ऐसा इंसान सबको दुख ही देगा, सावधान! || आचार्य प्रशांत कार्यशाला (2023)

Acharya Prashant

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ऐसा इंसान सबको दुख ही देगा, सावधान! || आचार्य प्रशांत कार्यशाला (2023)

प्रश्नकर्त्ता: सर, ज़िन्दगी में मेरे दुश्मन बहुत रहे हैं। उन्होंने मेरा नुक़सान भी बहुत किया है लेकिन मुझे उनसे कभी बहुत ज़्यादा बुरा नहीं लगा। मुझे ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा जिनसे तकलीफ़ मिली है, जिनसे मुझे सबसे ज़्यादा बुरा लगा है, वो मेरे अपने रहे हैं; कुछ मेरे दोस्त और कुछ वो लोग जिनसे मेरा बहुत दिल का रिश्ता रहा है। मुझे सबसे ज़्यादा तकनीफ़ तो अपनों से ही हुई है, दुश्मन तो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाया आज तक।

मैं आपसे यह जानना चाहता था कि हम कहते हैं कि दूसरों को तकलीफ़ या नुक़सान या चोट नहीं देनी चाहिए। तो हम कहते हैं कि हिंसा नहीं करनी चाहिए। लेकिन हम दूसरों को तो क्या नुक़सान देते हैं, जब सबसे ज़्यादा नुक़सान तो हम अपने को ही देते हैं। तो मुझे आप थोड़ा बताएँगें कि यह हिंसा क्या होती है?

मतलब कि किसी को मार देना या किसी का सामान लूट लेना यही सब हिंसा होती है या हिंसा कुछ और भी हो सकती है?

आचार्य प्रशांत: ‘हिंसा है क्या?’ पहले समझेंगे। देखो, जब हम मन से सम्बन्धित किसी सूक्ष्म बात को समझते नहीं है तो हम उसके स्थूल प्रतीकों पर मजबूरन आश्रित हो जाते हैं। हिंसा मन की एक अवस्था होती है; पर वो मन की कैसी अवस्था होती है? किस कारण से होती है? कहाँ से उठती है? यह हम नहीं जानते, क्योंकि हम मन को नहीं जानते। मन को जानने को क्या बोलते हैं? आत्मज्ञान। आत्मज्ञान है नहीं तो अहिंसा भी क्या है और हिंसा भी क्या है, हम दोनों को ही जानते नहीं हैं। आत्मज्ञान मतलब जो भीतर तुम्हारे सूक्ष्म घटनाएँ घटती रहती हैं, उनका अवलोकन करना; माने उनको देखना और उनके स्रोत तक पहुँचने की कोशिश करना। ठीक है? यह होता है आत्मज्ञान।

तो यह हिंसा-अहिंसा हैं तो अंदरूनी ही चीज़ें; मन की हैं, इनका पता वास्तव में हमें आत्मज्ञान से ही चल सकता है। आत्मज्ञान हमको है नहीं तो हिंसा की परिभाषा के लिए हमको मजबूरन आश्रित हो जाना पड़ता है स्थूल गतिविधियों पर।

किसी ने किसी को थप्पड़ मार दिया, हम बोल देते हैं, ‘ये हिंसा है’। किसी ने किसी को (थप्पड़ मार दिया), हम बोल देते हैं, ‘ये हिंसा है’। और मन में क्या चल रहा है? मन में अन्धेरा कितना है? रोशनी कितनी है? इस बात को जानने की न कोई विधि होती है और इस बात को बहुत ज़्यादा महत्व न समाज देता है, न कानून देता है। आप किसी को थप्पड़ मार दें, कानून आपको अपराधी बताएगा। आप लेकिन किसी की हत्या का विचार कर रहे हों तो आप अपराधी नहीं हुए। थप्पड़ मार भर दिया तो आप अपराधी हो गये और हत्या का भी विचार कर लिया तो आप अपराधी (नहीं हैं)। तो ऐसे हमारा कार्यक्रम चलता है सब।

क्यों? क्योंकि जो सूक्ष्म है भीतर, जो सटल (अत्यन्त गूढ़)) है भीतर; उसमें जाने की हमको न कोई शिक्षा मिली है, न प्रेरणा मिली है, न हमारा कोई अभ्यास है, न हमारी नीयत रहती है। ठीक है न? और भीतर ही जाने को क्या कहते हैं? फिर से बोलिएगा!

