प्रश्नकर्ता: गुरुवर, मेरे जीवन में सदा एक डर और बेचैनी कायम रहती है। तो मैं नौकरी करता हूँ इंदौर में। मेरे माता-पिता कहते हैं कि बेतुल में आ जाओ, वो भी अच्छा जिला है। वहाँ पर भी मैं शिक्षण का कार्य कर सकता हूँ। मैं अंग्रेज़ी का शिक्षक हूँ, ट्यूशन पढ़ाता हूँ।
मैं जब अपने शहर जाता हूँ तो ये डर और बेचैनी और ज़्यादा बढ़ जाती है। ये सोचने लगता हूँ कि, वो देखेगा तो क्या बोलेगा मेरा दोस्त आगे निकल गए और मैं पीछे रह गया हूँ। कभी ऐसा लगता है कि मैं भी क्या पढ़ा रहा हूँ, अंग्रेज़ी-व्याकरण सब व्यर्थ लगने लगता है जबकि कभी उसी क्षेत्र में मैं काफी उत्साहित था। गाकर-नाचकर बड़े मज़े से पढ़ाता था। अब वही सब व्यर्थ लगने लगता है। सदा एक डर, बेचैनी, घबराहट कायम रहता है। क्या ये मिट सकता है?
आचार्य प्रशांत: अब मिटनी तो चाहिए। मिटाओगे नहीं तो… कैसा अनुभव हो रहा है?
प्र: अनुभव ये हो रहा है कि सब व्यर्थ मालूम पड़ रहा है। जैसे मैंने आपके वीडियोज़ देखे कि जबतक जीवन में सार्थक काम नहीं रहे तो ये अशांति ज़्यादा बढ़ती है, ये मैं जान पाया। सार्थक काम मेरे लिए क्या हो? कभी मेरी रुचि बढ़ जाती है उस काम में, अंग्रेज़ी पढ़ाने में, जो मेरा व्यवसाय है। अभी मुझे वो घर पर भी बुला रहे हैं। जैसे मैं वहाँ रहता हूँ, कमरे में हूँ, खुद बना रहा हूँ, दौड़-भाग करता हूँ।
जब मैं घर पर जाऊँगा तो एक सुविधा मिलेगी तो मन ये भी सोचता है कि सुविधा मिलेगी, कम्फर्ट-ज़ोन (सुविधा क्षेत्र) में जाऊँगा तो शांति बढ़ जाएगी लेकिन पहले के अनुभव ऐसे नहीं रहे हैं। वो अशांति वहाँ पर भी कायम ही रहती है। शहर बदल लिया, बहुत सारी चीज़ें बदल ली, ये बदल लिया, वो बदल लिया।
थोड़े दिन की शांति है पर जब मैं अपने जीवन का अवलोकन करता हूँ तो वो बेचैनी सदैव कायम रहती है। बेचैनी, घबराहट और डर वो नहीं मिटता। आपने कहा था कि डर के दो इलाज हैं, या तो प्रेम या फिर आत्मज्ञान। वो प्रेम भी मेरे जीवन में जागृत नहीं होता, पूरा स्वार्थी व्यक्ति हूँ। मेरे हृदय में दूसरों के लिए प्रेम उतना नहीं पनपता। मैं कविताएँ लिखता हूँ, कविताओं में बहुत प्रेम भर देता हूँ लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है।
आचार्य: चलो वहीं से शुरुआत करो जहाँ पर हो। अपनी ज़िंदगी में कुछ तो है न जो ठीक नहीं लग रहा? तभी तो मुझसे बातचीत कर रहे हो।
प्र: कुछ भी ठीक नहीं है सर।
आचर्य: अपनी ज़िन्दगी में अगर तुम्हें सबकुछ सम्यक उचित ही लगता होता तो तुमने ये सवाल तो नहीं पूछा होता। इसका मतलब तुम्हारे भीतर वो तत्व तो है ही जो कहता है कि, "कुछ ठीक नहीं है!" है न? तुम्हारे भीतर वो संवेदनशीलता तो है ही जो कहती है कि, "कहीं कुछ गड़बड़ है!" उसी से प्रेरित होकर के तुम सवाल भी पूछ रहे हो। है न? हाँ, ठीक है।
तो जहाँ भी हो, जिस स्थिति में भी हो। अपने भीतर देखो, अपने बाहर देखो। जो कुछ भी दिखाई दे चीज़ें कि बदलने योग्य हैं, होनी नहीं चाहिए पर हैं और जो भी बातें समझ में आए कि होनी चाहिए पर हैं नहीं, उनकी सेवा में जुट जाओ। यही है वो सार्थक काम। जैसे-जैसे अपने आप को तुम उचित की सेवा में लगाते जाओगे, वैसे-वैसे डरने इत्यादि के लिए समय, अवकाश ही नहीं बचेगा।
जितना तुम्हारा अंतर्जगत सूना पड़ा होगा, जितना वहाँ रिक्तता होगी, जितना वहाँ श्मशान जैसा सूनसान सन्नाटा होगा, उतना वहाँ भूत नाचेंगे। और भूत तो डराते ही हैं। समझ में आ रही है बात?
