अंतिम लक्ष्य कौन सा? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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अंतिम लक्ष्य कौन सा? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

श्रोता: सर, जैसे कि माँ हमसे कहती हैं कि तुम्हारे कारण हम अपनी इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाए| सर, तो उनकी इच्छा तो यही थी ना कि हम ‘इंजीनियरिंग कॉलेज’ में पढ़ें; तो वो ऐसा क्यों कहती हैं कि हमारे कारण वो अपनी इच्छाएँ नहीं पूरी कर पाए?

वक्ता: बेटा, इच्छाएँ किसी की पूरी नहीं होती हैं| लेकिन हम इतने समझदार भी नहीं होते और इतने ईमानदार भी नहीं होते कि इस सार्वभौम सत्य को देख पाएँ कि इच्छाएँ किसी की पूरी नहीं हुईं| हमे लगता है हमारी इच्छाएँ पूरी हो सकती थी, किसी कारणवश पूरी नहीं‍‌ हो पायी, कुछ संयोग लग गया, कोई भांजी मार गया, किसी ने अड़ंगा लगा दिया नहीं तो मेरी इच्छाएँ तो पूरी हो ही जाती| “वो तो मुझे राजकुमार मिल ही जाता, पिता जी ने तुम्हारे साथ फंसा दिया|”

हमें फिर कोई चाहिए होता है जिसके सर पर हम अपना सारा कचड़ा डाल दें| किसी ना किसी पर तो आरोप लगाना है ना| ये कैसे मानें कि इच्छाओं का तो स्वभाव ही अपूर्णता है, इच्छा कब किसकी पूरी होती है? इच्छा में फँसना ही पहली बेवकूफी है| इच्छा में फँसना मतलब दुःख को न्योता और फिर जब दुःख होता है तो उस दुःख का ठीकरा हम किसी और के सर फोड़ते हैं|

बात एक व्यक्ति की नहीं है, पूरी दुनिया में ऐसा ही होता है बेटा| बच्चे पैदा ही क्यों होते हैं? माँ-बाप की कामना से| और फिर माँ-बाप कहते हैं, “तुम्हरे कारण हमारी कामना नहीं पूरी हुई|” तुम्हारी कामना न पूरी हो रही होती तो हम आते कहाँ से? आसमान से टपकते? तुम्हारी कामना का साक्षात प्रमाण तो हम हैं और फिर तुम हमसे कह रहे हो कि तुम्हारे कारण हमारी कामना नही पूरी हुई|

पहले तो तुम हमे जवाब दो? हमे लेने काहे को आए? हमसे पूछा था? कामनाएँ तुम्हारी, अब अस्सी साल तक ढोना हमको है| और ये काम अभिवावक अपने बच्चो के साथ करते हैं, बच्चे अपने बच्चो के साथ करते हैं – श्रंखला चलती रहती है| सब अपनी अधूरी इच्छाएँ, अपनी अगली पीढ़ी पर लाद देते हैं| जैसे कि बच्चे ने ठेका लिया हो तुम्हारी इच्छाएँ पूरी करने का|

वो जब पैदा हुआ था तो तुमने क्या उससे ‘कॉन्ट्रैक्ट’ लिया था कि हम तुझे जन्म दे रहे हैं, अब तुझे ये-ये करना पड़ेगा हमारे लिए| जैसे “मैं क्लर्क रह गया, बेटा कलक्टर बने|” मैंने पाँच बार कोशिश करी, मैं फलानि परीक्षा पास नहीं कर पाया अब बेटा पास करे|” होता है कि नहीं होता है? “हमारी सारी अधूरी ख्वाईशें बेटा पूरी करेगा|”