श्रोता : आत्मज्ञान।

आचार्य: और भीतर जाने का मतलब क्या ऐसा होता है कि भीतर कोई दिव्यलोक है, जहाँ रोशनियाँ हैं, घंटे-घड़ियाल बज रहे हैं और दिव्य भीतर छवियाँ हैं, उनके दर्शन करना? ये सब होता है, भीतर जाना? तो भीतर जाने का क्या अर्थ है? विचार को जानना, भाव को जानना, सम्बन्धों को जानना, अपनी पहचान को जानना। भीतर अगर शोर मच रहा है तो वो शोर कौन कर रहा है, किसलिए कर रहा है; इन सब बातों को ईमानदारी से पहचानना; पहचान गये तो स्वीकारना। यह आत्मज्ञान होता है। स्पष्ट है न ये?

तो बात अध्यात्म में बहुत होती है, ‘अपने भीतर जाओ! अपने भीतर जाओ! अपने भीतर जाओ!’; तो उसमें आप फँस तो नहीं जाएँगे न कि अपने भीतर जाने का मतलब है कि भीतर कोई अलग लोक है, जिसमें प्रवेश करो तो वहाँ ऐसा-ऐसा होता है और यह सब। ये सब तो कुछ नहीं है न आपके मन में?

श्रोतागण: नहीं है।

आचार्य: अभी नहीं है, वैसे रहता है। (मन्द मुस्कुराते हुए) तो अब इसको आने मत दीजिएगा दोबारा। इसको आने मत दीजिएगा। तो भीतर ऐसा कुछ नहीं है कि आपको किसी अनूठे लोक या दरबार के, किसी चीज़ के दर्शन-वर्शन होने वाले हैं। भीतर कुछ नहीं है, भीतर आप ही हैं। और बाहर तो हम फिर भी साफ़ हैं, भीतर सिर्फ़ और सिर्फ़ कचरा है। एक आदमी नहाता है तो क्या करता है? हाथ-पाँव साफ़ करता है। मन कौन साफ़ करता है! तो फिर जानने वालों को इतना बोलना पड़ा कि—

क्यूँ पानी से मल मल नहाये मन की मैल छुड़ा ओ प्राणी।

वो क्यों बोलना पड़ा? भीतर गन्दगी ही गन्दगी है। लेकिन हमने नहीं देखा कि कोई बोले कि मैं अपने भीतर गया और वहाँ दुनिया भर का सड़ा हुआ कचरा पड़ा हुआ था। सुना है ऐसा कभी? जितने ध्यानी लोग वगैरह होते हैं, जो बीसों साल से बता रहे हैं कि हम तो आँखें बन्द करके अपने भीतर प्रवेश करते हैं। उन्होंने कभी बोला कि भीतर गये और बीमारी लग गयी, इतना कचरा था? उनको तो भीतर घुसते हैं तो उनको तत्काल घंटियाँ सुनाई देती हैं और अनुपम प्रकार के प्रकाश दिखाई देते हैं और इधर से एक रोशनी आ रही है, उधर से वो आ रही है।

और सबको अपनी-अपनी धारणाओं के अनुसार और भी आवाज़ें, ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। कोई मुसलमान है, वो भीतर जाता है, वो कहता है, ‘आयतें सुनाई दीं।’ ठीक है? कोई क्रिश्चियन (ईसाई) है, वो भीतर जाएगा, उसे कैरोल (ईसाई भजन) सुनाई दे जाते हैं। हिन्दू भीतर जाएगा तो उसको भजन ही भजन हैं और भजन भी किस भाषा में हैं, वो इसपर निर्भर करता है कि उत्तर भारत का है कि दक्षिण भारत का है।

हक़ीक़त ये है कि जो अपने भीतर जाएगा, भौचक्का रह जाएगा। गन्दगी और कचरे के अलावा भीतर कुछ नहीं होता और उसी की सफ़ाई करने का नाम अध्यात्म होता है। ये जो बाहर भी सफ़ाई की जो हमारी इतनी ललक होती है, कई बार वो सिर्फ़ इसलिए होती है ताकि भीतर सफ़ाई न करनी पड़े। क्योंकि ये तो जीवन कहीं न कहीं से बता ही रहा होता है कि कुछ गन्दा है, कुछ गन्दा है, कुछ गन्दा है। तो हम कहते हैं कि जो कुछ गन्दा है, वो हम मान लेंगे कि बाहर है। तो बाहर साफ़ कर देते हैं, चलाते हैं स्वच्छता अभियान। और गन् दगी जो है, वो सारी है कहाँ? (भीतर)। समझ में आ रही है बात?