जगह मत छोड़ो। जीवन वैसे ही बहुत छोटा सा है। उसमें तुम्हारे पास इतना समय तो हो ही नहीं सकता कि खाली छोड़ दो। एक-एक पल को सार्थक उद्द्यम से भर दो। और सार्थक उद्द्यम क्या है? मैंने कहा कि निश्चित रूप से तुम खुद ही पहचान सकते हो क्योंकि तुम्हारे भीतर वो संवेदनशीलता है जो कुछ चीज़ों को नकारती है। वही संवेदनशीलता अभी मेरे सामने प्रश्न के रूप में आ रही है।
तुम कह रहे हो, "मुझे डरा रहना अच्छा नहीं लगता।" तुम कह रहे हो, "मुझे शांति की तलाश है।" तुम कह रहे हो, "मुझे नहीं अच्छा लगता कि जीवन प्रेमहीन है।" तो वो संवेदनशीलता तुममें है ही न?
प्र: अपने शहर जाने पर पुरानी स्मृतियाँ घेर लेती हैं। जैसे कि दस साल पहले यहाँ क्या होता था। पुरानी यादों में चला जाता हूँ पूरी तरह से मैं कि यहाँ ऐसा होता था, वैसा होता था। तो वैसा क्यों होता है? मतलब अपने आप को, मैं अठ्ठाइस साल का हूँ, और दस-बारह साल का अनुभव करता हूँ वहाँ जाकर।
आचार्य: तुम सड़क पर खड़े होकर के एक पुराने घर को देख रहे हो। सड़क पर खड़े हो जाओ और एक पुराने घर को देखो। और उसको देख-देखकर पुरानी यादों में डूबो कि, "जब मैं छोटा था बीस साल पहले तब यहाँ आया करता था", और ये सारी बातें। ठीक है? और ठीक तब जब यादों में डूब उतर रहे हो तभी सड़क पर ज़ोर का हॉर्न बजे। तुम्हें दिखाई दे कि एक बस तुम्हारी ओर बढ़ी चली आ रही है। तो तुम क्या करोगे?
प्र: हटेंगे, भागेंगे वहाँ से।
आचार्य: या यादों में ही डूबे रहोगे?
प्र: हटेंगे।
आचार्य: पर जबतक वो बस नहीं आई है तबतक तो तुमको अधिकार मिला हुआ है, छूट मिली हुई है कि तुम यादों में ही डूबे रहो। है न? तो यादों से क्या चीज़ बाहर निकालती है हमें तत्काल?
वर्तमान की चुनौती।
जिसने वर्तमान की चुनौती के प्रति आँखें नहीं खोली, जिसको ये पता ही नहीं है कि उसके ऊपर कौन सी बस चढ़ी आ रही है, वो यही सोचता रहेगा कि, "मेरे पास तो बड़ी छूट है, बड़ा अवकाश है, अतीत में ही लिप्त रहने के लिए।" और तुम रहे आओ अतीत में लिप्त, बस अतीत की नहीं है। बस सम्मुख है, वो रौंद कर निकल जाएगी। और कोई ऐसा नहीं होता जिसके पास वर्तमान में चुनौती न खड़ी हो। सबसे बड़ी चुनौती तो मुक्ति ही है न? कौन है जो मुक्त है? कौन है जो इस गोरख-धंधे को समझ गया है? तो सबके सामने चुनौती है कि नहीं? अगर तुम बंधन में हो तो ठीक अभी तुम्हारे सामने चुनौती है कि नहीं? क्या चुनौती है?