क्यों भाई? कुछ समझा तो दो कि ये क्या कह रहे हो? और फिर हमारी अधूरी ख्वाईशें कौन पूरी करेगा, तुम? “नही उसके लिए तुम तीन और पैदा करना, वो हैं”| तो चक्र चलता रहे इसीलिए पैदा किये जाते हैं| “बेटा हमारे तो कभी ५०% से ज्यादा आए नहीं पर तेरे ९८% से नीचे नहीं आने चाहिए|”भाई तुम्हे लाने थे तुम ले आते, तुम्हे ९८ से इतना प्यार है तो खुद ले आये होते, हमे नहीं है प्यार ९८ से| हमारे सर काहे बोझ दे रहे हो|” “बेटा सरकारी नौकरी सबसे अच्छी होती है हमे नहीं मिली, अरे आपको लगती थी अच्छी हमें नहीं लगती|”

अपनी अतृप्त वासनाएँ हम पर क्यों आरोपित कर रहे हैं? अपनी अपूर्ण इच्छाएँ हमारे ऊपर क्यों थोप रहे हैं और आप देख नहीं पा रहे हैं कि फिर यही तो संसार का चक्र बन जाना है| आपकी इच्छाएँ हमारे ऊपर, हमारी इच्छाएँ अगली पीढ़ी के ऊपर और आगे आगे आगे आगे आगे और चल रहा है खेल|

असली अभिवावक हो पाना, असली माँ-बाप हो पाना उतना ही मुश्किल है जितना असली औलाद हो पाना| बहुत कम बेटे-बेटियाँ होते हैं जो असली बेटे-बेटियाँ होते हैं और बहुत कम माँ-बाप होते हैं जो कि असली माँ-बाप होते हैं|

श्रोता: सर, असली का मतलब?

वक्ता: बेटा असली मतलब का मतलब ये हुआ कि शरीर से तो कोई भी माँ-बाप जन्म दे सकते हैं और शरीर से तो कोई भी बेटा-बेटी पैदा, उत्पन्न हो सकते हैं| उतना भर काफी नहीं होता, उससे आगे जाना पड़ता है असली कहलाने के लिए|

असली का अर्थ होता है कि तुमने सिर्फ एक शरीर को ही जन्म नहीं दिया है, तुमने एक स्वस्थ मन को जन्म दिया है पर अभिभावकों का पूरा ख़याल शरीर तक ही सीमित रह जाता है|

आज ही था, हम सुबह-सुबह जब जा रहे थे घाट की तरफ, तो माँँएं सबह-सुबह की धूप में छोटे बच्चो को लेटा कर के उनको तेल मल रहीं थीं| अच्छी बात है शरीर भी स्वस्थ होना चाहिए| वो पहली बात है लकिन माँएं शरीर तक रुक जाती हैं, उनके लिए इतना काफी है कि बच्चा हृस्ट-पुष्ट है| खा लिया? हाँ| कोई बीमारी तो नही है? नही| वजन बढ़िया? हाँ, वजन बढ़िया| नहा लिया? हाँ नहा लिया| कपड़े ठीक हैं? हाँ|

शरीर सम्बंधित जितने भी काम हैं वहाँ तक जा के माँएं रुक जाती हैं| मन और आत्मा की कोई खबर ही नहीं लेती हैं क्योंकि उन्हें खुद ही नहीं पता| असली माँ वो है जो शरीर पर रुक न जाए| जो ये भी देखे कि बच्चा मानषिक रूप से पूर्णत: आत्मनिर्भर और स्वस्थ है या नहीं है| फिर वो माँ-बाप मात्र माँ-बाप नहीं रह जाते वो फिर गुरु भी हो जाते हैं| उनको मैं कहता हूँ असली माँ-बाप|

इसी तरीके से असली बेटा-बेटी कौन हुए? असली बेटा-बेटी वो हुए जो जीवन भर बेटा-बेटी ही न रह जाएँ| स्वस्थ मन को लेकर के, जल्दी परिपक्व हो कर के माँ-बाप के दोस्त बन जाएँ| ये नहीं कि तुम चालीस साल के हो गए और अभी भी बच्चे ही बने हुए हो| पिता जी से डाँट खा रहे हो, छोटी-छोटी बातों के लिए अभी भी पिता जी पे निर्भर हो| असली बेटा वो जो १४ का या १६ का १८ का होते-होते बाप का दोस्त बन जाए| कहावत भी है कि जब बाप का जूता बेटे के पाँव में आने लगे तो दोस्त हो जाने चाहिए पर दोस्त हो नहीं पाते| वो सम्बन्ध हमेशा शरीर मात्र का रह जाता है| मन से मन का, आत्मा से आत्मा का नहीं हो पाता|

