?
पचास चीज़ें उपलब्ध थीं, एक पर मन आ गया। अब उन चीज़ों की बात करें या अपने बारे में कुछ पता चला अभी-अभी? अपना पता चला न। अपना माने किसका? अहम् का, वृत्ति का, आत्मा का नहीं।