प्र: बंधन।
आचार्य: बंधन चुनौती है। बंधन को तोड़कर के चुनौती पानी है। इतना बड़ा काम हाथ में रखा हुआ है। इतना महत कार्य लंबित पड़ा हुआ है। और वो सबके साथ है। है न?
तुमसे पूछूँ, "तुम्हारा बहुत बड़ा काम एक शेष है", तो तुम्हें तुरंत बता देना चाहिए, "हाँ, सौ बंधन हैं जीवन में वो अभी हटने हैं। यही काम शेष है।" यही तुम्हारे साथ, यही तुम्हारे साथ, यही तुम्हारे साथ (सभी की ओर एक-एक करके इशारा करते हुए)। हम सबके साथ ऐसा ही है न? जब इतना बड़ा काम अभी शेष पड़ा हुआ है तो मैं पूछ रहा हूँ कि तुम कहाँ से वक्त निकाल लेते हो अतीत के लिए? बस तुम्हारे ऊपर चढ़ने को चली आ रही है। कूद के भागने के लिए भी समय कम है। और तुमने समय निकाल लिया...
प्र: अतीत की यादों के लिए।
आचार्य: पुरानी-रूमानी यादों के लिए। "आहाहाहा, मैं छोटा सा बच्चा था, वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी!" अरे, न कागज़ की कश्ती है, न बारिश का पानी है, बस है।
अतीत में तो वही डूबा रह सकता है जो वर्तमान के प्रति बिलकुल ही बेहोश हो। जिसको दिखाई ही न देता हो कि जीवन की वास्तविक चुनौतियाँ क्या हैं। मेरे सामने आप खड़े हैं, आप अभी मुझसे प्रश्न कर रहे हैं। मैंने कल भी कहीं पर सत्र किया था, परसों भी कहीं पर सत्र किया था। मैं आपके प्रश्नों का उत्तर दूँ या परसों-नरसों, हफ्ता भर पहले या महीना भर पहले मुझसे जो प्रश्न पूछे गए थे मैं अभी उनमें उलझा रहूँ? जल्दी बोलिए।
श्रोतागण: आज का।
आचार्य: आप मेरे सामने खड़े हैं, आप धर्म हैं मेरा। इस वक़्त क्या मैं ज़रा भी याद रख सकता हूँ कि कल क्या हुआ था और परसों क्या बात थी? बोलो। अक्सर तो ये होता है कि आप लोग मुझे याद दिलाते हैं कि, "आचार्य जी आपने फ़लाने सत्र में ऐसा-ऐसा कहा था", तो मुझे असुविधा हो जाती है क्योंकि मुझे याद तो होता नहीं कि मैंने कहाँ पर क्या कहा था। फिर आप जब बोलते हैं कि, "आचार्य जी आपने कहा था", तो फिर मुझे याद करना पड़ता है।
अब प्रश्न तो यहाँ पर कोई भी ऐसा नहीं है जो नया हो। या नया कोई प्रश्न है? यहाँ अगर गिना जाएगा तो कोई ऐसा प्रश्न नहीं पूछा जाएगा जिसका मैंने उत्तर पाँच बार या दस बार या हो सकता है पचास बार न दिया हो। लेकिन वर्तमान-वर्तमान है। वर्तमान पूजनीय है। वही सच्चाई है, जो सामने है, उसी में जीना है।
आपको कैसा लगेगा कि मैं कहूँ कि, "मैंने आज से साढ़े-तीन साल पहले इसी बात का जवाब कहीं और दिया था, रोहित ज़रा उसकी रिकार्डिंग बजा देना।" कैसा लगेगा? जो चीज़ सम्मुख है वो एक जीवंत उत्तर माँगती है न, ज़िंदा जवाब। जीवन को एक ज़िंदा जवाब दो। ज़िन्दगी के सामने ज़िंदा होकर के खड़े रहो, तो पुरानी बातें कैसे याद आएँगी तुम्हें?
मुझे बहुत हैरत होती है। मैं तो बार-बार शुरुआत ही यहीं से करता हूँ, अंत भी; समय कहाँ से निकाल लेते हो? ये जादू कैसे कर लेते हो तुम? तुम्हें समय मिलता कैसे है ये सब खुराफ़ात के लिए?