बात समझ रहे हो ना? अब एक असली माँ होने के लिए पहले तुम्हे एक असली इंसान होना पड़ेगा| समझ रहे हो? जब तुम्हे ज़िंदगी में कुछ नहीं पता तो तुम्हें यही कैसे पता होगा कि बच्चे का पोषण कैसे करना है| तुम जिंदगी में हर क्षेत्र में अज्ञानी हो तो मातृत्व के जीवन में ही तुम कैसे बोधपूर्ण हो जाओगी| जब तुमनें जीवन में कुछ नहीं जाना तो मन और आत्मा के बारे में क्या जानोगी|

तुम्हारे लिए बच्चा माँस रहेगा, शरीर| “खा लिया है ना?” हाँ खा लिया है, ठीक| वजन ठीक है? हाँ वजन ठीक है| उसके मन में बीमारियाँ आती रहेंगी, तुम्हे पता भी नहीं चलेगा|

श्रोता२: सर, बच्चे का मन बीमार है कैसे पता चलेगा?

वक्ता: बेटा, जैसे किसी भी इंसान का पता चलता है वैसे ही बच्चे का भी पता चलेगा| छोटा सा बच्चा है, बात-बात में झूठ बोलता है, बात-बात में लड़ाई करता है, उस छोटे बच्चे का कोई और रिश्ते में समकक्ष बच्चा आता है उसे उससे इर्ष्या हो जाती है, बच्चा है छोटा वो दिन-रात घर में बैठ कर के टेलिविज़न देखता है, बच्चा है छोटा उसे कोई चीज बाँटनें को कह दो तो बाँट नही पाता है, बच्चा है छोटा वो जानवरों के प्रति हिंसक रहता है|

ये सब स्पष्ट प्रमाण हैं कि मन बीमार है पर ये तो छोड़ ही दो कि अभिवावक इन बीमारियों को दूर कर पाएँ, अक्सर ये होता है कि ये बीमारियाँ आती ही अभिवावकों से है| बच्चा ये सारी बीमारियाँ ग्रहण ही घर से करता है| बाहर से भी करता है, स्कूल से भी करता है, मौहले से भी करता है, पर अक्सर घर से करता है| ये सब चुटकुले तो तुम जानते हो ना कि शर्मा जी वर्मा जी के यहाँ आते हैं| वर्मा जी को छुपना है तो जा के छोटे से कहते हैं कि कह देना पापा घर पर नहीं है तो वो जा के बोल आता है कि पापा कह रहे हैं कि पापा घर पर नही हैं| (सब हँसते हैं) और फिर वो पिटता है|

(सब ज़ोर से हँसते हैं)

ये सब यही तो है| अब माँ दिन-रात घर पर बैठ कर के घटिया धारावाहिक देख रही है| बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ रहा है – बच्चे के कान में भी तो आवाज जा ही रही है ना| माँ दिन-रात बैठ करके रिश्तेदारों की, पड़ोसियों की लड़ाई बुझाई करती हैं, “इसने ये कर दिया, उसने वो कर दिया, इसका ऐसा है, उसका वैसे है” तो बच्चा सुन नही रहा है? बच्चे के मन पर क्या प्रभाव जा रहा है? माँ-बाप की दिन-रात खट -पट होती है कि तुमनें कहा था इस दिवाली पेपर दिला दोगे इसपे भी नही दिलाया| वो कह रहा है, “दिला तो दिया”, वो कह रही है, “पर ये तो बहुत हल्का है; भारी वाला ले के आते, कुंदन का चाहिए|” और बच्चा सुन नही रहा है ये सब?