तो हिंसा-अहिंसा।

हिंसा क्या है? मूल द्वैत ही हिंसा है। मूल द्वैत ही हिंसा है। द्वैत क्या बोलता है? मैं हूँ, संसार है और मैं कैसा हूँ? मैं छोटू हूँ, अतृप्त हूँ, अपूर्ण हूँ, परेशान हूँ, बीमार हूँ। तरह-तरह की दिक्क़तें हैं मेरे साथ। मैं ऐसा हूँ। ठीक है न? और ये जो संसार है, ये क्या है? ये संसार जो है, ये एक अवसर भी है और ख़तरा भी है। ख़तरा ये है कि जो थोड़ी बहुत मेरे पास कुछ है भी शान्ति, तृप्ति; यहाँ जो भी लगता है मेरे पास है, कहीं ये मुझसे छीन न ले।

संसार में दोनों तरह की चीज़ें होती हैं न! जो हैं आपके पास, वो छिन भी जाता है। मान लीजिए, रुपया है तो कल क्या हो सकता है? कि आज आपके पास इतना रुपया है, कल कम हो जाए और दूसरी चीज़ भी हो सकती है कि आपने पासे अगर ज़रा सही फेंके हैं तो आपके पास जितना रुपया है, वो आप कल बढ़ा लो। छिनेगा तो कौन ले गया? (संसार)। और मिला भी तो कहाँ से आया? (संसार से)। तो ये जो छोटू होता है द्वैत में, जो अपनेआप को संसार से अलग देखता है; इसकी फिर संसार के प्रति दृष्टि क्या होगी? संसार कैसा है?

मान लीजिए, आपके सामने कुछ है जो आपसे चीज़ें छीन भी सकता है और आप भी उससे चीज़ें छीन सकते हों, उससे आपका क्या रिश्ता रहेगा? उस रिश्ते के लिए कुछ नाम तो बताइए न! रिश्ता क्या कहलाता है? आपके सामने कोई है। ठीक? और रिश्ता ये है आपके साथ कि वो भी आपसे कुछ छीन सकता है और आप भी उससे कुछ छीन सकते हो। तो इस रिश्ते के लिए कुछ नाम तो दीजिए। एक-एक करके दीजिए। (श्रोताओं से पूछते हुए)

लालच, डर, स्वार्थ, अविश्वास, धोखा और शक, संशय—पतानहीं अगली चाल वो कौन सी चलने वाला है और कपट, क्योंकि मुझे भी उस पर चाल चलनी है। डर।

ये हिंसा है। ये हिंसा है। दुनिया से अपूर्णता का सम्बन्ध बनाना ही हिंसा है। ये हिंसा है और वो हिंसा उठती है भीतरी अज्ञान से, जहाँ आप अपनेआप को अहम् माने बैठे हो। अब ब्रह्म अपनेआप को जानते ही नहीं न! और अहम् जो अपनेआप को मानेगा, उसकी मजबूरी हो जाएगी दुनिया से छल, कपट, शक, धोखाधड़ी, नोशंशंशंैच-खसोंट का रिश्ता ही बनाना पड़ेगा उसको। और कोई रिश्ता नहीं हो सकता।

दुनिया के सामने हम कभी भेड़िये होते हैं, कभी मेमने। जब हम दुनिया को लूट सकते हैं, तब हम होते हैं (भेड़िये) और जब दुनिया हम पर चढ़ी आ रही होती है, तब हम होते हैं (मेमने)। उसके अलावा हमारा दुनिया से कोई रिश्ता होता ही नहीं। या तो हम उसको लूटेंगे या तो वो हमें लूटेगा। यही चलता है न? और ये चीज़ ऐसा नहीं कि सिर्फ़ राजनीति में, कारोबार में, व्यापार में चलती हो; ये चीज़ तो घर-बार में भी चलती है, सम्बन्धों में भी चलती है। मुझे उससे मिलने क्या वाला है? थोड़ा साहस दिखाइएगा। देखिए, और कहीं दिखाते हों, न दिखाते हों। ये जगह इसलिए है कि यहाँ हम थोड़े ईमानदार हो सकें। ठीक है? कुछ परतें खुलने दीजिए।

