अंजाम पता नहीं, पर काम में मौज है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

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अंजाम पता नहीं, पर काम में मौज है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम गुरुदेव। गुरुदेव बाहर एक टी-शर्ट रखी हुई थी जिस पर लिखा था, 'पिटते रहो, उठते रहो।' तो ये पिटने में इतना स्वाद क्यों है? और जॉर्ज गुर्डजिएफ़ भी कहते हैं कि अ मैन केन गिव अप एवरीथिंग बट नॉट हिज़ सफरिंग (एक आदमी सबकुछ छोड़ सकता है पर अपनी पीड़ा नहीं छोड़ सकता)। आपको भी कई बार तेज़ बुख़ार में तीन-तीन घंटे प्रवचन देते देखा है। तो ये सुख तो समझ में आता है, दुख से भी इतना स्वाद क्यों?

आचार्य: नहीं, दुख से स्वाद नहीं है। जो तुम कह रहे हो, वो दुख से स्वाद नहीं है, वो संघर्ष से स्वाद है। वो दुख के विरुद्ध संघर्ष का स्वाद है। दुख का स्वाद हो-न-हो, दुख तो हमारी हक़ीक़त है। मज़ा संघर्ष में लेना होता है। एक चीज़ ये है कि दुख है और मैं उसके सामने घुटने टेके बैठा हूँ। घुटने तुमने टेक भी दिये, तो भी दुख है, चला नहीं गया है।

एक स्थिति ये है कि ज़िन्दगी तुम पर चढ़ बैठी है, ज़िन्दगी तुमको तरह-तरह से प्रताड़ित कर रही है और तुम उसके सामने ऐसे बेचारगी में बैठे हुए हो, तो भी दुख तो है। और दूसरी ये कि जो हमारी हालत है उसके विरुद्ध संघर्ष करना है, उस संघर्ष में भी दुख है। तो ये मैं कहा करता हूँ कि इन दोनों दुखों के मध्य जो ऊँचा दुख है उसको चुन लिया करो।

पैदा हुए हो तो पिटोगे तो है ही। सही लड़ाई में पिटना सीखो। जीतने वाली कोई बात नहीं, लड़ाई सही होनी चाहिए।

अंजाम क्या हुआ? हमें नहीं पता। लड़ने में मौज़ आ गयी, क्योंकि लड़ाई सही थी। फ़ालतू लड़ाइयाँ नहीं लड़ी और सही लड़ाई से पीठ नहीं दिखाई, ये बात है। हम बहुत अलग तरह से सोचते हैं। हमारी जो दिमागी चौखट है न, पैराडाइम (आदर्श) भीतरी, वो होता है जीत और हार का। वो कहता है, ‘बी अ विनर (विजेता बनो), जीतो, ये करो, वो करो, तुम जीतोगे, ऐसा-वैसा।‘

हमें यही लगता रहता है। (मुस्कुराते हुए) जिन्होंने ज़िन्दगी को जाना है, उन्होंने हँसकर कहा है कि जीतने का कोई सवाल नहीं, तुम जीतने की आशा बिलकुल छोड़ दो। अगर खुलकर खेलना चाहते हो, तो जीतने की आशा छोड़ दो। एक चीज़ है तुम्हारे हाथ में, वो है सही खेल खेलना। और सही खेल हम अक्सर इसीलिए नहीं खेलते क्योंकि हमें जीतने से बहुत मोह होता है। तो हम छोटी-छोटी लड़ाइयाँ पकड़ते हैं, जिनमें जीतने की थोड़ी ज़्यादा सम्भावना हो।

जो सही लड़ाई है, उससे हम पहले ही डर जाते हैं, एकदम दुबक जाते हैं, क्योंकि उसमें जीतने की सम्भावना एकदम कम दिखाई देती है। और हमें बोला गया है कि काम वो करो जिसमें जीत सको। और सही काम वो है जिसमें जीतने की सम्भावना ही बहुत कम होती है, तो फिर हम सही काम कभी चुनते ही नहीं।

तो मैं कहता हूँ, सही काम चुनो, उसमें जीतोगे तो क्या ही, पिटोगे खूब। पिटते रहो, उठते रहो। फिर पिटो फिर उठो, फिर पिटो फिर उठो। इस उठते रहने में ही जीत है, आख़िरी अंजाम में जीत नहीं है। ये जो पिट-पिटकर भी मैदान नहीं छोड़ा न, इसमें जीत है। इस खेल के नियम दूसरे हैं।

ज़्यादातर खेलों में विजेता का फ़ैसला होता है खेल का अन्त होने के बाद, है न? ठीक है। हॉकी, फ़ुटबॉल उसमें एक घंटे के बाद पता चलता है कि कौन जीता। टेनिस है, उसमें तीन सेट या पाँच सेट के बाद पता चलता है, कौन जीता, है न? ऐसा ही है न?