अस्वस्थ अभिवावकों से स्वस्थ बच्चा कैसे आएगा? मैं फिर कह रहा हूँ ‘असली माँ-बाप वो जो शारीरिक रूप से जन्म दें और फिर मानसिक रूप से भी जन्म दे पाएँ| तब असली माँ-बाप हुए, वो कम होते हैं|

श्रोत३: सर, जैसे आपने कहा असली बेटा-बेटी वो, जो अपने माँ-बाप के दोस्त बन के रहें पर हमे ऐसा माॅहौल दिया ही कहाँ जाता है| एक ‘लिमिट’ लगा दी जाती है कि आप हमारी बेटी हो| तो सर कैसे उनको दोस्त बनाएँ?

वक्ता: बेटा तुम किसी ऐसे व्यक्ति के भी तो दोस्त हो सकते हो ना जो तुम्हारी दोस्ती की कद्र न करता हो, बस| उनकी नजरों में तुम अभी छोटे हो और नासमझ हो और किसी काबिल नहीं हो पर अपनी नजरों में तो तुम उनके दोस्त हो सकते हो ना, भले वो तुम्हारी दोस्ती की कद्र न करें| तुम्हे तो प्रेम हो सकता है ना या नही हो सकता? या तुम ये कहोगे कि जब तक तू मुझे प्यार नहीं करता मैं भी तुझे प्यार नहीं कर सकती|

असली प्रेम तो हमेशा एक तरफा होता है|

वो नहीं देख पा रहे कुछ बातें तो भी तुम्हें किसने रोका है उन बातों को समझने से, अगर तुम समझते हो तो धीरे-धीरे उनको भी समझाओगे| प्रेम का तो यही अर्थ होता है ना कि हमने जाना है तो तुम तक भी लाएँगे| प्रेम का ये अर्थ तो नहीं होता कि तुम अँधेरे में पड़े हो और हम तुमको अँधेरे में पड़ा रहने देंगे| ये तो नही बोलते ना प्रेम में कि कहीं तुम्हारी भावनाएँ न आहात हो जाएँ|

पापा से ऐसा बोल दिया तो पापा बुरा मान जाएँगे तो हम पापा से बोलेंगे ही नहीं| अरे भाई! अगर बात सच्ची है और जरुरी है तो उसे कहा जाना चाहिए, ज़रूर कहिये| हाँ, चोट पहुँचा कर मत कहिये, हिंसात्मक तरीके से मत कहिये| उचित तरीके से कहिये, मीठी वाणी से कहिये, पर कहिये जरुर| सच छुपाने के लिए नहीं होता|

श्रोता३: सर, कई बार होता है कि बात समझाते समय बिलकुल ऐसा हो जाता है माँ और बेटी बात कर रहे हैं और कभी-कभी ऐसा होता है कि मान बोलती है, “नहीं चुप रहो ज्यादा होशियार मत बनो, जो हम कह रहे हैं वही सही है|” तो ऐसे में क्या करें?

वक्ता: तो तुम्हे अगर प्यार है तो क्या करोगी? माँ से बात कर रही हो और ऐसी स्थिति आ जाती है| तुम्हे माँ से प्यार है तो तुम क्या करोगी?

श्रोता३ : हम चुप-चाप चले जाएँगे|

वक्ता: और फिर आओगी लौट के|

श्रोता ३: जी|

वक्ता : और फिर आओगी लौट के, आती रहो (हँसते हुए)| तब तक आओ जब तक समझ न जाएँ|

श्रोता३ : सर पर ये बार-बार होता है|

वक्ता: बार-बार होगा| बेटा देखो चलते-चलते तो पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं| माँ का दिल पत्थर से ज्यादा शख्त है? जब दिखाई देगा कि बेटी बार-बार आ रही है, कुछ कहना चाह रही है, कुछ समझाना चाह रही है, तो एक दिन ध्यान देंगी| कहेंगी “कुछ ना कुछ होगा ज़रूर, मैं बार- बार भगाती हूँ, अपमान करती हूँ, अपमान सह-सह के भी वापस क्यों आती है? कुछ बात तो जरुर होगी”