आप जिनको कहते भी हैं कि आपके बहुत घनिष्ठ हैं, आपने क्या उनको ये देखे बिना चुना था कि उनसे क्या मिलेगा? बोलिए जल्दी! और बच्चों को भी माँ-बाप से कुछ नहीं मिल रहा होता तो उनको एक तरफ़ कर देते हैं। और माँ-बाप के भी तीन हों बच्चे, उसमें से एक निकल जाए एकदम नकारा और मान लीजिए, वो पगला सा ही निकल गया; उसको एक तरफ़ कर देते हैं। हाँ या न? तो हम क्या कोई भी रिश्ता बनाते हैं जगत के साथ बिना उसमें स्वार्थ की सम्भावना देखे? बोलिए जल्दी!

आप शादियों वगैरह के विज्ञापन डालते हो, उसमें पाँच शर्तें पहले लिख देते हो, नहीं लिख देते हो? कि ये आना चाहिए, ऐसा होना चाहिए, इतना कमाना चाहिए, ‘जावा’ (एक सङ्गणकीय भाषा) आनी चाहिए। (श्रोतागण हँसते हैं।) ये सब लिख देते हो न पहले? लिखते हो कि नहीं लिखते हो? और उसको न आता हो तो? अच्छा कोई फ़र्जी ‘डिग्रियाँ’ (स्नातक प्रमाण पत्र) दिखाकर आपसे शादी कर ले, आप तलाक़ लोगे कि नहीं लोगे? डिग्री अगर नक़ली है तो इसका मतलब आने वाले इसका जो पूरा कैश फ्लो (धन प्रवाह) है, वही डाउटफ़ुल (संशयग्रस्त) हो गया। नहीं हो गया? कुछ पता नहीं क्या होने वाला है इसका। हाँ कि न? ये हिंसा है।

अज्ञानी मन जो करे, वही हिंसा है।

तो हिंसा इसमें नहीं कि थप्पड़ मार दिया और अहिंसा इसमें नहीं कि थप्पड़ खाकर दूसरा गाल दिखा दिया। किसी को थप्पड़ मारने में हिंसा नहीं होती और थप्पड़ खाकर किसी को दूसरा गाल दिखा दिया कि और मार दो तो इसमें अहिंसा नहीं होती। ये दोनों ही बेतुकी बातें हैं। तो अहिंसा कोई बोले तो ये सब नहीं सोचना है कि मारपीट, खून-खच्चर। फिर ये देखकर जब आप स्थूल परिभाषा पकड़ लेते हो हिंसा की तो आप कहने लग जाते हो कि कृष्ण हिंसक थे क्योंकि उन्होंने महाभारत में युद्ध करवा दिया।

भाई, हिंसा माने अज्ञान; और अहिंसा माने आत्मज्ञान। और कुछ नहीं। कुछ नहीं।

तो कृष्ण अगर वहाँ कुरुक्षेत्र में ज्ञान दे रहे हैं तो कृष्ण से बड़ा अहिंसक कोई हो सकता है क्या? बोलिए जल्दी! हिंसा की परिभाषा भूलेंगे तो नहीं?

अज्ञान ही हिंसा है और आत्मज्ञान ही अहिंसा है।

और कुछ नहीं होता। तो ये थप्पड़ मारना, घूँसा मारना, गाली देना; इसका हिंसा से कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। हालाँकि सम्भावना है। सम्भावना ज़्यादा यही है कि जो जितना अज्ञानी होगा; जो जितना अज्ञानी होगा, वो उतना ज़्यादा खून-खच्चर में विश्वास रखेगा, वो उतना ज़्यादा गाली-गलौज में विश्वास रखेगा।

तो अगर कोई, मैं ये नहीं कह रहा कि अगर कोई आपको रक्तपात करता दिखे तो इसका मतलब ये है कि वो हिंसक नहीं है। सम्भावना यही है कि अगर रक्तपात कर रहा है तो अज्ञानी भी होगा। वो हिंसक हो गया, इस कारण नहीं कि उसने रक्तपात किया; इस कारण कि रक्तपात का सम्बन्ध अज्ञान से है। समझ रहे हैं बात को?