प्र: जब अपने शहर जाता हूँ तब पर…
आचार्य: अपने शहर में तुम्हें कुछ ऐसा नहीं दिखता है जो सामने खड़ा हो और करना उसे आवश्यक हो?
प्र: खाली समय काफी है।
आचार्य: तुम्हारे शहर में बस नहीं चलती?
(सभी लोग हँसते हैं)
बात नहीं समझ आ रही। हमने कहा ज़िन्दगी में सबके एक प्रत्यक्ष खड़ी है चुनौती। क्या है वो? सबने कहा...
श्रोतागण: बंधन।
आचार्य: सौ तरह के बंधन हैं। तुम अपने शहर जाते हो, तुम्हारे वहाँ कोई बंधन नहीं बचते? तुम वहाँ पूर्ण मुक्ति में होते हो कि तुम्हें बस पुरानी स्मृतियाँ ही आ जाती हैं?
प्र: ज़्यादा काम नहीं रहता।
आचार्य: काम तुम देख नहीं रहे हो बेटा। काम तो बहुत है करने को। काम इतना है करने को कि ये पूरा जन्म छोटा है उसके लिए, काम तो इतना है करने को। तुम काम के प्रति अनभिज्ञ हो, बेहोश हो। तुम ज़िम्मेदारी उठा नहीं रहे काम की इसलिए फिर तुम भुगत रहे हो।
देखो कि क्या करने योग्य है। जो कुछ भी तुम्हें शांति की ओर ले जाता है, वो करने योग्य है। जो कुछ भी तुम्हें शांति से दूर करता है, वो हटाने योग्य है। जो कुछ भी जीवन को निर्मल और शुद्ध करता है, वो करने योग्य है। जिस भी वजह से जीवन में मलिनता है, वो लड़ने योग्य है।
इतना कुछ तो है। कुछ लाना है, कुछ हटाना है।
समय है थोड़ा सा।
दुःख ही आदमी का सारा इसी में निहित है कि हम सही काम नहीं करते। चूँकि हम सही काम नहीं करते इसीलिए हमें दुखी होने के लिए खाली वक़्त बहुत मिल जाता है।
सब दुखी लोगों के साथ एक बात साझी होती है। वो अस्तित्वगत रूप से बेरोज़गार होते हैं। बात समझना। मैं व्यवसायिक रूप से उनके बेरोज़गार होने की बात नहीं कर रहा हूँ। हो सकता है वो व्यवसायिक रूप से कहीं कार्यरत हों। मकान, दुकान, दफ़्तर चलते हों। पर जो भी आदमी तुम पाओ कि दुखी बहुत है, रोता बहुत है, वो अस्तित्वगत रूप से बेरोज़गार है और अस्तित्व में तो एक ही धंधा होना चाहिए आदमी का।
अस्तित्व तुम्हें देता ही सिर्फ एक ही धंधा है। जिस दिन तुम पैदा होते हो, तुम्हारे माथे पर एक ही धंधा खुदा होता है- मुक्ति। तुमने वो धंधा अपनाया नहीं। तुमने बंधनो से समझौता कर लिया। जो रोज़गार तुमको पैदा होते ही मिला था, तुमने उस रोज़गार के साथ बेवफाई कर दी। तुम खाली बैठे हो जब तुम्हें कार्यरत होना चाहिए। और चूँकि तुम खाली बैठे हो इसलिए तुम्हारे पास दुखी होने का बहुत समय है। बेरोज़गारी अच्छी बात नहीं है। दुनिया में अगर बेरोज़गार रहोगे तो पेट नहीं चलेगा, घर नहीं चलेगा और अस्तित्वगत रूप से अगर बेरोज़गार रहोगे तो?
श्रोतागण: मुक्ति नहीं मिलेगी।
आचार्य: मुक्ति, शांति, जो कह लो। ये नहीं मिलेंगे। बेरोज़गारी बहुत बड़ी बला है। और इन दोनों तरह की बेरोज़गारीयों में से वास्तव में पूछो तो बड़ी बेरोज़गारी कौन सी है?