इसमें माँ को जो बात समझ आती है वो आती ही है तुम्हारा अपना विकास बहुत हो जाएगा|

श्रोता४ : सर पर माँ बहुत गुस्सा हो जाती हैं|

वक्ता: बेटा, समझाने के तरीके होते हैं|

श्रोत४ : सर पर वो मानती ही नहीं हैं और गुस्सा होती रहती हैं|

वक्ता: और माँ गुस्सा हो जाए और तुम्हे प्रेम है तो तुम क्या करोगे? मनाओगे? मना लो| गुस्सा ही तो हैं, मार तो नहीं रही हैं ना तुम्हें या हमला कर देती है हथियार लेकर (सब हँसते हैं) कि आज तो क़त्ल है? ऐसा तो नहीं करती माँ या ऐसा भी करती हैं? माँ गुस्सा हो गई मना लो और जब मान जाए तो फिर गुस्सा करवा दो (हँसते हुए) फिर मना लो| एक दिन पूरे ही तरीके से मान जाएँगी|

और जब तक वो दिन आएगा ना तब तक तुम और परिपक्व हो जाओगे| समझो बात को, माँ को मनाने में, इस पूरी प्रक्रिया में तुम्हारा अपना विकास बहुत हो जाएगा| माँ का हो न हो तुम्हारा होना पक्का है| इतना संयम आ जाएगा तुममे, इतनी ताकत आ जाएगी तुम में कि देखना|

श्रोता३ : सर, पहले ऐसा था कि अपने घर वालो पर बहुत ‘निर्भर’ थी तो धीरे-धीरे वो ‘निर्भरता’ घटने लगी अपने आप घटने लगी तो उन्हें इससे भी दिक्कत है कि ये इतनी जल्दी ‘परिपक्व’ क्यों हो रही है|

वक्ता: बेटा, ये सब बातें तुम जब उनके बार में बोल रही हो तो ये याद रखना कि इतना बेतुका तो कोई नहीं होता| अगर उन्हें तुम्हारे ऊपर यकीन नहीं होता कि तुम कोई भी ढंग का काम नहीं कर सकते तो इसकी वजह भी उनको तुमनें ही दी होंगी| जरा अपने अतीत को याद करो, तुमनें आज तक कोई भी ढंग का काम करा है? तुम जो भी करते हो वही उल्टा-पुल्टा, यही हुआ है कि नहीं, ध्यान दो| छोटे से छोटा काम तुम करने निकलते थे, तुम बिगाड़ देते थे और फिर चिल्लाते थे, “पापा मदद करो, पापा मदद करो|” अब उनको अचानक कैसे विशवास हो जाए कि तुम बड़े काबिल हो गये हो|

श्रोता३: सर, पर अगर ये ‘तरीका’ काफी समय से चलता आ रहा है तो, और उनको रिज़ल्ट मिल जाए?

वक्ता: फिर वो समझ जाएँगे| भाई कोई बाप ये थोड़ी चाहेगा कि उसकी बेटी हमेशा उस पर निर्भर ही बनी रहे| ये बाप को अच्छा लगेगा कि उसका बोझ हमेशा मेरे ऊपर ही बना रहे? तू चल तो सकती नहीं, आ बैठ जा मेरे कंधे पर| कोई नहीं चाहता भाई, अंततः वो भी चाहते हैं कि तुम अपने हिसाब-किताब से जियो अपनी जिंदगी, हमे मुक्त करो|

सुना होगा ये बात माँ-बाप को बोलते हुए कि दो लड़के थे वो इधर लग गये, दो लड़कियाँ थीं वो उधर लग गयी तो अब हम मुक्त हो गये| माँ-बाप भी चाहते हैं कि तुम अपने हिसाब से अपना जीवन देखने लगो पर पहले उनको यकीन तो आना चाहिए कि तुम इस काबिल हो कि अपने हिसाब से अपना जीवन देख पाओगे|

यकीन आए उसके लिए तुम्हें उन्हें प्रमाण देना पड़ेगा| तुमनें कभी प्रमाण दिया है आज तक? तुमनें उलटे प्रमाण जरुर दिए हैं| जैसे, मम्मी ने दस रूपये दिए कि जाओ धनिया खरीद कर ले आओ और हम उसकी ‘सिगरेट’ फूँक के आ जातें हैं| ये किया है कि नही बोलो? इससे मिलते-जुलते काम हुए हैं कि नही? अब जब तुम ये काम करते हो तो वो तुम्हे हजार रुपये कैसे दें दे?

