प्रश्रनकर्ता: कल ही एक बड़ी दुखद खबर मैंने पढ़ी, और सोचा था कि आपसे ज़रूर इस विषय में प्रश्न करूँगा।
हम हैं जो क्वारंटाइन (संगरोध) हैं, और सरकार की पूरी ज़िम्मेदारी है कि हमें बचाये इस बिमारी से, और समाज में एक वर्ग है डॉक्टरों का। वो, वो डॉक्टर हैं जो दिन-रात मेहनत करके, इटली में तो पचासी-छियासी वर्ष के रिटायर डॉक्टर भी वापस आ रहे हैं। उनका साक्षात्कार हुआ, उनसे पूछा गया कि आपको डर नहीं लगा, तो उन्होंने कहा कि जब शपथ ली थी, डॉक्टर बना था, तो तभी इस डर को तो पीछे छोड़ दिया था कि हॉस्पिटल में संक्रमण से बीमार हो जाऊॅंगा।
भारत में एक खबर आयी। मैंने इसकी पुष्टि भी करी कि मकान मालिक इत्यादि जो हैं, वो जिनके यहाँ किराये पर चिकित्सक वगैरह रह रहे हैं, नर्सेज रह रहे हैं, उन्हें बेदखल कर रहे हैं इस डर से कि कहीं वो संक्रमण लेकर न आ रहे हों। इसको आप कैसे देखते हैं?
आचार्य प्रशांत: नहीं, जैसे हम हैं, वही काम कर रहे हैं हम। हम ऐसे ही हैं। हम धार्मिक शिक्षा के अभाव में एक विवेकशील सामाजिकता के अभाव में बड़े संकीर्ण और क्षुद्र स्वार्थों से प्रेरित लोग हैं। अब वही चीज़ जब इतने नाटकीय रूप से होती है कि एक डॉक्टर है जो इतने लोगों की जान बचा रहा है, और फिर वो वापस आता है तो पाता है कि उसके मकान मालिक ने उससे कहा, ‘निकल जाओ मेरे घर से, क्योंकि मुझे डर लग रहा है कि तुमसे मुझे संक्रमण लग जाएगा।’ तो फिर ये बात हमको बड़ी हैरत-अंगेज़ लगती है, दुखद लगती है, बल्कि भयावह लगती है। लेकिन ये जो मकान मालिक है वो अचानक ही तो इस तरह का व्यवहार नहीं करने लग गया न, वो व्यक्ति ही ऐसा है। याद रखिएगा, वो व्यक्ति ही ऐसा है। और वो व्यक्ति ऐसा बहुत समय से है। और वो जो ये व्यक्ति है मकान मालिक, ये समाज में एक सम्मानित व्यक्ति है भाई।
तो यही बात नहीं है कि ये मकान मालिक कैसा आदमी है। ये भी तो बात है न कि इस तरह के लोगों को सैकड़ों-हज़ारों लोग आज तक सम्मान कैसे दे रहे थे। वो लोग कैसे हैं। तो बात सिर्फ़ मकान मालिक की नहीं है, बात उस पूरे समाज की है जिसमें ऐसे मकान मालिक बैठे हुए हैं। हम सभी ऐसे ही लोग हैं। बस, हमारा ये जो कुरूप चेहरा है, हमारा ये जो विभत्स और हिंसक व्यक्तित्व है, ये छुपा-छुपा रहता है हमारे मुखौटों के पीछे। जब आपातकाल आता है तो मुखौटे उतर जाते हैं, और उसके पीछे का हमारा जो विकृत चेहरा है, और नुकीले दाॅंत हैं, और पैने पंजे हैं वो फिर सब सामने आ जाते हैं।