तो कोई किसी का खून बहा रहा है, इस कारण वो हिंसक नहीं हो गया। पर सम्भावना ये है कि वो हिंसक ही होगा। क्योंकि अगर वो ज्ञानी होता तो कम सम्भावना होती कि खून बहाता। पर ज्ञान में भी खून बहाया जा सकता है, जैसा कि महाभारत में हुआ है। कुरुक्षेत्र में खून बहा है, कब बहा है? जब ये अट्ठारह अध्यायों का आत्मज्ञान अर्जुन को दे दिया गया है, तब खून बहा है। तो खून बहना कोई आवश्यक लक्षण नहीं है, अनिवार्य लक्षण नहीं है हिंसा का। कई बार खून न बहाने में बड़ी हिंसा हो सकती है।

कई बार खून न बहाने में बड़ी हिंसा हो सकती है। उदाहरण दिये देता हूँ—

‘अज्ञान के कारण मैं अपनेआप को देही समझता हूँ। अज्ञान के कारण में अपनेआप को देही समझता हूँ और देह को बहुत महत्व देता हूँ क्योंकि अज्ञान बहुत है मुझमें और इसीलिए देह को बचाने के लिए मैं खून बहाऊँगा ही नहीं दूसरे का। दूसरे का खून बहेगा तो मेरा भी तो बह सकता है; तो अज्ञान के कारण मैं खून नहीं बहा रहा।’

अब ये हिंसा है कि अहिंसा है? अज्ञान के कारण, देहभाव के कारण मैं खून नहीं बहा रहा। ज़्यादातर लोग जो खून नहीं बहाते, वो इसीलिए नहीं बहाते क्योंकि उन्हें डर होता है कि उनका भी बह न जाए कहीं। तो अज्ञान और देहभाव के कारण मैं खून नहीं बहा रहा, कहिए हिंसा है कि अहिंसा? ये हिंसा है।

तो कई बार जहाँ दिखाई दे कि लोग मुस्कुरा रहे हैं, गले मिल रहे हैं, वो सबकुछ हो सकता है कि उसमें घोर हिंसा हो, बिलकुल हो सकता है कि बहुत मुस्कुराहटों से लोग मिल रहे हैं एक-दूसरे से, घोर हिंसा हो सकती है उसमें।

और ये भी हो सकता है कि जहाँ वास्तव में सत्य के लिए लड़ाई लड़ी जा रही हो और खून बह रहा हो, वहाँ कोई हिंसा न हो।

तो सिर्फ़ इसलिए कि कोई किसी से लड़ बैठता है, उसको हिंसक नहीं कह सकते और सिर्फ़ इसलिए कि लोग ज़िन्दगी भर किसी से लड़ा ही नहीं, उसको अहिंसक नहीं कह सकते।

फिर बोलिए! हिंसा माने? (अज्ञान)। और कोई बोले अहिंसा बड़ी बात है तो उसने बिलकुल ठीक बोला। लेकिन अहिंसा बड़ी बात तभी है, जब अहिंसा माने आत्मज्ञान। आत्मज्ञान के बिना अहिंसा नहीं हो सकती। किसी की आत्मज्ञान में कोई रुचि ही न हो और बोले, ‘मैं तो अहिंसक आदमी हूँ। गाँधीवादी हूँ।’ पगला है। तुमने स्वयं को जाना नहीं, तुम अहिंसक हो कैसे जाओगे? सिर्फ़ किसी मत का, विचारधारा का पालन करने से कोई अहिंसक नहीं हो सकता।

तो दिखावे पर न जाएँ। मुस्कराते चेहरों में बड़ी हिंसा हो सकती है, अधिकांशतया होती है। मीठी बातों में बडी हिंसा हो सकती है, अधिकांशतया होती है और अगर आप ऋषियों-संतो के पास जाएँगे तो पाएँगे कि उन्होंने बड़ी कड़वी बातें करी हैं, बड़ी कड़वी बातें करी हैं। आप कबीर साहब के पास जाएँ, वहाँ वो किन-किन शब्दों में नहीं लताड़ते लोगों को! आप गुरुग्रन्थ साहिब के पास जाएँ, वहाँ पर पापियों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, ‘असंख्य चोर हरामखोर’; ये प्रेम का प्रदर्शन है, ये अहिंसा है।

कोई आपका शुभचिन्तक अपने पूरे ज्ञान के साथ, अपनी पूरी गुरुता के साथ जब आपसे ये कहता है न कि ये जितने भी बैठे हैं, सब चोर हैं; असंख्य चोर, हरामखोर; तो वो हिंसा नहीं कर रहा है, वो करुणा कर रहा है। समझ में आ रही है बात?