दस रपये कि तो तुम ‘सिगरेट’ फूंक देते हो और कहते हो कि माँ-बाप हमे हजार रूपये नही देते हैं| हमने माँगे माँ-बाप ने दिए नही| दस की ‘सिगरेट’ पीते हो हज़ार की ‘कोकेन’ पियोगे| माँ-बाप पागल हुए हैं जो तुम्हे पैसे दे? बोलो? अभी कल शाम को अंशुमन जी से चर्चा हो रही थी तो वो बता रहे थे कि जो समाज कल्याण से पैंसे आते हैं या ‘माइनॉरिटी फण्ड’ के किसी के वो सीधे विद्यार्थी के खाते में आतें हैं| ऐसा होता है?

श्रोता: हाँ|

वक्ता: तो बोले अभी-अभी एक ‘केस’ हुआ है| ए.टी.एम कार्ड बैंक का विद्यार्थी के पास और मोबाइल नंबर नेट बैंकिंग में पंजीकृत रहते हैं| तो जैसे ही बैंक में एक भी रुपया आया तो मैसेज आ जाता है कि आपके खाते में इतना पैसा आ गया है| वो बोले “वहाँ सरकार ने इनके खाते में पैसा डलवाया कि जाके कॉलेज की फीस जमा करो|

साहब गये फटा-फट और सारा पैसा निकल के अपनी जेब में डाल लिया| अब कुछ दिनों बाद लिस्ट तैयार हुई कि इतने लोगो का पैसा आया है कॉलेज आया कि नहीं आया तो देखा इनका नहीं आया है| तो माँ-बाप से पूछ-ताछ हुई तो माँ-बाप ने कहा कि ये पैसा तो आया ही नहीं| बैंक में है नहीं और घर पर आया नही|

ये निकाल ले गये थे पैसा उसमे से कुछ खर्च भी कर डाला था| अबी ऐसो पर कौन यकीन करेगा बताओ? और फिर ये कहें कि अब्बू हम पर यकीन नहीं करते| कैसे करें? कैसे करें? और एक नहीं दो तीन और, हिबा तुम्हें जान के ताजुब होगा उनमे से आधे लोग वो हैं जो हमारे साथ कैंप में जा चुके हैं| और उनके कान उमेठे गए तो ला के दे दिया कि हाँ लो हमारे ही पास था| अब बताओ?

तुम एक बात पक्की समझ लो| तुम में अगर परिपक्वता आएगी, तुम आकर काबीलियत दिखाओगे| तो आज नही तो कल माँ-बाप क्या पूरी दुनिया को मानना पड़ेगा कि अब तुम्हे आजादी दी जानी चाहिए| माँ-बाप भी मानेंगे पूरी दुनिया भी मानेगी| शर्त ये है कि पहले तुम में वो ‘ मतुरिटी’ आए तो सही|

तुम में है क्या वो ‘मतुरिटी’? पहले ये सवाल किया करो| ये मत शिकायत किया करो कि माँ बुरी और बाप बुरे है| तुम्हे तो शिकायत करने का हक है नही| पहले ऊँगली अपनी ओर कि हम किस काबिल हैं| मैंने तुमसे दो बातें बोली थी असली माँ-बाप और असली बीटा बेटी| असली माँ-बाप की बात छोड़ो वो पीछे आती हैं| तुम पहले ये देख लो कि तुम असली बेटा- बेटी होने लायक हो? वो ज्याद जरुरी सवाल है|

श्रोता१: सर, जैसे हम मम्मी से कहते हैं ये करना है| हमे अच्छा नहीं लागता वो कहती हैं कि तुम ये कर ही नहीं पाओगे|

वक्ता : क्या पता सही कह रही हों|

श्रोत१: सर जैसे गैस सिलिंडर बुक कराना है| हमने पहले करवाया है अब मेरा मन नही है करवाने का|

वक्ता: रोटी घर पर खाते हो?