ज़िन्दगी की लड़ाई में लगातार निर्धारित होता रहता है कि कौन जीता। सही लड़ाई में जो पीठ दिखाकर नहीं भागा, वो जीता। लेकिन पीठ तुम अगले पल भी दिखा सकते हो। तो अभी जीतकर भी अगले पल फिर हार सकते हो। लगातार जीतते रहना है। तो पिटते रहो, उठते रहो। ये एक निरन्तर चलने वाली लड़ाई है जिसमें जीत-हार भी निरन्तर हो रही है। कोई आख़िरी जीत मिलने वाली नहीं, किसी आख़िरी मुक़ाम की प्रतीक्षा में मत रहना।

प्रश्न तुमने कुछ ऐसे पूछा था जैसे कि जो लोग इन बातों को समझते नहीं, वो बड़े सुख में होते हैं। प्रश्न था कि दुख में ऐसा क्या स्वाद है। दुख स्वादिष्ट नहीं है, दुख जीवन है। दुख कोई चुनने की बात नहीं है कि किसी ने सुख चुना, किसी ने दुख चुना। दुख तुम्हारा यथार्थ है। अब तुम्हें चुनना ये है कि उस दुख के साथ करना क्या है। जो दुख के साथ सही रिश्ता रख पाया, वो आनन्दित हो जाता है। आनन्द दुख को ख़त्म करने में नहीं है, क्योंकि दुख तो ख़त्म होने से रहा। आनन्द दुख के साथ एक स्वस्थ सम्बन्ध रखने में है, उसे आनन्द कहते हैं। दुख है, हम मौज में हैं।

उस स्थिति की बात निराली है। वो चीज़ ये लोग नहीं समझेंगे, ये जो हैप्पी-हैप्पी (खुशी-खुशी) घूमते हैं, इन्हें नहीं समझ में आएगी वो बात। वो जो मौज है न, दुख के बीच भी मस्त रहने में, वो असली चीज़ है। और जो दुख के बीच में मस्त नहीं रह सकता, वो कभी मस्त नहीं रह सकता, क्योंकि दुख ख़त्म तो कभी नहीं होगा। तुम्हें अगर मौज चाहिए, आनन्द चाहिए, तो वो तुम्हें दुख के बीचों-बीच ही पानी पड़ेगी। या फिर प्रतीक्षा करते रह जाओ कि एक आएगा ऐसा अन्तिम स्वर्णिम दिन जब दुख नहीं होगा और उस दिन हम कहेंगे कि आओ आज मौज करते हैं, पार्टी करते हैं। वो पार्टी कभी नहीं होने वाली।

एक होता है मज़ा काम करने का और एक होता है मज़ा तब काम करने का जब काम करना बहुत मुश्किल है। अगर असली इंसान हो तो ज़्यादा मज़ा तुम्हें तभी आएगा जब काम करना मुश्किल है। वही निर्णय होते हैं जो जीवन को बना देते हैं, वही निर्णय होते हैं जो भीतर से तुम्हारा निर्माण कर देते हैं। स्थितियाँ आसान हों, अनुकूल हों तो फिर तो सबकुछ हो जाता है। तिनका भी तेज़ प्रवाह में बड़ी गति पकड़ लेता है।

आदमी बनते हो तुम, जानवर से हटकर के जब तुम प्रतिकूलता, विरोध और दुख के होते हुए भी एक हल्की मुस्कुराहट के साथ खड़े हुए हो। तुम्हारी हस्ती, तुम्हारा रेशा-रेशा तुमसे कह रहा है, ‘छोड़ दो न, क्या रखा है, आज घुटने टेक दो, आज माफ़ी माँग लो, आज पीछे हट जाओ।’ और तुम कह रहे हो, ‘न! मज़ा आ रहा है।’ सिर्फ़ यही मज़ा असली है।

बाक़ी वो जो लीचड़ मज़े होते हैं, छोटा पेग, बड़ा पेग, ठीक है। मैं पेग को मना नहीं कर रहा हूँ, तुम पी लेना, लेकिन उससे जो तुम चाहते हो वो नहीं मिलेगा। ठीक है? पेग मैंने भी खूब पिये हैं। उससे इंसान नहीं बन जाओगे, बेहोश हो सकते हो। बेहोशी इंसान होने का नाम नहीं होती।