कहते हैं, ‘लेकिन वो तो “ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए।” आप बोल रहे हो, कबीर साहब ने सबको लतियाया था, दुत्कारा था। पर उनने ये भी बोला था न!’

उन्होंने क्या बोला था? क्या खोए? (मन का आपा खोए)। ये आपा क्या चीज़ होती है? ये आपा क्या चीज़ होती है? अहंकार। मन का आपा—आप, मैं, मैं-भाव, आपा। तो ऐसे शब्द बोलो जो सामने वाले के अहंकार को गिराते हों। उन्होंने चिकने-चुपड़े वचन बोलने के लिए थोड़े ही कहा है। उन्होंने कहा है, वो बात बोलो, जिससे सामने वाले को थोड़ी बुद्धि आती हो, मन में थोड़ी शुद्धि होती हो।

“औरन को शीतल करे आपहुँ शीतल होय।” ये शीतलता क्या होती है? वो तब समझ में आएगा, जब वेदान्त पढ़ा हो। जहाँ कृष्ण बोलते हैं, विगतज्वर हो जाओ। और ज्वर माने ताप। और कबीर साहब बात कर रहे हैं शीतलता की। सीधा सम्बन्ध है वहाँ पर। और ज्वर कहाँ से आता है? जब अहम् प्रकृति से एक हो जाता है तो ताप उठता है भारी। ठीक वैसे, जैसे जब आप किसी को वासना की दृष्टि से देखते हैं तो पाया है, शरीर गर्म हो जाता है? जब अहम् प्रकृति से लिप्त होता है तो उत्तेजना, ताप उठता है। विगतज्वर होने का मतलब है, प्रकृति से बहुत लेना-देना नहीं। ये शीतलता होती है।

शीतलता ये नहीं होती कि ऐसी मीठी बात बोल दी कि वह फूल गया। ‘आरा-रा-रा… तुम्हीं तो हो।’ वो बोल रही हैं साहब को कि तुम सात देशों के बादशाह हो और वो उनको बोल रहे हैं कि तुम, तुम सौ लोकों की रानी हो, रूप की रानी हो। अब यही देखो, यही तो समझाया था सन्तों ने, “औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए।”

दोनों शीतल हो गये। साहब-बीबी दोनों शीतल हो गये एकदम। वो बादशाह हो गये, वो बेगम हो गयीं, मल्लिका हो गयीं; अब क्या दिक्क़त है?

तो ये होता है जब हम स्थूल जीवन जी रहे होते हैं और ग्रन्थों के और गुरुओं के वचनों का भी स्थूल अर्थ कर लेते हैं। वहाँ कुछ स्थूल नहीं है, वहाँ बात सिर्फ़ मन की होती हैं। कल भी कहा था, कोई अगर आपको सूत्र मिले, बात मिले या कोई धार्मिक कथा मिले, जिसमें इन तीन के अलावा अगर कुछ भी और हो तो जान लीजिए कि बात धार्मिक नहीं है। कौन से तीन? अहम्, आत्मा, प्रकृति।

अगर कोई कथा आपके पास आती है और कहा जाता है, ये धार्मिक कथा है तो आप पूछिए, इसमें ये तीन हैं क्या? यही तीन होने चाहिए, कोई चौथा नहीं और इन तीनों में कोई एक कम भी नहीं होना चाहिए। ये तीन हों और कोई चौथा न हो, ये शर्त होती है किसी कथा के धार्मिक कहलाने की अन्यथा वो कथा धार्मिक नहीं है। फिर वो कथा नहीं है, फिर वो किस्सा है, कहानी है। कथा नहीं है फिर वो।

हिंसा,अहिंसा का मामला कुछ खुला? इसमें अभ्यास वाली बात मैंने नहीं सम्बोधित करी है, वो स्पष्ट हो गयी अपनेआप ही या उसमें भी कुछ बोलें?

मेरा सूत्र बढ़िया है, इतना सारा बोल दो कि विकल्प ही न बचे। बोलें, ‘नहीं साहब, आ गया समझ में, माफ करो।’ (श्रोतागण हँसते हुए)। ये मैंने स्कूल से सीखा था। जिस क्वैश्चन (प्रश्न) का आन्सर (उत्तर) नहीं आता हो, वहाँ इतना बड़ा आन्सर लिख दो। उसमें कहीं न कहीं, कुछ न कुछ तो होगा उत्तर जैसा। तो कुछ नम्बर (अंक) मिल जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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