श्रोतागण: अस्तित्वगत।
आचार्य: अस्तित्वगत बेरोज़गारी। सदा प्रयत्नशील रहो, सदा। इसी को साधना, इसी को तपस्या कहते हैं। तुम्हारे प्रयत्नों की दिशा अगर मुक्ति है तो इसी को कहते हैं तपस्या। तपस्वी ही रहो, जीवनभर तपस्वी रहो। जीवन का और कोई प्रयोजन नहीं।
प्र: सर, थकान भी तो हो जाती है।
आचार्य: थकान तो होगी ही। खाली बैठने में नहीं होती है? ज़्यादा थकान कब होती है? ईमानदारी से बताना। बेरोज़गार हो और आराम कर रहे हो तब ज़्यादा थकान होती है? या जब किसी सार्थक उद्यम में जी-जान से डूब गए हो तब?
श्रोतागण: बैठे हैं तब। खाली हैं तब।
आचार्य: थकान दोनों में होती है, ईमानदारी की बात ये है। लेकिन ज़्यादा अखरती है बेरोज़गारी की थकान। अगर कुछ अच्छा कर रहे हो और उसमें हाड़ टूट रहा हो, थकान बहुत हो रही हो तो आदमी बाहर-बाहर से थकता है, भीतर प्रफुल्लित रहता है। होता है कि नहीं?
श्रोतागण: जी।
आचार्य: तुम्हें पता होता है कि हाथ में दर्द है, पावँ में दर्द है, सर में दर्द है, आँखे भारी हो रही हैं, नींद आ रही है। सब कुछ हो रहा है, लेकिन भीतर कुछ होता है जो आनंदित होता है।
और वो जो दूसरी थकान होती है; बैठे हैं, घड़ी को देख रहे हैं, कुछ नहीं है, भीतर अफ़साने चल रहे हैं, पुराने गाने चल रहे हैं। वो थकान तो ऐसी होती है जैसे लोहे में जंग लग रहा हो। लोहे का इस्तेमाल करो तो भी घिसता है और उसको छोड़ दो अनुपयुक्त तो भी घिसता है जंग से। बताओ किस तरीके से घिसना है तुम्हें?
सार्थकता इसी में है न कि इस्तेमाल हो हो कर घिस जाओ, बजाए इसके कि जंग लग के मरो। मरना तो है ही, कैसे मरना चाहते हो? बिस्तर पर पड़े-पड़े या शान से युद्धक्षेत्र में, खड़े और लड़े?
मेरी बात कुछ विशेष पसंद नहीं आई, क्योंकि मैं तो मेहनत का रास्ता बता देता हूँ।
(सभी लोग हँसते हैं)
मेरे पास तो एक ही समाधान होता है- मेहनत। कुछ बात आध्यात्मिक सी लगी नहीं।
"ये तो कुछ चूरन बताते, कुछ भस्म बताते, कुछ मंत्र बताते। ये तो कह रहे हैं कि मेहनत करो।" नहीं, ऐसा नहीं है। तुम समझ रहे हो, है न? बढ़िया।
प्र: आचार्य जी, जीवन बदलने का प्रयास शुरू कहाँ से करें?
आचार्य: बिलकुल जहाँ हो वहीं से। ये देख लो कि कौन सी चीज़ है जो तुम्हें बिलकुल अभी और निकट में सताती है। भई एक बात बताओ, एक आदमी को हो सकता है कि पाँच-सात अलग-अलग तरह की बीमारियाँ हों। ठीक है?
उसको एक बीमारी ये है कि उसकी नाक पर खुजली होती है। उसे एक बीमारी ये है कि उसे छींकें बहुत आती हैं। उसको एक बीमारी ये है कि उसके दाढ़ी के बाल सफ़ेद हो रहे हैं। उसको एक बीमारी ये है कि उसके घुटने में दर्द रहता है। और उसको एक बीमारी ये है कि उसको कैंसर है। अब बताओ कहाँ से शुरुआत करें?
श्रोतागण: कैंसर से।
आचार्य: जो चीज़ सबसे ज़्यादा सताती हो उसके खिलाफ खड़े हो जाओ न। यहीं से तो शुरुआत करनी है। ऐसा भी कोई है यहाँ पर जिसको ये पता ही न हो कि जीवन में क्या है जो सता रहा है? ऐसा तो कोई नहीं होगा। झूठ तो बोलो मत। सबको पता है न? पता है कि नहीं पता है?
श्रोता: आप ही सता रहे हो।
आचार्य: अरे, तुम मेरा ही इलाज कर दो।
(सभी लोग हँसते हैं)