प्रश्नकर्ता: क्या सभी के सामने झुक जाने से हमारा अहंकार कटता है?
आचार्य प्रशांत: क्यों झुकोगे सभी के सामने? और सभी के सामने तो तुम झुकते भी नहीं। जब कह रहे हो, 'सभी के सामने’, तो दस, बीस, चालीस, दो-सौ, पाँच-सौ लोगों की बात कर रहे होगे। सभी माने इस दुनिया के आठ-सौ करोड़ लोग तो नहीं।
ये जो लोग बहुत झुकाऊ वृत्ति के होते हैं कि जहाँ देखा वहीं झुक गये, ये झुकते भी क्यों हैं? क्यों झुकते हैं? या तो डर होता है या लालच होता है। या तो डर होता है कि झुकेंगे नहीं तो पिटेंगे या लालच होता है कि झुकेंगे तो कुछ पा जाएँगे, या पुरानी आदत होती है झुकने की। इसी का नाम तो अहम् है।
अहम् का सम्बन्ध घमण्ड इत्यादि से बहुत ज़्यादा नहीं है। अहम् का सम्बन्ध भीतर जो ‘मैं’ बैठा हुआ है, उससे है। वो लचीला हो तो भी अहम् है, वो अकड़ू हो तो भी अहम् है, वो निर्भयता दिखाये, गरजे, तो भी अहम् है; वो चू-चू करे और सिकुड़ जाए तो भी अहम् है। ये कहना कि नहीं, जो सिर्फ़ घमण्डी है, गर्वीला, वही अहंकारी है — ये बहुत बचपने की बात है।
कड़वा कोई बोलता हो तो कह देते हो अहंकारी है। उतनी ही सम्भावना है, बल्कि कभी-कभी ज़्यादा सम्भावना है कि जो मीठा बोलता हो वो महा-अहंकारी हो। पर चूँकि हमने अहंकार को लेकर भी एक अविकसित धारणा बना रखी है, तो इसीलिए मीठा बोलने वाले को हम सोच लेते हैं कि ये तो निरहंकारी है।
कोई कह दे, ‘मैं बहुत बड़ा हूँ’ तो तत्काल कह दोगे, ‘देखो, इसका अहंकार बोल रहा है’। और कोई बोले, ‘नहीं, नहीं, मैं तो कण बराबर हूँ, पैरों की धूल हूँ‘ तो कहोगे, ‘ये आदमी अहंकार से मुक्त लगता है।‘ नहीं, इसमें भी बराबर का अहंकार है, बल्कि इसका ज़्यादा ख़तरनाक अहंकार है।
प्र: अपने जीवन में केवल सच वाले काम करना और झूठे कामों का विरोध करना, क्या यही सच की ओर आगे बढ़ने का रास्ता है?
आचार्य: सत्य वाले कोई काम नहीं होते।
जीव पैदा हुआ है झूठ में, जीव की हस्ती ही सबसे केन्द्रीय और सबसे बड़ा झूठ है।
तुम जीवन भर झूठ के तल पर ही सक्रिय रहोगे। यहाँ सच वाला कोई काम नहीं होता। हाँ, झूठ के तल पर तुम दो तरह के काम कर सकते हो — एक वो जो झूठ को और सघन करे और दूसरे वो जो झूठ को काटे। लेकिन दोनों ही हालातों में वास्ता तुम्हारा झूठ से ही पड़ना है। तुम और बेड़ियाँ पहनो चाहे तुम और बेड़ियाँ काटो, दोनों ही हालात में तुम्हारा ताल्लुक किससे पड़ रहा है? बेड़ियों से ही तो पड़ रहा है न। तो जीवन भर तुम्हारा वास्ता बेड़ियों से ही पड़ना है, बस ये देख लो कि बेड़ियाँ पहननी हैं या काटनी हैं। सच वाला काम कोई नहीं है, काम सारे झूठ के ही तल पर होने हैं।
ऐसे समझ लो कि संसार इस कमरे जैसा है, संसार इस कक्ष जैसा है। तुम्हें इसी के भीतर जीवन भर गति करनी है। चलना तो यहीं पर है। इसी से उठे हो, यहीं पर फ़ना होना है। अब गति करने का एक तरीक़ा ये हो सकता है कि नशे में चल रहे हैं, इधर-उधर दीवार पर सिर मार रहे हैं, लड़खड़ा रहे हैं, गिर रहे हैं, चोटिल हो रहे हैं, ख़ून बहा रहे हैं। और एक तरीक़ा ये हो सकता है कि होश में धीरे-धीरे दरवाज़े की ओर बढ़ रहे हैं। अब जो कमरे के ही भीतर नशे में बार-बार लड़खड़ा के गिर रहा है, वो भी गति कर कहाँ रहा है? कमरे के भीतर। और जो दरवाज़े की तरफ़ जा रहा है, वो भी गति कर कहाँ रहा है? कमरे के भीतर। तो जो कुछ भी करोगे वो होगा तो झूठ के कमरे में ही, पर झूठ के कमरे में दो तरह के कर्म कर सकते हो तुम — एक तो ये कि झूठ में ही लिप्त रहो और दूसरा ये कि धीरे-धीरे दरवाज़े की ओर बढ़ते रहो। लेकिन जो करोगे, करोगे तो झूठ में रहकर ही।
ये मत कर लेना कि हो कमरे के भीतर और अपनेआप को दिलासा दे दी कि मैं तो अब आसमान वाले काम कर रहा हूँ। ये कमरा है भाई! यहाँ तुमने आसमान कहाँ से पा लिया। ऐसे बहुत होते हैं जो कमरे के ही भीतर आसन मारकर बैठ जाते हैं और कहते हैं, ‘आसमान!’ उनको सज़ा ये मिलती है कि वो कभी बाहर नहीं जा पायेंगे।
साधक में एक अधैर्य होना ज़रुरी है। अपनी स्थिति के प्रति विरोध होना ज़रुरी है।
वो स्थिति बहुत बाद में आती है जब तृप्त हो जाते हो बिलकुल। वो बहुत आगे की बात है। हज़ार में से नौ-सौ-निन्यानवे लोग उस जगह पर पहुँचे ही नहीं होते हैं कि वो कहें कि हम तो तृप्त हो गये। नौ-सौ-निन्यानवे लोगों को चाहिए अतृप्ति, ताकि वो बढ़ें दरवाज़े की ओर।
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