प्रश्नकर्ता: अकेलेपन से डर क्यों लगता है?
आचार्य प्रशांत: अकेलापन हम सभी को परेशान करता है। थोड़ा-सा अकेले होते नहीं हैं कि तुरंत फेसबुक खोल लिया, फ़ोन मिला लिया। इतना ही नहीं, अगर आप किसी और को अकेला देख लेते हो तो बोलते हो, "क्या हुआ? इतना उदास क्यों हो?” जैसे कि अकेला होना उदास होने का सबूत है। अगर हॉस्टल में रहते हो और सारे दोस्त घर चले जाते हैं तो पागल हो जाते हो, भागते हो।
अकेलेपन से हमें डर इसलिए लगता है क्योंकि हमें जो कुछ भी मिला हुआ है वो दूसरों से ही मिला हुआ है।
और दूसरों से जो मिला है उसके अलावा हमने आपने-आपको कभी जाना नहीं है। तो यह दूसरे जब कुछ देर के लिए जीवन से, मन से हटते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि जीवन ही ख़त्म हो गया, क्योंकि जो पूरी तरह से अपना है उसको हमने कभी जाना ही नहीं है।
हमने सिर्फ वही जाना है जो हमें किसी और से मिला है। और हमें सब कुछ दूसरों से ही मिला है। नाम दूसरों से मिला है, मान्यताएं दूसरों से मिली हैं, धर्म दूसरों से मिला है, ज़िंदगी की परिभाषा दूसरों से मिली है। मुक्ति, सत्य, पैसा, करियर, प्रेम, विवाह, समाज—इन सबकी परिभाषा दूसरों से मिली है। इसलिए थोड़ी देर के लिए जब यह ‘दूसरे’ ज़िंदगी से दूर हो जाते हैं तब बड़ी ज़ोर से डर लगता है। लगना तो स्वाभाविक है क्योंकि अगर ये ज़िंदगी दूसरों का ही नाम है तो जब दूसरे हटते हैं तो ऐसा लगता है कि ज़िंदगी ही दूर हट गई है।
अकेलेपन से बस उसको ही डर नहीं लगेगा जिसने खुद को जाना है।
जो कहता है, 'दूसरों के अलावा भी मेरा कुछ है जो किसी ने मुझे दिया नहीं और कोई मुझसे छीन नहीं सकता,' वही नहीं डरेगा अकेलेपन से। फिर उसके लिए ‘अकेलापन’ बन जाएगा ‘कैवल्य’। और इन दोनों शब्दों में बहुत अंतर है, ज़मीन आसमान का। अब उसके लिए अकेलापन एक डरावना सपना नहीं रह जाता है, वही एकांत अब आनंद है उसका।
पर हम में से बहुत लोगों को अपने साथ समय बिताना ही पसंद नहीं होता। हमें अकेला छोड़ दिया जाए तो बहुत असहज हो जाते हैं। जिसको अपना साथ पसंद नहीं है, किसी और को उसका साथ कैसे पसंद आएगा? आप अपने साथ रहना पसंद नहीं करते, दूसरे आपके साथ रहना कैसे पसंद कर सकते हैं? आपकी हालत इतनी ख़राब है कि आप अपने साथ रहना गँवारा नहीं कर सकते, आप अपने साथ रहना बर्दाश्त नहीं कर सकते, दूसरे आपको कैसे बर्दाश्त कर लेंगे?
पहले तो आप 'कैवल्य' को पाइए। अपने साथ खुश रहना सीखिए, दूसरों पर निर्भरता घटाइए। इस अकेलेपन को कैवल्य में बदलिए। और बहुत मज़े की बात है कि जो अपने में खुश होना जान जाता है, फिर जब वह दूसरों के साथ होता है तो पूरी तरह से उनके साथ हो जाता है।
जो अकेला है, जब वह दूसरों के साथ होता है तो क्या होता है? साथ के लिए बेचैन – "बस कोई मिल जाए।" तो अब जो भी मिलेगा, मैं क्या करूँगा उसके साथ? – "मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।" और दूसरा कह रहा है, "मुझसे क्या गलती हो गई? छोड़ दे मुझे!”
अकेलेपन के कारण जो भी संबंध बनेगा वो दुःख ही देगा।
अकेलेपन से जो भी संबंध निकलेगा, वो यही होगा – "दोनों हाथों से पकड़ लो, जाने मत देना!” अब वो आपको मुक्त नहीं छोड़ सकता। और अगर वो देख लेगा कि आप किसी और के साथ हैं तो ज़बरदस्त ईर्ष्या भी होगी। यह सब अकेलेपन की बीमारियाँ हैं – मालकियत, ईर्ष्या, डर। हमारा प्रेम पूरा-पूरा अकेलेपन से ही निकलता है। यही सब होगा – "मेरे साथ जितने दोस्त थे, सबकी शादी हो गई। माँ, मेरी भी करा दो, बहुत अकेलापन लगता है।"
संबंध तो आपकी पूर्णता से बने। कैवल्य ही पूर्णता है। उससे जो संबंध बनेगा वो बहुत ख़ूबसूरत होगा। तब आप एक दूसरे के साथ इसलिए हैं क्योंकि आप आनंद में हैं, इसलिए नहीं कि आप ज़रुरतमंद हैं। मानसिक या शारीरिक ज़रुरत, यदि इन दोनों में से कोई-न-कोई ज़रुरत है तो इसमें जो भी संबंध निकलेगा, यह वही होगा – शोषण का।
एक सुन्दर संबंध होता है जिसमें अकेलेपन में भी हम खुश थे, अकेलेपन में तुम भी खुश थे, और जब साथ हैं तो यही खुशी बाँट रहे हैं। साथ इसलिए नहीं है कि अकेले होने में दुख है, साथ इसलिए हैं क्योंकि खुश हैं। साथ होकर खुश नहीं हैं, साथ इसलिए हैं क्योंकि पहले से ही खुश हैं।
पर हम क्या कहते हैं? – "साथ होंगे तभी खुश होंगे।" यह अकेलेपन की निशानी है।
असली साथ वो है जिसमें हम खुश हैं इसलिए साथ हैं।