श्रोत१: जी सर |

वक्ता: गैस पर बनती है?

श्रोता१: जी|

वक्ता: तो गैस कौन बुक करवाएगा?

श्रोता१: सर, हम कारवा लेते हैं पर घर में और भी लोग हैं करवाने वाले पर फिर भी वो हमको ही क्यों बोलती हैं कि तुम ही करो?

वक्ता: और लोग और काम करते हैं या नही?

श्रोता१: सर, सब लोग फ्री बैठे रहते हैं| (सब हँसते हैं) सर हमारा भाई है बड़ा वो कुछ करता नहीं है घर में बैठा रहता है तो वो हमसे ही क्यों कहती हैं कि तुम पढ़ाई भी करते हो और साथ में ये काम भी करो|

वक्ता: बेटा मेरे पास दो गाड़ियाँ है| एक का मुझे पता है उसे चलाऊँगा तो दस किलोमीटर में बाद उसका कुछ बोल जरुर जाएगा| दूसरी मुझे पता है कि चलती है, बढ़िया है| तो मैं किसका इस्तेमाल ज्यादा करता होऊँगा? तुम बढ़िया वाली गाड़ी हो माँ की, अच्छी बात है|

ये छोटी बातें हैं बेटा इस पर नहीं ध्यान देते|

श्रोत१: नहीं सर वो ऐसे बोलते हैं कि दिल को छू के निकल जाता है, चुभ सा जाता है|

वक्ता: अच्छा चलो एक काम करना इस बात को अगर इतनी ही गंभीरता से ले रहे हो तो ऐसा करना इस बार जब घर जाना, रोज घर जाते हो या छुट्टियों में?

श्रोता१: रोज|

वक्ता: रोज जाते हो ना तो अब जरा किसी दिन मौका देख के जब जरा शांति हो घर में तो माँ को शांति से घर में बिठाना और यही बात उसको कहना, पर प्रेम से शांति से कहना|

श्रोता१: सर, मेरा भाई खुद कुछ करता नहीं है और हमें कहता है कि हम कुछ करते नहीं हैं|

वक्ता: तो क्या करें, मारें भाई को? ले आओ पीटतें हैं मिल के|

श्रोत१: सर हमारा भाई बार-बार हम से कहता है हमने बी.टेक किया है तुम डिप्लोमा करना, ये करो, वो करो, अरे हमे पता है हमे क्या अच्छा लगता है हम अपनी मर्जी से करेंगे, हम उसकी क्यों सुनें?

वक्ता: तुम्हारा भाई कौन सा पचास साल का हो गया है, इक्कीस-बाईस साल का लड़का ही तो होगा ना?

श्रोत१: नहीं सर| (सब हँसते हैं)

वक्ता: बी.टेक ही तो किया है ना या और कुछ भी किया है?

श्रोत१: नहीं सर, ६-७ साल से घर पे खाली बैठा है|

वक्ता : तो तुम्हे उसके साथ संवेदना नहीं है? बजाय ये कहने कि भाई की स्थिति इतनी करुणाजनक है तुम उसकी शिकायत कर रहे हो| सात साल से अगर कोई बेरोजगार है तो तुम उसकी त्रासदी समझते हो?

श्रोत१: सर उसे नौकरी दिलाते हैं तो वो करता नही है|

वक्ता: उसे मजे आते हैं बेरोज़गार रहने में?