हमें अपने भीतर ईमानदारी से सवाल पूछना होगा, ‘हम लोग कैसे हैं?’ हम लोग कैसे हैं, वो हमें हमारे दिन भर की छोटी-छोटी गतिविधियों में दिख जाएगा। ‘ज़रा-ज़रा सी बात में अगर आप स्वार्थी होकर के चलते हो, दिल आपका बड़ा नहीं है, अपने छोटे से मुनाफ़े के लिए आप अगर किसी का बड़े-से-बड़ा नुकसान करवाने को तैयार रहते हो; दूसरे को भी आप देह की तरह देखते हो, खुद को भी बस देह भर मानते हो; अपने हर काम में, अपने हर रिश्ते में, अपने परिवार के भीतर भी आपका यही हाल है कि तू भी देह है, मैं भी देह हूँ।’ तो फिर अब हैरत की बात क्या कि आप किसी भी तरह का निकृष्ट काम कर डालो।
तो ये बिमारी तो आयी है, और मैं उम्मीद भी करता हूँ, प्रार्थना भी करता हूँ कि कुछ महीनों में, नहीं तो अगले साल तक कुछ-न-कुछ इसका मानवता इलाज निकाल ही लेगी। लेकिन ये बिमारी बाहरी है। असली बिमारी भीतर है हमारे। ये बाहरी बिमारी—अभी, अभी मैं कल-परसों आपसे ही कह रहा था कि ये बाहरी बिमारी भी हमारी आन्तरिक बिमारी ने ही पैदा करी है। और ये बाहरी बिमारी अगर हमने किसी तरीके से हटा भी दी, मिटा भी दी तो भीतर की बिमारी तो बची रहेगी न। वो भीतर की बिमारी ही इन सब किस्सों में और घटनाओं में पता चलती है। तो उस भीतर की बिमारी का इलाज बहुत ज़रुरी है। और उस भीतर की बिमारी का एक ही इलाज है—शिक्षा।
हमें दोनों तरह की शिक्षा चाहिए। हमें विज्ञान में बहुत सार्थक शिक्षा चाहिए और हमें अध्यात्म की गहरी शिक्षा चाहिए। ये दोनों चाहिए। ये दोनों होंगे तो ही हम अपनेआप को एक पूरा इंसान कह सकते हैं। और समझ से भरा हुआ, प्रेम से भरा हुआ और आनन्द से भरा हुआ एक आज़ाद जीवन जी सकते हैं, नहीं तो फिर बेकार है।
प्र: धन्यवाद, आचार्य जी। पिछले तीन दिनों में लगातार तीन बार आपने इस विषय पर मौका दिया सबको कि आपको सुन सकें। आज-ही-आज में लगभग पचास सन्देश मेरे पास आ चुके हैं, जब हमारी पिछली हिन्दी वार्ता का वीडियो अपलोड हुआ था, लोग बहुत अनुग्रह व्यक्त कर रहे हैं, और हैरान हैं एक तरीके से कि इस संक्रमण के दौरान भी आचार्य जी।
आचार्य: लोगों के सामने अब नहीं बैठ सकता, लोगों से दूरी बनाकर रखनी है। और बिलकुल सही बात है सोशल डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी) का जो कायदा है, उसकी इज़्ज़त करनी-ही-करनी है। तो इस वक्त इसीलिए आपके साथ बात करता हूँ, और वो जो बात है लोगों तक ऑनलाइन बात पहुँच जाती है।
सत्संग शब्द से कोई ये न समझे कि इस वक्त भी यहाॅं पर किसी तरह का सभा-समूह चल रहा है। जो सारी बातचीत है वो यहीं पर होती है, दो लोग आमने-सामने बैठते हैं। और जो उसका रिकार्डिंग है वो ऑनलाइन फिर पूरी दुनियाॅं तक पहुँचाया जाता है।
प्र: बहुत लोग थोड़ा घबरा गये थे कि विडियोज इत्यादि अब आऍंगे कि नहीं आऍंगे। तो उन्हें बहुत अच्छा लगा ये देखकर कि अभी भी आचार्य जी को सुनने का अवसर मिल रहा है।
आचार्य: लोगों की घबराहट बताती है कि अभी उन्हें बहुत विडियोज देखने की ज़रूरत है। जब तक मैं हूँ तब तक तो विडियोज आऍंगे ही, जब नहीं भी रहूँगा तो भी विडियोज आपके लिए उपलब्ध ही हैं, वो कहाँ जा रहे हैं।