प्र: एक शिकायत है आचार्य जी आपसे। आप पंजाबियों को बहुत स्टीरियोटाइप (रूढ़िबद्ध) करते हैं, 'मौज़ा-ही-मौज़ा, कि हाल-चाल।' मैं पंजाब से ही हूँ।

आचार्य: ये बहुत अच्छा मुद्दा उठाया है। मैं पंजाबियों को नहीं, मैं उनकी बात कर रहा हूँ जिन्होंने पंजाब का इस्तेमाल करके देश भर में एक अपसंस्कृति फैला दी है। और ये पंजाब के साथ भी अन्याय किया गया है। पंजाबियों को मोहरे की तरह इस्तेमाल करके देश भर में एक ग़लत संस्कृति फैलायी गयी है और ये काम बॉलीवुड ने करा है।

जहाँ कहीं भी कुछ ऐसा दिखाना है जिसमें कोई गहराई नहीं, जिसमें सिर्फ़ विलासिता-ही-विलासिता है, भोग-ही-भोग है, कंज़्युमरिज़्म, वहाँ पर जो चरित्र, जो कैरेक्टर उठाया जाता है, वो हमेशा कौन होता है? कोई पंजाबी उठा लेंगे, वो भी ख़ासकर पंजाबी एनआरआई (प्रवासी भारतीय)। कनाडा, समझते ही हो।

उसका नतीजा क्या निकला है? पूरे देश की संस्कृति तो ख़राब हुई ही है, पंजाबी युवक का क्या हाल हुआ है? पंजाब का उड़ता पंजाब बना न। तो इसमें पंजाब का दोष नहीं है। पंजाब तो मेरे लिए गुरुओं की भूमि है। पंजाब के लिए तो मेरे मन में बहुत-बहुत सम्मान है। और मैं जो बात कह रहा हूँ उससे सारे असली पंजाबी सहमत होंगे कि बॉलीवुड के कुछ लोगों ने पंजाब के नाम का बहुत भद्दा इस्तेमाल किया है।

शुरुआत शायद इसकी हुई थी दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे, वहाँ से और उसके बाद से बात बढ़ती ही गयी, बढ़ती ही गयी। आज हालत ये है कि ड्रग्स (नशीलें पदार्थ) का कोई गाना हो वो पंजाबी में होगा और पंजाबी गायक ही गा रहे होंगे। और देश भर में सबसे ज़्यादा कहाँ के नौजवान ड्रग्स के शिकार बने हैं? बड़ी गाड़ी दिखानी हो, फॉरेन (विदेशी) ब्रांड्स दिखाने हों। वो भी कौन से ब्रांड ? नासा भी एक ब्रांड होता है, नासा की नहीं बात होगी। किसकी बात होती है? वही गुची अरमानी और वो सब पंजाब में हो रहा है।

जो गुरुओं का और वीरों का प्रदेश था, उसको इन लोगों ने भोग की धरती बना डाला। आज से तीन-चार दशक पहले अगर आप पंजाब की बात करते, तो आपके दिमाग में आते हट्टे-कट्टे, लम्बे-चौड़े, बलिष्ठ नौजवान जो खेतों में काम करते हैं, जो सेना में जाते हैं। आपके दिमाग में स्वर्ण मन्दिर की छवि आती। आपके दिमाग में गुरुओं की वाणी आती; जपूजी साहेब। है न? ये सब चीज़ें आतीं।

आपके दिमाग में शायद हॉकी टीम आती, जिसमें ग्यारह में से चार खिलाडी, कभी छः खिलाड़ी पंजाब के हुआ करते थे। ये सब आता, आता न? और आज पंजाब को हमने किस चीज़ का प्रतीक बना डाला है? मुझे उससे शिकायत है और बहुत ज़्यादा शिकायत है। क्योंकि मैं पंजाब को बहुत-बहुत पसन्द करता हूँ, इसलिए मुझे शिकायत है।

ये सब बातें पता है न जो अभी हो रहा है पंजाब के साथ, पंजाब की ज़मीनी हक़ीक़त जानते हो न? पंजाब की मिट्टी के साथ क्या हो गया है, पंजाब की इंडस्ट्री (उद्योग) के साथ क्या हो गया है, पंजाब के युवा के साथ क्या हो गया है, ये सब जानते तो हो न? मुझे उससे शिकायत है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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