श्रोत१ : सर, वो खुद जिंदगी में सफल नहीं है और कहता है कि हम सफल नहीं हो पाएँगे|

वक्ता: देखो, दो बातें ध्यान रखो जिसे अपने ऊपर भरोसा होता है ना उसे दूसरों पर बहुत गुस्सा नहीं आता है क्योंकि उसपर दूसरों की बातों का प्रभाव ही नहीं पड़ता| जिसे अपने ऊपर यकीन है, तुम मुझसे बार-बार कहते रहो सर आप में दम नहीं है कि आप ये मोबाइल फोन उठा सके| वहाँ से चिल्लाते रहो कि आपमें कहाँ दम, दम हो तो उठा के दिखाइए| हम उठा दें| फिर तुम कहो कि दम है तो दुबारा उठा के दिखाइए| हम फिर उठा दें|

तुम बार-बार कहते रहो, “उठाइये उठाइये” और हम एक बार न उठाएँ तो तुम कहोगे दम ही नहीं है| तो मुझे तुम पे गुस्सा आएगा क्या? गुस्सा आएगा?

श्रोता१: नहीं सर, बार-बार कहने पर आ सकता है|

वक्ता: क्यों आएगा भाई? अब ये मुझे ज़बरदस्ती सिद्ध करना चाहता है कि मुझे गुस्सा आएगा| (सब हँसते है) मुझे पता है ना मैं उठा सकता हूँ, मुझे अपने ऊपर यकीन है| जब अपने ऊपर यकीन होता है तो दूसरों पर गुस्सा है| तुम कहते हो यूँ ही बोल रहा है, बोलने दो| क्या फर्क पड़ता है| “मुझे पता है ना, मैं जानता हूँ अपनी काबिलियत, अपना सामर्थ्य| तो अब ये बोले कुछ भी, क्या फर्क पड़ता है|

बल्कि अगर ये बार-बार ऐसा कह रहा है तो तनाव में है| ज़रूर परेशान है, ज़रूर दुखी है| तो फिर उसके पास जाकर के समझाओ, “भाई तू बहुत परेशान है|” जब कोई ऐसा कर रहा है, परेशान है ,इसीलिए तो कर रहा है| तुम्हें दिक्कत इसीलिए होती है क्योंकि तुम्हें अपने ऊपर यकीन ही नहीं है|

जब वो तुमसे कहता है ना कि तुम असफल रह जाओगे तो तुम्हें अपने ऊपर शक हो जाता है, ईमानदारी की बात ये है| क्या पता सही में ठीक ही न बोल रहा हो|कहीं मैं सही में असफल न रह जाऊँ? यही होता है ना?

श्रोता१: जी|

वक्ता: तो तुम्हे गुस्सा इसलिए आता है| तुम अपने भीतर यकीन रखो कि जो होगा देखा जाएगा| हमें नहीं मालूम हम सफल होंगे या असफल, पर जैसे भी होंगे, ठीक हैं| जो वो बोले तुम असफल रह जाओगे, तो बोलो, “हाँ हो सकता है|” वो तुमसे कहे, “बेरोजगार रह जाओगे|” तुम कहो, “हो सकता है, हो सकता है रह ही जाएँ बेरोजगार पर जो भी होगा देखा जाएगा, ठीक है|

जब तुम्हें अपने ऊपर यकीन होगा ना ठीक है, सब सही है, कोई फर्क नही पड़ना है| तो फिर भाई के ऊपर गुस्सा नहीं आएगा| अपने भीतर यकीन रखो|

श्रोता१: सर कई बार उसके बोलने से हमे अपने भीतर से लगता है कि क्या वो सही कह रहा है|

वक्ता: हाँ, तो तुम मान लो कि सही कह रहा है, तुम मान लो| देखो जिंदगी में ‘निश्चितता’ तो किसी चीज की नहीं होती| बिलकुल हो सकता है कि तुम बेरोज़गार रह जाओ| तुम कहो, “हो सकता है बेरोजगार रह जाएँ पर कोई बात नहीं देखा जाएगा| दुनिया में इतने लोग बेरोज़गार हैं वो कुछ न कुछ तरीका निकालते हैं, हम भी कुछ न कुछ निकाल ही लेंगे| देखा जाएगा|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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